
इस कदर प्यार है – 13
मौसी जी का सारा का सारा ध्यान नीमा की देखभाल पर था वे हर तरह से उसका ख्याल रखे थी और कुछ दिन में ही उसका अच्छा परिणाम भी दिखने लगा था, अब नीमा सहारा लेकर कमरे में चल लेती थी| वे उसके पैरों की मालिश करवाती, उसके खाने पीने का ख्याल भी रखती जिससे अब उसका शारीरिक ढांचा भी कुछ ठीक होने लगा था| अब कुछ कुछ मांगना या कहना होता तो नीमा उनसे कह लेती पर अधिकतर समय वह अपने को एक ही कमरे में समेटी खिड़की के पास बैठी रहती और दूर तक सूने रास्ते को निहारती रहती मानों किसी के इंतजार में उसकी ऑंखें बिछी हो…जाने उसके बेचैन मन को किसका इंतजार था !!
“नीमा ये देखो – ये तब की तस्वीर है जब गीता, मैं और उसकी सहेली मुंबई गई थी – तब पहली बार हमने समुद्र देखा था |” मौसी जी नीमा के सामने कोई पुरानी एल्बम खोले अतिउत्साह से उसे बताती जा रही थी| नीमा भी उन तस्वीरों पर नज़रे गड़ाए जैसे कही खो गई थी|
“कॉलेज की ओर से गई थी हम – हम तीनों देखो एक सी चोटी किए समुद्र की ओर देख रही थी तभी किसी विदेशी फोटोग्राफर ने हमारी तस्वीर खींच ली – बोला बहुत सुन्दर लग रही है आप तीनों और उसने वादा किया कि वह अपने देश पहुंचकर तस्वीर भेजेगा और यही तस्वीर भेजी उसने – अच्छी है न – |”
अबकी नीमा के होंठों के किनारे भी हलकी मुस्कान से फ़ैल गए|
“गीता थी भी तो बहुत सुन्दर तभी तो सुरेश कितना पीछे पड़ा रहा पूरे कॉलेज के टाइम भर बस तुम्हारी माँ को निहारता – सब कुछ अच्छा चल रहा था पर होनी आखिर किसने रोकी |” एक गहरा उच्छवास छोड़ती वे लापरवाही में एल्बम के पन्ने पलटती हुई कहती रही – “सुरेश ने जाने किस बात की सजा दी तुम्हे बल्कि गीता के जाने के बाद तो और ख्याल रखना था – चलो छोड़ो अब ये सब कहने सुनने का कोई फायदा नही|” वे पन्ने पलटती रही और सर नीचे झुकाए नीमा की आँखों से कोई बूंद टपकती उसकी हथेली में गुम होती गई|
आज मौसी यादों की पोटली से नीमा की कविता की डायरी निकाल लाई थी, उसे खोले वे उसके पास बैठी कह रही थी – “आज तुम्हारे घर गई थी तुम्हारा कुछ सामान लाने तो देखो तुम्हारी डायरी भी ले आई – इसी में कविता लिखती थी न !”
वे डायरी उसकी ओर सरका कर नीमा की प्रतिक्रिया देखती रही जो उसी तेजी से डायरी अपनी ओर लेती उसके पन्ने दर पन्ने पलट रही थी|
“याद आया न – इस डायरी के लिए कितनी डांट खाती थी गीता से – जब देखो डायरी तुम्हारी उँगलियों के बीच फंसी रहती |” कहती हुई मौसी कसकर हँस पड़ी – “डायरी लिए लिए सारा घर का काम भी कर लेती |”
मौसी देखती है कि अब हलकी हँसी नीमा के चेहरे पर भी थिरकने लगी थी|
“पता नहीं कैसे कर लेती थी – अच्छा चलो आज हम साथ में कुछ ख़ास बनाते है – देखूं तो कैसे कर लेती हो डायरी लिए लिए काम |” कहती हुई वे नीमा का चेहरा अपनी ओर उठाती हुई देखती है, उसकी आँखों के कोरे भर आए थे|
“मुझे बिलकुल वही वाली नीमा देखती है जो हँसती खिलखिलाती पूरे घर को अपनी मुस्कान से गुलजार किए रहती थी – आओ चलो – आज क्या बनाए तुम ही बताओ – मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा – शाम को दीपा और प्रथम भी आ रहे है |”
अब नीमा कुछ कुछ सीधा चलकर घर में चलने लगी थी, मौसी उसे साथ में लिए रसोई की ओर चल रही थी और डायरी अभी भी नीमा की हथेली के बीच थी|
“इस बार दीपा कनेडा से आते सीधा अपनी ससुराल चली गई – क्या करती बहुत मन था बेबी को देखने का – पूरा एक महीना होने जा रहा है अब जाकर आ रही है मेरे पास |”
“बेबी !!” आश्चर्य से नीमा अब उनकी ओर देखती है|
“ओह बेबी के बारे में तुम्हे बताया ही नही – दीपा की बेटी है चार महीने की – नन्ही गुलाबी फाहे सी सुनहरे बालों वाली – उसी को मैं बेबी बुलाती हूँ – अभी उसका नाम नही रखा तो सब उसे बेबी ही बुलाते है – बडी प्यारी है |” अपनी ही धुन में कहती रसोई में आते कोई साग उसकी नजरो के सामने करती हुई कहने लगी – “तभी तो आज कुछ ख़ास बनाने का मन है – इतने दिन बाद जो आ रही है दीपा – ये देखो काफली का साग भी रखा है – इसे तो बड़ा अच्छा बनाती थी तुम इसलिए इसे तुम ही बनाओ आज |”
नीमा डायरी स्लेप के किनारे रखती साग देखने लगती है और मौसी जी भी आटा सानती सानती कहती रही – “कनेडा में बिचारी अकेली पड़ जाती है – काम भी करो और बच्चा भी संभालो – मेरा कितना मन करता है कि उसकी मदद के लिए चली चलूँ उसके साथ पर ये नौकरी भी तो है – तुम्हारे मौसा जी के जाने के बाद उन्ही के एलआईसी दफ्तर नौकरी मिल गई अब वही मेरे जीवन यापन का जरिया और एकमात्र सहारा है |”
“अरे लाओ मैं इसे धो देती हूँ |” बहुत देर से खड़ी नीमा कुछ लडखडा जाती है तो मौसी जी उसके हाथ से साग लेती हुई उसे एक स्टूल में बैठने का इशारा करती हुई कहती है – “ज्यादा परेशान होने की जरुरत नही है – बैठो – वैसे आज मैंने अरसा बनाने की भी सोची है इसके लिए रात से चावल भिगो रखे है मैंने – तुम्हे भी तो बहुत पसंद है न अरसा – चलो आज मैं इसे बनाना भी बताती हूँ |”
वे जल्दी जल्दी रसोई में हाथ चलाने लगी थी तो नीमा बैठे बैठे काम कर रही थी|
“घर के काम भी न किसी एकसरसाइज से कम नहीं है इसीलिए तो दीपा बेचारी बहुत थक जाती है – देखना तुमको देखते कितना खुश हो जाएगी – तब से फोन पर मुझसे कह रही थी कि आते ही नीमा से बहुत सारी बात करनी है – कितना अच्छा लगता था जब छोटे में तुम दोनों मिलती थी तो पूरे समय दीपा के साथ साथ ही रहती थी – अब तो खुद बेचारी इण्डिया ही साल में एक बार आ पाती है और आते ही पहले ससुराल जाना पड़ता है – इस बार तो पचास दिन की छुट्टी पर आई है – मैंने भी कह दिया कि अबके बाकी दिन मेरे साथ ही रहोगी – ठीक है न – आखिर कुछ दिन तुम्हारे साथ भी तो समय बिताए |”
वे मुस्करा कर नीमा की ओर देखती है| बाते करते करते खाना भी बन चुका था तो नीमा डायरी लिए कमरे में लौट गई| तभी दरवाजे की घंटी बजी जिसे सुनते मौसी जी भागी भागी दरवाजा खोलने पहुँच गई| दरवाजे के पार बेटी को देख वे बेसब्र होती उसे गले लगा लेती है पीछे खड़ा उसका पति प्रथम गोद में अपनी बेटी लिए मुस्करा कर उनकी ओर देखता है|
“इजा अन्दर तो आने दो |”
“हाँ हाँ अन्दर आ जा – कितना इंतजार कराया इस बार – आओ प्रथम – अरे पहले बेबी को दो मेरी गोद में |” वे उन्हें अन्दर आने का रास्ता देती हुई प्रथम की गोद से नन्ही बच्ची को अपने अंक में समेटती हुई पुलकित हो उठी|
दीपा आते सोफे पर पैर पसार कर बैठती झट से टीवी चला लेती है| मौसी अन्दर आती अपनी बेटी को मुस्करा कर देखती अब प्रथम से हाल चाल लेने उसके सामने बैठ जाती है –
“अब यही बाकि दिन रहना – मैंने बहुत इंतजार किया तुम दोनों का |” कहती हुई उस नन्ही परी का गुलाबी गाल चूम लेती है|
“थोडा एक हफ्ते के लिए दिल्ली अपने ऑफिस भी जाना है फिर यही रुक जाऊंगा – |”
“ठीक है – मैं खाना लगाती हूँ |” कहती हुई वे उठने का उपक्रम करने लगी तो बच्ची को प्रथम अपनी गोद में ले लेता है फिर वे दीपा को अपने साथ अन्दर चलने का इशारा करती है|
अगले कुछ पल बाद प्लेट में कुछ लिए उनके बीच रखती हुई कहती है – “पहले ये अरसा खाओ तब खाना लगाती हूँ |”
मौसी फिर से बच्ची को अपनी गोद में लेलेती है जिससे प्रथम अब खाते खाते टीवी पर अपना सारा ध्यान लगा दिया था तो मौसी अन्दर रसोई की ओर चल दी जहाँ खड़े खड़े ही कुछ मुंह में डालते दीपा कह रही थी –
“वाओ अरसा – मेरा फेवरट है |” दीपा बच्चों सी खुश हो जाती है|
“हाँ इसीलिए तो बनाया |”
मौसी बच्ची को गोद में लिए अपनी बेटी से धीरे से कह रही थी – “नीमा से तो मिल लेती |”
“हाँ मिल लुंगी – कौन सा भागी जा रही है कहीं |” लापरवाही से कहती वह इत्मीनान से अरसा खाने में लगी थी|
“उसी से बनवाए है अरसा – अच्छे है न !”
“अच्छा नीमा ने बनाए – तुम तो गजब हो इजा – उस पागल से काम भी करवाना शुरू कर दिया…|”
“हट – कुछ भी बोलती रहती है – तेरी न जितनी जबान चलती है उतना दिमाग चलता तो !”
“तो !!”
“तो पहले यही ले आती प्रथम को |” अपनी तिरछी मुस्कान से वे कहती है पर दीपा के चेहरे पर लापवाही भरे भाव बने रहे|
“तुमको लगता है ऐसा पर प्रथम वही करते है जो उनके जी में आता है और मुझे भी कोई ससुराल जाकर मजा नही आया – गाँव जाकर बस दिमाग ही खराब होता है – पता नही गाँव में प्रथम को क्या मजा मिलता है – वहां प्रथम को देखकर कोई नही कह सकता कि ये आदमी कनेडा में जॉब करता है |”
“यही तो तुम प्रथम को समझ नही पाई तभी तो मुट्ठी में भी नहीं कर पाती |”
दीपा मुंह में खाने की चीज भरे उनकी ओर देखती रही|
“तुम खाओ – मैं बेबी को नीमा के पास ले जाती हूँ – उससे हिल मिल जाएगी तो अच्छा रहेगा |”
नीमा बिस्तर पर औंधे लेटी अभी भी डायरी का पन्ना पलट रही थी| पन्ने पलटते खोई खोई अपनी कलाई को सीधा करती उस पर उंगली फेरती अपलक देख रही थी जहाँ कभी न की जगह कभी भूल से द बन गया था, सब धीरे धीरे याद आ रहा था कि इस बात पर कितना सब हँसे थे उस पर| उसे भी अपनी बेवकूफी पर समझ नही आया कि हँसे या रोए पर वो अक्षर आज भी तनकर कैसे खड़ा है, क्या मिटवा दे उसे !! पर जाने क्यों मन हाँ ही नहीं बोलता इस पर| सोचती नीमा फिर पन्ने पलटती बेख्याली से किसी एक पन्ने पर रूकती उसे ध्यान से देखने लगती है…क्या ख्याल रहा होगा जब ये कविता लिखी उसने….डूबी शाम के अँधेरे में किसी नन्हे तारे सी उम्मीद की कश्ती थामे मन जाने कहाँ कहाँ उड़ता फिरता है उसका मन…तभी तो लिखी थी उसने जाने किसके इंतजार में ये कविता….
जिसे वह पढ़ रही थी…..
तुम जंगल जंगल फिरो…
मैं भी आती हूँ…
पीछे तुम्हारे…
तुम जिस सूखे दरख़्त के पास रुकोगे…
वहां मेरा इंतजार छोड़ देना…
संभव है…
मेरी देह…
तुम्हारे कदमों का साथ न दे सके…
पर..
उन झरते पत्तों की…
हर कसमसाहट में..
नमी के अंश सी…
मेरी याद…
परछाई की तरह…
सदा साथ रहेगी तुम्हारे..||
“नीमा….!”
मौसी की आवाज पर नीमा चौंककर उनकी ओर देखती है कि गोद में नन्ही बच्ची लिए उसी की ओर आ रही थी ये देख वह उठकर बैठ गई|
“ये देखो – ये है नन्ही परी सी बेबी – आहा देखो तुम्हे देख कैसे मुस्करा रही है|”
नीमा भी उस नन्ही बच्ची की निश्चल मुस्कान को देखती रह गई, खुले आकाश की रुई के फाहे से बादलो से गाल थे उसके, उसकी हवा में फेकती बाहें झट से वह थाम लेती है जिससे वह अपनी मटर सी गोल ऑंखें नीमा की ओर टिका कर मचल उठी| नीमा उसे गोद में लेने को मचल उठी तो मौसी ने भी उसे नीमा की गोद में बैठा दिया| नीमा उसे बहलाते खुद भी मुस्करा रही थी, नन्ही बेबी अब उसकी उँगलियों से खेलने लगी थी ये देख मौसी खाना लगाने का कहकर वहां से चली गई|
रसोई में दीपा अपना खाना परोसकर खाने भी लगी थी|
“अरे मैं आ तो रही थी – चलो तुम खाओ मैं प्रथम के लिए खाना लगाती हूँ |”
वे मुस्कराकर उसको देखती गैस पर पुड़ी के लिए कढ़ाई चढ़ाने लगी| खाते खाते दीपा का ध्यान अब उनकी ओर गया तो वह सकपका कर पूछ उठी –
“बेबी कहाँ है ?”
“नीमा के पास |” वे इत्मिनान से जवाब देती है लेकिन दीपा के हाव भाव अवाक् बने रहते है|
“उस पागल के पास आपने बेबी को छोड़ दिया !”
“कैसी बात करती है – मुझे पता है कि मैं क्या कर रही हूँ – वो बिलकुल ठीक है |”
“पर….|”
“बस तुम आराम से खाना खाओ फिर जाकर नीमा से मिल आना – रिश्तों को समझना सीखो – समझी – चलो अब मुझे प्रथम के लिए भी खाना लगाने दो |”
वे जितनी आसानी से मुस्करा कर अपनी बात कह गई दीपा के चेहरे को देखकर लग रहा था कि उसे कुछ समझ नही आया था, वह उलझी सी खड़ी अपनी माँ को देखती रही|
वे प्रथम को खाना लगाकर दीपा को लिए नीमा के पास आई तो दीपा अपनी सोच से विपरीत नीमा को देख वाकई हैरान रह गई| नीमा यूँ तो वाकई काफी उजले रंग रूप और तीखे नाक नक्श की थी मानों पहाड़ों से उतरी कोई अनछुई नदी सी हो पर गुजरे दिनों में उसकी काया काफी मलिन हो गई थी जिसे वह अपनी माँ द्वारा भेजी तस्वीर से देख चुकी थी पर आज उसे लगा कि इतनी जल्दी नीमा कैसे बदल गई बल्कि उसकी काया जैसे और निखर आई थी| यूँ तो पहाड़ी अंचल में सभी की काया में अलग ही उजास समाहित रहता है पर दीपा की रंगत कुछ गहरी गेहुए रंग की थी बिलकुल अपनी माँ जैसी बस ठन्डे कनेडा में रहने से उसकी हाव भाव में थोड़ी गर्वीली ऐठ सी समाई रहती थी|
क्या होने को है नीमा की जिंदगी में ? क्या वह कभी देव से मिल भी पाएगी ? या रिश्तो में हमेशा यूँही उलझकर रह जाएगी उसकी जिंदगी….
क्रमशः……………..