
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 11
उस कमरे में वह बिलकुल दबे पांव चलती हुई आती है, कमरे के बहुत ही कम प्रकाश था जिससे कमरे की स्थिति का किसी को भी हलके से अंदाजा होता पर वे अभ्यस्त कदम सहज ही अन्दर आते किसी सुनिश्चित स्थान पर रूककर मेज पर से कुछ उठाकर उसे देखने लगते है, इतनी कम रौशनी में भी वह आसानी से उस तस्वीर पर अपनी निगाह जमाए रही जबकि तस्वीर पूरी तरह से अँधेरे में गिरफ्त थी| फिर अपने लहराहे दुपट्टे के आंचल से उस तस्वीर को पोछती हुई रख ही रही थी कि एकाएक कमरा रौशनी से भर उठा| एक पल को लगा जैसे एकाएक रात का काला पर्दा हटाकर सुबह की सफेदी फ़ैला दी गई हो| अब कमरे की हर एक चीज पूरी तरह से स्पष्ट हो रही थी| कमरा बड़ा और लग्जरी था| बड़ी बड़ी कांच की खिड़की पर लहराते रेशमी परदे, छत पर टंगा रगीन शीशों का जगमग फानूस, उम्दा लकड़ी के आलिशान फर्नीचर सब मिलकर कमरे को वैभवपूर्ण बना रहे थे| पर इन सब में से हटकर वहां मौजूद दो जोड़ी निगाहे आपस में मिलकर एक दूसरे के चेहरे पर गड़ सी गई थी| वह चुपचाप तस्वीर उसके अपने स्थान पर रख कर नज़रे नीची किए खड़ी हो जाती है मानो उन नजरो को अपनी खता का अच्छे से अंदाजा था| अब उन नज़रों के सामने तनी नज़रे शारदा की थी जो एक बार उस तस्वीर को जो कुंवर नवल की थी फिर उसके बगल में खड़ी कमसिन लड़की की ओर देखती हुई सरगोशी करती है –
“नंदिनी अब हम आपसे आपका यहाँ आने का कारण पूछे और आपको कोई झूठ ढूँढना पड़े उससे अच्छा है हम आपको सीधे सीधे समझा दे कि जो आप कर रही है वो सही नही है – आपको अच्छे से याद रखना चाहिए कि आपकी मंगनी रचित से हो चुकी है |”
“व वो माँ …|”
उसकी हक्लाती आवाज शारदा बीच में ही काटती हुई बोली – “आपको ख्याल रखना चाहिए कि हमारे कुल ने हमेशा राजपरिवार की आन के लिए अपना सर्वास्त न्योछावर किया है और आप उस परिवार की चिराग है जिसने हमेशा राजवंश की सेवा की है – इतनी बार समझाने के बाद भी आप ….|” वे कुछ पल रूककर दांत पीसती हुई आगे कहती है – “बचपन के खेल बचपन के साथ ही खत्म हो जाते है और जो उनके ख्याल में बड़े होने तक जीते है वे बुरी तरह मुंह की खाते है – समझी आप – अब हम आपसे आशा करते है कि आप मुझे इस कमरे के आस पास भी नही दिखती चाहिए |” इस आखिरी शब्द के साथ ही वह कमसिन लड़की अपना आंचल अपनी हथेली से मुक्त करती सधे क़दमों से वहां से जाने लगती है| शारदा भी उसके जाने तक अपने स्थान पर टिकी खड़ी रही| वह लड़की जैसे कुछ सोचते सोचते वहां से चली जा रही थी| उसे जो बताया गया या अहसास कराया गया उसके विपरीत उसके मन में कुछ और ही चल रहा था जो उसकी छुपी हुई मुस्कान से तय था| उस लड़की के अच्छे से उस कमरे से दूर होते शारदा कमरे की बत्ती बंद करके कमरे से बाहर चली जाती है|
वक़्त बहुत तेजी से बीत रहा था और उससे भी तेजी से घरों में शादी की तैयारिया हो रही थी| तैयारियों के साथ बहुत सारी चिंताए और आशंकाए भी पानी में उठे बुलबुले की तरह उभर रही थी जिन्हें पलक की माँ नीतू खुद बनाती और खुद ही ख़ारिज कर देती| उन सबको मंगनी के लिए जयपुर जाना था और सभी इसकी तैयारी में लगे थे| सामानों की लिस्ट चेक करते करते वैभव अचानक पत्नी की ओर देखते हुए कह उठे –
“नीतू कभी कभी तुम्हे ये सब अजीब नही लगता |”
वह अपने सामने रखी साड़ियों को छांटती छांटती सहसा रूककर पति की ओर देखने लगती है|
“मेरा मतलब कि सब कुछ इतनी जल्दी हो रहा है जैसे लग रहा है हम खुद कुछ नही कर नही रहे बल्कि हमसे कराया जा रहा है|”
वे बेहद आशंका के साथ अपनी बात ख़त्म करते हुए बस टकटकी बांधें देखते रहे पर इसके विपरीत नीतू मुस्कराती हुई कहने लगी – “हाँ तो करा रहा है न – हमारा बेसब्र मन जो अपनी बेटियों के लिए अच्छा होते बस देखना चाहता है |”
वे अभी भी संशय से पत्नी की ओर देखते रहे मानों इस तरह के जवाब की उन्हें उम्मीद ही नही थी|
पर वे बिना उनके हाव भाव को देखे अपनी बात कहती रही – “सब कुछ कितने अच्छे से हो रहा है हाँ थोड़ा जल्दी जरुर है पर एक ये दिन तो आना ही था न – बेटियों को विदा तो करना ही था न और उनके भाग्य से देखो इतने बड़े घर का रिश्ता मिल गया ऐसा जिसे हम सपने में भी नही सोच सकते |”
“हाँ यही बात तो मुझे और असमंजस में डाल देती है कि इतना बड़ा राजसी परिवार खुद मुझसे यानि एक बैंक मेनेजर के परिवार से रिश्ता जोड़ रहा है – क्यों !!”
“मतलब !!”
“मतलब ही तो नही समझ आ रहा – सिर्फ कुछ दिन की मुलाकात में इतना बड़ा राजसी परिवार हमारी बेटियों को अपने घर की बहु बनाने को तैयार भी है और व्यग्र भी जैसे झटपट सब कर लेना चाहते हो – ऐसा भला क्यों !!”
“क्योंकि ये उनकी आपसी पसंद से हो रही है शादी बस इसलिए – देखा नही झलक कितनी खुश है |”
“हाँ बिलकुल उस बच्चे की तरह जिसे पहली बार चाँद को छूने का मौका मिल रहा हो और फिर जब उसे चाँद में रहना पड़े तो कुछ दिन में उसे उसी से उकताहट भी होने लगती है |”
वे बड़े दार्शनिक भाव से अपनी बात कहते है पर इससे चिढ़ती हुई नीतू कह उठती है –
“कैसी बात कह रहे है – ये शादी है कोई पल भर का खेल नहीं |”
“तभी तो डर लग रहा है अपनी बेटियों के लिए – मेरी उम्र भर की पूंजी है ये तो कैसे उनसे अपना मन हटा लूँ मैं |” अपनी बात कहते कहते उनका मन नम हो उठा|
अब नीतू थोडा उनके पास सरकती हुई उनका हाथ थामती आँखों से हौसला देती हुई कहती है – “ये तो रीत है समाज की और ये बात मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है पर सोचो एक सुकून की बात है कि वे दोनों एक ही घर में जा रही है तो एकदूसरे का ख्याल भी रख पाएंगी बिलकुल मेरी तरह – याद है न निधि दीदी और मैं हम दोनों बहने एक ही घर में आई – कितना साथ और कितना सुकून रहा हमारे बीच |” वह कहते कहते मुस्करा उठी और उसकी मुस्कान देख वैभव भी मुस्करा उठे|
“हाँ सही कहा – ये सुकून तो है कि दोनों एक साथ रहेगी – मुझे दोनों की ही चिंता रहती है – झलक जहाँ नासमझ है वही पलक कुछ ज्यादा ही धीर गंभीर है – कई बार तो लगता है जैसे अपने मन की बात बड़ी आसानी से वह हमसे छुपा लेती है और हम समझ भी नही पाते |”
“ऐसा क्यों लगता है आपको !!”
“तुमने ध्यान दिया कि आज कल कुछ ज्यादा उदास रहने लगी है – कम बोलती है और अकेली बैठी रहती है मैंने इतना उदास कभी नही देखा उसको |”
“हाँ मैंने देखा और इसका कारण भी जानती हूँ मैं – झलक जहाँ मस्तमौला है उसके विपरीत पलक बहुत गंभीर है – उसे अहसास है कि वह हमसे दूर जा रही है तो इसी कारण उसका मन उदास रह रहा है – मैं समझती हूँ न सब कि उसे हमारे अकेलेपन का अहसास होने लगा है |” वह अपनी आखिरी बात पर जोर देती उन्हें ढांढस देने अबकी कन्धा सहलाती हुई कहती है|
अब वैभव भी निरुत्तर होते बस जबरन सहमति में मुस्करा देते है|
वक़्त की तलहटी पर समय रेत सा फिसलता इतनी जल्दी वो समय ले आया जिसपर सबकी अलग अलग प्रतिक्रिया थी| पलक के लिए जो अपने परिवार की ख़ुशी थी वही नवल पूरे जोश में थे| जयपुर जाने की सारी तैयारिया हो चुकी थी| वैभव और नीतू अपने खास रिश्तेदारों के साथ जयपुर के लिए रवाना हो गए तो वही जयपुर में उनके स्वागत की सारी तैयारी हो रही थी| जिस शाम को मंगनी की रस्म थी उसकी दोपहर तक सभी जयपुर में इकट्ठे हो जाते है| अनामिका तो फूली नही समा रही थी एक तो राजमहल आकर उसे अच्छा लग रहा था वही अपनी दोनों सखियों संग रिश्ता जुड़ने का अहसास उसे और जोश में भर दे रहा था| वैभव के वहां पहुँचते जिस आलिशान तरीके से सब कुछ हो रहा था वो उनके अंदाजे से भी कहीं ज्यादा था| झलक जहाँ चंचल हिरनी सी वहां आई वही पलक ने आकर पलके उठाकर भी किसी की ओर नही देखा|
“आइए हुकुम रस्म हॉल में होगी |” एक अर्दली आकर वैभव को रास्ता बता रहा था|
“हाँ हम सभी आते है – बस पंडित जी का इंतजार कर रहे है वे मंगनी के बाद पूजा कराएँगे न |” वैभव एक नजर अपने साथ मौजूद सभी परिवार की ओर दौड़ाते है तो दूसरी नजर अपनी कलाई घडी की ओर डालते हुए कहते है|
नीतू आगे बढ़कर पति के कानों के पास आकर धीरे से कहती है – “सुनो यूँ पंडित जी का इंतजार कब तक करेंगे आखिर उन्होंने बोला है न किसी व्यक्तिगत कारण से उन्हें देर हो रही है और वे बस रास्ते में है – आ ही जाएँगे – क्यों न हम सब तब तक अन्दर चलते है|”
पत्नी की बात सही लगी आखिर कब तक खड़े उनका इंतज़ार करते इसलिए वैभव सहमति में सर हिलाते सभी के साथ हॉल की ओर चल देते है| सबकी नज़रों से विलग उस पल पलक में मन में कुछ हलचल सी होने लगी, उस आधी अधूरी बात से उसका मन बहुत कुछ कयास लगाने लगा कि जरुर अनिकेत आया होगा और वे उसे लिवाने गए होंगे जिससे उन्हें देर हो गई और अब वे यहाँ के लिए चल दिए होंगे, ये सोचती हुई पलक जैसे कुछ मन ही मन ठान लेती है कि अनिकेत के आते वह अंगूठी अनिकेत को पहनाकर सबको दंग कर देगी, उसके बाद जो भी होगा देखा जाएगा पर एक बार को उसे हिम्मत दिखानी ही होगी| हाँ अब उसे यकीन हो गया कि सच में उसे अनिकेत से ही सच्चा प्यार है जैसे जैसे ये समय बीतता जा रहा उसे अहसास हो गया कि उसके हर पल में उसका कोई ख्याल रखते उसके साथ साथ जो रहा वो अनिकेत ही था पर तब उसे कहाँ इस बात का अहसास हुआ और अब जब उसे अहसास हुआ भी तो अब जाकर लेकिन आखिर कब तक यूँही घुट घुट कर अपनी जान लेगी वह अब उसे इस पार या उस पार का चयन कर ही लेना चाहिए|
“पलक ..!”
अचानक तेज आवाज से उसका समस्त ध्यान अब अपने सामने जाता है जहाँ उसकी माँ खड़ी मुस्कराते हुए एक अंगूठी उसकी ओर बढ़ा रही थी| उस एक पल में सोचते सोचते वह इतनी गुम हो गई थी कि बीच का सारा का सारा दृश्य उसकी आँखों से ओझल हो गया पर तालियों की गडगडाहट के साथ उसका ध्यान अपने बगल में खड़े नवल की ओर जाता है जो अपने हाथ को आगे किए हलके से मुस्कराते खड़े अब उसी की ओर देख रहा था| वह अपनी ओर से पलक को अंगूठी पहना चुका था और अब पलक का इंतजार कर रहा था, उस पल पलक का समस्त मन कसमसा कर रह गया, उंगली को मानो लकवा ही मार गया हो|
‘क्या…..मुझे पता भी नही चला…|’ खुद से मन ही मन बुदबुदाती वह एक तेज नजर हॉल में चारोंओर घुमाती है न पंडित का अता पता था और न अनिकेत का ‘क्या वे अभी तक नही आए |’ उसका मन ढेर बेचैनी से भर उठा लगा मन बस रो ही देने वाला है कि माँ की फिर हलकी आवाज उसे झंझोडती है –
“पलक बेटा आप भी अंगूठी पहनाओ |”
पर पलक यूँही तथस्त खड़ी रह गई| सभी उसकी ओर देख रहे थे| सबके चेहरों के भाव चढ़ उतर रहे थे कि एकाएक किसी के प्रवेश पर सभी का ध्यान उस ओर चला गया दरवाजे पर पंडित जी अपना झोला थामे खड़े थे| पलक उस ओर देखती है|
क्रमशः……………..
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