
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 17
साथ में हँसते हुए आदर्श, झलक और शर्लिन ऊपर चढ़ रहे थे| झलक की हँसी ही नही रुक रही थी क्योंकि आदर्श ने सारा सामना खुद पर लाद रखा था और दोनों के कितना भी कहने पर किसी को कुछ पकड़ने नही दिया पर मैट, बैग सब लादे आदर्श चढ़ाई पर कुछ लड़खड़ा जाता और झलक की हँसी शुरू हो जाती है, इसी तरह तीनो ऊपर चढ़कर अब सामने की ओर देखने पलक को ढूढने का उपक्रम करने लगते है|
“अरे ये देखो इन्हें |” पलक को देखती हुई झलक दौड़ती हुई उसके पास चल दी| पीछे पीछे शर्लिन और आदर्श भी बढ़ रहे थे|
“हम यहाँ पर सामान लादे आ रहे है और पल्लो मैडम धूप लेती लेती सो गई|” झलक अब उसके बिलकुल पास आकर उसे झंझोड़ रही थी जिससे पलक हक़बकाती हुई उठ कर अब बारी बारी तीनो की ओर देखती है जो उसे ही देख रहे थे| वह सभी के मुस्कराते हुए चेहरे देखती हुई उठ कर बैठ जाती है क्योंकि वह किसी पत्थर का टेक लिए लेटी हुई थी|
“आज धूप भी कितनी अच्छी लग रही है – चलो यही बैठते है – यहाँ ऊपर से सब नज़ारा भी अच्छा लगेगा |” आदर्श वही सारा सामान रखते हुए मैट बिछाने लगता है जिसमे शर्लिन उसकी मदद करने लगी|
“वाओ – क्या झील है – ये तो बहुत बड़ी लग रही है – भईया क्या हम इसमें बोटिंग भी कर सकते है – प्लीज्ज्ज |” अपना स्वर खींचती हुई वह आदर्श की ओर देखती है|
इस पर शर्लिन मुस्कराती हुई कह रही थी – “ये पिछौला झील है – जितनी बड़ी उतनी गहरी |”
“ओके ओके अभी मुझे बैठते दोगी – लौटते में करेंगे बोटिंग |” आदर्श मैट पर आराम से बैठता हुआ बोलता है जिससे वे दोनों भी वही बैठती हुई सामान निकालने लगती है| पर इसके विपरीत उस पल पलक के हाव भाव बदल गए, जैसे अचानक उसे कुछ याद आ गया हो, वह उस झील की ओर देखती तो अगले ही पल दूसरी नज़र उन खण्डर पर डालती हुई याद करती है कि कुछ समय पहले तो वह उन खंडर के पास थी और शायद उस खाई की ओर वह फिसल रही थी, ये सोचती हुई उसकी नज़र उस खाई के मुहाने पर दिखते पेड़ के ठूंठ की ओर जाती है तब उसे अहसास होता है कि कुछ तो अजीब हुआ है उसके साथ, या उसे ऐसा सिर्फ लगा था या सच में किसी अदृश्य ताकत ने उसे खाई से लाकर यहाँ पटक दिया| उस पल ये सब सोच उसका सर फटने लगा पर इसके विपरीत बाकी सभी वहां हँसी मजाक में लगे थे|
राजमहल के दो विपरीत हिस्से में कुछ अलग अलग ही घट रहा था, जहाँ उस गुप्त हिस्से में हवन की तैयारी हो रही थी और किसी दरवाजे की ओर पूजा का सामान फेका जा रहा था, जो बार बार अँधेरे में जलते हवन की अग्नि की लपट से स्पष्ट हो जाता जिससे उस दरवाजे के बाहर बंधे कई रक्षा सूत्र अँधेरे में लहक उठते| उस अँधेरे स्थान पर वह लोहे का दरवाजा यूँ दिखलाई पड़ रहा था मानों वह कोई सोता हुआ दैत्य हो और अग्नि को देख उसकी जीभ बार बार लपक उठती हो| तो वही दूसरी ओर नंदनी नवल के कमरे के बाहर रखे फूलदान के फूल ठीक करती करती अन्दर की ओर नज़र दौड़ा देती जहाँ नवल आराम कुर्सी पर बैठा किसी किताब में मग्न था| पर कोई और नज़र थी जो उसकी नज़र पर नजर रखे थी जिसे वहां होना भी नहीं था फिर भी वह वहां मौजूद था| भुवन सिंह जिसे महल के पीछे के हिस्से में ठहरने को कहा गया था पर हमेशा की तरह नियम न मानने वाला भुवन सिंह अपनी बेटी से मिलने की तीव्र इच्छा से महल के आगे के ख़ास हिस्से तक चला आया था और नंदनी की नज़र को दूर से ही देख अपनी चतुर बुद्धि से सब समझ चुका था| नंदनी का ध्यान अभी भी नवल की ओर था जिससे भुवन सिंह अतिरिक्त आहट कर नंदनी का ध्यान अपनी ओर करता है, नंदनी आहट पर पलट कर देखती है, लाल पगड़ी धारी घनेरी मूंछों वाले चेहरे को देख वह झट से पहचान जाती है तब उस पल उसके कदम उसके मन से भी तेज भागते हुए अपने पिता के पास पहुँच जाते है|
वह उसके सर पर प्यार से हाथ फेरता हुआ पूछ रहा था – “थे कीया हो लाडो ? पर थे कीसा पहचाना मन्ने ? मन्ने तो लागे था म्हारी लाडो पहचानेगी नही -|”
“कीसा नही पहचानती – म्हारे पास थारी तस्वीर जो थी बापू – बहुत याद किया |” उसकी डूबती हुई आवाज भुवन की आवाज की दबा गई| वह और कुछ न कह सका| पिता पुत्री नम भाव से वहां से चुपचाप चले गए| एक लम्बे वक़्त के बाद वे मिले थे, शिकायते भी थी पर मिलने का सुख आज उन शिकायतों को भी गले में गटका के उतार गया था|
वक़्त बहुत तेजी से गुजर रहा था और उसी क्रम में पलक का मन भी भारी होता रहा| अब सभी शादी की तैयारीयों में लगे थे| न चाहते हुए भी पलक वो सब कुछ कर रही थी जिसके लिए उसका मन उसे कतई गंवारा नही कर रहा था, जहाँ अनिकेत से मिलने की उम्मीद का दामन उसके हाथ से छूटता जा रहा था वही शादी का दिन भी करीब आ रहा था| उसका बेचैन मन एक बार फिर उसे मंदिर की देहरी तक किसी अनजानी उम्मीद के साथ ले आया| उस दिन कार्तिक पूर्णिमा थी जिससे मंदिर कुछ ज्यादा भी लोग नज़र आ रहे थे| मंदिर के एक हिस्से में कही कथा होने से भीड़ का समूह वहां डेरा जमाए था पर सब ओर से अनदेखा करती पलक मंदिर के अन्दर प्रवेश करती गई और प्रतिमा के आगे हाथ जोड़े भीड़ के पीछे खड़ी वही से आगे की ओर देखती है| प्रतिमा के सामने आज दो पंडित थे पर जिस चेहरे को वह देखना चाहती थी बस वही नही था, उस पल उसका मन किस गहरे आघात से गुजर गया ये बस उस पल वही जान सकी| मन तो हुआ कि बिलख कर रो दे पर मन अंतरस ही बांध बहाता रहा| वह प्रतिमा की ओर हाथ जोड़े वापस जा रही थी बहुत ही नाउम्मीदी से कि कोई आवाज सुन उसके कदम वही ठहर गए|
“..भक्त जब परेशान सा भगवन के सामने खड़ा था तब नारद मुनि ने उसे सुझाया कि उसके पास ही तो है अपने प्रश्न का उत्तर जानने का मार्ग क्योंकि जहाँ प्रश्न है वही उत्तर है…|”
प्रवचन की आवाज उस पल पलक के कदमो को भी वही रोक लेती है और वह रूककर उस पर अपना समस्त ध्यान लगा देती है|
“श्रीराम प्रश्नावली में आपके सभी अभीष्ट प्रश्नों के उत्तर है….भगवान् श्रीराम का नाम लेकर उसका मन में ध्यान करते हुए उस प्रश्नावली से अपने प्रश्न के उत्तर पाए..ये सुन भक्त….|”
उस पल पलक के भटके मन को जैसे कोई संकेत मिला हो, ये सुन पलक याद करती है कि कैसे बचपन से जब कोई प्रश्न का उत्तर के लिए माँ से हट करती तो वे सांध्य बाती के समय रामचरितमानस के सामने बैठकर उसकी प्रश्नावली से खोजकर उनके उत्तर दे देती तब वे कितनी संतुष्ट हो उठती थी आज एक बार फिर उसका उलझा मन अपने प्रश्न के उत्तर के लिए उसी ओर जाने का तय करता है| इसके बाद पलक वहां नही रुकी और झट से घर पहुँचते हाथ मुंह धोकर पूजाघर में चली गई| जैसे अब उसने तय कर लिया कि आज जो भी उत्तर मिलेगा उसे ही धारण करके सब स्वीकार कर लेगी| शायद यही ईश्वर की मंशा हो| अपने प्रश्न का उत्तर पाने के बाद ही वह तय करेगी कि उसे पापा को अपने मन की बात बताना है या चुपचाप सब स्वीकार कर लेना है| मन ही मन इस शादी के संशय से उभरा प्रश्न मन ही मन सोचकर वह रामचरितमानस की प्रश्नावली से शब्दों का चयन कर करके एक चौपाई को कागज में लिखने लगी| हर कोष्ट के शब्द से उसके मन की उलझन को एक राहत सी मिल रही थी|
वह सभी शब्दों को जोड़कर पढने लगी…”होई है सोई जो राम रचि राखा..को करि तर्क बढ़ावही शाषा अर्थात जो हो रहा है उसे होने दो उसे भगवान् पर छोड़ देना श्रेयकर है..|” अर्थ पढ़ते पलक का मन बस अपनी पलकों पर बूंद समेटे प्रतिमा की ओर देखता रहा| शायद अब उसके मन की उथल पुथल शांत होकर समझ चुकी थी कि आगे उसके करने के लिए कुछ नही है|
क्रमशः………
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