
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 19
ताज होटल में बिताए दिलचस्प पलों के लिए झलक शौर्य को थैंक्स कहती आखिर में कार से उतरी तो शौर्य भी हलके से मुस्करा दिया| शौर्य ने उसके कहने पर उसे घर के पास वाली मार्किट में छोड़ा था| उसके वापस जाते उसकी दोनों सहेलियां एक गहरा उच्छवास छोड़ती वापसी के लिए रिक्शा करने लगी| झलक अपना काम कर चुकी थी इसलिए उसकी सहेलियों के पास ज्यादा कुछ कहने को था नहीं| उनकी चुप्पी ही बता रही थी कि तीर सही जगह काम किया जिससे अब उसकी सारी मुहल्ले की सखियाँ उसके आगे कभी बडबोल नही बोल पाएंगी| झलक भी अब वापसी के लिए ऑटो करके घर पहुँचती है|
घर पहुँचते वह पाती है कि बाहर का मुख्य द्वार अन्दर से बंद नही था और वही से कार पार्किंग पर सरसरी नज़र डालती है जहाँ कोई कार खड़ी थी एक पल को उसे लगा कि पापा मार्किट नही गए या माँ अकेली चली गई ज्यादा इस बात पर ध्यान न देकर वह उडका गेट खोलकर अन्दर आ जाती है, उसे पता चल गया था कि या तो कोई घर में आ गया है या जाने वाला है क्योंकि अगर पलक घर पर अकेली होती तो गेट अन्दर से जरुर बंद होता| इसलिए वह अन्दर आकर सामने के कमरे से जाने के बजाए पीछे से जाने के लिए गलियारे से आगे बढती है| उसका सोचना बिलकुल ठीक था घर पर पलक के अलावा कोई था जिसका आभास रसोई से आ रही थी| कुछ हँसने की आवाज उसके कानों से टकराई तो झलक झट पट पीछे से होती अपने कमरे तक पहुँच गई| फिर बिल्ली के क़दमों से चलती कमरे के अन्दर आकर ही उसने सांस छोड़ी|
आदर्श अपने बाजुओ में किसी बाहुबली की तरह कुछ ज्यादा ही सामान समेटे समेटे पलक के कमरे की ओर मुड़ गया क्योंकि वहां किसी के होने की आहट से उसे लगा वहां पलक है| वह जूते की नोक से दरवाजा धकेलता हुआ बड़े से कार्टून के पीछे से झांकता हुआ पुकारता है – “पलक – इसे इसी कमरे में रख दूँ – माँ भी जाने क्या क्या सामान खरीद लाई और सब इसमे पैक करके उठाने मुझे छोड़ दिया – पल…|” सामने पलक की जगह झलक को देख आदर्श अवाक् रह गया|
“हाँ हाँ भईया – यही रख दो |” झलक सामान्य भाव से कहती उसके सामने से हटती बेड के कोने की ओर कार्टून रखने का इशारा करती है|
“तुम कब घर आई – !”
“मैं तो घर पर ही थी |”
“ये कैसे हो सकता है – जब हम आए तब पलक ने बताया वो घर पर अकेली है और मैं अभी बाहर से आ रहा हूँ – मुझे तो तुम कही से आती नही दिखी – तुम आई कहाँ से – कोई गुप्त सुरंग बना रखी है क्या तुमने ?” आदर्श कार्टून को बेड पर रखते रखते उसे घूरता रहा|
“यहाँ न कोई गुप्त सुरंग है और न मैं कोई भूत हूँ पर आपको एक राज़ की बात बताऊँ |” धीर से फुसफुसाती हुई वह आदर्श के कानों के पास आती हुई कहने लगी – “ये पलक है न आजकल कुछ ज्यादा ही खोई खोई रहने लगी है – कभी जागते में सपना देखती है तो कभी सपने में सपना देखती है – सोचती कुछ है कहती कुछ है – मुझे तो लगता है उसे किसी भूतनी ने पकड़ लिया है – आपके कांटेक्ट में है कोई बाबा साबा टाइप |” अबकी भाई के कंधे पर अपनी कोहनी रखती हुई नज़रे घुमाती हुई कहती है|
“जिस घर में तुम जैसी भूत हो वहां भला दूसरा भूत टिक सकता है – दिनभर बकवास करते मुंह नही थकता – अब देखता हूँ राजमहल में किसका सर खाती हो – छोड़ो मुझे – मेरे पास और भी काम है |” अपना कन्धा झटके से उससे हटाते आदर्श बडबडाते हुए बाहर निकल जाता है|
पीछे खड़ी झलक कसकर मुस्करा देती है|
रसोईघर में पलक गैस ऑफ कर मामी जी की ओर मुड़ती हुई कहती है – “लीजिए खाना तैयार है – आप सफ़र से आई है खा लीजिए और माँ का वेट मत करिए – वे पापा के साथ मार्किट गई है उन्हें देर लग सकती है|”
“वैभव गए है साथ में !! कौन सी मार्किट ?”
“अमीनाबाद |”
“बाप रे अमीनाबाद लेकर गई है नीतू वो भी ऐसे व्यक्ति को जो कपूरथला भी न जाता हो तो समझ लो आज तूफान ही आने वाला है|” कहकर मामी जी कसकर हँस पड़ी जिससे पलक भी मुस्करा उठी|
“पलक ऐसा करते है आदर्श को पहले खिला देते है – उसे आज ही वापस लौटना भी है फिर हम तीनों साथ में खा लेंगे |”
“कौन तीनों – उस तीसरी यानि झलक का अता पता कहाँ है !!” पलक जल्दी से बोली पर तभी किसी अन्य आवाज पर वह अवाक् रह गई|
“किसने हमे याद किया – दिल को दिल की राह है – दिल से याद किया और हम हाजिर हो गए |” रसोईघर के दरवाजे से मुस्कराती हुई झलक अन्दर आ रही थी|
“शैतान का नाम लो और शैतान हाज़िर – ये कहावत तुमपर ज्यादा सूट करती है |” जवाब में पलक कहती है|
“अरे अरे यूँ मत लड़ो – शादी करके एक ही घर में जा रही हो तब भी क्या ऐसे करोगी |” बीच बचाव करती मामी जी बोल उठी|
“पहले बताओ गई कहाँ थी और वापस कब आई…?”
पलक की बात अनसुनी करती झलक नाक उठाए कुछ सूंघती हुई बोली – “वाओओ मेरी फेवरट वाली खुशबू – आप मेरा पसंद वाला आम का आचार लाई है न !” कहती हुई झलक फुदकती हुई स्लेप पर रखी एक बरनी की तरफ गई जिसे झट से खोलकर सूंघती हुई बोली – “देखा – मामी जी का आचार मैं सूंघ कर बता सकती हूँ |”
“ओहो आचार यूँ नहीं सूंघते – खराब हो जाता है – कौन कहता है इस लड़की की शादी होने वाली है |” मामी जी जल्दी से उसकी ओर बढ़ती हुई बरनी का ढक्कन पकडती हुई कह रही थी|
लेकिन पलक जो उसका नाटक अच्छे से समझती थी, उसे घूरती हुई फिर पूछती है – “हाँ तो बताया नही कहाँ गई थी आप ?”
“बताया था न इशिता के यहाँ |” जल्दी से अपनी बात कहकर मामी जी तरफ मुड़ती हुई कहने लगी – “और क्या क्या लाई आप मेरे लिए ?”
इससे पहले कि मामी जी उसकी बात का कुछ जवाब देती पलक उनके बीच में आती हुई बोल उठी – “नही बताया था कि इशिता के यहाँ जा रही हो – तो इतनी देर इशिता के पास थी तुम ?”
“हाँ वही तो जरा देर मिलने गई थी और इतनी देर लग गई पता है क्यों !!” भौं उचकाती झलक दोनों की ओर बारी बारी से देखती हुई बोली – “विमला के कारण |”
“विमला के कारण !!” पलक आंख झपकाती देखती रह गई|
“आज विमला नही आई न !!”
झलक के प्रश्न पर पलक बस औचक अपनी गर्दन न में हिला देती है|
“हाँ तो बोलो कैसे पता चला मुझे !! वही तो मैं इशिता के यहाँ गई थी उससे मिलने और उसकी मम्मी विमला की रामगाथा लेकर बैठ गई उसमे समय का पता ही नही चला |”
“ऐसी क्या रामगाथा थी ?” मामी जी हौले से मुस्कराती हुई पूछती है|
अब झलक अपनी कहानी के मुख्य पृष्ट पर आती उनकी ओर देखती हुई कहने लगी – “कहानी का नाम है विमला के पति ने उसे मारा – आंटी यही बता रही थी कि सुबह सुबह विमला रोती हुई उनके पास आई, आंटी तो अंतर्यामी थी उसके आंसू और सूजा हुआ चेहरा देख सब भांप गई अब बिचारी इस हालत में घर घर काम करने तो जाएगी नही पर आंटी से उसे खाली हाथ नही भेजा दो चार गुरुमंत्र भी दिए कि आदमी जब गुस्से में हो तो कहाँ छुपना है या तो कही जाकर एक्स्ट्रा काम ही कर लिया करे जा के – यही सब गाथा सुना रही थी |”
झलक को कुछ पल कर पॉज़ देते देख पलक कुछ बोलने को हुई पर झलक फिर से बोलती बोलती उचककर स्लेप पर बैठ गई|
“पर मैं तो कहती हूँ ऐसे पति से उससे बचने के नही बल्कि मारने के गुरुमंत्र देने चाहिए – मैं उसकी जगह होती तो ऐसी मार लगाती उसकी कि बकरी पर भी हाथ उठाने से पहले वह सौ बार सोचता – मेरा तो यही मानना है जैसा सामने वाला हो उसे उसी रूप में दंड देना चाहिए तभी उसे बात समझ आती है ये गाँधी जी वाला फंडा अपने दिमाग में नही घुसता |”
“घुसेगा भी कैसे !! अंडे जैसा दिमाग जो है तेरा |” चिढ़ती हुई पलक बोली|
इसपर मामी जी हँस पड़ी|
“अब कोई बताएगा ये कहाँ रखना है उफ़ – माँ आप घर का सारा सामान ले आई क्या – तब से सामान रखते रखते मेरा दम निकल गया – हफ्फ – बस ये आखिरी वाला है इसे मैं यही रख रहा हूँ |” रसोईघर की देहरी पर खड़ा खड़ा आदर्श माथे का पसीना पोछ रहा था|
“अरे तो क्या बहनों की शादी बिना मेहनत के कर लोगे !” मामी जी अपने बेटे को प्यार से देखती हुई कह उठी|
“अच्छा है दोनों की एक साथ निपट जाए उतनी जल्दी फुर्सत |” हवा में हाथ उठा कर झाड़ते हुए आदर्श बोला|
“फुर्सत क्यों !! अपनी शादी की जल्दी है !!” भौं उचकाती झलक बिना पॉज़ दिए बोलती रही – “वैसे मामी जी जब भईया की शादी होगी तब हमे कैटर्स की जरुरत तो होगी नही – यहाँ तो दूल्हा दुल्हन खुद ही इतना अच्छा खाना बना लेते है – ही ही ही |” कहकर झलक दांत दिखाती हँस पड़ी|
“ओह तो आपके अनुसार कैटर्स की शादी में वे कैटर्स न बुलाए तो पंडित की शादी में कोई पंडित नही बुलाता होगा क्यों !!”
आदर्श और झलक की नोक झोक में मामी जी जहाँ हँसते हँसते लोटपोट हुई जा रही थी वही पलक कुछ पल को कही खो गई, पंडित के नाम भर से मानों दबा नासूर किसी ने फिर कुरेद दिया हो, सभी के हँसी फुहार के बीच उदासमन से कब वह रसोईघर से निकली किसी ने नही देखा |
क्रमशः………
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