
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 21
दुल्हन के जोड़े में सजी पलक बहुत देर से खुद को आदमकद शीशे के सामने खड़ी किए थी ऐसा करते उसकी निगाह बस शीशे पर जमी हुई थी उसकी निगाह जिस अक्स को उस शीशे में देखना चाहती थी वह उस शीशे से गायब था तब भी वह एकटक खड़ी उस शीशे को देखे जा रही थी, न पलक झपक रही थी और न उसे अपनी साँसों का ही अहसास हो रहा था तब भी वह यूँही खड़ी उस आदमकद शीशे को देख रही थी जिसपर से उसकी परछाई गायब थी पर इस बात का अहसास उसकी शिकन में जरा भी नही था, तभी कोई और आकृति उस शीशे में बनने लगती है, धीरे धीरे वह शीशे में कोई आदमकद आकार लेती आकृति उसमें स्पष्ट होने लगती है| अब पलक उस आकृति के चेहरे की ओर अपना सारा ध्यान लगा देती है, ज्यों ज्यों वह चेहरा स्पष्ट होने लगा उसके चेहरे के भाव बदलने लगते है, धीरे धीरे स्पष्ट होता चेहरा अब ठीक उसकी नज़रों के सामने था| उस चेहरे के स्पष्ट होते डर का साफ़ साफ़ चिन्ह उसके हाव भाव में स्पष्ट हो उठा कि वह एकदम से चिहुंक उठी, अपने चारोंओर देखती वह अपनी स्थिति का पता करती है|
कमरे में अस्पष्ट अँधेरा पसरा था जिससे उसकी नज़र खिड़की के बाहर के फैले अँधेरे पर जाती है तो उसे अहसास होता है कि अभी सुबह नही हुई थी और शायद एक बार फिर वह सपना देखती हुई चिहुंक उठी थी| अब दीवार खड़ी की ओर नज़र जाते उसके चेहरे पर एकबार फिर कोई अनजाना डर अपना पैर पसारने लगता है, वह हर ओर देखती है पर किसी भी दीवार पर उसे कोई घड़ी नही मिलती, तभी कोई आवाज उसके आस पास फैलने लगी जिसपर उसका ध्यान चला गया| वह आवाज नीम अँधेरे को चीरती हुई धीरे धीरे उसके कानों के और पास होती जा रही थी, वह कोई जानी पहचानी आवाज थी जो कई बार वह सुन चुकी थी, ये सोचते उसका मन कांपता हुआ झुरझुरी लेता है| वह डमरू की आवाज थी जो लगातार उसके आस पास से उभरने लगी थी कि उसका शरीर एक बार तेजी से हिलता है और वह झटके से ऑंखें खोल लेती है, उसकी नज़रों की सीध में झलक थी जो उसे हिलाती उठाती हुई कह रही थी – “तू सोती है या बेहोश होती है – कब से उठा रही हूँ सुनती ही नही – लो आवाज देती माँ खुद आ गई |”
झलक को किसी पत्थर की भांति बैठी वह सुनती रही, माँ अब उसके पास आती उसके सर पर प्यार से हाथ फेरती हुई कह रही थी – “अब उठ जाओ जब दोपहर से साँझ मिलती है तब नही सोते – चलो उठो – थोड़ा छत पर हो आओ और बचे हुए कपडे भी ले आना |”
“इस सिंड्रेला को काम देती रहो माँ नहीं तो ऐसे ही तानकर सोती रहेगी |”
झलक की बात सुन माँ अब उसकी ओर देखती हुई कहने लगी – “झलक बेटा अपनी टेबल के पॉट में पानी डाल दो – देखो कैसा सूखा जा रहा है |”
माँ की बात सुन झलक सोचती हुई कि माँ से नजर मिलते वह एक काम बता देती है वह चुपचाप टेबल पर रखे अपने गिलास का पानी उसमे उड़ेलने लगती है, जिसे देखती माँ उसे टोकती है – “अरे झूठा पानी नही डालते – उफ़ कितना आलस आता है इस लड़की को – लाओ मैं ही इसमें पानी डाल आती हूँ|” कहती हुई माँ जल्दी से टेबल का रखा पॉट उठा लेती है|
माँ चली गई तब धीरे धीरे सब याद करती हुई पलक को ध्यान आता है कि वह दोपहर को सोई तो कुछ ज्यादा ही सो गई, और इस बार फिर किसी अजीब सपने के अन्दर सपने में वह उठी थी| अचानक सारा सपना धुंधला धुंधला उसकी नज़रों में किसी चलचित्र सा घूम गया, वह आदमकद शीशा, खुद का दुल्हन के रूप में दिखना और शीशे में उसकी आकृति के बजाए किसी ओर की आकृति दिखना, थोडा सा दिमाग में जोर देते उसे याद आ गया कि उसने अनिकेत को देखा था शीशे में, कैसा अजीब अहसास था वह !! आखिर क्या मतलब हो सकता है इसका !! वह अपनी आकृति के अक्स में अनिकेत को क्यों देखती है !! अचानक इस अहसास के साथ बड़ी तेज उसे अनिकेत की याद हो आई, साथ ही सब बुरा बुरा सा लगने लगा, वह किसी तरह से वक़्त से समझौता करती सब स्वीकारती जा रही है फिर क्यों इस तरह के सपने उसके मन को आंदोलित कर जाते है !! न खुद वह आया न वह उसे ढूंढ पाई फिर क्या मतलब निकाले इस तरह के सपने का !! ये सोचते उसका मन कुछ डबडबा गया फिर झटके से सारे विचार झटकती वह उठकर बेड से उतर कर झलक की ओर देखती है जो कमरे के एक कोने में बैठी अपने मोबाईल में लगी थी|
“झल्लो चलोगी छत पर मेरे साथ !”
“चलो…|” एक खिंची हुई आवाज में बोलती उठकर तैयार हो गई ये देख पलक को आश्चर्य हुआ कि कैसे एक बार में ही झलक राज़ी हो गई|
दोनों छत पर जाने सीढियाँ साथ साथ चढ़ रही थी| पलक कुछ सोचती हुई झलक से कहती है –
“झल्लो मुझे बहुत अजीब से सपने आते है – मैं सपनो में सपना देखती हुई उठ जाती हूँ |”
“तो कम सोया कर तो कम सपने आएँगे |” तुरत बात का प्रतिउत्तर देती झलक अब सीढियाँ चढ़ आई थी| दोपहर ढलते अब शाम हो आई थी जिससे आसमान नारंगी बैगनी हो चला था|
“तू समझ नही रही – सच में मुझे कई दिन से अजीब से सपने आ रहे है और आज तो…|” हिचकिचाती हुई पलक कहती कहती रुक गई|
पर उसकी बात पर पलटकर उसकी ओर देखती हुई झलक पूछती है – “क्या आज तो !!”
“मैंने अनिकेत जी को सपने में देखा वो भी अपने अक्स के रूप में |” धीरे से अपनी बात कहकर झलक की प्रतिक्रिया के लिए उसका चेहरा तकती वही ठहर जाती है|
“सपने में ही दिखे होंगे क्योंकि हकीकत से तो गायब ही है – जाने कहाँ है – पहले तो सोचने भर से जिन्न जैसे प्रगट हो जाते अब तो आते ही नही – |”
झलक की बात सुनती पलक मूक उसकी ओर देखती रही जो लगातार बोले जा रही थी – “चल छोड़ होंगे कही पर आना चाहिए था मिलने – आदमी कमाल के थे पर बातें थोड़ी अजीब करते थे लेकिन ये भी सच है कि अगर वे नही होते तो तू भी न होती |” झट से जो झलक बोल गई उसे सुन पलक अवाक् नज़रों से उसे देखती रही|
“क्या मतलब !!”
“हाँ तुझे कैसे पता चलेगा – तू तो बेहोश थी – बेहोश क्या – तेरी तो बुरी हालत थी – मतलब कि तेरा शरीर हमारे सामने था पर पंडित जी के अनुसार तेरी आत्मा समय पार करके चली गई तब वही थे जो अपनी जान पर खेलकर सपनो की यात्रा की और तुझे वापस लाए |”
“पर ये सब मुझे क्यों नही याद !!”
“क्योंकि सब कुछ तुम्हारे अवचेतन मन में हुआ जिसमे वे अदृश्य रूप से तेरे साथ साथ रहे और हर मुश्किल से तुझे बचाते रहे – तभी तो तुम्हारी जान बची |”
ये सब कुछ सुनना पलक के लिए बिलकुल नया था, उसे कुछ भी याद नही था पर हाँ अनिकेत के साथ का आभास तो उसे भी था लेकिन इतना कुछ किया होगा इसका उसे अंदाजा भर भी नही था|
“कितनी अजीब बातें करते थे – कहते थे कि इन्सान कही भी रहे पर मानसिक उर्जा से वह किसी से भी जुड़ कर उससे संपर्क कर सकता है बिलकुल वाई फाई की तरह…|” कहती हुई झलक कसकर हँस पड़ी|
लेकिन पलक अवाक् उसे देखती रही, उसे अनिकेत के साथ कुछ अलग और ख़ास महसूस होता था पर उसकी वजह ये होगी इसका अब उसे अहसास हुआ|
झलक छत पर के बचे कपड़ों को उठाती हुई पलक को पुकारती है – “चले अब ?”
झलक की आवाज से जैसे उसकी खोई तन्द्रा वापस आई तो वह एकदम से झलक का हाथ पकडती हुई कहती है – “झल्लो मेरी बहन क्या ये सब सच है – अगर सच है तो मैं ये क्या करने जा रही हूँ – मेरा मन पहले ही कहता था कि मैं अनिकेत जी के प्रति कुछ अलग महसूस करती हूँ अब जाकर इसका आधार समझ पाई आखिर ये उनका दिया जीवन है फिर इसे किसी और के कैसे नाम कर दूँ !”
पलक जैसे अपने में कोई कहती रही पर झलक उस पल बड़ी संजीदगी से उसकी सुनती हुई कहती है –
“जान बचाई तो क्या जान उनके नाम कर दोगी – हो सकता है जो सोचकर तुम्हारे लिए किया हो वो सिर्फ एक मदद हो – तुम कुछ ज्यादा ही सोच लेती हो और अब इन सब बातों का कोई मतलब नही – सब भूलकर आगे बढ़ो – समझी – चलो अब नीचे |”
कहती हुई झलक सीढियां की ओर बढ़ने लगी तो पलक ने फिर उसका हाथ पकड़कर अपनी ओर खींचते हुए कहा – “मुझे अनिकेत जी से प्यार है |”
जिस गहराई से पलक ये कह गई उसका लेशमात्र असर भी झलक पर नही दिखा वह उसका हाथ हटाती हुई कहती है – “प्यार व्यार कुछ नही होता – ये बस कुछ पल का केमिकल चेंज है और कुछ नही –|”
“तो क्या तुम्हें शौर्य जी से प्रेम नही !”
“प्रेम !! तुम बेकार की बातो में न खुद उलझो और न मुझे उलझाओ – प्रेम से जिंदगी नही चलती – तुम खुद को परेशान करना बंद करो और आगे की सोचो और रही बात इस पंडित जी की तो उन्हें तुमसे कोई मतलब नही अगर होता तो मिलने न आते !!”
इस पर पलक ख़ामोशी से अब नीचे देखने लगी|
“इसलिए कहती हूँ बेकार में खुद को परेशान मत करो और आगे की सोचो – अगर मम्मी पापा को तुम कोई दुःख नही देना चाहती तो !”
झलक अपनी बात कहती सीढ़ियों की ओर बढ़ कर नीचे उतरने लगी और आज पहली बार झलक अपनी समझ से बहुत ऊपर की बात कह गई थी जिसे सुनती पलक स्तब्ध खड़ी रह गई|
क्रमशः……….
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