
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 22
राजमहल के अपने शयनकक्ष में राजा साहब के सिरहाने बैठी अपलक उनका चेहरा देखती रानी साहिबा के खुद के हाव भाव चढ़ उतर रहे थे| राजा साहब की हालत नाजुक थी भलेहि राजा साहब को ये नही बताया गया था पर जब से डॉक्टर ने रानी साहिबा को उनकी तबियत का बताया था वे उनके स्वास्थ के लिए परेशान हो गई थी| मन हज़ार तरह की आशंकाओ से भयभीत था फिर भी चेहरे के पीछे उन आशंकाओं को छिपाए वे मुस्कराती हुई कहती है –
“लगता है आप इस विवाह की चिता कर रहे है पर आप बिलकुल बेफिक्र रहिए सब कुशलता से हो रहा है – अब तो दिन भी ज्यादा शेष नही |”
“जी आप सही कह रही है – दिन बेहद कम लग रहे है |” एक गहरा उच्छ्वास छोड़ते हुए वे कहते है|
राजा साहब की द्विअर्थी बात के मर्म से रानी साहिबा का मन भी आद्र हो उठा, वे बेचैनी से उनकी ओर देखने लगी जिससे राजा साहब बात सँभालते हुए कहते है – “मतलब दो दो विवाह एकसाथ होंगे आप पर कुछ ज्यादा ही भार होगा और विवाह को दिन भी शेष नही|”
“जी – आप देखिएगा सब आशा पूरा माता भली करेंगी|”
रानी की सुन वे भी ऑंखें मूंदकर जैसे मन ही मन अपनी कुलदेवी को प्रणाम करते है| कुछ पल की ख़ामोशी के बाद राजा साहब धीरे से हिचकिचाते हुए कहते है – “शुभांगी जी हमे कुछ और भी कहना था आपसे…|”
“कहिए…|”
“अगले राजा के बारे में हम सोचते है….|” वे हिचकिचाते हुए अपनी बात कहते कहते रुक जाते है|
“राजा आप है इसमें क्या सोचना और रही बात कुंवर के राजभिषेक की तो रूद्र बड़े है उनका ही होगा|” सीधे राजा जी की आँखों में देखती हुई वे कहती है तो राजा साहब के भाव सहज हो उठते है|
“हमारी बड़ी बहन और बड़ी रानी का जो अधिकार था उससे उनका पुत्र होने से उनका भी वही अधिकार नियोजित हो जाता है – इसमें सोचना क्या |”
रानी की बात से वे वाकई प्रसन्न होते हुए उनका हाथ थामते घूमकर उनकी आँखों में देखते हुए कहते है – “आप के मुंह से ये सुन हमे बहुत सुकून मिला वैसे भी उनके साथ जो हुआ वो हमारे जीवन की ग्लानी ही है – |”
राजा साहब की बात सुन उनकी आँखों में कुछ उतर आया था| वे धीरे से कहती है – “आप ऐसा क्यों सोचते है !! आपने कोशिश तो की पर श्राप की होनी तो होनी ही थी और जो होना तय है उसके लिए आप कर भी क्या सकते है इसलिए तो हमे भी यही कदम उठाना पड़ा – पहली रानी के साथ होने वाला दुर्भाग्य होना तो तय है |”
“हाँ हमे तो लगा कि ये सब बस वहम है – यकीन ही नही किया और आखिर होनी हो ही गई तब अगर आप न होती तो कौन हमे और रूद्र को संभालता |” वे गहरी साँस छोड़ते हुए कहते है|
“इसी श्राप के कारण आखिर कोई भी राजघराना हमारे कुंवरों के लिए राजकुमारी देने को राजी नहीं हुआ वरना अपने समाज से बाहर हमे विवाह नहीं करना पड़ता |”
“आपने ठीक किया रानी लेकिन अभी आपका काम बहुत शेष है – जब तक वे राजमहल का हिस्सा रहेंगी उन्हें यहाँ के तौर तरीके सिखाने होंगे |”
राजा साहब की बात सुन रानी साहिबा एक गहरा शवांस खींचती हुई बोली – “बस सवा साल…|” फिर कुछ पल तक वहां ख़ामोशी छाई रहती है|
अपने कक्ष की ओर आती शारदा दूर से ही आवाज सुनती हुई कुछ ठिठक गई थी,
वह खनकती हुई आवाज नंदनी की थी| जैसे जैसे वह आगे बढती गई उसे आभास होता गया कि उसके साथ कोई और आवाज भी थी|
कक्ष में नंदनी किसी पटरे पर आड़ी तिरछी लकीरों में कौड़ी सजाए आगे करती दूसरी कौड़ी अपनी मुट्ठी में लेती खिलखिला उठी थी|
“म्हारी गोटी ने थारी गोटी को पीट दिया बापू |” अपनी हथेली के बीच पासा घुमाती रही|
सामने बैठा भुवन अपनी घनेरी मुछों के किनारे ऐठता हुआ अपनी ओर की कौड़ी आगे बढ़ाता हुआ कहता है – “म्हारे को लागे है म्हारी गोटी लुक भिचणी खेल खेले है – |” हँसता हुआ कहता वह गोटी आगे बढ़ाता रहा|”
“मिह तो जीत रही हूँ बापू |” कहती वह धीरे धीरे गोटी आगे बढ़ाती रही और हर बार अपने पिता की गोटी उठाकर खुश हो जाती|
खेल आगे बढ़ता रहा| लगा रहा था कि बस जीत नंदनी के पाले में है कि तभी एक गोटी भुवन ने ऐसी चली कि नंदनी की एक साथ लगभग सारी गोटी पिट गई और वह मुंह खोले देखती रह गई|
“अम्बर को तारो हाथ से कोणी टूटे |” कहता हुआ भुवन हँस रहा था जबकि नंदनी का मुंह लटक गया|
“लाडो – उच्च लक्ष्य प्राप्त करने के लिए सत् प्रयास करणा होता है – थारे को लगा मिय जीत रही पर मन्ने ध्यान अपने लक्ष्य पर था – थारे को भी जो चाहिए उससे कोणी ध्यान हटाना..|” आखिरी वाक्य भुवन उसके चेहरे को ध्यान से देखते हुए कहता है, वह बातों बातों में जो कहना चाहता था उसे समझने नंदनी भी अपने पिता का चेहरा ध्यान से देखने लगी कि किसी आहट पर उन सबका ध्यान दरवाजे की तरफ जाता है जहाँ से आती शारदा का ध्यान अपने बेटे शक्ति की ओर था जो उन दोनों से दूर किनारे बैठा किसी कोरे कागज पर चारकोल से कुछ बना रहा था, उसे देखती शारदा वही रुक कर उससे कह रही थी –
“शक्ति काई बना रहे हो ?”
वह बिना सर उठाए कहता है – “महल बना रहा हूँ माँ |”
अब वह भी झुककर उसकी ओर ध्यान से देखती हुई पूछती है – “कीसा महल शक्ति ?”
“जादुई महल है माँ – इसमें…|” अबकी शक्ति अपनी बात कहने पेपर लिए लिए अपनी माँ की ओर मुड़ते हुए चहकता हुआ कह रहा था और शारदा हतप्रभ उसका चेहरा ताकती रही| उसकी नज़रों के सामने उसका जवान लड़का बच्चों सा चहक रहा था| शक्ति जन्म से ही थोडा कम बुद्धि का था वह नंदनी से दो बरस बड़ा था पर बालबुद्धि अभी भी थी उसकी और जब भुवन सात बरस पहले उसे अपने साथ ले गया था तब वह बस पंद्रह बरस का था और आज बीस बरस का जवान होने पर भी वह उसी बालपन से चहक रहा था जिसे बचपन में देख माँ निहाल हो उठती थी पर जवान लड़के में देख खून का घूंट पी कर रह गई| इस बात की जिम्मेदार भी वह भुवन को ही मानती थी| जब अपनी हट में आकर भुवन से उसने विवाह किया और अपना सब कुछ छोड़ उसकी दुनिया में चली गई तब नही पता था कि उसकी जिंदगी कितनी बदल जाएगी| जयपुर में शुभांगी के साथ बालपन में वह उसकी सेवा करती बड़ी हुई तब बंजारों की कलाबाजी देखते कब भुवन से आँखें चार कर बैठी वह अपनी कोमल आयु में जान भी नही पाई फिर घर से बगावत कर सब कुछ छोड़ उसने जयपुर छोड़ दिया इसी बीच शुभांगी की बड़ी बहन जैसलमेर इस चौहान राजवंश की रानी बनी फिर उसके बाद वह इस घर आई, कितना कुछ बदल गया तब चार साल बाद जाकर कही शारदा वापस आई दो बच्चों को गोद में लिए, क्या कुछ गुजरा था इन चार सालों में उसके साथ पर सब कुछ पीछे छोड़ वापस आ गई जैसलमेर जहाँ शुभांगी ने उसे फिर अपना लिया उसे|
पीछे से भुवन भी आ गया पर वह कभी नही बदला इसी का परिणाम था कि जो स्थान शारदा का यहाँ था उसका आधा सम्मान भुवन का नही था बस वो उसका पति था इसलिए सबको उसे स्वीकार करना पड़ता था| वह भुवन की ओर देखती है जो बेटी संग कौड़ी खेल रहा था और नंदनी बच्चों सी चहक रही थी, ये सब देख उसका अंतर्मन कितना झुलस उठा ये बस उसका मन ही जानता था वह मन ही मन बुदबुदाती हुई वहां से चली गई – ‘ऊपर वाले ने सारी बुद्धि बस इसे ही दी – म्हारे बच्चों को ही निर्बुद्धि कर छोड़ा |’ कलपती हुई वह अब वहां नही रुकी और बाहर चली गई| ये देख भुवन उसके पीछे आवाज देता आया, आखिर जबसे वह वापस आया था शारदा उससे कटी कटी ही रहती, यहाँ तक कि नंदनी के विवाह की भी खबर उसे लगी तभी वह आया उसने तो अभी तक उससे कुछ नही कहा, वह उसकी ओर लपका कि कुछ कहे पर उसके बाहर आते आते वह जा चुकी थी|
“के हवा जैसी भागे है – आज भी म्हारी शारदे फुटलो लागे |” खुद से ही कहता वह अपनी अपनी घनेरी मुछों पर हाथ फिराता उस हिस्से से बाहर निकल जाता है| उसे बाहर का काम भी देखना था, उसे पता था वह कोई काम नही था बस उसे व्यस्त रखने के लिए उलझाया गया है बस| वह गलियारे से होता सीढियां उतरता पीछे की ओर से गुजर रहा था कि अचानक उसकी नज़र ने जिसे देखा तो वह आश्चर्य से उस ओर देखता रह गया| पीछे के हिस्से में बहुत ज्यादा ही झाड़ियाँ थी, उस ओर कोई ज्यादा आता जाता भी नही था पर वहां कुंवर नवल और रूद्र को आपस में बात करता देख वह झाड़ियाँ की ओट लिए उनकी ओर बढ़ने लगता है|
“भाई सा आप परेशान न हो जो आज न हुआ वो कल जरुर होगा – दरवाजा जरुर खुले..|” कहते कहते नवल का ध्यान कुछ हिलती झाड़ियाँ की ओर जाता है तो वह सावधान होता चुप हो जाता है|
तभी झंडियाँ से निकलता भुवन उनकी आँखों से सामने सर झुकाए कहता है – “खम्मा घणी कुंवर सा – मिह भुवन सिंह – नंदनी का बापू |” एक नज़र उठाकर वह उनके चेहरे के भाव देखता हाथ जोड़े रखता है|
वे आश्चर्य से उसकी ओर देख रहे थे, आखिर सात बरस पूर्व की यादाश्त को याद करने में समय लगता है पर इस वक़्त भुवन का महल के पिछले हिस्से में होना उन्हें और हैरान कर दे रहा था, जबकि वे खुद सबकी नज़रों ससे छुपकर वहां थे|
“म्हारे को यहाँ झाड़ियों की सफाई का काम करने का हुकुम मिला सो यहाँ चला आया – कोई और हुकुम सा ?”
वह अभी भी हाथ जोड़े था, ये देख रूद्र उसकी ओर देखता हुआ कहता है – “नही |”
मुश्किल से अदना सा शब्द बोलकर वे दोनों वहां से चले जाते है और भुवन तिरछी मुस्कान से उनकी ओर सर झुकाए देखता रहता है|
क्रमशः……………….
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