Kahanikacarvan

एक राज़ अनसुलझी पहेली – 30

शादी के हुल्लड़ माहौल से चुपचाप निकलकर कोई कदम फिर से उस दरवाजे के सामने खड़े थे| उस साए के हाथ में दबी चाभी वह ताले में लगाकर उसे झट से खोल लेते है| दरवाजा एक आवाज के साथ पूरा खुल जाता है जिसमे वह साया प्रवेश करते तुरंत उस आले की ओर बढ़ता है जहाँ वह बॉक्स रखा हुआ था| पर उसका हाथ ज्यों की खाली रह जाता है उसके हाव भाव में चढ़ा गुस्सा उसके शरीर के कम्पन से साफ़ साफ़ स्पष्ट होने लगती है|

‘ये कैसे हो सकता है – वह बॉक्स तो यही होना चाहिए – हमे यही तो बताया गया था |” वह झटके से खुद को काली चादर से अलग करती खुद में बड़बड़ा रही थी| वह राजमाता थी वो खुद में ही बडबडा रही थी| कुछ पल इधर उधर देखते वह वापस बाहर निकलने लगती है| उस कक्ष के अन्दर का वह गुप्त दरवाजा अब बंद था जिससे उनका ध्यान उस ओर नहीं गया और वह तुरंत ही वहां से निकलकर बाहर की ओर चल दी| बाहर निकलते निकलते उनके मन में ढेरों उथल उथल थी| आखिर इस चीज को पाने में उन्होंने सत्ताईस वर्ष का इंतज़ार किया वह पल में उनके हाथ से निकल गई थी| ये सोचते उनकी तैयोरियां चढ़ गई, कुछ तो उनकी पीठ पीछे हो रहा है !! कोई तो और है जो उनके अलावा ये जानता था पर कौन !!

ये रात इतनी लम्बी होगी कि सबके जीवन में अपनी छाप छोड़ जाएगी| जहाँ एक ओर झलक शौर्य के साथ अपने विवाह पर बेहद उत्साहित थी वही नवल पलक से विवाह होना अपने अहम् की जीत मान रहा था| दोनों दुल्हन इस वक़्त लम्बे घूँघट में थी| तभी तो कोई उस घूँघट के पीछे बदले चेहरे को जान भी नही पाया कि कैसे कुछ पल पहले नवल का विवाह नंदनी के साथ हो गया| ये बात सबसे ज्यादा नंदनी और भुवन को बेचैन किए थी| नंदनी का दिल जितना रो रहा था उतना ही गहरा आवरण लिए उसे सारे भाव सबसे छुपाने पड़ रहे थे| भुवन का मन इतना बेचैन था कि वह वहां ठहरा ही नहीं और उस जगह से निकल गया आखिर कितना कुछ सोच लिया था उसने कि जो विवाह उसने धोखे से कराया था उसका लाभ वह किस किस तरह से उठा सकता था पर अब सब कुछ पल में ही हाथ में आकर उसके हाथों से फिसल गया था| अब तक विवाह की आपाधापी में कौन गया और कौन वापस आया कोई समझ भी नही पाया| राजमाता जो अंतरस बहुत उलझी हुई थी अब फिर से विवाह के उत्सव में अपनी भरपूर मुस्कान के साथ शरीक हो चुकी थी| विवाह की सारी रस्मे हो चुकी थी और प्रीतिभोज भी लगभग समाप्त होने की ओर था| सभी मेहमान धीरे धीरे वापसी कर रहे थे|

कमरे के एकांत में अनिकेत अहिस्ते से उठकर खिड़की तक आता बाहर का दृश्य देखता है, सूर्य उदय होने को था| वह कुछ क्षण तक यूँही खड़ा रहा मानों किसी पल का वह इंतज़ार कर रहा हो|

“अनिकेत !”

आवाज उसके पीछे से आई थी जिससे वह पलटकर पीछे देखता है जॉन खड़ा उसे देखता पुकार रहा था|

“जॉन बहुत देर हो गई मुझे – मैं चाहकर भी कुछ नही कर पाया |” एक अफ़सोस सा उसके हाव भाव में उतर आया था|

जॉन कुछ न कहकर उसे गौर से देखता रहा, अनिकेत लम्बा पुष्ट शरीर वाला गौण वर्ण का युवक था, उस वक़्त उसके कंधे तक आते लम्बे बाल जो उसके दैहिक आकर्षण को बढ़ा देते थे वे अभी एक चोटी के रूप में बंधे थे जो उसके दैहिक आकर्षण को और भी चौगुना कर रहे थे|

जॉन जो सामान्य कद का युवक था उसके सामने आता उसके कंधे पर भरोसे का एक हाथ रखता हुआ कहता है – “हाँ हो तो गई फिर भी सब कुछ खत्म नही हुआ – अब समझो ये अच्छाई और बुराई का संघर्ष है जिसे हर हाल में हमे जीतना है लेकिन इस वक़्त तो मुझे यही सुकून है कि तुम वापस आ गए – मैं तो तुम पर से भी उम्मीद खो रहा था – आखिर कौन जानता था कि इन छह माह तुम कोमा की गहन निद्रा में थे – ये गहन नींद कभी भी मृत्यु में बदल सकती थी |”

इस पर अनिकेत हौले से मुस्करा कर उसके हाथ पर अपना हाथ रखता हुआ कहता है – “पर तुम्हारी दोस्ती मुझे वापस ले आई – |”

“हाँ वापस तो आ गए तो अपने अधूरे काम जल्दी पूरे करो – |”

“हाँ मुझे पलक को बचाना है – वह बहुत मुश्किल में है –|”

“ठीक है मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगा |”

“लेकिन सबसे पहले मैं पिता जी से मिलने जाऊंगा – इतने समय तक तो तुमने उन्हें कैसे भी विश्वास दिला लिया कि मैं विदेश में सुरक्षित हूँ नही तो मेरा मरणासन्न होना उन्हें अन्दर से तोड़ कर रख देता – |”

“हूँ |” दोनों विश्वास से एकदूसरे का हाथ थामे मुस्करा देते है|   

सुबह के समय दुलहन अपने अपने जोड़े संग बैठे कलेवा की रस्म निभा रहे थे| वैभव और नीतू अपने चुनिन्दा रिश्तेदारों के साथ दुल्हे का मुंह मीठा कर उनको उपहार दे रहे थे| होना तो ये चाहिए था कि वैभव और नीतू अपने घर से अपनी बेटियों को विदा देते पर यहाँ तो उन्हें विदाई की रस्म अदा कर खुद ही उनसे विदा लेनी थी| बहुत भावभीनी विदाई थी| मन इतना आद्र हो उठा कि मुंह से बोल ही नही फूट रहे थे| वैभव बेटी के पिता होने के नाते बेटी के ससुराल पक्ष में सभी को भेंट देते हाथ जोड़े विदा लेते अब अपनी बेटियों के पास आए जहाँ एक कक्ष में दोनों मौन बैठी थी| पहली बार झलक के मुख से हँसी लापता थी तो पलक मानों शून्य में ताक रही थी| माँ और मामी बारी बारी से भीगे मन से दोनों को गले लगाती कुछ कुछ कहकर अपना मन जता रही थी| शायद ये पल हर माँ के लिए सबसे भारी होता है जब एक क्षण को लगता है काश बेटी इतनी बड़ी न होती कि अपने घर आंगन से विदा करनी पड़ती|

“नीतू सुकून करो कि ये दोनों साथ में रहेंगी तो एकदूसरे का ख्याल रख सकेंगी |” मामी पलक और झलक को बारी बारी से देखती नीतू को दिलासा दे रही थी|

“हाँ भाभी यही तो सुकून है नही तो झलक की बड़ी चिंता रहती – पलक है तो ख्याल रख लेगी |” माँ उन दोनों का हाथ थामे कहती रही|

वैभव बड़ी देर तक मौन ही अपनी बेटियों को ताकते रहे पर गुजरते वक़्त को कहाँ रोक सकते थे| भरे मन से उस लम्हे से भी सभी गुजर गए| राजमाता ने उनको विश्वास भरी नज़रो से विदा दिया कि उनकी बेटियां अमानत सी सहेजी रहेगी| मन में यही विश्वास लिए सपरिवार वैभव वापसी कर गए|

विदाई भोर ही कर के वे सभी उदयपुर को निकल गए फिर वहां से अगले दिन लखनऊ निकलने का विचार था|

अब राजमहल में कोबर की रस्मे होने की तैयारी थी| एक कक्ष को फूलो से सजाया जा रहा था जहाँ नई बिन्दनी संग लाखिनी और घूमर की रस्म होनी थी| वे दोनों अभी एक ही कक्ष में सेविकाओं के बीच बैठी थी| वे दोनों संग संग होते हुए भी खामोश थी सभी इसे महसूस कर पा रहे थे आखिर उनके पिता अभी अभी तो वापस गए थे| ये आन्तरिक समझने का भाव था इसके किसी शब्दों की सीमा में बता पाना कहाँ संभव था|

झलक कुछ पल बाद पलक के पास आती हुई उसे पुकारती है, पलक जो टेक लिए सर टिकाए बैठी थी| उसका चेहरा अभी भी घूँघट में था जबकि झलक अपना घूँघट आधा कर चुकी थी|

“पलक !!”

बार बार उसे पुकारने पर भी जब पलक जवाब नही देती तो झलक हौले से उसका कन्धा पकड़कर ज्योही हिलाती है उसके बाद उसके गले से चीख निकल पड़ती है| पलक की देह एक ओर लुढक गई थी|

सभी उस चीख को सुनते उनकी ओर दौड़ जाते है| सभी के मन में कई तरह से प्रश्न घूमने लगे…क्या हुआ है नई बिन्दनी को !! क्या विवाह की थकन है या उदासी से वह बोझिल हो गई !! जानने के लिए पढ़े अगला अंक….

क्रमशः….

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