
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 34
शाम से रात होते होते मंदिर की भीड़ छटने लगी|जब अनिकेत ने मंदिर में प्रवेश किया तब मंदिर स्थल में इक्का दुक्का भक्त ही रह गए थे| पंडित जी प्रतिमा का पट बंद कर हाथ जोड़कर वहां उपस्थित दूसरे पंडित के सब हवाले करते एक एक करके सभी प्रतिमा के पटबंद करते भगवान का स्मरण करते जा रहे थे| वह भगवान की स्तुति में इतने मग्न थे कि अनिकेत का आना भी वह देख नही पाए| वह आते उनका चरणस्पर्श करता है पर पंडित जी कोई भक्त समझ बिना देखे ही उसके सर पर हाथ फेरते प्रतिमा की ओर दृष्टि किए रहे ये देख अनिकेत हौले से मुस्करा कर हाथ जोड़े किनारे खड़ा हो गया|
“अरे भैयाजी कैसे है – कब वापिस आए ?” दूसरा पंडित जो नवयुवक ही था बाकी का पूजन सामग्री समेटता हुआ अनिकेत की ओर आता हुआ पूछता है|
“अच्छा हूँ बस अभी आया |” जवाब में कहता अनिकेत एक दृष्टि पुनः पिता की ओर डालता है जो अनिकेत की आवाज सुन तुरंत ही उसकी ओर मुड़ गए थे|
अपने पुत्र को सामने देख पंडित जी अपनी भरसक शक्ति से तुरंत उसकी ओर भागे तो एक पल को उनके पैर डगमगा गए जिससे अनिकेत आगे बढ़कर उनको संभाल लेता है| इतने समय बाद अपने पुत्र को देख वह भावविभोर होते वे उसे अपने अन्दर भींच लेते है मध्यम कद के पिता की ओट में लम्बे कद का अनिकेत भी बालक सा लिपट गया| उस पल भावनाओं के समंदर में शब्द तिनके से बह गए बस भीगी आँखों से शब्द हौले हौले बह निकले थे| ऐसे भावुक पल में जॉन मंदिर की देहरी पर तो नवयुवक पंडित अपने स्थान पर बुत बना पिता पुत्र का मिलन देखते रहे|
कुछ क्षण बाद नवयुवक पंडित आगे बढ़कर उन्हें घर जाने का निवेदन करता मंदिर का बाकी काम खुद समेट लेने का उन्हें भरोसा दिलाता है जिससे वे अनिकेत को लिए घर के लिए निकल पड़ते है साथ ही जॉन भी उनके साथ हो लेता है|
महल में उसके अपने कक्ष में सेविका के बीच बैठ झलक के चेहरे पर इत्मीनान भरी मुस्कान थी| वे उसे तैयार कर रही थी, उस वक़्त राजस्थानी घाघरा चुन्नी में झलक कुछ और ही हो गई थी| अनामिका ज्यों ही वहां उसे देखने आती है झलक को देख उसके पास पहुँचती उसे गले लगा लेती है|
“फुट्लो लागे है मतलब बहुत सुन्दर लग रही हो |” अनामिका उसकी आँखों के प्रश्न को समझती हुई अपनी बात पूरी करती है जिससे झलक मुस्करा देती है|
फिर सखियों को आपस में बात करने छोड़ सेविका हाथ जोड़े खड़ी होती हुई जाने की आज्ञा मांगती है तो अनामिका सहमती में सर हिलाती है| उनके जाते साखियाँ एकदम से खुलकर हँसती खिलखिला उठती है|
“क्या बात है आज तो गुलाबो की लाली गालों से नही हट रही – लगता है शौर्य जी की तो आज खैर नही जो इन कटीले नयन से बच जाए |”
“तुम भी न – मैं तो इस समय पलक के बारे में सोच रही हूँ – क्या तुम मिली उससे !”
“पलक से !! नही – अभी तो माँ सा के पास से आ रही हूँ – सोचा पहले तुमसे मिल ले फिर पलक के पास चली जाऊ |”
अनामिका के हलके भाव से भी झलक के चेहरे पर आए परेशानी के भाव बिलकुल ही हटे|
“अनु – क्या मैं अभी मिल सकती हूँ पलक से ?” एकदम से उसकी ओर मुड़ती उसके कंधे पकड़कर झंझोड़ती हुई पूछती है|
“तुम अभी कैसे जा सकती हो – कुछ दिन तो तुम्हे महल से रास्ते भी समझ नही आएँगे और फिर अभी तुम दोनों का पहला दिन है – कल मैं खुद पलक के पास ले जाउंगी पर आज नही झल्लो – समझ न |”
“अच्छा ठीक है पर अनु तुम जरुर मिल आना उससे – मुझे …|” कहते कहते झलक रूककर अनामिका का चेहरा देखती रही |
“क्या – कोई बात है क्या ?”
“अब क्या बताऊँ – पता नही ऐसा मुझे ही लगा या सच में ऐसा ही है !”
“कैसा झलक – मैं समझी नहीं !”
“आज रिवाजो के बीच पलक का व्यव्हार कुछ अजीब सा लगा – मतलब कहीं भी ऐसा लगा ही नही जैसे वो मेरी बहन है – बहुत अजीब – क्या तुम्हे नही लगा ?”
“नही ऐसा तो मैंने ध्यान नही दिया |” कहती हुई अनमिका सोचने लगी|
“अजीब था – उसने एकबार भी मेरी ओर नही देखा !”
झलक का परेशान चेहरा देख अनामिका उसके हाथ अपनी हथेली के बीच थामती मुस्कराती हुई कहती है – “बस यही बात – झल्लो सब कुछ इतनी जल्दी हुआ शायद इसी वज़ह से वह परेशान हो गई हो – डोन्ट वरी उससे मिलकर उसे भरोसा देंगे हम |”
“हम्म |” झलक आँखों से मुस्करा दी|
“अब झल्लो रानी आप अपना ख्याल रखे – आज की रात तो बड़ी ख़ास रात होने वाली है|” बढकर उसका गाल चूमती हुई अनामिका कसकर हँस पड़ी| इससे दोनों सखियाँ साथ में मुस्करा पड़ी|
पंडित जी की अकेली दुनिया में बस उनका बेटा ही उनका एकमात्र सहारा था| आज उसे इतने समय बाद देख उनका मन झूम उठा था| यूँ तो रोजाना वे खाना खुद ही बनाते थे पर आज बेटे के आने से उन्हें खाने का ख्याल ही नहीं रहा या यूँ कहे कि अनिकेत ने उन्हें जाने ही नहीं दिया और जॉन को बाहर से खाना लाने भेज दिया|
“बेटा तुम तो पढने गए थे पर पता नही क्यों मेरा मन तुमको लेकर बहुत घबराया हुआ था – शायद पिता का मन ही ऐसा हो |” खुदपर ही हँसते हुए वे कहते रहे – “पूरे छह महीने तुम तो आए नही पर तुम्हारा हाल देने के लिए तुम्हारे दोस्त का फोन आ जाता बस वही मेरे बोझिल मन का सहारा था पर अब तुम्हे सामने देख मन को बड़ा ढांढस मिला -|”
अनिकेत जिस हालात से निकला वह अपने पिता को नही बता सकता था पर उसे अपने पिता की मनस्थिति का अंदाजा था जिससे वह उन्हें ढांढस देता बिना उनकी बात काटे बस हौले से मुस्करा देता है|
“क्या करूँ मन दिमाग की कहाँ सुनता है – दिमाग कहता था कि तुम जरुर किसी विशेष काम में फसे हो नही तो क्या खुद बात नही करते लेकिन मन की चिंता के आगे सभी विचार बौने हो जाते थे – |”
“मैं यही हूँ पिता जी आप चिंता न करे |”
“हाँ बेटा – तुम्हे देखकर मन को पता नही आज पहली बार बड़ा अजीब सा सुकून हुआ – बताऊँ कैसा ?”
अनिकेत भी आँखों से हाँ कहता है|
“जैसा तुम्हारे जन्म के समय हुआ था – बड़ी मुश्किल घडी थी – ईश्वर ने मुझसे दो बार संतान सुख छिनने के बाद तुम्हे जब मेरी झोली में डाला था उस वक़्त जो सुकून तुम्हारी माँ और मेरे मन में उत्पन्न हुआ था इतने समय बाद वही सुकून दुबारा महसूस हुआ – अजीब है – शायद पुत्र मोह हो – आखिर तुम्हारी माँ की असामयिक मृत्यु के बाद हम ही एकदूसरे का सहारा है – यही मेरी ताकत भी है और निर्बलता भी |” कहते कहते उनकी आवाज कंपकपा गई थी|
अनिकेत के पास उस वक़्त अपने भाव व्यक्त करने को कोई शब्द नही बचे वह तो बस भरोसे से उनका हाथ थामे बैठा रहा|
अनामिका झलक के पास से होकर अब पलक के पास चल दी| वह उसके कक्ष के पास पहुंची तो सेविकाओं को उसके कक्ष के बाहर ही देख कारण पूछ उठी – “तुम सब बाहर हो – क्या पलक तैयार हो गई या अभी आराम कर रही है ?”
“नही हुकुम बाई सा – हम सब जब तक आई वे तैयार ही थी और उन्होंने हमे बाहर भेज दिया इसलिए हम यही खड़ी है |”
“ओह – हम देखते है |” कहती हुई अनामिका अन्दर जाने लगी तो सेविका ने दरवाजा खोल दिया|
अनामिका अन्दर आते एक सरसरी निगाह से कमरे को देखती है| ये नवल का कक्ष था जो महल का सबसे बड़ा कक्ष था क्योंकि इस कक्ष के अन्दर ही तीन तरह के रूम थे जिसमे एक उसकी पर्सनल लाइब्रेरी, एक शयनकक्ष, एक बैठक था और इसमें लाइब्रेरी हमेशा बंद रहती थी जिसमे आजतक कोई और नही गया था| अनामिका बैठक से होती शयनकक्ष की ओर बढ़ गई| कक्ष को आज विशेष रूप से सुगन्धित फूलों से सजाया गया था फिर भी कक्ष अपने समूल अस्तित्व में था|
“पल्लो |”
शयनकक्ष और बालकनी के बीच एक झीने रेशमी परदे की दीवार थी जिसके झीने परदे के पार का दृश्य कुछ कुछ दिखता था| अनामिका जब शयनकक्ष में पलक को नही पाती तो बालकनी तक उसकी नज़र दौड़ जाती है तभी उसे लगता है जैसे कोई बड़ा साया उस बालकनी की रेलिंग पर खड़ा नीचे देख रहा है| ये देख उसकी ऑंखें आश्चर्य से भर जाती है आखिर कोई इतना बड़ा साया कैसे हो सकता है और किसका ?? अगर है तो नीचे क्यों नही गिरा ?? वह धीरे धीरे आगे बढती रही ज्योंही वह पर्दा हटाती है पलक सामने उसे दिखती है| वह उसे देख वही बुत बनी उसे देख सोचने लगी सच में वह तो पूरी तरह से तैयार थी राजस्थानी वस्त्र में|
अगले ही पल अनामिका की ऑंखें हैरानगी से हवा में लटकी रह जाती है| सर पर आंचल रखे उसका मुंह सीधा अनामिका के सामने था| उस पल उसका रूप देख वह जैसे सब भूल ही गई कि क्या कहने सुनने आई थी| बस एकटक देखती रह गई| पलक की कजरारी ऑंखें जैसे सीधा अनामिका की आँखों पर टिकी रही तभी उसके पीछे से एक आवाज से अनामिका की तन्द्रा टूटी और वह अपने पीछे पलटकर देखती है हकबकाई हुई नंदनी को खड़ा वह पाती है|
“क्या हुआ नंदनी ?”
अनामिका पलक की ओर पीठ किए नंदनी से पूछ रही थी और नंदनी अनामिका के पीछे पलक को देख रही थी जिसके चेहरे पर हलकी मुस्कान तैर रही थी| नंदनी से कुछ कहते न बना वह तो उन कजरारी आँखों के अन्दर तैरते लाल डोरों को देख सकते में आ चुकी थी|
क्या हुआ था पलक को ? नंदनी ने जो देखा क्या वह अनामिका देख पाएगी ? जानने के लिए पढ़ते रहे एक राज़ का अगला भाग……क्रमशः
Very very👍👍👍👍👍🤔🤔🤔🤔🤔