
एक राज़ अनसुलझी पहेली – 72
रेतीले दलदल में अनिकेत धस ही जाता अगर वह हाथ उसे अपनी ओर खींच न लेते| अनिकेत उन हाथो को थामे नज़रे उठाकर देखता है उसके सामने पलक थी| वह उसे क्षण भर देख ही पाया था कि तेज बवंडर उसे अपनी ओर आता महसूस हुआ जिससे बचने अनिकेत पलक को अपनी बाँहों के बीच छुपा लेता है तो पलक भी उसके सानिध्य में स्वयं को समेटी थी| रेत का बवंडर उनकी ओर बढ़ता जा रहा था और ठीक उनके सामने मंडराने लगा| इससे उन्हें कही कुछ नही दिखाई दे रहा था| बस काले धुंए के रेतीले कण अपने आस पास महसूस हो रहे थे| बहुत देर तक जब वह बवंडर यूँही मंडराता रहा तो दोनों एकदूसरे को देखते आँखों आँखों में एकदूसरे को कुछ कहते है फिर तुरंत ही उठकर उस बवंडर के पास चलने लगते है| ऐसा करते वे ज्यो ज्यो बवंडर के पास जा रहे थे हवा उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश कर रही थी पर उनके कदम एक साथ बढ़ते बिलकुल न रुके| आगे बढ़ते हुए वे दोनों एकदूसरे का हाथ कसकर पकडे थे| अगला ही पल ऐसा आया जब दोनों एकसाथ उस बवंडर के बीच से गुजर जाते है| हवा के तेज वेग को चीरते वे उस पार निकले जहाँ सब कुछ सामान्य था, न कही बवंडर था और न तूफान के आसार, वे तुरंत ही पलटकर पीछे देखते है अब वहां कोई बवंडर का नमोनिशान नही था जिससे वे मुस्कराते एकसाथ आगे की ओर बढ़ते रहे| दोनों के हाथ अभी भी एकदूसरे से बिंधे हुए थे जिससे दोनों एकसाथ कदमताल करते आगे बढ़ते रहे तभी उनकी दृष्टि में एक उजला प्रकाश स्पष्ट होता है जिसे देखते अब उनके कदम और तेज हो चले थे| वे अब भागते हुए उस उजाले की ओर बढ़ रहे थे जो किसी माला के आकार का दिखाई दे रहा था और एक क्षण ऐसा आया जब वे उस रौशनी को एकसाथ पार करते है| और उनके ऐसा करते वह रौशन क्षणभर में गायब हो जाती है|
महल के सामने खड़ा आदर्श नज़र उठाकर उसे देखता धीरे से बुदबुदाता है – “ये कैसा भ्रम था कि हम घूम फिर कर वही आ गए|” आदर्श जहाँ महल के सामने खड़ा था वही कार में बैठी तीन जोड़ी निगाहे उसी पर टिकी थी जैसे सभी अगला क्या करना है तय कर पाने में असमर्थ थी| अभी आदर्श किसी सोच में डूबा ही था कि सामने का गेट आवाज करता हुआ खुलने लगा जिससे सभी की निगाह अब उस ओर उठ गई थी| गेट को खोलते हुए उन्हें जो शख्स दिखता है उसे देखते उनकी आंखे हैरानगी से फ़ैल गई| रचित अब ठीक आदर्श के सामने खड़ा कह रहा था – “आप सब यहाँ कैसे – मुझे लगा आप चले गए होंगे |”
रचित की बात से आदर्श परेशानी में होंठ चबाते हुए जवाब देता है – “हाँ जा ही तो रहे थे फिर पता नही कैसे कार इस ओर मुड़ गई और हम यहाँ आ गए – पता ही नही चला कैसे हुआ ये ?” अपने आखिर शब्द पर जोर देता आदर्श कहता हुआ फिर एकबार अपनी नज़र उस महल के दृश्य की ओर दौड़ा देता है|
“चलिए कोई बात नहीं – अब इतनी रात को फिर वापस कैसे जाएँगे ?” कहता हुआ रचित अबकी कार में बैठी सवारियों पर अपनी निगाह करता हुआ कहता है – “सभी परेशान हो रहे होंगे ऐसा करिए आप सभी होटल में चलिए |”
आदर्श के पास भी अब कोई रास्ता नही बचा था सो वापस कार की ओर जाता अपनी बुआ और बाकी को आने को कहता है| ऑप्शन शायद अब किसी के पास नही बचा था इसलिए बेमन से ही सही पर सभी एक एक करके कार से उतर आते है|
इससे उनकी ओर देखता रचित आगे कहता है – “आप सभी मेरे पीछे आइए – मैं आप लोगों को होटल में ले चलता हूँ |” कहता हुआ रचित एक घूमती नज़र झलक की ओर दौड़ाता हलके से मुस्करा देता है पर इसके विपरीत उसके चेहरे के भाव सपाट बने रहते है| रचित अब आगे आगे चल रहा था तो सभी उसके पीछे पीछे चले जा रहे थे| रचित सामने की ओर से न जाकर बगल से होता पीछे की ओर जाने लगता है तो आदर्श उसे टोकता हुआ पूछता है – “हम पीछे से क्यों जा रहे है ?”
रचित बिना मुड़े चलते चलते कहता है – “क्योंकि आगे के दरवाजे अभी बंद कर दिए गए है|”
अब सभी चुपचाप उसके पीछे पीछे चलने लगे थे| वे सभी महल के पीछे अँधेरे वाले हिस्से से गुजरते किसी सीढ़ी की ओर बढ़ रहे थे| रचित तेजी से उन सीढ़ियों पर चढ़ जाता है तो बाकी सभी अपनी अपनी चाल से उसके पीछे पीछे चल रहे थे| आदर्श ठीक रचित के पीछे था तो उसके पीछे अनामिका और झलक फिर आखिर में अपने थके कदमो से नीतू चल रही थी| वहां रौशनी कम थी इसलिए सभी सीढियाँ टटोलते हुए चले जा रहे थे| आदर्श कुछ देर सीढ़ी चढ़ने के बाद रचित को अपने आगे न पाकर उसे आवाज लगाता है पर वापसी में उसे कोई प्रतिक्रिया नही मिलती जिससे वह फिर और तेज आवाज में उसे पुकारता सीढ़ी पर ही ठहर जाता है| उसे कुछ अटपटा लगता है जिससे घबराकर अब वह तुरंत कुछ सीढ़ी उतरते झलक और बाकी को आवाज लगाता है पर बदले में किसी की ओर प्रतिक्रिया नही मिलती| उसे कुछ समझ नही आता तो वह झट से लगातार और सीढियाँ उतर जाता है पर कही कोई नही दिखता| अब तो ये सब देख उसका दिमाग ही घूम चुका था| सभी उसके पीछे थे तो आखिर गए तो कहाँ गए ? वह घबराहट में जोर जोर से आवाज लगाकर सबको बुलाता है पर बदले में उन दीवारों से जैसे उसी की आवाज लौट कर वापस आ जाती पर किसी अन्य की आवाज नही मिलती|
“ये क्या हो रहा है – सब गए तो कहाँ गए और ये रचित – ये भी गायब हो गया – कही ये….!!” अब आदर्श का दिमाग बुरी तरह रियक्ट कर उठा पर करे क्या यही सोच कभी वह सीढियाँ उतर जाता तो कभी सीढियाँ चढ़ने लगता है पर कही कोई नज़र नही आता| ऐसा करते वह बुरी तरह से हांफ रहा था|
रानी साहिबा शाम से महल के मंदिर की चौखट पर उदासी से बैठी दीए जला रही थी| महल के इस मंदिर में आज भी उनकी प्राचीन प्रथा के अनुसार शाम से दीए जला कर ही रौशनी की जाती पर कोई कृत्रिम रौशनी नही की जाती थी| अपने उदास मन और अपने परिवार की सलामती के लिए आज सारे दीए वे खुद जला रही थी| अनअभ्यस्त काम के चलते उन्हें शाम से रात होने को आई थी तब जाकर वे सारे दीए जला पाई थी| एक नज़र उठाकर वे मंदिर की आभा पर अपनी दृष्टि दौड़ाती है, कभी जगमग रहने वाला मंदिर आज सूना पड़ा था और पिछली बार की आग की वजह से उसका बाहरी हिस्सा काफी हदतक जल कर नष्ट हो चुका था| बस मंदिर के अन्दर देवी की मूर्ति शेष थी, जिनके आस पास ही पूजा योग्य स्थान था| अभी तक बस समय के अभाव के चलते काम चलाऊ ही मंदिर की मरम्मत हुई थी| रानी साहिबा पूजा करके मंदिर की चौखट से मंदिर की सीढियाँ उतर रही थी जो बमुश्किल छह सात ही थी| अपनी सोच में डूबी वे सीढियाँ उतर रही थी कि नही देख पाई कि उनके पीछे के सारे दीए बुझ गए थे| चौखट के पास जलता दीया अचानक पलट जाता है जिससे उससे निकला तेल सीढ़ियों पर फैलने लगता है| लेकिन रानी साहिबा का ध्यान उस ओर नही गया और आखिरी सीढ़ी पर पैर रखते वे तेज झटके से साथ फिसलती गई| उस पल उन्हें बस आभास हुआ कि वे कई मंजिल सीढियाँ बस गिरती चली गई और उनकी दर्द भरी आवाज उस सन्नाटे में गूंजती रही|
महल का एक छुपा हिस्सा जहाँ राजगुरु अट्टहास करता हवा में बुदबुदा रहा था|
‘अभी तो शुरुआत है – मैं सबको ऐसी मौत दूंगा जो महल की दीवारों भी देख काँप जाएगी – महामाया सबको लाना है यहाँ तुझे और अपना तांडव मचाना शुरू कर दे – मैं किसी को भी छोड़ने वाला नही – न महल वालों को और न उनके हितैषी को – लेकिन पहले तू मुझे यूँही छुपाए रखना कि मैं होकर भी किसी को न दिखूं |’ आखिरी बात कहता वह हडबडाता हुआ अपने आस पास देखने लगा जैसे अभी भी लोग उसे देख रहे थे पर उस एकांत में सिवाए हवा में लहराती आकृति के अलावा कोई नही था…..
क्रमशः……….
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