Kahanikacarvan

एक राज़  अनुगामी कथा – 17

पलक को किसी तरह चुप कराकर सबको समझाती हुई मामी जी आदर्श के साथ आगरा के लिए निकल गई| पलक चुप तो हो गई पर मन की उदासी अभी भी उसके चेहरे से गई नहीं थी| अपने पापा की वे लाडली बेटियां थी जिन्हें कभी ऊँची आवाज में डांटा तक नही गया पर आज वही पापा उनसे नाराज़ हुए बैठे थे| पलक की हिम्मत भी नही हुई कि अपने पापा के पास जाकर मांफी ही मांग ले| शाम तक घर में ऐसा सन्नाटा पसरा रहा कि एक पल को किसी के न होने का भ्रम तक हो जाए| माँ ने खाना बनाकर दोनों को बुलाया लेकिन पापा नही आए तो पलक किसी तरह से हिम्मत करती उन्हें बुलाने चल दी| वे वही अपने कमरे में किताबों संग सर झुकाए बैठे थे| उनके हाथ में एक बंद किताब थी जिसपर उनकी निगाह तक नही थी वे तो एकटक जमीन की ओर नज़रे टिकाए थे| उस कमरे की चुप्पी से कही अधिक पापा की चुप्पी पलक का दिल दहला रही थी| वह उन्हें बुलाना चाहती थी पर उसकी हिम्मत नहीं हुई वह मनमसोजे वापस जाने लगी कि इस बेख्याली में पलटते उसका पैर कॉर्नर टेबल से टकरा गया जिससे एक आह सी उसके मुंह से निकल पड़ी| उसकी आहट से पापा की तन्द्रा भंग होती है और वे पलक को वहां पाते तुरंत उसके पास आते है|

“क्या हुआ पलक – कहीं लगी तो नही !!” कहते हुए उसका पैर की उंगली सहलाते एक दर्द की लहर उनके हाव भाव में उतर आई थी| पलक यही प्यार तो पापा का ढूढ़ने आई थी|

“कुछ नही अब ठीक है पापा |”

कहते उनकी क्षणिक मुस्कान आपस में एकसार होती है और पलक उन्हें खाने के लिए अपने साथ ले जाती है| फिर साथ में सब बैठकर खाना खाते है फिर न उस विषय पर बात हुई न मलाल ही जताया, खाना खाकर टहलते पलक पापा का हाथ विश्वास से पकडे कहती है – “पापा अब मैं राजस्थान का नाम खुद से कभी नही लुंगी – प्रोमिस|” वे भी आगे कुछ नही कहते बस स्नेह से उसके सर पर हाथ फिरा देते है|

पलक तो सोने चली गई पर पापा का उदास मन पूरी तरह से ठीक न हुआ, मन में एक उदास खोह बन गई जिसमे एकांकी वे उतर जाते न वे दर्द बाँट पाते न बता पाते| लगता साल दर साल दर्द को अनजाने ही पोषित करते विस्तार दे दे रहे थे| जान से प्यारे बच्चों को दुखी करना उनके ही मन को सालता रहा जिसके फलस्वरूप उनकी आँखों में नींद के बजाये यादों की किरचे उभर आई जिससे अपनी आद्र आँखों को सुकून देने वे आधी रात में ही कमरे से बाहर निकलते गलियारे तक आ जाते है| उस पल पलक झलक को एक नज़र देखने की उनके मन में तीक्ष्ण इच्छा हुई तो वे उसके कमरे में पहुँच गए| कमरे का दरवाजा उड्का था जिसे हौले से धकेलते वे अन्दर आते है| दोनों चैन से एकदूसरे का हाथ पकडे सो रही थी ये देख उनके चेहरे पर एक मुस्कान तैर गई| वे पलक के पास बैठते दो पल को उसका चेहरा निहारते रहे,ऐसे निहारते हुए उनकी ऑंखें यूँ खो गई मानों किसी अन्यत्र का चेहरा उस चेहरे में वे तलाश कर रहे हो| फिर प्यार से उसका माता सहलाने वे उसके माथे पर हाथ रखते है, हाथ रखते ही एक दम से वे घबराहट से उछल ही पड़े, वे खुद को यकीन दिलाने फिर उसका माथा छूते है, सच में उसका शरीर आग सा ताप रहा था, वे तुरंत उसे झंझोड़ते है पर तेज बुखार से वह गहरी निद्रा में समाई हुई थी, पर उसकी आहट से झलक तुरंत आँख खोल बैठी|

“पापा !!”

एक पल पापा को देखती और दूसरे पल पलक के पकडे हाथ से उसे भी स्थिति का आभास होता है और पल में उठकर वह बैठ जाती है|

“पापा पलक को तो बहुत तेज बुखार है |”

“हाँ हाँ – तुम जल्दी से ठंडा पानी ले आओ |” वे हडबडाते हुए बोले| 

झलक भी तुरंत दौड़ती हुई बाहर निकल गई और जल्दी ही पानी भरे बर्तन के साथ वापस आई| पलक बुखार से इतनी अचेत थी कि उसे होश ही नही कि कितनी देर से उसके पापा उसे पट्टी कर रहे थे तो झलक रुआंसी उसकी हथेली सहला रही थी| तब तक माँ भी आ गई| उनका अधीर मन पहले ही कुछ अनहोनी से परेशान हो उठा था|

“पलक अभी भी बुखार से तप रही है |” नीतू परेशान होती पति से बोली|

“चिंता मत करो – ठंडी पट्टी से कुछ तो कम हुआ है – अभी आधी रात डॉक्टर भी कहाँ मिलेगा |”

वे दोनों बेबस से एकदूसरे की निगाहों में देखते हुए खामोश हो जाते है| हैरान परेशान वैभव और नीतू पलक की पट्टी करते रहे, पूरी रात तीनों की आँखों में बस पलक की चिंता समाई रही सुबह होने के आभास में भी पलक ने जाकर कुछ आंख खोली| तो सबके बेजान चेहरे पर कुछ जान आई| पलक तो हतप्रभ देखती ही रही, उसे अपनी बेहोश हालत का अंदाजा भी नही हुआ|

“क्या सच में तुम्हें कुछ पता नही चला !!” झलक अवाक् उसका सन्न चेहरा पढने का प्रयास करने लगी तो पलक न में सर हिला देती है|

“कैसे होगा – बहुत तेज बुखार था – चलो अब ठीक लग रहा है न – बस सुबह होते डॉक्टर के पास चलेंगे |” माँ सर पर हाथ फेरती ममता भरी आँखों से उसे ताकती रही|

पापा पलक के आंख खुलते इतने भावुक हो उठे कि उसके मुंह से कोई स्वर ही नही फूटा बस उसकी हथेली थामे उसके पास बैठे रहे|

सुबह होते ही पलक को लिए मम्मी पापा दोनों हॉस्पिटल निकल गए, फिर दवा दिलाकर उसे आराम करने कमरे में लेटाकर झलक को उसके पास ही रहने को कह दिया| दिन भर में पलक इतनी चेतन दिखी कि एक पल को किसी को भ्रम ही हो जाए कि उसकी तबियत खराब हुई भी थी या नही| रात होते होते फिर उसका सर गर्म होने लगा, डॉक्टर से पूछने पर उसने वाइरल होना बता कर उन्हें दिलासा दिया कि एक दो दिन बुखार रहेगा ही, पर चिंता की कोई बात नही| पलक की फ़िक्र करती माँ उसे अपने साथ ही लेटा लेती है| उस रात भी पलक को बुखार से कोई होश नही रहा| पापा और माँ दोनों पट्टी करते रहे| सुबह होते फिर उसकी तबियत ठीक हो गई| तब जाकर उनकी आँख लगी|

पलक को आराम करने छोड़कर वे चाय पीते पीते अपनी चिंता ही जैसे गले के नीचे उतार रहे थे|

“नीतू मुझे कुछ ठीक नही लग रहा |”

वैभव की बात पर वे अपनी परेशान निगाहे उसी की ओर घुमा लेती है|

“याद है बचपन में उस पंडिंत ने कुछ इक्कीस साल के लिए कुछ कहा था और पलक इक्कीस की होने वाली है |” वे अपनी कहते कप जल्दी से टेबल पर रखते हुए नीतू की ओर झुकते हुए कह रहे थे – “मुझे लगता है मंदिर के पंडित जी से कुछ पूछते है|”

“सही कहते है उसकी हालत देख मुझे….|” कहते कहते नीतू एकदम से रूककर वैभव की ओर देखती हुई चुप हो जाती है|

“कैसी हालत ?”

नीतू को लगा अब कुछ छुपाना सही नही तो वह कहती है – “अभी कुछ दिन पहले वह रात में डरकर  उठ गई थी |”

“क्या !! तुमने मुझे क्यों नही बताया ?” उनका स्वर और चिंतालू हो उठा था|

“मुझे लगा आप परेशान हो उठेंगे |”

“तुम्हे पता है न कि पलक हमारी कितनी बड़ी जिम्मेदारी है – कैसे कैसे क्या क्या गुजरा है उस पर इसलिए हर एक अलग बात को संकेत मानो – मैं तो कहता हूँ कि आज ही मंदिर चली जाओ – पंडित जी है तो घर आने का निमंत्रण दे आओ क्योंकि मैं तो मंदिर नही जाऊंगा |”

“कब तक ये कसम रहेगी – कोई ईश्वर से भी ठानता है क्या ?” कहती हुई नीतू प्रश्नात्मक मुद्रा में देखती है पर वैभव आगे कुछ नही कहते, बेरहम वक़्त की यादें उन्हें चेहरे पर ढेर सन्नाटा भर गई जब वैभव ने मन्दिर के अन्दर न जाने की कसम ली थी|

पलक की तबियत ठीक थी और उसे झलक की देख रेख में छोड़कर नीतू सुबह ही मंदिर जाने को तैयार होने लगी, पूजा की थाली लिए वह निकलने को तैयार थी, वैभव कार लिए बाहर इंतजार कर रहे थे|

मंदिर पहुंचकर वे बाहर ही खड़े रहे और नीतू राधा कृष्ण के मंदिर के अन्दर आ गई| आज मंदिर में कुछ ख़ास हलचल नही थी| वह पूजा करके मुख्य स्थान की बैठक के खाली स्थान को देखने लगी, तभी कोई युवा पंडित वहां आते ही उसके अभिप्राय को समझते हुए कहता है – “पिता जी कथा कराने गए है -|”

वह प्रसाद का डिब्बा उसकी ओर बढाती हुई पूछती है – “ओह अच्छा – मुझे कुछ विशेष काम था उनसे बेटी की तबियत के लिए |” नीतू समुचित माहौल देख मन की कह उठी|

वह भगवान को भोग लगाकर प्रसाद उसकी ओर बढ़ाता हुआ कहता है – “वे गाँव गए है दो तीन दिन लगेंगे |”

ये सुन नीतू के चेहरे पर एक मायूसी सी छा गई, वह चुपचाप प्रसाद लिए पलटकर जाने लगी| युवा पंडित शायद उसके मन की व्यथा समझ गया तो जल्दी से उसे पुकारता हुआ बोल उठा – “आप को वाकई बहुत जरुरत है तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ |”

आवाज सुन वह पलटी और क्षण भर को उस पंडित का चेहरा ताकती रही| वह समझ नही पाई कि इस बात का क्या उत्तर दे उस लड़के जैसे पंडित से क्या कह पाएगी वह पर इसके विपरीत वह सामान्य सा दिखने वाला सौम्य चेहरा हौले से मुस्कान छोड़ता हुआ कह रहा था – “हो सकता है पिता जी के आने तक मैं आपकी कुछ सहायता कर सकू – आपको ठीक लगे तो बता दीजिएगा – ईश्वर आप पर आपके परिवार पर कृपालु रहे|”  वह हाथ जोड़ता हुआ प्रतिमा की ओर मुड़ गया|

नीतू अनबूझी सी खड़ी रही, सच में उसे मदद की बहुत जरुरत थी| क्रमशः………

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