निधि ने कराहते हुए अपनी आँख खोली| उसके शरीर का पोर पोर दुःख रहा था फिर भी किसी तरह से उसने अपनी स्थिति का जायजा लिया| उसके हाथ पैर उसी के दुपट्टे से बंधे थे और मुंह पर रुमाल को तिरछा कर बांधा गया जिससे उसे साँस लेने में काफी तकलीफ हो रही थी| अपनी ऐसी हालत देख उसकी आँखों से आंसू बह निकले| क्या से क्या हो गया| कहाँ कल तक होटल के मखमली रूम में अपने पति संग अपना हनीमून मनाने आई थी वहीँ आज वह ऐसी दुखदाई स्थिति में पड़ी है| धीरे धीरे पिछला सब याद करने की कोशिश करती है कि कैसे चार दिन पहले ही वे दोनों कार से उदयपुर से जैसलमेर आए थे और सैंड ड्युन्स की नाईट में बुकिंग पूरी कर उसने जी भर कर जैसलमेर का महल घूमा| उसका मन सारी खुशियाँ पाकर झूम रहा था कि एक गलती उनसे हो गई जब रात को मार्किट से लौटते उसके पति ने दो अजनबियों को लिफ्ट दे दी| उसने एतराज़ भी किया पर जतिन कहाँ सुनने वाले थे उनसे किसी की भी तकलीफ नहीं देखी जाती| उन दोनों में से किसी एक के पैर पर चोट लगी थी ऐसा उन लोगों ने बताया और उनकी तकलीफ सुन जतिन ने उनके लिए कार रोक दी|
“बैठो – यहाँ से मुख्य सड़क दूर है – हम भी वही जा रहे है – छोड़ दूंगा |”
जतिन के कहते वे दोनों अजनबी खुश होते कार का पिछला दरवाजा खोलकर बैठ गए|
उसी पल निधि को असहजता महसूस हुई जब अजनबियों ने बहुत जल्दी उसके पति से आत्मीयता जैसी बातचीत भी शुरू कर दी|
“आपने जैसलमेर की हवेली देखी – क्या गजब बनी है – लगता है पैसे का पेड़ रहा होगा राजा के पास|” वह जबरन दांत दिखाता हँस रहा था|
“हाँ अभी हम लोग सैंड ड्युन्स से आ रहे है – काफी दूर है मुख्य सड़क से – अभी आधा घंटा और लगेगा |”
“कोई बात नही – हम आराम से है – ये रात हमे याद रहेगी |”
जतिन उस अजनबी की बात पर बस धीरे से मुस्करा दिया पर निधि को बिलकुल भी अच्छा नही लग रहा था|
चारों ओर खामोशी थी और कार सुनसान रास्तों पर चली जा रही थी| राजस्थान की ठंडी रातें और दूर दूर तक फैला रेतीला समंदर अब उसके लिए भयावह होता जा रहा था| यहाँ रास्ते लम्बे और सुनसान भरे होते है ये सोच अपनी तरफ का शीशा हल्का सा सरकाकर वह बाहर देखने लगी कि सहसा कोई हाथ उसके चेहरे पर पड़ा और उसके बाद अचानक से उसकी आँखों के आगे सब धुंधला हो गया|
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निधि को तबसे अब जाकर होश आया| धीरे धीरे उसकी सुप्त तन्द्रा जागी और सबसे पहले उसे अपने पति जतिन की याद हो आई | उसका जो भी हाल था पर जतिन का ख्याल कर उसका मन हुलस उठता है| ये क्या हो गया? वह अपनी हालत देखती है वह उस समय किसी अँधेरी जगह बंधी हुई थी और जतिन का कहीं अता पता नही था| वह मन ही मन ये सोच बिलख उठी कि उसके घर वाले, जतिन के परिवार वाले क्या हमे खोज भी पा रहे होंगे? आखिर कल ही तो फोन लेकर बोली थी प्लीज हमे डिस्टर्ब न करे और कहकर देवर वैभव का फोन काट दिया और फिर दूसरे दिन वाकई उनके घर से कोई फ़ोन नहीं आया आखिर यही तो वह चाहती थी अपने पति के साथ नितांत एकांत लेकिन ये क्या से क्या हो गया उसके साथ !! अपने घर में भी तो वह अपनी छोटी बहन नीतू से कह यही चुकी थी, बात मजाक में कही गई पर माँ सब समझती थी इसलिए उसके घर से भी उसके लिए कोई फोन नहीं आया| आज अपने इस व्यवहार पर उसे बहुत गुस्सा आ रहा था| अब पता नहीं कितने दिन बाद कोई उनकी खबर लेगा| सोचते सोचते उसकी आँखों के आंसू रुक ही नहीं रहे थे| रोते रोते उसकी हिल्की बंध आई| उसे कुछ नहीं सूझ रहा था कि वह इस वक़्त कहाँ है? उस छोटे से अँधेरे कमरे में उसे कुछ समझ नही आ रहा था| रोते रोते बार बार जतिन पर उसका ख्याल चला जाता| आखिर देर तक मन भी जैसे रोते रोते खाली हो गया| अचानक उसे लगा कुछ आवाज़ सी आ रही है उसने अपने कानो को आवाज की ओर केन्द्रित किया ये हवा की आवाज थी यहाँ तो अक्सर ही हवा ऐसे ही सायं सायं कर चलती है| सहसा उसका दिमाग चौंका कि जरुर यहाँ कोई खिड़की या दरवाजा होगा| ये सोचने भर से उसके मन में जैसे कुछ पुनर्जीवित हो उठा| मन ने करो या मरो की ठान ली, आखिर ऐसे बांधने वाले उसे ऐसे ही छोड़ने वाले तो नहीं तो आखिर क्यों न कुछकर ही मरा जाए| ये सोचने भर से ही उसका शरीर जैसे अंगारों से भर गया और वह अपने बंधन पर जोर लगाने लगी| उसे उसी के दुप्पटे से बांधा गया था| उसने भरसक बहुत खींचातानी की, कभी पैर की ओर करती कभी हाथों का खिचाव बढ़ाती कि किसी तरह से बंधन कमजोर हो जाए| बहुत देर की कोशिश से उसका शरीर पसीने से तरबतर हो गया था| बार बार उसके अचेतन होते मन को उन अजनबियों के आ जाने का खौफ चेतनता से भर देता और उसका सारा शरीर उन बंधन में अपनी सारी ताकत झोंक देता| आखिर बंधन खुल ही गया| उसपल अपने खुले हाथ भर देख लेने से उसका डर जैसे एक पल में ही छू हो गया| चन्द ही क्षणों में वह पूरी तरह से बंधन मुक्त थी| उस एक पल उसका मन यूँ उत्साहित हो उठा मानों वह कोई जंग जीत कर आई हो| अब अँधेरे में इधर उधर टटोल कर उसे दरवाज़ा मिल गया| ये क्या दरवाज़ा एक झटके में ही खुल गया| अब वह बाहर आ कर देखती है| उस दिन पूर्णिमा थी और चाँद पूरे शबाब में था| उस उजाले में वह उस जगह का जायजा लेती है|वह कोई खंडर था| आस पास भग्न घरो की जैसे कोई कतार सी थी| शायद जहाँ उसे बंद करके रखा गया था वो ही एक बंद दरवाजे वाला घर शेष बचा था| फिर धीरे धीरे आस पास देखती उस ठंडी रेत पर वो आगे बढ़ने लगी कि किसी तेज आवाज से उसका ध्यान दूसरी जगह गया| वह जल्दी से एक टूटी दीवार के पीछे छिप गई| घबराहट में उसकी दिल की धड़कने मानो धौकनी सी चल रही थी| वहीँ छुपी वह धीरे से आवाज़ की दिशा की ओर झांकती है और सुनने का प्रयास करती है | उसने जो देखा उसकी आंखे डर और दहशत से फैली रह गई| पैर कांपते हुए लड़खड़ा गए| सामने का दृश्य देख उसकी रगों का खून ही सूख गया|
क्रमशः………………