
औरत हो क्या ?
सुबोध अपने नन्हें हाथों में मेज़ पर से झूठे पड़े जितने गिलास बर्तन समेट पाया उठा लिया और गिरते संभलते कैसे भी उन बर्तनों को मांजने के स्थान पर उझेल आया| तभी पिता पीछे से हँसे –‘देखो नैना सुबोध तुम्हारा बेटा भी है और बेटी भी, माँ का कितना ख्याल है उसे |’ सुबोध की माँ नैना सुबह से सिर दर्द से परेशान अपने माथे पर सूमो रेसलर की तरह पट्टी बांधे गृह-युद्ध लड़ रही थी| उसकी वो स्थिति थी कि न इंकार कर सकती थी और न हथियार ही डाल सकती थी| आखिर घर को कौन देखे,!! स्त्री के नाम पर वह ही तो घर पर| आदमी तो दुनिया जहाँ में लगा रहता है या बहुत हुआ तो उस वक़्त का खाना बाहर से ले आएगा, स्त्री की तरह घर की बाग डोर तो नहीं सँभालने लगेगा| पर अपने छोटे बेटे सुबोध को देख देर से मुरझाए उसके चेहरे पर एक संतुष्टि भरी मुस्कान तैर गई| नैना को अपने बेटे पर लाड़ उमड़ आया कि बिन कहे ही उसने अपनी माँ का दर्द समझ लिया|
जिस दिन घर की स्त्री की तबियत ख़राब होती है लगता है जैसे वही नहीं पूरा घर बीमार हो गया हो| पूरा घर तितर बितर नज़र आता है| कोई सामान सही जगह नहीं मिलेगा| उस दिन तो सब उसे आराम की हिदायते देते रहेंगे पर उसका कलेजा तो आराम के बाद की उत्पन्न होती जटिल स्थिति को सोच सोच कर ही दहशत में आ जाता है| एक दिन बाद ,दो दिन बाद जब वो उठेगी तो काम का ढेरों अम्बार होगा| तब वो खुद को ही कोसेगी ‘कि क्यों बीमार पड़ी’|
देर से झूठे बर्तनों के मुंह खोले राक्षस को वो देख रही थी| पर क्या करती न खुद उन्हें हटाने की हिम्मत थी उसमें और किसी से कुछ कहती तो सब उसी पर पलट जाते –‘एक दिन तो आराम करो’| पर जानती थी एक दिन का आराम दूसरे दिन का अम्बार होता है|
पर सुबोध तो अभी नौ वर्ष का है ,कैसे समझ गया माँ की व्यथा? वो भी एक लड़का है,अपने भाई की तरह जो स्कूल से आते अपने कपड़े,बैग फेंक कर झूठे बर्तन टेबल पर ही छोड़ कर माँ को बस आराम करने के लिए कह कर अपना बैट लिए खेलने चला जाता है| पर सुबोध तो आज खेलने भी नहीं गया, भाई का बैग भी सही जगह रख दिया| अब माँ के बगल में बैठा माँ का सिर दबा रहा था, माँ उसे निहारे जा रही थी और ममता आँखों की कोटरों से उफनी जा रही थी|
सुबोध का स्वभाव ही ऐसा है| कहा जाता है आदमी का सब बदल जाता है पर स्वभाव नहीं बदलता| सुबोध स्कूल से कॉलेज और लड़के से युवक हो गया| पर स्वभाव से वैसा ही रहा| कॉलेज से आकर कभी शाम को माँ के संग गपशप करता सब्जी कटवा देता, कभी राशन का आया सामान रखवा देता| कभी छुट्टी वाले दिन धुले कपड़े तार में डाल आता| भलेहि भाई –पिता उस पर लड़की कह कर फब्त्तियां कसते पर सुबोध पर लेश मात्र असर न होता| उनकी हँसी कमल पर से बूंद जैसे उसके मन पर न टिकती और वो मुस्करा कर अपने काम में लगा रहता|
माँ का सबसे लाडला बेटा था| माँ की ममता यूँ तो अपने सब बच्चों पर समान होती है पर संतुष्ट किसी किसी बच्चे से होती है| सुबोध की माँ की ममता सुबोध से संतुष्ट थी| माँ के साथ बाहर सौदा लेने जहाँ भाई टाल मटोल कर जाता, पापा पैसा पकड़ा कर किनारा कर लेते वहीँ सुबोध सहर्ष साथ चल देता ये सोच कर कि सामान ज्यादा होने पर माँ कैसे उठा पाएगी सब |
समय कभी नहीं टिकता, समय आगे बढ़ा| पहले सुबोध के बड़े भाई और उसके एक साल बाद ही सुबोध की भी शादी हो गई| घर भर गया, लोगों से ,काम से ,चहल-पहल से| काम चहुँओर से प्रकट हो रहा था| कभी बड़ी बहू रसोई में कुछ बना रही होती, कभी छोटी बहू बैठक में कुछ लाकर सजा रही होती| इसी दौर में चार से छः हुए प्राणी अकस्मात् पांच रह गए| सुबोध के पिता अपनी उम्र की दहलीज़ पार कर दुनिया के झामों से मुक्त हो गए|
सुबोध दफ्तर से घर आकर देखता है भाभी बैठक में बैठी सब्जी काट रही थी|
‘अरे देवर जी रुको चाय बना कर लाती हूँ|’ सुबोध अपने कमरे की ओर बढ़ते बढ़ते रुक गया|
‘नहीं – नहीं भाभी – आप बैठिए – मुझे कुछ नहीं चाहिए |’
भाभी जानती थी, सुबोध को आते ही चाय चाहिये होती है| देवरानी मायके गई है,और देवर संकोची है, कुछ कहेंगे नहीं| सुबोध अपने कमरे में जा चुका था| वो तुरंत उठ गई और चाय बना लाई और चाय की ट्रे सुबोध के कमरे में ले जाकर उसकी तरफ बढाती उसके चेहरे के धन्यवाद पर नज़र डालती है| कितने आदर और स्नेह से धन्यवाद कहती है उसकी नज़रे|
वो तो रोज़ अपने पति के लिए उनका हर छोटा बड़ा काम करती है पर –‘ठीक है ठीक है’| के अलावा कोई पुरस्कार नहीं होता|
‘ये क्या भाभी!’
सुबोध देखता है ,ट्रे की चाय नहीं ,कप से छलकी चाय की बूंदे भी नहीं बल्कि उसकी नज़र ट्रे के एक सिरे पर दिखती भाभी की तर्ज़नी की सूज़न पर जाती है|
‘क्या|’
शायद वो खुद भूल बैठी थी अपनी काम की अभ्यस्त तर्ज़नी को |
‘दो चार दिन से जाने कैसे सूज़न हो गई|’
‘तो डॉक्टर को नहीं दिखाया|’
क्या कहती कि उसके भाई को बोला तो था पर जबाव मिला ‘ठीक हो जाएगी|’ फिर कहा –‘तो पानी का काम मत करो|’ फिर ज्यादा ऊब उठा तो बोला –‘पास ही तो डॉक्टर है जरा निकल कर दिखा आओ – अब जरा जरा सी चीज़ के लिए जोरू लिए घूमता फिरूँ ,चाहती क्या हो तुम |’
चाहती क्या थी, फिर न कह सकी|
‘कुछ नहीं सुबोध भईया ठीक हो जाएगा|’
‘नहीं भाभी अनदेखी मत करो – उंगली काफी सूजी दिख रही है ,एक बार डॉक्टर को दिखा लाओ|’
भाभी चुप रह गई| उनका संकोच और भाई की अनदेखी उससे छुपी नहीं थी| वो चाय छोड़कर झट से उठ गया| माँ अन्दर कमरे में लेटी थी ,पिता के जाने के बाद से वे भी बिस्तर पकडे बीमार सी हो गई थी| माँ को बोल भाभी को लिए डॉक्टर के पास चल दिया| भाभी की आँखों के छुपे आंसू उसकी अपनी ही हथेली में टपक कर सूख गए|
देर शाम पति आए तो बताया –‘सुबोध ने जिद्द किया तो डॉक्टर को दिखाने चली गई – डॉक्टर ने बोला जरा देर करती तो इन्फेशन फ़ैल जाता -|’
‘ठीक है|’
बस और कुछ नहीं कहेंगे| मन ही मन सोच कर रह गई|
दूसरे दिन रोज़ की तरह उठी और रसोई में जाने को हुई तो आवाज़ सुन ठिठकी –‘अरे मेरे उठने से पहले कौन रसोई में है|’
‘सुबोध भईया!’
‘क्या कर रहे है?’
‘कुछ नहीं भाभी – डॉक्टर ने आपको दो दिन पानी से बचने को कहा है न – सब्ज़ी काट कर धो रहा था, अब आपको हाथ नहीं भिगोना पड़ेगा|’
‘भाभी कृतज्ञ हो उठी और देवरानी के भाग्य पर गर्व कर उठी|’
माँ तो बीमार थी, बिस्तर से उठ कर अपना ही काम उनके लिए बहुत होता था| रसोई झांकने ,देखने की हिम्मत भी उनमे नहीं होती थी| सुबोध की पत्नी भी यहाँ नहीं थी इसलिए वह दो दिन तक जितना पानी का काम भाभी का निपटा सकता था, बिन कहे कर के ऑफिस जाता और आकर भी कर देता | भाभी की एक न सुनता| भाई का मजाक तक झाड़ लेता –‘अरे तुम्हारी ननद है करने दो|’
भाभी कुछ प्रयुत्तर भी न कर पाती न हाँ न ना|
समय बीता| घर दो साल और आगे बढ़ गया| माता पिता की कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता पर यही प्रकृति का नियम है एक जाता है दूसरा आता है | समय लचर वस्तुए अपने अन्दर समाहित कर लेता है उसी नश्वरता की भूमि में नए जीवन पनपते है| दोनों भाइयो को एक एक संतान हुई| भाभी देखती है कि कैसे सुबोध अपनी पत्नी की मदद करता दफ्तर जाने से पहले भी और दफ्तर से आने के बाद भी | अब बस ये होते निहार ही पाती क्योंकि भाइयों के बीच बंटवारा हो चुका था| बड़ा भाई सब अलग चाहता था| सो द्वार अलग, रसोई अलग, ज़िन्दगी अलग पर नज़र अलग न हुई| दोनों आते जाते रहे ,मिलते रहते| एक ही घर के ऊपर नीचे हिस्से ज़मीन आसमान से अलग हो कर कहीं क्षितिज में मिलते थे| यहीं बड़े भाई को मंज़ूर था|
कभी देखते देखते जी भर आता या घुटते मन का भर आता तब भाभी अपने पति से कह उठती –‘देखो सुबोध कितना अपनी पत्नी का ख्याल करता है – दफ्तर से आते छत पर के कपड़े उठाने चला जाता है|’
‘तो मैं क्या करूँ – तो मैं भी उसकी तरह औरत बन जाउँ क्या|’
वो तो आगे भी कहना चाहती थी की थोड़ी सी औरतो की मदद से क्या कोई आदमी औरत हो जाता है क्या ! उसका मन चाह कर भी कुछ नहीं बोला क्योंकि वह घर में कलेश नहीं चाहती थी इसलिये उस पल चुप रह गई|
बच्चा गोद में लिए भाभी देवर के घर मिलने चली गई|
सुबोध कपड़े धो रहा था| छुट्टी का दिन था| हैरानी से भाभी देखती है ,जानती थी कि अभी बच्चा छोटा है घर में झाड़ू बर्तन वाली के बाद भी घर में ढेरों काम होते है ,देवरानी से सब न होता होगा ?
वह घर वापस आ गई|
समय अपनी गति से बहा ,समय ने एक बीज को पौधा और पौधा को पेड़ में बदल दिया | सुबोध रिटायर हो गया| अब काफी समय घर पर उसका बीतता पर स्वभाव वश वह अभी भी नहीं बदला| घर पर रहता तो कभी दाल बीन देता, कभी बहू रसोई में मशगूल होती वो धूप से कपड़े उठा लाता ,कभी बर्तन मांजने के स्थान पर जूठे बर्तन डाल आता| ये देख बेटा धीरे से हँसता और पत्नी से कहता ‘तुमको क्या करना – दो दो सासे है|’
बहू भी धीरे से मुस्करा देती|
वक़्त ख़ामोशी से बहुत कुछ अपने में समाहित कर लेता है | इसी उपक्रम में सुबोध अकेला रह गया| वृद्धावस्था में जब संगनी के साथ की सबसे ज्यादा जरुरत थी तब उसका साथ छूट गया| अब सुबोध के लिए बेरहम वक़्त से लड़ना मुश्किल हो गया था फिर भी अख़बार को चार बार पढ़ने दो बार वॉक पर जाने के बाद भी बचे समय में वह बहू की मदद में कुछ समय बिताने लगा| घर में नौकर के होने और बहू के रसोई से कटने से सुबोध रसोई में नौकर की सहायता कर देता|
बेटे बहू ऐसे ही अपना समय घूमने,पार्टी के आनंद में बीता रहे थे| बेटे को पिता के जीवन की शून्यता का लेश मात्र भी अहसास नहीं था| सुबोध भी जीवन को संतुष्ट स्वीकृति के साथ जी रहा था|
दोपहर का लम्बा समय था| बहू ने आज घर पर किटीपार्टी रखी थी| बहू दौड़ दौड़ कर सारी व्यवस्था कर रही थी| आज सुबोध की तबियत ठीक न होने से वह अपने कमरे तक ही सीमित था| पर लेटे लेटे ही उसे ख्याल आ रहा था कि बहू अकेले परेशान हो रही होगी| सब अकेले कैसे कर रही होगी| चलो किसी तरह उठ कर सहायता करता हूँ उसकी आखिर घर पर रहने वाली होम मेकर स्त्री को भी कुछ आनंद उठाने का हक़ है| वह धीरे से अपनी छड़ी की सहायता से उठता है|
लिविंग रूम तक बढ़ते कदम तेज़ हँसी के साथ उभरे तेज़ स्वर को सुन वही जम गए|
‘यार – क्या कहती हो|’
‘सच डैडी को घर का काम करने में और हमें मौज करने में बड़ा मज़ा आता है|’
‘तेरी तो निकल पड़ी|’
‘और एक मेरी सास है किसी काम की नहीं ,ससुर की तो पूछो मत|’
‘मेरे घर का भी यही हाल है – पति देव भी कोई काम में हेल्प नहीं करते और ससुर जी है तो सुभानअल्लाह|’
‘पर मैं तो लकी हूँ – ससुर जी सब हेल्प करते है घर के बाहर सामान लाना हो तो भी और घर पर भी – कभी आटा गूँथ देंगे, सब्जी काट देंगे और तो और धुले कपड़े डाल भी लाएँगे उठा भी लाएँगे – नौकर चार दिन के लिए चला भी जाए तो भी कोई दिक्कत नहीं|’
‘क्या बात है तेरे ससुर औरत है क्या!’
फिर खाने की चपर चपर के साथ तेज़ हँसी हवाओं में घुल जाती है|
‘ठीक प्रश्न किया बेटा जी|’
सबने एक दम से आवाज़ की ओर देखा और सबका खून मानों रगों में ही जम गया|
‘ये प्रश्न मेरे जीवन पर्यन्त मेरे साथ चला पर कभी मैंने इसका जवाब नहीं तलाशा – जरूरी भी नहीं लगा और न ही कभी अफ़सोस हुआ – क्योंकि समझता था स्त्री मन को ,उसकी आन्तरिक चाह को पर लगता है आज सोचना पड़ेगा बेटा जी – अगर औरत तुम जैसी हो तो|’
वो छड़ी टिकाता धीरे धीरे बाहर की ओर निकल जाता है| और गार्डन की बैंच पर बैठा ख़ामोशी से मुख्य द्वार की ओर देखता रहता है| तभी बादल एकाएक घिर आते है और देखा देखी रिमझिम बारिश होने लगती है| वहीँ गार्डन के किनारे के तार पर पड़े कपड़े भी सारे भीग रहे थे| सुबोध उठता है और तार से कपड़े उठाकर अन्दर की ओर ले कर चल देता है| चलते चलते मन में माँ की कही बात गूंजने लगती है| वो लाड़ से सुबोध के सिर पर हाथ फेरती हुई कह रही थी ‘सुबोध दुनिया कितनी भी तुम्हारी उपेक्षा करे तुम जैसे हो वैसे ही रहना……मैं मेरी जैसी हर स्त्री तुम्हारी सोच की सदैव ऋणी रहेगी…|’
———————————————————————————————————-समाप्त
Bahut hi acha laga…😃😃
Ye to meri favourite kahani hai… ❤️❤️❤️
Ye aur band kamre ka dhuan 👌❤️❤️
Heart touching 😍😍😍