Kahanikacarvan

पांच प्रेरक लघुकथा

लेखन एक अनवरत यात्रा है स्वयं से स्वयं के लिए…जिसकी लम्बी उबड़ खाबड़ मानवीय संवेदनाओ की पगडंडियों पर चलता रहता है……एक खोया हुआ आदमी…निरंतर….क्रमशः..पढ़े मानवीय संवेदना की एक खोया हुआ आदमी लघुकथा संग्रह की लघुकथा के क्रम में आज पांच प्रेरक छोटी कहानियां…..

वो पेड़ नीम का

राधिका मुख्य दरवाज़े पर तने घने नीम के पेड़ को देखती हुई अंदर प्रवेश करती है| घर पहुँचकर उसका स्थिर मन बिफर पड़ता है वो भी अपनी छोटी बेटी की वज़ह से| पति की आकस्मिक मृत्यु के बाद उसी के पद पर सरकारी कार्यालय में क्लर्क के पद पर घर चलाने और अपनी दो बेटियों को पालने के लिए काफ़ी हो जाता| साथ ही रहने को पैत्रक घर था| वो दुखी थी तो बस अपनी छोटी बेटी के कारण|

‘कुछ तो सीख गुड़िया तू अब पाँचवी कक्षा में पहुँच चुकी है कुछ और नहीं तो कम से कम अपनी पढ़ाई तो ठीक से किया कर – अपनी बड़ी बहन को देख पढ़ाई के साथ साथ खेल कूद, कला सब में पुरस्कार जीत कर घर भर दिये उसने और एक तू है — |’

राधिका एक गहरा क्रोध का घूँट गले में गटकती दीवार से सटे उस नीम के पेड़ की ओर इशारा करती हुई कहती है -‘इस नीम के पेड़ को ही देख ले, जड़ से पत्तों तक गुणों से लबरेज़ है और एक तू है — |’

फिर झल्लाती हुई राधिका घर के कामो में लग जाती है|

गुड़िया मन मसोज़े उदास मन से किनारे बैठ जाती है|

दिन बढ़ते रहे कि सहसा एक दिन राधिका आश्चर्य में डूबी अपनी बड़ी बेटी को आवाज़ लगाती है|

‘गौरी सुन ये नीम का पेड़ कैसे सूखता जा रहा है – कभी पतझड़ में भी इसे इतना सूखते नहीं देखा फिर क्या कारण है! क्या तुझे पता है?’

‘हाँ माँ|’

राधिका चौंक कर उसकी ओर देखती है|

‘सूखेगा नहीं ! रोज़ आपकी डांट खाने के बाद गुड़िया पेड़ के पास जाकर उसे कहती सूख जा सूख जा और देखो ये सूख गया|’

गौरी सहजता से कह गई पर ये सुनकर पर राधिका सहज न रह सकी| वो झट से एक नज़र लगातार सूखते नीम के पेड़ पर तो दूसरी नज़र अपनी छोटी बेटी पर डालती है| उसकी लगातार की उलाहना, तुलना ने कब गुड़िया के सहज गुण मार दिए वो जान ही नहीं पाई|

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सैंकण्ड मैरिज़

उफ़! मैंने अख़बार पटक दिया |अख़बार में खबर क्या छपी है,मुझे तो हर पल लगता है जैसे मेरे हाथों में कोई लहू लुहान चिथड़े है ,हर दूसरी खबर खून का गुबार भरे लत्थ फत्थ छिले मन के टुकड़े हथेलियो में भर देती है |कौन है जो नारी सम्मान की बात करते है ,देखकर तो लगता है जैसे आधा अख़बार नारी वेदना का खुला चिट्ठा है |जाने कैसे लोग बाग है जो सुबह सुबह की चाय की चुस्कियों  के साथ अख़बार चाटते है |मेरा मन तो सुबह अख़बार देख घृणा और घिन से भर जाता है |

तभी फोन आया |एक हैलो में परिचय और कारण दोनों समझ गई |

‘सुनो दोपहर का खाना मत बनाना पार्टी में जाना है |’

‘क्या कहा – सैंकण्ड मैरिज़की -!’

मुझ उत्तर भारतीय के लिए आसाम का ये दस्तूर रोचक कम अचंभित ज्यादा लगा |मेरे ढ़ेरों सवालों पर एक संक्षिप्त सा उत्तर देकर  पतिदेव ने जल्दी में फोन काट दिया |पर साथ ही छोड़ गए मुझे विचारों के गहरे कुएं में ,अब भरों विचारों के घड़े के घड़े |

सैंकण्ड मैरिज़के तथ्य को जानने ,बूझने मैं पार्टी में गई |वहाँ पहुँच कर देखा,  ऊपर से एक हॉल दिखने वाला टैंट अंदर दो तीन कमरों में तब्दील हो जाता है |मेघला (असमिया साड़ी) में सजी महिलाओ के बीच एक मंच नुमा स्थान पर बैठी एक तेरह चौदहा साल की बच्ची पर बरबस ही मेरी नज़र पड़ी  वो भी गहरे मेकअप में जैसे जानबूझ कर पोता गया हो उसे |मैं नोट वाला लिफ़ाफ़ा उसके हाथों में पकड़ा कर उसकी माँ के इशारे पर एक भीड़ का हिस्सा बन बैठ गई और अपनी सहभाषी परिचिता से बात करने लगी |

‘आसाम में जब लड़की प्रथम बार ऋतुकाल में प्रवेश करती है तो वे एक समूह भोज का आयोजन करते है |’

‘ओह |’

‘उसी को तो कहते है सैंकण्ड मैरिज़ |’

क्या! ऐसा समाज जहाँ लड़की के होने,और उसके बड़े होने पर मूक शोक मनाया जाता हो उस समाज की किसी सभ्यता में नारी के इस रूप की आराधना की जाती है| सम्मान प्रदान किया जाता है |वाह, सुबह का मुड़ा चेहरा अब मुस्करा पड़ा |

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भाई बहन

 ‘मुझसे तमीज़ से बात करो समझे – मैं कोई ऐरी गैरी नहीं – एम एल  ए  त्रिभुवन द्विवेदी की बहू हूँ |’ उसने ये बात अपने भाई से कह दिया |

भाई भी चुप नहीं रहा |

‘होगी तुम किसी की बहू पर मैं डाक्टर आनंद  तुमसे ये कहता हूँ कि तुमसे जो करते बने तुम कर लो पर इस जायदाद की एक फूटी  कौड़ी भी मैं तुम्हें नहीं दूंगा |’

‘तुम क्या मुझे रोकोगे – इतना याद रखो कि  इस जायदाद में मेरा भी हिस्सा है |’ बहन ने जवाब दिया |

‘जायदाद में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं – मम्मी पापा ने तुम्हारी शादी की – बहुत खर्च किया उसमें , इतना दान दहेज दिया – वो जीते जी भी तुम्हें हमेशा कुछ न कुछ देते ही रहे पर अब उनके जाने के बाद तुम्हारा इस घर की जायदाद  में कोई हिस्सा नहीं बनता ,समझी और ये बात मैं कह रहा हूँ |’उसका स्वर और बुलंद हो उठा |

दो भाई बहन आपस में देर तक लड़े |वाक युद्ध में एक दूसरे को शब्दों में मात देते रहे | उन की माँ अपने दोनों बच्चों  की शादी कर स्वर्ग सिधार गई और पिता तेरहा दिन पूर्व ही सिधारे थे | बहन तेरहवीं  में आई थी | माता पिता जायदाद की कोई लिखा पढ़ी नहीं कर गए थे | शायद अनभिज्ञ थे या इसकी जरूरत नहीं समझी थी | लगा होगा बेटा डॉक्टर है ,उसकी पत्नी भी डॉक्टर है | बेटी भी पढ़ी लिखी है और अच्छे घर ब्याही है | फिर जायदाद शायद सहमति में बटँ जाएगी पर – |

बहन का चेहरा गुस्से में लाल था | भाई भी किसी कोने में हाथ बांधे अँगारा हो रहा था | पंडित भी आ चुके थे  घर के बाकी के सदस्य भी धीरे धीरे करके एकत्र  हो रहे थे | वहाँ का माहौल अब शांति पूर्ण था | पर दो बच्चे पाँच वर्ष का एक लड़का और एक तीन वर्ष की लड़की थी जो  शायद इन्ही भाई बहन  के बच्चे थे ,वहाँ दौड़ते हुए आते है | उनकी चंचलता  बरबस ही सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेती है | आँगन में पड़े झूले के लिए दोनों बच्चे एक साथ दौड़ लगाते है | लड़का बड़ा था ,उस झूले को पहले पा लेता है | लड़की का मुँह बन जाता है | वो लगभग रोने ही वाली थी | लड़का जल्दी से उसकी तरफ मुड़कर मुस्कराता है | फिर बड़े प्यार से अपने नन्हें हाथों से सहारा दे कर वो उस लड़की को झूले में बैठा देता  है |लड़की खिलखिला कर हँस देती है | लड़का बड़े प्यार से संभालते हुए उसे झूला झूलाने लगता है | अब उन दोनों के चेहरे पर मुस्कान थी | वो एक दूसरे के जान के दुश्मन भाई बहन भी उन पर से अपना ध्यान नहीं हटा पाते | वे देखते है कि  वे मासूम भाई बहन कैसे प्यार से एक दूसरे के साथ थे | जहाँ अधिकारों की कोई छीन झपट नहीं थी वहाँ सिर्फ प्यार का लेन देन था | वे देखते है कि वो लड़की अब झूले में उस लड़के  को भी जगह दे देती है और अब दोनों झूले पर एक साथ झूलने लगे थे | उन नन्हें भाई बहन का प्यार उन बड़े भाई बहन की अंदर की ज्वाला को झंझोर देता है कि  तभी दोनों की नज़र एक साथ देखती है कि झूले का बंधन खुल रहा है ,बस झूला गिरने ही वाला था कि दोनों बिजली की फुर्ती से एक साथ लपकते है और दोनों बच्चों  को अपनी गोद में खींच कर अनायास होने वाली घटना से उन दोनों को  बचा  लेते है | दोनों बच्चों को भींचे वे  अब एक दूसरे को देख रहे थे| अब उन सुर्ख आँखों में दर्द की बूंदें  छलक आई थी | मानो जंगल की आग से जली जमीं की राख  पर जीवन के फूल खिल आए हो |

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सावधान

अब लगता है ,पुरुष समाज सुधर रहा है |’
अपनी पत्नी सुधा की टिप्पणी पर उसका पति नीलेश जाते जाते रुक जाता है |
क्या मतलब|’
अपने बॉस के सामने जब मैंने अपनी छुट्टी की अप्लीकेशन रखी तो हमेशा तो मुस्कराओ तभी बात सुनते थे ,अब कितो अपने लैपटाप से नज़र तक नहीं हटाई ,और
साइन भी कर दिया |’अनचाही ऊब उसके चेहरे पर दिखने लगी |
हा हासुधिऐसे बूढ़ो पर तरस खाना चाहिएये तो चुसा हुआ आम है, जिनकी जगह सिर्फ कूड़ेदान हैऔर कुछ दिन खुद को ताज़ा आम समझ जी लेते है तो जीने दोतुम उन सबकी परवाह मत किया करोसुना है आप भला तो जग भला |’
अपने पति को ऑफिस जाते देख सुधा बड़ी नीरसता से उसेबॉयकहती है |वो समझ जाता है |
सुधा तुम्हारा पैर ठीक होने के लिए दो महीने तो तुम्हें अच्छे से रेस्ट
करना ही होगा |’
एक शाम ऑफिस से आते आकस्मिक दुर्घटना में सुधा का एक पावँ जख्मी हो गया
था | डॉक्टर ने उसके पावँ पर अभी कच्चा प्लास्टर बांधा था ,और उसे पूरा
आराम करने की ताकीद भी दी थी पर एक जुझारू ऑफिस जाने वाली महिला सुधा के
लिए घर पर आराम से बैठना किसी दण्ड से कम नहीं था |
मैं समझता हूँ सुधिअच्छा तुम ऐसा करो फ़ेसबुक जॉइन करो समय कटेगा
हाँपर ध्यान से|’
पति चला गया पर उसका आखिरी शब्द वो समझ नहीं पाई कि वो किस विषय पर ऐसा कह गए थे |
आखिर सुधा ने अपना लैपटाप खोला और क्षण भर में नेट से वाकिफ़ होती वो
फेसबुक पर गई |
अब तक समय अभाव या नेट के प्रति अरुचि थी कि वो इस सोशॅल नेटवर्क में
शामिल नहीं हुई थी |पर अब कुछ ही दिनों में लोगों को मित्रता संदेश भेजती
और संदेश पाती सुधा के मित्र की सूची सौ का आकड़ा पार कर गई थी | अब तो ऑन
लाइन होते ही कई महिला पुरुष उससे बात करने जाते थे |सुधा ने ख़्याल रखा
था कि नवयुवकों की मित्रता से बचे क्योकि उनकी स्वछंद पोस्ट के समकालीन
सोच उसकी नहीं थी पर जल्द ही अधेड़ मित्रों से बात करते चर्चा करते अब धीरे धीरे उसे
कुछ खटकने लगा था |
उफ अब समझ आया,पहले जो सड्को पर छेड़ छाड़ होती थीआंखो से रूप का पान
होता था ,अब वे शोहदे नेट पर गए हैअब अधेड़, बूढ़े अपनी बेस्वाद
ज़िंदगी को मसालेदार बनाने नेट पर मज़ा लेते हैएक तरफ लगता है कि अपने
बारे में सारी जानकारी डालने वाली प्रोफ़ाइल गलत नहीं होगी,पर यही बूढ़े
उम्र की दहलीज़ पार कर महिला मित्रों को मित्र कह कर उनकी निजी ज़िंदगी में
घुसते घुसते उनकी निजता पाने का कुचक्र चलाने लगते है ..उफ ..अब समझ आया
क्यों कहा था ..सावधान..|’

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सबक

‘चटाक , धड़ाम , धुप्प – -|’ एक बाप अपने किशोर लड़के को ले थप्पड़ , लातें मारे जा रहा था साथ ही गरियाता भी जा रहा था|

‘ले – क्या अब करेगा ऐसा – तूने क्या समझा था – मेरी नाक के नीचे मनमानी करेगा तू – मैं तेरा बाप हूँ बाप – समझा – ले|’

बाप ने कस कर घुसा उसकी पीठ में जमाया| किशोर तिलमिलाता रह गया|

दरवाज़े की ओट लिए आँचल मुंह में ठूंसे माँ तड़प उठी थी पर पुरुष के आगे बेबस औरत अपनी ममता का भी गला घोंटने को लाचार हो गई थी|

बाप लतियाते हुए चीखा –‘तेरी ये हिम्मत – समझता क्या है तू – तेरा ये हाथ ही तोड़ डालूँगा – इसी हाथ से रसाले सिगरेट पीता है न तू – ले|’

कसकर लतियाने, जुतियाने के बाद बाप उसे घायल पक्षी सा फर्श पर छोड़ कमरे से बाहर निकल जाता है|

बाप के निकलते माँ दौड़ कर बेटे को अपने अंक में समेट लेती है|

कुछ दिन बाद स्कूल से आते किशोर को उसका बाप बुलाता है|

‘जी -!’ सर झुकाए वो सामने आता है|

‘ये लो तीन रुपया – एक सिगरेट ले आ – और जल्दी|’ कहकर बाप आराम कुर्सी में पसर जाता है|

किशोर रुपया जेब में डाल नुक्कड़ की दूकान पर जाता है –

‘अंकल – दो सिगरेट देना|’ कहकर जेब से छह सिक्के निकाल कर दे देता है|

समाप्त@

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