Kahanikacarvan

बेइंतहा सफ़र इश्क का – 117

शाम से रात होने को आई थी और अरुण अब तक ऑफिस से वापस नही आया था इसकी फ़िक्र अब उजला के चेहरे पर साफ़ साफ़ नज़र आने लगी थी| वैसे भी आज का ये पहला दिन था जब वह अपनी नाराजगी की वजह से अरुण के सामने नहीं आई थी लेकिन अब यही बात उसे अंदर तक खलने लगी थी|

वह कभी बाहर को चक्कर काटती कभी उसके कमरे तक चुपचाप जाकर चेक कर आती| बार बार मन में ढेरो तरह के डर घुमड़ जाते| अपने मन की उलझन में डूबी आखिर वह बडी के संग अपना दुःख बाँटने लगी| वह भी हर बार उसकी हर बात इतने ध्यान से सुनता जैसे सब समझ रहा हो| फिर आखिर वह रसोई तक आ जाती है और चाय का पैन चढ़ाकर मौन उसे खदकते हुए देखती रहती है|

“क्या हुआ बिटिया – क्यों परेशान दिख रही हो ?” काका आखिर उसे टोक देते है|

“कुछ नही काका |”

“तो इस समय किसके लिए चाय बना रही हो – बिटवा तो अभी है नहीं और उनके अलावा घर पर कोई इतनी चाय नही पीता -|” वे काम करते करते अपनी बात कहते रहे|

“ओह मुझे लगा वे आ गए होंगे |”

“आ तो जाते है पर आज जाने कहाँ देर लग गई – जरुर दोस्त संग बैठे होंगे |”

“दोस्त !!” उजला का मन अनजाने डर से सहम उठा|

“हाँ बस योगेश और वर्तिका बिटिया के अलावा और कौन दोस्त है तो वही संग होगे – चलो चाय हटा दो |”

काका कहते है और उजला अनकहे द्वेष से मन ही मन कुढ़ती जल्दी से पैन को दोनों हाथो से पकड़ लेती है और अगले ही पल उसकी उंगलियाँ जलन से तड़प उठती है|

ये देख काका तुरंत उसका हाथ पकड़ते हुए पानी के नीचे करते हुए कह उठे – “ये क्या किया बिटिया – कहाँ ध्यान है तुम्हारा ?”

उजला क्या कहती उस जलन से कही ज्यादा मन की जलन से उसका मन सुबुक उठा था|

काका स्नेह से उसका हाथ पानी के नीचे छोड़कर अब फ्रिज से बर्फ निकालने लगे| पर उजला के मन में अभी भी उथल पुथल मची थी जो यकीनन वर्तिका के नाम की थी|

“काका – दो चाय – योगेश भी है |” एक आवाज तेजी से रसोई के पास से गुजरी और उजाला का मन धक् से होकर रह गया|

ये अरुण की आवाज थी जो रसोई से काका को निकलते देख जोर से आवाज लगाते हुए अपने कमरे की ओर बढ़ गया था|

“चलो बिटिया तुम हटो मैं चाय चढ़ाता हूँ |”

“काका आप बना दीजिए मैं दे आउंगी चाय |”

“ठीक है बिटिया |” हामी भरते वे चाय बनाने लगते है|

तब से उजला के मन में जिस बात की उथल पुथल मची थी वह उस बात का सिरा खोज रही थी कि काका खुद से बोल उठे –

“तो तब से बिटवा डाक्टर बिटवा के साथ थे – वही हम कहे वर्तिका बिटिया को देखकर तो भाग जाते थे -|”

“…!!” उजला के हाव भाव हैरान हुए जा रहे थे साथ ही अब वह इसे दिलचस्पी से सुनने लगी|

“का बताए – अजीब है हमार बिटवा – पता नहीं का देखा नई बहु में कि उसके लिए अपना सब कुछ मिटाने को तैयार हो गया और वर्तिका बिटिया जो हर तरह से अच्छी थी उसे देखकर आप ही भाग जाते थे |” चाय बनाते बनाते वह किस्से की तरह अपनी बात सुनाने लगे – “पता है बिटिया – शादी से पहले तो कितनी बार हम खुद ही बिटवा के कहने पर उसके होने पर भी वर्तिका बिटिया से झूठ बोले कि नही है बिटवा – पता नहीं क्या सूझता था जो हरदम वर्तिका पूरब जाती तो बिटवा पश्चिम चल देता – अजीब है |”

बातो बातो में काका आज क्या कह गए ये वे खुद नही समझ सके पर उस पल ये सुनते उजला को तो अपनी खोई दुनिया मिल गई| उसके यकीन की दीवार जो हलके से दरकने लगी थी अचानक लोहे की दीवार सी मजबूर हो उठी| वह मन ही मन मुस्करा उठी|

उजला जो अपने इसी मन के कारण अरुण सी खिंची खिंची रह रही थी सहसा ये जान लेने के बाद उसके सामने जाने को तड़प उठी| तभी नौकर आकर बताता है “काका छोटे मालिक ने आपको कहने को कहा है कि वे कल कही बाहर जा रहे है तो दो तीन दिन के लिए उनका बैग पैक कर दे |”

“ठीक है |”

“वो कहाँ जा रहे है काका ?” ये सुनते उजला एकदम से परेशान हो उठी|

“अब हमे तो पता नहीं – हो सकता है कुछ काम से जा रहे हो – लो तुम चाय दे आओ – हम थोड़ी देर में आकर बैग लगाते है |”

कहते हुए काका चाय छानने लगते है तो उजाला अपने मन का उद्गार प्रकट करती कह उठी –

“काका आप कहे तो मैं चाय देकर बैग भी लगा दूंगी |”

“ठीक है कर दो बिटिया |” कहते हुए वे ट्रे उसके हाथो में पकड़ा देते है|

****
ये तो बस उसके मन को खबर थी कि काका की बातो से आज उसके बिखरे मन को कितना सुकून मिला था| वह इसी ख़ुशी में कमरे की ओर ट्रे लिए चल रही थी| आज उसका मन कुछ ज्यादा ही खुश था आखिर जब से वर्तिका को देखा और उसका यहाँ आना सुना था तो ये बात उसके मन में कांटे सी चुभी हुई थी तो वही काका से अरुण का उसकी ओर से बेरुखी सुनते उसके बिखरे मन को सुकून आया था|

वह धीरे से खुले दरवाजे को धकेलकर अन्दर आती हुई हैरान रह गई| पहली नजर में तो उसे विश्वास नही आया कि कमरे में कोई नहीं है| फिर बैड पर अरुण को लेटा देख वह दबे पैर अंदर आ गई|

बैड पर अरुण बेखबर सोया हुआ था| वह बेड पर आधा टेक लिए हुए सो गया था| जैसे इंतजार करते करते ही नींद की आगोश में चला गया हो| ये देखती उजला हौले से चाय का ट्रे रखती हुई उसे ओढ़ाकर दो पल तक उसे निहारती रही|

वह भी पूरे दिन भर का थका पूरी तरह से बेखबर सोया था| उसे ऐसे चैन से सोता देख उजला मन ही मन मुस्कराती फिर बैडरूम से जुड़े चेंजिंग रूम की वार्डरोब की ओर बढ़ गई और एक बैग में सामान चपेत कर लगाने लगी|

***
दिन की बेचैनी सारी रात मेनका को बेचैन किए रही| एक तरफ उसका प्यार था तो दूसरी ओर सारा परिवार !! एक ऐसा परिवार जिससे वह अपने मन की बात तक नहीं कह सकती थी क्योंकि अपने भाई अरुण की शादी का हर्श वह देख चुकी थी कि धन दौलत की दीवार के नीचे उनका रिश्ता कितनी बुरी तरह से कुचला गया था| अब अगर विवेक की बात उसने किसी से कही तो जाने क्या होगा ? वही दूसरी तरफ अपने प्रेम को पा लेने की तड़प भी थी आखिर कैसे वह विवेक से किया अपना वादा झूठा जाने दे| यही सोच सोचकर उसकी सारी रात नींद ही उडी रही| उसकी खुली पलकों को अच्छे से पता था कि कब रात गुजरी और कब सुबह हुई| आखिर वह भूमि से बात करने का मन ही मन तय करती हुई करवट लेती थोड़ी और सुबह होने का इंतजार करने लगती है|

इधर सुबह आखं खुलते अरुण एक नज़र टेबल पर रखी चाय की प्याली तो दूसरी ओर खुद पर डाली चादर को देखते किरन की मौजूदगी समझ गया| उसका ख्याल आते ही एक दिलकश मुस्कान उसके होंठो पर थिरक गई| फिर वह अपने भावनगर जाने के ख्याल से उठा तो दो तीन दिन अपनी किरन को न देख पाने से कुछ तड़प उठा| अभी अलसुबह का वक़्त था इससे वह तुरंत उठकर बाहर की ओर निकल गया|

उसे यकीन था अभी कोई उठा नही होगा इससे वह किरन को एक नज़र देख आएगा और किसी को पता भी नहीं चलेगा|

वह दबे पैर सीढ़ियों से होता लिविंग एरिया से गुजरता हुआ उस गलियारे की ओर बढ़ रहा था जो दो दिशा की ओर जाता था एक रसोई की ओर तो दूसरा उन कमरों की ओर जिसमे पहला कमरा काका और अगला किरन का था| उसके बाद एक आद और कमरे थे| मेंशन के खास सर्वेंट के लिए वे कमरे बने थे| उधर परिवार का कोई सदस्य न के बराबर ही जाता था और इतनी सुबह सुबह अरुण का उधर होना अपने आप में बहुत सारे मायने हो सकते थे लेकिन अपने दिल के हाथों मजबूर वह दबे पैर उस ओर बढ़ रहा था|

अरुण अभी गलियारे की ओर मुड़ा भी नहीं था कि सहसा कोई आवाज उसे टोक देती है –

“अरुण !!”

बस उसका दिल वही धड़क कर रह जाता है वह बडी मुश्किल से अपने हाव भाव को नियंत्रण में लेता मुड़कर देखता है| उसके सामने भूमि खड़ी कह रही थी –

“यहाँ क्या कर रहे हो ?”

“वो – काका को ढूंढ रहा था – पैक सामान के बारे में कुछ कहना था |”

“तुम्हे पता तो है कि काका सुबह सुबह पहले मंदिर की सफाई में रहते है – और तुम भावनगर जा रहे हो न – मुझे कल काका ने बताया – मैं तो तुम्हारी पैकिंग के बारे में भूल ही गई – क्या करूँ इधर संस्था में कुछ ज्यादा ही उलझी हुई हूँ – चलो तुम कमरे में चलो मैं मंदिर में उन्हें देखकर आती हूँ |”

भूमि अपनी बात कहकर उसके विपरीत चल दी तो वही अरुण भी उसकी नजरो के सामने जाने का उपक्रम करता रहा लेकिन जैसे ही भूमि उसकी नजर से ओझल हुई वह फिर से किरन के कमरे की ओर मुड़ गया|

वह जल्दी से उस कमर तक पहुँच जाता है और खुले दरवाजे से दहरी पर खड़े खड़े उसे देखने लगता है जो आंचल से मुंह ढांपे सो रही थी| ऐसा अरुण समझ रहा था पर आंचल के झीने परदे से किरन दरवाजे के बाहर खड़े अरुण और खुद पर पड़ती उसकी निगाह को देखती अंदर अंदर सिहर जाती है पर बिना हिले वह लेटी रहती है|

कुछ पल उसे मन भर निहारने के बाद वह ज्योंही पलटकर जाने लगता है कि बस किसी से टकराते टकराते बचता है|

अब उसकी हालत सबसे खराब थी क्योंकि वह ठीक उजला के कमरे के बाहर खड़ा उसे निहारता हुआ पकड़ा गया था और उसे ऐसा करते पकड़ने वाला कोई और नही क्षितिज था जो अपने कमर में हाथ रखे सर उठाकर अरुण को लगातार देख रहा था| बिन कहे ही उसके प्रश्न साफ़ थे कि वह यहाँ क्या कर रहे है ? या क्यों उसकी उजला आंटी को देख रहे है ? और बाकी के प्रश्न तो बनते ही है|

“अरे क्षितिज !! मैं तुम्हे ही ढूंढ रहा था|”

“पर आप तो आंटी को देख रहे थे |”

क्षितिज की बेबाकी पर अरुण तुरन्त सक्बका गया पर करता क्या ? जल्दी से क्षितिज को पकड़े उसकी ओर झुकता हुआ कहता है –

“मैं आज बाहर जा रहा हूँ न तो तुमसे ये पूछने आया था कि तुम्हारे लिए कौन सी चॉकलेट लाऊं|”

“सच्ची चाचू |”

अरुण क्षितिज की कमजोरी जानता था कि उसे कितनी ज्यादा चॉकलेट पसंद है पर भूमि भाभी अक्सर उसके सेहत की चिंता के कारण उसे खाने नहीं देती थी तब वह अरुण की खुशामत करके मंगवाता था|

“सच्ची चाचू – मैं आपको बताता हूँ कि मुझे कौन सी चाहिए |”

“हाँ बताओ – मैं वही ले कर आऊंगा |” कहता हुआ अरुण उसे अब गोदी में उठाए उठाए उस ओर से निकल जाता है|

………………..क्रमशः…………….

7 thoughts on “बेइंतहा सफ़र इश्क का – 117

  1. Woww… Ek smile ke saath ending Hui part ki.. mazaa a gya… Kiran aur shitij dono ne pakad liya Arun ko…😊😊😍

  2. Payaar dono ko barabar h lekin dono hi kahne se darte h…..ab arun bahar ja rha h kese rahege dono ek dusre ko dekhe bina

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