Kahanikacarvan

बेइंतहा सफ़र इश्क का – 123

मेंशन लौटकर अरुण और ब्रिज आमने सामने बैठे थे| कुछ देर तक कमरे में ख़ामोशी के बाद ब्रिज ख़ामोशी तोड़ते हुए पूछते है –

“अब क्या सोचा है अरुण ? करना क्या है ?”

“वैसे आपको क्या लगता है – क्या करना चाहिए मुझे ?” अरुण अपने मथे पर उंगली फिराते उनकी तरफ देखता हुआ पूछता है|

“अब मुझे तो कुछ समझ नहीं आ रहा – सारी परिस्थिति देखकर तो मैं बिलकुल ब्लैंक हो गया हूँ – तुम सही हो – अगर हम उन गुंडों पर सीधे सीधे एक्शन लेंगे तो वे इसका बदला मजदूरों पर जरुर निकालेंगे और बिना उन गुंडों को कंट्रोल किए वे मजदूर फैक्ट्री में काम नही कर सकेंगे – माय माइंड इज मैसड अप |”

“पता है पीएम – जब मैं छोटा था और किसी बात पर बहुत परेशान होकर दादा जी के पास जाता था तब पता है वे क्या कहकर मेरी परेशानी दूर कर देते थे ?”

“क्या ?”

“वे कहते थे कि इंसान को कभी भी कोई भी परेशानी होती है और तब उसे लगता है उसके लिए जैसे सारे के सारे दरवाजे बंद हो गए तब पता है उन बंद दरवाजो के बीच एक झरोखा हमेशा खुला रहता है – लेकिन इंसान अपनी परेशानी में इतना हड़बड़ाया होता है कि उसे उस वक़्त वो झरोखा सामने होते हुए भी नज़र नहीं आता – तब बस मन को शांत करके जो खुद पर विश्वास करता है वही उस झरोखे को पा पाता है और वो झरोखा मुझे मिल गया है |”

“अरुण तुम दादा जी को बहुत मिस करते हो न !”

इसपर अरुण एक गहरा उच्छ्वास लेता अन्यत्र देखने लगता है|

“मैं तुम्हारे बचपन से देखता आ रहा हूँ तुम उनके काफी करीब रहे हो – वो भी तुमसे दूर रहकर जरुर तुम्हे याद करते होंगे |” वे सांत्वना देते उसके कंधे पर हाथ रखते हुए आगे कहते है – “आई विश वो तुम्हे जल्दी से मिल जाए|”

माहौल काफी भावुक होने लगा तो अरुण जल्दी से अपने मनोभावों की नियंत्रित करता हुआ कहता है – “ऐसा करिए आप जरा शेफ को बुला दीजिए |”

“ठीक है |” कहते हुए वे तुरंत एक फोन कॉल करके पांच मिनट वेट करते है और ठीक पांच मिनट बाद दरवाजे पर शेफ खड़ा नज़र आता है|

“जी सर |”

“एक्चुली मुझे पचास लोगो के खाने के रॉ मेटेरियल का एस्टीमेट चाहिए |”

“हो जाएगा सर – पर इंडियन, इटालियन, मैक्सिकन, चाइनीज….|”

“अरे ये सब नहीं – नार्मल रोजाना लोग क्या खाते है – पीएम आप बताए – वो क्या था खाने में जो हमने खाया ?”

अरुण शेफ को टोकते हुए ब्रिज की ओर देखता हुआ पूछता है|

“अरुण वो सब बिहार के मजदूर थे – उन लोगों ने असल में दाल में आटे की बडी बडी लोई डालकर उसे बनाया था – इससे कम इंधन में खाना जल्दी बन जाता है |” हिचकिचाते हुए वे कहते है|

“क्या वे रोज खाते होंगे इसे ?”

“मज़बूरी है उनकी |”

ब्रिज जी की बात सुनते अरुण कुछ सोचते हुए शेफ से पूछता है – “तुम रोज क्या खाते हो ?”

अचानक ऐसे प्रश्न से शेफ थोड़ा अचकचा जाता है फिर थोड़ा सँभलते हुए पूछता है – “सर एक आम व्यक्ति रोजाना दाल, चावल, सब्जी और रोटी खाता है |”

“तो ठीक है इसी मील के रॉ मेटेरियल का तुम मुझे तुरंत लिस्ट बनाकर दो |”

उसके जाते अरुण ब्रिज जी की ओर देखता हुआ कहता है – “और आप सुबह तक वो सारा सामान मुझे अरेज करा दीजिएगा |”

“ठीक है वो सब अरेंज हो जाएगा – तो अरुण अब मैं डिनर लगवा दूँ !”

“नहीं – जब तक मैं अपने वर्कर्स के खाने के लिए नहीं कर देता तब तक मुझसे कुछ नहीं खाया जाएगा – वो नन्हे नन्हे बच्चे दिन में एक बार खाते है और मैं ये सुनने के बाद कैसे कुछ खा सकता हूँ – वैसे भी दुनिया में दो तरह के लोग है – एक वे जिन्हें भूखे होने पर भी पेट भरने तक का खाना नही मिलता और दूसरे हमारे जैसे जो बस आदतन जाने कितनी बार खाने की मेज पर ढेरों खाना छोड़कर यूँही उठ जाते है – |”

ब्रिज हतप्रभता से अरुण की ओर देख रहे थे वह अभी भी कहे जा रहा था –

“अब से आप यहाँ पर भी देखिएगा कि खाना वेस्ट न हो और अगर बच जाता है तो उसे जरुरतमंदो में बंटवा दीजिएगा |”

***
पूरी रात मेनका की कशमकश में गुजरी| वह बेहद उलझी हुई लग रही थी जैसे वह तय न कर पा रही हो| बार बार भूमि के कहे शब्द उसकी सोच को प्रभावित कर दे रहे थे| एक अजीब सा डर उसके मन को दहला दे रहा था| सुबह होने पर भी वह बिस्तर से बिलकुल भी नही उठी| उसका कही जाने तक का मन नहीं हो रहा था|

कि तभी एक फोन कॉल पर उसका ध्यान टूटा और मोबाईल की स्क्रीन पर विवेक का नम्बर देखते उसकी धड़कने तेज हो गई| एक बार पूरी रिंग जाने के बाद तक उसने कॉल रिसीव नही किया पर दूसरी बार फिर उसकी कॉल आने पर आखिर उसने कॉल रिसीव कर ली|

“कहाँ हो मेरी जान – मुझे लगा सुबह सुबह तुम खुद मुझे कॉल करोगी – बोलो कब मिल रही हो मुझसे ?”

“विवेक – आज थोड़ी तबियत ठीक नही लग रही |”

“एक बार मेरे पास आ जाओ मैं सब ठीक कर दूंगा |”

विवेक अपनी बात इतनी रूमानियत से कहता है कि मेनका के होंठ हलके से विस्तारित हो जाते है|

“सच में नही आ सकती |”

“तुम नही आओगी तो मैं आ जाऊंगा |”

“क्या सच में !! नही तुम ऐसा नही कर सकते |”

“चैलेन्ज दे रही हो !!”

“अगर हाँ कहूँ तो !!”

“तुम्हारी एक हाँ पर अपनी सौ जान कुर्बान है – बस दिल की धड़कनों को सेकंडो की तरह गिनो – आ रहा हूँ मैं |”

“अररर रुको विवेक – काट दिया फोन |” वह हैरान मोबाईल का ब्लैंक स्क्रीन देखती रही|

***

सुबह उठते ही अरुण सिम्पल से सिंपल शर्ट पैंट के साथ तैयार हो जाता है| उसके कहेअनुसार ब्रिज खाने का रॉ मेटेरियल मंगवा चुके थे| अब आगे वह क्या करने वाला है ये वह अभी तक नहीं समझ पाए थे| बस उसके कहेनुसार सब करने को तैयार थे|

वे साथ में बाहर निकल रहे थे| उसे बाहर निकलते देख सारे बॉडीगार्ड एलर्ट मोड में आ जाते है| उन्हें अपने आगे पीछे देख अरुण उन सबको ऐसे मुस्कराते हुए देखता है जैसे उन्हें चिढ़ा रहा हो|

उन्हें अनदेखा कर जब अरुण आगे बढ़ने लगता है तो वे सारे बॉडीगार्ड उसके आस पास आते हुए कहते है –

“सर आप बिना सिक्योरटी बाहर नही जा सकते |”

“क्यों ?” अरुण  बेचारगी चेहरा बनाते हुए पूछता है|

“सर बिना सिक्योरटी जाना आपके लिए सेफ नही होगा |”

“क्या वाकई |”

अरुण हलके से हँस देता है तो ब्रिज आगे आते हुए सख्ती से कहते है – “तुम सबकी सिक्योरटी तो बहुत टाईट है – ऐसा करो हमारे संग जाने के बजाये पहले यहाँ की सिक्योरटी चेक कर लो और हाँ हम अभी अकेले बाहर जा रहे है – लौटके मैं तुम्हारे सिक्योरिटी हेड से मिलता हूँ |”

कहते हुए वे तेजी से बाहर की ओर निकल गए और पीछे बॉडीगार्ड हतप्रभता से उन्हें देखता रहा|

***
मेनका बिस्तर से उठ भी नहीं पाई और विवेक का दुबारा कॉल आ गया|

“अब बाहर तक लेने भी नहीं आओगी क्या ?”

“तुम – तुम बाहर हो – क्या सच में ?”

“अब सुबह सुबह तुमसे मजाक तो नहीं करूँगा – अब आओ भी जल्दी क्योकि ये सिक्योरटी वाले भई मुझे पहचानते तो नहीं |”

“हाँ हाँ रुको मैं आती हूँ |” कहती हुई मेनका फुर्ती से बिस्तर छोड़कर उठ जाती है|

उसे कतई नही लगा था कि विवेक बेख़ौफ़ मेंशन तक चला आएगा|

मेनका झट से गाउन उतारकर मिडि पहनकर बाहर की ओर भागती है| वह दौड़ती हुई इतनी तेजी से बाहर आई कि उसकी साँसे ही ऊपर नीचे होने लगी थी| विवेक मुख्य गेट स कुछ दूर सीने पर हाथ बांधे खड़ा था| उसे देखते वह पैदल ही उसकी ओर तेजी से आती हुई कहती है –

“तुमने तो मुझे हैरान ही कर दिया |”

“हैरान तो मेरा सरप्राइज पा कर होगी |”

“कैसा सरप्राइज ?”

“यूँही रूखे सूखे – एक कप कॉफ़ी के साथ सुनोगी तो ज्यादा मजा आएगा |”

“ओह…प्लीज आओ न अंदर |” अपने सर पर टीप मारती वह उसका हाथ पकड़े उसे अंदर लाती है|

मेनका उसका हाथ पकड़े उसे अंदर ले जा रही थी और उसके पीछे पीछे चलते विवेक उस मेंशन को अपनी छुपी नज़रो से घूर रहा था जैसे वह पूरा मेंशन ही उसका दुश्मन हो पर मेनका के देखते वह जल्दी ही अपने मनोभावों पर नियंत्रण कर लेता है|

मेनका जिसे विवेक की बहादुरी समझ रही थी वो उसकी तैयारी थी| यहाँ आने से पहले ही उसने पता कर लिया था कि दीवान साहब और भूमि बाहर निकला गए है और आकाश अरुण तो पहले से ही वहां नही थे| अब उसे उसका मकसद पूरा करने से कोई नहीं रोक सकता था|

***
अरुण सारा सामान लेकर उन मजदूरो तक पहुंचवा कर एक दो घंटे बाद आने का बोलकर वापस चला गया| दो घन्टे बाद उन मजदूरो ने मिलकर खाना तैयार कर लिया था| तब आरुण फिर से ब्रिज जी के साथ वहां पहुँच जाता है|

“बीस लोगो के हिसाब से तो खाना बहुत ज्यादा था पर बेटा तुमने कहा तो हमने मिलकर बना लिया – अब कैसे ले जाओगे ?”

“एक गड़बड़ हो गई है काका |”

“कैसी गड़बड़ ?”

अरुण बेचारगी से कह रहा था – “असल में किसी कारण से हमारे कुछ साथी वापस चले गए तो अब बस हमे दस लोगो का ही खाना चाहिए पर बाकि का खाना क्या करे – पका हुआ खाना न छोड़ सकते है और न कही फेक सकते है |”

अब सारे मजदूर खड़े अरुण का मुंह ताक रहे थे| वो भी बात नही समझ पा रहे थे|

“एक काम कर सकते है – प्लीज़ आप सभी आज इसी खाने से काम चला ले नहीं तो इतना खाना वेस्ट देखकर मेरा बॉस मुझे नौकरी से ही बाहर कर देगा |”

अरुण की बात सुनते वे सारे मजदूर अपनी अपनी बगले झांकने लगे|

“देखिए आप मना मत करिएगा – ये मेरी बहुत मदद होगी – मैं इतना सारा खाना वापस नही ले जा सकता |”

अरुण की बात पर वहां सब की चुप्पी छा जाती है किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था| तब अरुण ब्रिज के साथ दस लोगो का खाना एक टिफिन में पैक करने लगता है|

“आप सबका शुक्रिया जो आपने मेरी इतनी मदद कर दी – नहीं तो मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैं इतना खाने का आखिर करूँगा क्या |” कहता हुआ अरुण बाकी का खाना छोड़कर जाने लगता है|

वे सारे मजदूर उसे जाते हुए देखते बुदबुदा उठे – ‘समझ नही आता कि हमने इसकी मदद की या इसने हमारी मदद की !!’

***
हैरान तो मिस्टर ब्रिज भी थे| उन्हें अभी तक भी कुछ समझ नही आया कि अरूण ने किया क्या सिवाए इसके कि उन चालीस मजदूरों को आज का खाना मिल गया था|

इससे पहले कि वे अरुण से आगे का कुछ पूछते अरुण अपने हाथो में टिफिन लिए लिए चलते हुए थोड़ा जोर से बोलता है –

“देखिए हमारे पास दस लोगो का खाना है – वो भी एकदम फ्रेश – अब इससे भला क्या बढ़िया बात होगी – दाल, चावल, रोटी, सब्जी – और क्या चाहिए – कोई कितना भी पैसा कमा ले पर अगर समय पर खाना न मिले तो उससे गरीब कोई नहीं – अरे संभाल कर पकडिए – कही किसी चोर उचक्के ने सुन लिया तो हमारा खाना छीन लेगा !”

ब्रिज आश्चर्य से अरुण की ओर देख रहे थे उन्हें कुछ बात समझ ही नहीं आ रही थी कि अरुण ये सब क्यों बोल रहा था|

और तभी अचानक से उनके ठीक सामने एक गुंडा आकर खड़ा हो जाता है|

“ए कहाँ ??”

ब्रिज एक नज़र उस गुंडे को तो दूसरी नज़र अरुण की ओर देखते है जो उस गुंडे की ओर खाना बढ़ाते हुए कह रहा था – “देखो भाई हमे कुछ मत करना – चाहे तो ये खाना रख लो |”

“वो तो हम लेंगे ही पर आ कहाँ से रहे हो ?”

वह गुंडा वही था जो पिछली रात अपने से छोटे दूसरे गुंडे को हड़का रहा था|

अरुण बडी दयनीय भाव से कहने लगा – “देखिए गुंडे भाई हमे कुछ मत करिएगा – आप जो पूछोगे हम बता देंगे – क्यों सही है न |” वह ब्रिज की ओर देखता संकेत में पूछता है और वे बस हाँ में सर हिला देते है|

“हम बस उन मजदूरो से अपना खाना बनवा कर ले जा रहे थे – वो क्या है कि यहाँ आस पास कोई ढाबा नही है न और ये मजदूर खाली ही थे तो बस बनवा लिया |”

“हाँ सही कहा यहाँ कोई ढाबा नहीं है |” अरुण की बात पर सहमती देता वह गुंडा बोल पड़ा फिर जल्दी से संभलते हुए खाना उसके हाथों से लेता हुआ कहता है – “अब चुपचाप यहाँ से निकल जाओ – समझा |”

“मैं तो समझ गया पर रात में फिर खाना लेने आऊंगा – तब मत छिनना |”

“रात में फिर से !!” ब्रिज हकबक से बोल पड़े|

गुंडा भी ये सुनते पलटकर उसकी ओर देखता है|

“हाँ अब एक टाइम तो मांगकर खा लेगे पर रोज का क्या होगा और अगर कही उन मजदूरों को मालूम पड़ा तो हो सकता है वह खाना बनाना ही बंद कर दे’

“!!!”

“अरे नहीं ऐसा मत कहो – खाना तो तुम रोजाना लेने आओगे और हमे दोगे |”गुंडा थोड़ा हलके से गिडगिडाने वाले स्वर में कहता है|

“अब तुमने मुझे इतना डरा दिया तो ठीक है कर लेंगे – लो भाई खाना लो|”

अरुण उसके हाथ में खाने का टिफिन पकडाते हुए आगे बढ़ जाता है और यही ठीक ब्रिज भी करते है पर उनका दिमाग ऐसा घूम रहा था जैसे मिक्सी में डालकर उनका दिमाग किसी ने घुमा दिया हो|

वे अरुण के पीछे पीछे बस चुपचाप चलते रहे|

क्रमशः………………..

18 thoughts on “बेइंतहा सफ़र इश्क का – 123

  1. Ye Arun kya karne wala hai.. brij ke saath hamara bhi dimaag ghoom rha hai..
    Vivek kya karne aya hai mension me .. kya irada hai uska.. mujhe to menka pe boht taras bhi a rha hai aur gussa bhi🥺🥺

  2. Superb part!!! Mujhe sahi laga tha… In gundon ki dikkat khana hi hai… Bus ye mehnat nahi karna chahte… Ab arun apna dimag laga kar iska bhi jugad karga… Ye bhi khush aur majdur bhi khush.
    Vivek jo soch kar ghar mein ghusa hai ki koi nahi hai ye use nahi maloom ki jisse asli mein chupna hai ya kahe to nazaron mein nahi aana hai… Vo to ghar par hai.
    Interesting part… Waiting for the next

  3. Superb part!!! Mujhe sahi laga tha… In gundon ki dikkat khana hi hai… Bus ye mehnat nahi karna chahte… Ab arun apna dimag laga kar iska bhi jugad karga… Ye bhi khush aur majdur bhi khush.
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  4. Superb part!!! Mujhe sahi laga tha… In gundon ki dikkat khana hi hai… Bus ye mehnat nahi karna chahte… Ab arun apna dimag laga kar iska bhi jugad karga… Ye bhi khush aur majdur bhi khush.
    Vivek jo soch kar ghar mein ghusa hai ki koi nahi hai ye use nahi maloom ki jisse asli mein chupna hai ya kahe to nazaron mein nahi aana hai… Vo to ghar par hai.
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  5. Arun ek teer se do shikar kr rha h……majduro ko khana or sath hi gundo ko b khana….dono ko ek sath hi handle kr rha h…jarur arun ke pass koi solid plan h….menka ko vivek pagal bna rha h …ab uska mann jarur change ho jayega or vivek ke sath chali jayegi

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