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बेइंतहा सफ़र इश्क का – 128

भावनगर की हवा का रुख ही बदल चुका था| मजदूर खुश थे कि बिना किसी बाधा के गुंडों की समस्या हल हो गई और अब फैक्ट्री स्टार्ट होने से उनकी रोजी रोटी की समस्या भी हल हो जाएगी| ब्रिज भी हैरानगी के साथ खुश थे कि वे अपने टारगेट मे बिना किसी अडचन के सफल हो गए|

लेकिन अभी भी कुछ प्रश्न थे जो उनके दिमाग से गए नही थे जिससे वे अरुण के साथ चलते चलते उससे पूछते है –

“वैसे एक बात समझ नही आई – तुमने कैसे ये सब प्लान कर लिया – मतलब मैंने यहाँ आने से एक दिन पहले ही तो यहाँ की प्रोबलम बताई थी – फिर कब और कैसे ये प्लान कर लिया कि खाने से ये दोनों समस्या हल हो जाएगी ?”

“आपको पता है पीएम ? खाना एक ऐसी चीज है जिसे आप सिर्फ जरुरत मान सकते है पर ये संबंधो को जोड़ने का काम भी करती है – |”

“कैसे ?”

“अब आप खुद ही सोचिए एक परिवार जो पूरा दिन व्यस्त रहता है पर खाने की  मेज पर इकट्ठा हो जाता है उसी तरह कोई कुनबा या गाँव जो कही भी हो पर भोजन के समय इकट्ठा होकर मिलकर अपना दुःख सुख बांटता है इसलिए मुझे दोनों की समस्या सुनकर यही अहसास हुआ कि खाना इन्हें भी जोड़ेगा -|”

“वाह इतने अच्छे से बात समझकर समझा भी दी |”

“हाँ मैंने भी ये बात किसी खास से समझी तभी तो जान पाया |” खुद मे मुस्कराते ये कहते हुए अरुण के इमेजिनेशन मे उस वक़त उजाला का चेहरा घूम गया जिसने दीवान परिवार मे ये रस्म शुरू करके परिवार को कुछ पल के ही सही एक कर दिया था|

वे बात करते करते फैक्ट्री तक आ पहुंचे थे|

उनतक अरुण के आने की खबर भी पहुँच चुकी थी पर किसी ने उसे देखा नही था इसलिए जब अरुण अपने सिंपल लुक मे ब्रिज के साथ पहुंचा तो वे सहज भाव से उसे देखकर कहते है –

“आओ बेटा – वही हम सब सोच रहे थे कि तुम कथा मे आओगे या नहीं |”

अरुण के कहने पर वह अपना सारा तामझाम जैसे बॉडीगार्ड इत्यादि फैक्ट्री से थोड़ा दूर छोड़ दिया था और मजदूरो के स्थान पर वह ब्रिज जी के साथ ही पहुंचा था|

अरुण आस पास नजर दौड़ाते हुए देखता है कि सभी मजदूर अपनी अपनी तैयारीयों मे लगे थे जैसे कोई स्टेज पर पाठ होने की तैयारी कर रहा था तो आगे सबके बैठने के लिए दरी बिछाई जा रही थी और दाई तरफ एक छोटे टेंट के नीचे कुछ कुर्सी और मेज सजाई जा रही थी| ये सब देखते हुए अरुण अनबूझा बनता हुआ पूछता है –

“काका और भी कोई विशेष तैयारी है क्या ?”

“हाँ बेटा बड़े साहब जो सूरत से आए है वो भी आ रहे है यहाँ तो उनके बैठने के लिए ये सब करना ही पड़ेगा न !”

इससे पहले कि अरुण इसपर कुछ कहता पास फूलो की लड़ियाँ लगाता लगाता मदन बोल पड़ा – “ये सब बेकार ही जाएगा काका – मैं कहता हूँ वो बड़े साहब है और यूँही कह दिया आने को तो क्या आपको लगता है वो सच मे हमारे बीच आएँगे और आ भी गए तो झटपट चले जाएँगे बैठेगे थोड़ी ही – यहाँ खुली धूप हवा मे पल भर भी ठहर पाएँगे क्या ?”

काका भी उसी भाव मे कहते है – “हाँ मुझे भी यही लगता है – अरे न आए पर कुर्सी तो रखनी होगी – मदन जरा हाथ जल्दी जल्दी बढ़ाओ – अभी बहुत तैयारी करना है |”

ये सब देखते एक हलकी मुस्कान अरुण के चेहरे पर तो ब्रिज उन सब मजदूरो को बेचारी नज़र से देख रहे थे कि जब उन्हें अरुण के सच का पता चलेगा तो उन सबका चेहरा कैसा हो जाएगा ?

फिर काका कुछ टोकरियाँ इधर से उधर रखते हुए अरुण को भी इशारा करते है – “जरा तुम भी मदद करो – ये टोकरियाँ उधर रख दो |”

ये सुनते अरुण टोकरी लेने आगे बढ़ता है तो ये देख मिस्टर ब्रिज जल्दी से उसके हाथ से टोकरी लेने लगते है ये देख काका अजीब नज़र से उन दोनों को देखते है तो अरुण बात बनाते हुए कहता है –

“अरे पिता जी आप क्यों करते है – मैं हूँ न – आप बैठिए और सारा तमाशा देखिए |”

“हाँ !!” ब्रिज भी फसी हुई हालत से उन दोनों को देखते चुपचाप एक जगह बैठ जाते है और देखते है कि अरुण किस तरह से एक आम व्यक्ति की तरह उनकी मदद कर रहा था| ये सच मे उनके लिए एक अद्भुत दृश्य था क्योंकि अपने तीस सालो की नौकरी मे सेठ घनश्याम दीवान के साथ काम करते उन्हें हमेशा उनके बहुत बड़े होने और उनके आगे बाकियों के बहुत छोटे होने का अनुभव ही हुआ|

“अच्छा है काका उस घमंडी का सर तो झुका – जब वो आए न तो अपनी बाकी की शर्ते भी रख देना काका |”

“अब देखा तो नहीं पर सुना है बड़े साहब का छोटा बेटा आया है अब वो हमारी क्या सुनेगे ये तो वही जाने |”

ब्रिज अपनी जगह से बैठे बैठे अरुण कि वार्तालाप सुनते मंद मंद मुस्करा रहे थे|

“वैसे आप और क्या चाहते है ?”

“हम तो रोज के सुकून के साथ दो रोटी चाहे और कुछ नहीं – अब देखो उन गुंडों ने जाने क्या सोचकर अपना गेट बदल लिया और हमारी सारी समस्या ही हल हो गई और तुम्हारे लिए खाना बनाने से हमे दो वक़्त का खाना मिल जाता है अब फैक्ट्री भी शुरू हो रही है – बस और कुछ नहीं चाहिए |”

इसपर अरुण हलके से होंठो के विस्तार से उन्हें देखता है|

“वैसे बेटा तुम हम सबके लिए हो बहुत भाग्यशाली – जाने कहाँ से आए और बैठे बिताए हमारी सारी समस्या ही हल हो गई – वैसे एक मदद हम तुम्हारी कर देंगे – मैं न बड़े साहब से तुम्हारी सिफारिश कर दूंगा तो हो सकता है – तुम्हे और अच्छी नौकरी दे दे – क्यों ठीक है न !” काका उत्सुकता से अरुण को देखते है जो हामी मे सर हिला देता है|

फिर अरुण फूलो से सुसज्जित स्टेज को देखते हुए अरुण पूछता है – “वैसे पाठ शुरू कब होगा काका ?”

“बस अभी आने वाले है महंत जी – तुम्हे पता है बड़े पहुंचे हुए महंत है – वे यूँ आसानी से नहीं मिलते – वे हमेशा जाने कौन कौन सी तीर्थ यात्रा मे रहते है – पर भाग्य देखो मंदिर मे वही मिल गए और पाठ को राजी भी हो गए – उनसे आशीर्वाद मिल जाए ये भी अपने आप मे बडी बात है |”

तभी सूचना मिलती है कि मंहत जी आ गए और सभी अपने अपने स्थान पर बैठने लगते है| महंत के साथ उनके कुछ चेले भी आते स्टेज पर पाठ की व्यवस्था करने लगते है| सफ़ेद लम्बी दाढ़ी और गेहुए रंगत के वे महंत कि मंडली आते ही रामधुनी लगा कर बैठ जाते है|

अब सारे मजदूर आगे दरी मे बैठने लगते है| अरुण भी उन्ही के बीच बैठकर अपना सारा ध्यान उनकी ओर लगा देता है| वैसे भी दादा जी के साथ रहते उनके रामचरितमानस के पाठ को वह बचपन से बहुत ध्यान से सुनता रहता था| आज भी ये पाठ सुनते उसे दादा जी की याद हो आई|

***
मेनका पर तो जैसे प्यार जूनून बनकर सवार था| वह अपनी ही दुनिया मे डूबी सुबह से ही मेंशन से निकलने लगी| सुबह सुबह इस तरह जल्दी जल्दी जाते देख वह उसे टोकना चाहती थी पर मेनका तेजी से पोर्च की ओर बढ़ गई जहाँ से अपनी कार लेकर वह बाहर निकल गई|

फिर भूमि इस बात से ध्यान हटाती हुई डाइनिंग टेबल की ओर आ रही थी जहाँ क्षितिज तो बैठा था पर दीवान साहब नही थे इससे वह उन्हें बुलाने उनके कमरे की ओर चल देती है|

वे अपने रूम मे शांत बैठे थे| भूमि दस्तक देती उनके कमरे मे प्रवेश करती हुई पूछती है –

“डैडी जी आज आप नाश्ते के लिए नहीं आए –?”

“हाँ बहु आज कुछ मन ठीक नहीं लग रहा – |”

वह हलके से अपने सीने पर हाथ रखते हुए कहते है तो ये देख भूमि घबराई हुई उनकी ओर आती हुई कहती है – “रुकिए मैं डॉक्टर को बुलवाती हूँ – आपने पहले क्यों नही बताया !”

“नहीं उसकी जरुरत नही है – मैंने अभी बीपी लिया था – नार्मल है – बस मन आज कुछ घबरा सा रहा है जैसे कुछ बुरा हो जाएगा – हो सकता है अरुण और आकाश दोनों यहाँ नही है इसलिए ऐसा लग रहा हो – तुम्हे तो पता है आजकल हमारी मार्किट दिन पर दिन गिरती जा रही है|”

“डैडी जी – ये सब तो बिजनेस है इसमें उतार चढ़ाव होता रहेगा पर इन सबके बीच आप अपनी तबियत का सबसे पहले ध्यान रखा करिए – मेरी मानिए तो आज आप ऑफिस मत जाइए और वैसे भी अरुण का मेसेज आया था वो रात तक वापस आ ही जाएगा |”

“हाँ – उससे मेरी बात तो नहीं हुई पर मुझे भी पता चला है कि उसने बहुत समझदारी से वहां की प्रॉब्लम सोल्व कर ली – मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी |”

इस बात पर भूमि मुस्करा दी|

“शायद अरुण को समझने मे मुझसे ही कोई भूल हुई – अब मैं चाहता हूँ ये तीनो मेरे बिजनेस को संभाल ले और मुझसे भी कही आगे निकले – इनकी तरक्की से ही अब मेरी सारी आस जुडी है |”

“बिलकुल यही होगा – आप बस ज्यादा सोचिए मत – आप कहे तो मैं आपके लिए यही नाश्ता भिजवा दूँ ?”

“नही बहु मैं आता हूँ – अपने परिवार के साथ वक़्त बिताने के लिए यही तो एक पल मिलता है – चलो मैं आता हूँ |”

“जी |’

भूमि के जाते वे भी धीरे से उठते हुए एक कमरे से बाहर निकलने लगते है|

***

ये बीच का वही सुनसान हिस्सा था जहाँ विवेक और मेनका रोजाना ही मिलते थे| आज भी विवेक उसका वही इंतजार कर रहा था\ कुछ दूर कर पार्क करके मेनका झट से विवेक के पास पहुँच गई| उसे देखते मेनका पल भर को उसे देखती रह गई| आज वह उसे कुछ बदला सा दिख रहा था| आज उसके चेहरे पर बहुत हलकी सी ब्रिड थी और सफ़ेद कुर्ते मे वह मेनका के सामने खड़ा था|

“आज क्या बात है – इतने समय बाद देखकर लग रहा है जैसे तुम वही पांच साल वाले विवेक हो – वही सूरत वही आँखों मे प्यार |” वह गहरे से उसका चेहरा देखती हुई कहती है|

विवेक जिसने अब तक अपनी पहचान छिपाने के लिए चेहरे पर अच्छी खासी दाढ़ी रख रही थी आज उस पहचान को हटा कर वह अपने पुराने रूप मे नजर आ रहता|

“आज से एक नई शुरुवात जो करने वाला हूँ न !”

“अच्छा पहले वो सरप्राइज बताओ जो तुम मुझे देने वाले थे – लो अपना वादा तो मैंने निभा दिया अब तुम्हारी बारी है|”

विवेक मेनका कि ओर आगे बढ़ता हुआ उसका चेहरा अपनी हथेली मे भरता हुआ कहता है – “आज तो मैं तुम्हे हैरान ही कर दूंगा लेकिन उससे पहले ये पहन लो तुम |”

कहते हुए विवेक एक पैकेट उसकी ओर बढ़ाते हुए कहता है तो मेनका हैरानगी से उसे ले कर खोलती हुई कहती है –

“है क्या इसमें ? साड़ी…!!” पैकेट को खोलते ही मेनका हैरानगी से विवेक की ओर देखती हुई कहती है – “ये साड़ी तुम मेरे लिए लाए ?”

उस गहरी गुलाबी साड़ी को तो कभी विवेक को देखती हुई मेनका हैरान बनी थी|

“हाँ और मैं चाहता हूँ कि तुम इसे अभी पहन लो |”

“क्या कह रहे हो विवेक – एक तो मुझे साड़ी पहननी नही आती क्योंकि इससे पहले मैंने इसे कभी नहीं पहना और दूसरी बात हम बीच पर है इस वक़्त – समझे आप |” वह हंसती हुई विवेक के माथे पर हौले से छूती हुई कहती है|

“तो कोई बात नहीं तुम्हारी दोनों समस्या का हल है मेरे पास |” कहता हुआ विवेक मेनका को अपनी बाहों के घेरे मे लेता हुआ कहता है – “यहाँ इस बीच पर हमारे सिवा कोई नहीं है तो किसी के देखने का सवाल ही नहीं उठता और दूसरी बात कि मैं तुम्हे आपने हाथ से साड़ी पहनाऊंगा |”

“क्या |” इस बात पर मेनका खिलखिला कर हंसती हुई कहती है – “तुम्हे साड़ी पहनानी आती भी है ?”

“तो चलो इस बात को चेक कर लेते है |” कहता हुआ वह उसे और अपने करीब खींचता हुआ उसकी मिडी के बंधन खोलने लगता है| उसके हाथो के स्पर्श से मेनका शरमाती हुई अपनी ऑंखें बंद कर लेती है |

उसकी बंद पलकों को देखता विवेक मचलते हुए उन्हें चूम लेता है| इससे मेनका झट से अपनी ऑंखें खोलती हुई कहती है – “ये कौन सा साड़ी पहनाने का तरीका है ?”

“बस जब प्यार मे तुम्हारी आंखे बंद हो जाती है तो मेरा मन और भी मचल जाता है इसलिए प्लीज़ ऑंखें खोल के रखो और मेरी हेल्प करो – |”

“लो अभी तो खुद पहनाने वाले थे अब हेल्प पर आ गए |” मेनका कसकर हंसती हुई कहती है|

इसपर विवेक फसी सी हँसी से हँस देता है|

उस सुनसान बीच मे सच मे उसके सिवा कोई नहीं था| और वे दोनों भी एकदूसरे मे खोए थे| विवेक के कहने पर एक पेड़ कि आड़ के पीछे जाकर मेनका ब्लाउज और पेटीकोट पग्नकर उसे सामने आती है तब विवेक उसे फिर से अपनी बाँहों के बीक लेता साड़ी का एक हिस्सा उसकी कमर के चारो को घुमाते हुए दबाता है तो दूसरे हिस्से को उसके गले के डालते हुए प्लेट बनाने लगता है| मेनका हैरानगी से सब देखती अपने प्यार पर निहाल हुई जा रही थी|

एक बार तो प्लेट इधर उधर सरक गई लेकिन फिर से विवेक उसे ठीक करता हुआ वाकई उसे पल मे तैयार कर देता है|

फिर साथ मे लाए एक छोटे मिरर को उससे थोडा दूर होकर उसकी नज़रो के सामने करता हुआ कहता है –

“अब देखो खुद को |”

उस मिरर मे मेनका की खूबसूरती और गजब की दिखने लगी थी जिसे देखते वह शरमा कर विवेक की बाँहों मे समा जाती है|

“क्या यही सरप्राइज था ?”

“ये बस सरप्राइज की शुरुवात था – असल चीज तो ये है |”

कहते हुए विवेक एक कागज उसकी नज़रो के सामने करता हुआ कहता है – “हमारे प्रेम का अब ये प्रमाण पत्र बनेगा ताकि चाह कर भी कोई हमे जुदा न कर सके बोलो तैयार हो |”

मेनका बस हाँ मे सर हिलाती हुई कहती है – “तुमपर इतना विश्वास है कि जहाँ कहोगे वही आँख बंद किए तुम्हारे साथ साथ चल दूंगी लेकिन !”

“फिर ये लेकिन कैसा ?”

“अगर मैं अपने घर पर एक कोशिश कर लूँ तो ?”

“छोड़ो मेनका – एक मैं हूँ जो तुम्हारे कहने पर कोर्ट मे अर्जी देकर एक एक दिन गिन रहा था कि कब तीस दिन बीते और ये दिन आए और तुम्हे शायद अभी भी सोचने के लिए समय चाहिए |”

“नहीं विवेक ऐसा मत कहो – चलो – जहाँ कहोगे चल दूंगी |”

इस बात पर विवेक के चहरे पर एक मुस्कान तैर जाती है जबकि मेनका होंठ दाबे थोड़ी कशमकश मे पड़ी थी| क्या वाकई विवेक अपने प्लान मे कामयाब हो जाएगा ? क्या होगा मेंशन मे बस अगले भाग का करे इंतजार…एक बड़े और बेहतरीन पार्ट मे थोडा समय लग ही जाता है और वादा किया है तो आपको लगभग रोजाना ही बेइंतहा मिलेगी ही….

..क्रमशः………….

17 thoughts on “बेइंतहा सफ़र इश्क का – 128

      1. जिस भी कहानी के सारे पार्ट पढने हो उस कहानी का नाम सर्च मे डाल देंगे तो उस कहानी का सारे पार्ट दिखने लगेंगे….सर्च ऑप्शन के लिए किसी भी कहानी के पार्ट के read more पर क्लिक करे और बगल मे सर्च बटन आपको दिखेगा

  1. ओह विवेक शादी करके मेनका को सहारा बनाकर दिवान्स को कोई बड़ा नुकसान पहुंचाने वाला है मेनका प्यार में विवेक की चालबाजी समझ नही रही क्या उजला कुछ मदद कर पायेगी 👌👌👌👌👌👌👌👌

  2. Ye ky ho rha h ye Vivek ko rokne wala koi bhi nhi h ky ar is mandli m Arun ko apne dadaji mil jayenge ky ummid to esi hi lag rhi h mem ky sab kuch acha ho jayega ya fir Mr divan ko hartek aa jayega unki hi beti ki bjh se

  3. Badiya part.. menka kyu kar rhi hai aisa.. pyar me andhi ho gyi hai.. Vivek boht galat kar Raha hai.. kya Arun aur kiran use rok payenge.. mushkil hi lag rha hai kyuki Arun to abhi wapis hi nhi aya..

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