
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 21
भूमि अपनी संस्था महिला व बाल कल्याण में इस वक़्त मौजूद थी और अपने सामने खड़े संस्था के मेनेजर को सख्त नजरो से देखती हुई एक फ़ाइल उसकी नजरो के सामने तेजी से पटकती हुई बोली –
“कल्याण जी आपके काम को देखते हुए कभी कभी यकीन नही होता कि आप वाकई इस संस्था के मेनेजर है – इतनी लचरता वो भी कल्याणकारी संस्था में !! हद हो गई |”
“मैडम जी – वो बात ऐसी है कि….|”
मेनेजर की बात बीच में ही अनसुनी करती वह तेजी से उसपर गरजी – “मुझे कोई बहाना नही सुनना – आपको कुछ समझ आता है – ये कोई व्यावसायिक दफ्तर नही है बल्कि एक कल्याणकारी संस्था है – क्या मुझे ये बात भी आपको बार बार बतानी होगी – पिछली बार भी मैं आपको बोल चुकी थी कि सारे बयौरा आप तैयार रखे ताकि समय पर हम अपना मसौदा सरकारी अनुदान के लिए भेज सके – पर आपने अपना काम पूरा किया ही नही – अब सर्दियाँ भी आने वाली है – बच्चो को सामान भी मुहैया कराना है तो ये सब कैसे होगा – आप बताए – क्या आपके ब्यौरा तैयार होने का वे बच्चे इंतजार करेंगे – क्या इतनी बड़ी संस्था मैं आपकी लचरता से ढह जाने दूँ !!”
वह तेज गर्जन के साथ अपनी बात खत्म करती अब दरवाजे की ओर देखती है जहाँ से संस्था का अन्य कर्मचारी प्रवेश करता हुआ एक फ़ाइल भूमि की ओर बढाता हुआ कहता है – “ये लीजिए मैडम जी – मैंने महिला कल्याण संस्था का मसौदा तैयार कर लिया -|”
आगंतुक के हाथ से फ़ाइल लेती वह तेजी से उसके पन्ने पलटती हुई अब उसे कल्याण जी की नज़रो के सामने लाती हुई कहती है – “ये देख रहे है – अब आप बताए एक विभाग का काम हो जाने पर भी मैं इसे सरकारी अनुदान के लिए सोशल वेलफेयर मिनिस्ट्री तक नही भेज सकती – क्योकि आपको छुट्टी लेने से फुर्सत नही – फिर काम जाए भाड़ में – तो आप बताएँगे कि आप किस बात के संस्था के मेनेजर है -!! और हर बार मैं आपके बहाने क्यों सुनूँ !”
वह बुरी तरह से बिगड़ रही थी जबकि आगंतुक सर झुकाए कल्याण जी का रुआंसा चेहरा देखता अपने भावों के भीतर से मुस्करा रहा था|
***
दादा जी खाना खाने के बाद सौफ लेते हुए अपने बगल में नीचे मचिया में बैठी किरन के सर पर हाथ फेरते हुए कहते है – “इतना अच्छा खाना खिलाकर तो मेरी आदत खराब कर दोगी – वहां तो दाल बाफला का नाम ही भूल बैठा था – वो खानसामा जब देखो हर खाने में मुट्ठी भर चीनी डाल के सारे खाने का कबाड़ कर देता है |”
इस पर सभी मुस्करा पड़ते है|
“ये तो है – अपने गाँव का स्वाद अपना ही होता है – |” मनोहर दास भी हँसते हुए अपनी बात कहते है|
“जब आएगी न विदा होकर तब बस यही खिलाती रहना मुझे – दाल बाफला खाकर आज माँ के हाथ के खाने की याद हो गई – अपनों के हाथ से बने खाने में अपनों का प्यार मिला होता है जो वो घर जानता भी नही |” कहते हुए दादा जी स्वर कुछ उदास हो आया था|
तभी सारंगी आती हुई कह रही थी – “अभी आपने ये बेसन लड्डू तो चखे ही नही – दीदी तो इसमें एक्सपर्ट है |” सारंगी तिरछी नज़र किरन पर डालती हुई अब ट्रे सबकी ओर करती है|
“अरे सारंगी ये लड्डू नही मैंने बाबू जी के लिए गुड के बनाए थे – वो लाने थे न – ये तो चीनी वाले है|” किरन अब खुद उठकर अन्दर जाती हुई बोलती है|
इस पर मनोहर दास मुस्कराते हुए कहते है – “मुझे शुगर क्या हुआ मेरी चीनी ही छीन ली इसने |”
“पर मीठा तो नही छीना न बाबू जी |” वही रसोई से किरन की आवाज आई तो सभी एकसाथ मुस्करा पड़े|
“अरे राजवीर तुम !! अरुण कहाँ है – क्या बाहर खड़ा है !” दादा जी अचानक सामने खड़े हुए राजवीर को देखते पूछते हुए उसके पीछे देखने लगते है|
“जी दरअसल छोटे मालिक के थोड़ी सी चोट लग गई – – |” राजवीर पूरा वाक्य भी नही कह पाया था कि वहां सनसनी सी फ़ैल गई|
“क्या हुआ अरुण को !!”
दादा जी घबराकर कांपते हुए एकदम से खड़े हो गए तो रसोई में अपनी धड़कन समेटती किरन सन्न रह गई उसे लगा जैसे पल भर को दिल धड़कना ही भूल गया हो|
“ये तो पता नही बस मुझे यहाँ का पता बताया सो मैं चला आया|”
“घर आया है तो ज्यादा चोट नही आई होगी – अच्छा तो जल्दी चलो |” दादाजी किसी तरह से अपनी घबराहट समेटते हुए कहते है|
“चलिए मैं भी चलता हूँ चाचा जी |” दादा जी के साथ अब मनोहर दास भी घबराए से तुरंत ही बाहर निकल गए जबकि सहमी सी किरन रसोई की ओट लिए नम आँखों के साथ खड़ी रह गई|
***
कुछ ही देर में दादा जी मनोहर दास के साथ दिवांस मेंशन पहुँच गए| बहुत लम्बे बाहरी हिस्से को पार करते अब कार पोर्च पर रुकी थी| दादाजी को उतरने में मदद करते मनोहर दास भी उतर जाते है|
अभी वे अन्दर जाने को कदम बढ़ा ही रहे थे कि अन्दर से बाहर आता हुआ आकाश उन्हें दिखा जिसे देखते वे बड़ी आशा पूर्ण नज़र से देखने लगे पर उसने उनकी ओर ध्यान भी नही दिया और किसी से फोन पर बात करते हुए अपने पीछे पीछे चल रहे दीपांकर पर एकदम से बरस पड़ा – “इडियट ये बात मुझे पहले क्यों नही पता चली – उस दो कौड़ी के आदमी की इतनी हिम्मत कि उसने अरुण पर वार किया – उसे पता नहीं क्या कि हम जब चाहे तब उस मामूली कीड़े को कुचल सकते है|” अबकी उसकी नज़र एक साथ दादा जी और उनके साथ खड़े मनोहर दास पर पड़ी|
नज़र मिलते दादा जी तुरंत मनोहर दास की ओर इशारा करते हुए कहने लगे – “आकाश बेटा ये तुम्हारे पिता के पुराने मित्र है – सुवली गाँव में मास्टर है|”
ये सुनते आकाश उन्हें बड़ी हेय दृष्टि से देखता हुआ दीपांकर को आवाज देता हुआ कहता है – “इन छोटे लोगो को उनकी औकात दिखाना बहुत जरुरी है – लेट्स गो |” कहता हुआ आकाश इशारा करता है और एक अन्य कार ठीक उसके सामने पार्क हो जाती है जिसका दरवाजा जल्दी से दीपांकर खोलता हुआ आकाश के बैठते वह खुद भी उस कार की आगे सीट पर बैठ जाता है| आकाश की कार के निकलते उसके पीछे दो और कारे उसकी सुरक्षा के लिए उसके पीछे हो लेती है|
मनोहर दास सब मौन देखते रहे| दादा जी उस पल कितने शर्मिन्दा हुए उसे व्यक्त भी न कर सके फिर किसी तरह से संभलते हुए मनोहर दास की ओर देखते हुए कहते है – “लगता है जल्दी थी जाने की – तुम आओ मनोहर |”
दादा जी आगे चलने के लिए अपने कदम बढ़ाते है पर मनोहर दास वही खड़े रहते है| ये देख वे पलटते हुए उनकी ओर देखते है तो वह हाथ जोड़ते हुए कह रहे थे – “मुझे इजाजत दीजिए चाचा जी शायद मैं बहुत गलत समय आ गया – बस अरुण ठीक है खबर कर दीजिएगा नही तो मन उसी पर लगा रहेगा |”
इसके आगे दादा जी कुछ न कह सके बस अपनी आखिरी विनती में मनोहर को छोड़ आने का कहते है| मनोहर दास के जाते वे भी थके कदमो से मेंशन के अंदर चल देते है और साथ में आया बडी जो बहुत देर से किनारे चुपचाप खड़ा था जैसे सारी संवेदना वह समझ रहा था| उनके जाते वह भी ख़ामोशी से अपने हाउस की ओर चल देता है|
…………………क्या होगा कुबेर के साथ और क्या बदल सकेगी अरुण की जिंदगी जानने के लिए जुड़े रहे कहानी से….
क्रमशः…..