
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 39
रस्मो की शुरुवात किरन के घर पर हो चुकी थी| माँ विहीन हो कर भी उसके अपनेपन के स्वभाव ने उसके जीवन में ममत्व की लेश मात्र भी कमी नही रखी थी| पड़ोस की काकी सबने दो तीन दिन से घर में पूरा जलसा का माहौल बना रखा था| घर ख़ुशी और उमंग से भरा हुआ था| कुसुम काकी का घर बिलकुल बगल में था वे मनोहर दास के साथ पढ़ाती भी थी| अब उनका रिटायमेंट नजदीक था इसलिए काफी वक़्त वे छुट्टी पर गुजार देती|
उनके साथ साथ कौशल्या बेन, हीरा बेन और भी बाकी की शिक्षिका कुछ किरन की पड़ोसन ने उसके घर में अच्छा खासा मजमा लगा रखा था|
कल ही शादी थी और आज बाकि की रस्मे पूरी होनी थी| सुबह से गणेश गौरी की पूजा के बाद पंडित जी किरन की आशीष देते हुए अपना सामान समेटने लगते है| अब मण्डप पूजा होनी थी जिसके लिए महिलाओ का आना शेष था|
किरन भगवान का आशीर्वाद लेकर अब अपने बाबू जी के पैर छूने आगे बढ़ती है| आज वह साड़ी में थी| उसे देख पिता का मन आज भरा जा रहा था| उनका मन किसी अनजान डर से जहाँ सहमा था वही बेटी का घर बसते देखने की ख़ुशी भी थी| किरन को वे अपने सीने से लगाए कुछ देर मौन ही उसका सर सहलाते रहे| मानो उसकी उपस्थिति को मन के भीतर तक स्थापित कर लेना चाहते हो|
छोटी बच्ची की तरह उसे अपने में समेटे हुए वे कहते रहे -“एक वो पल था जब सोचता था कि अरुण न मिला तो कैसे विदा करूँगा बेटी को और आज जब वही सब होने जा रहा है तो मेरा मन तेरा जाना स्वीकार ही नही कर पा रहा – सोचकर ही मन कांप उठता है कि तेरे बाद ये घर कितना सूना सूना हो जाएगा – जब मैं बाहर से थका आऊंगा तो कौन पानी लिए दौड़ा मेरे पास आएगा – किसकी मुस्कान देख मैं पूरे दिन की थकन को भूल सकूँगा – जब मेरा सर दुखेगा तो कौन प्यार से सहलाते मुझे दिलासा देगा..|”
पिता का दर्द अब बेटी की आँखों से बह निकला था| जाने कैसी प्रथा है कि अपने बाबू जी छोड़कर उसे जाना पड़ रहा है|
“अरे मैं तो बात ही कह रहा था – तुम तो रो पड़ी !”
“नही जाना मुझे कही – नही करनी शादी – मुझे बस अपने बाबू जी के पास रहना है |” वह हिल्की लेती कह उठी|
“ऐसा नही कहते – ये तो संसार की रीत है – बेटी का कन्यादान करने का सौभाग्य भी बड़े भाग्य से मिलता है – बस ये मन ही है जो कुछ नही समझता पर दिल तो बहुत खुश है – तुझे आबाद देखने की तमन्ना अपने जीते जी देख पा रहा हूँ ये कम है क्या !”
“बाबू जी !”
“हाँ बिटिया – मेरे बाद तो वो घर ही तुम्हारा अपना होगा – आज तेरी माँ होती तो ख़ुशी से बावरी ही हो उठती – पता है बचपन में जब तुझे शादी के लिए तैयार करती तेरे नन्हे नन्हे पैरो में आलता लगा रही थी – वो ख़ुशी आज भी मेरी आँखों में वैसे ही ताजा है – सोच आज अपनी माँ की आखिरी इच्छा पूरी करने जा रही है|”
किरन हौले हौले सुबकती रही|
“और कौन सा तू बहुत दूर जा रही है – जब जी करे आ जाना पर पहले सबकी मर्जी देखना – बहुत बड़ा घर परिवार है बिटिया – मेरा मन डरा तो है कि जाने कैसे अपनाएँगे वे तुझे पर उससे पहले तू उस घर को अपना लेगा – सबके मन में अपनी ऐसी छवि बनाना कि तेरे बाबू जी गर्व से भर उठे – बेटी पिता का मान होती है और तुझे हर हाल में अपने पिता का मान खोने नही देना है – बस यही आशीर्वाद देता हूँ तुझे |” गहरा उच्छ्वास लेते हुए वे कहते है|
किरन पलके झुकाकर स्वीकृति देती है|
तभी तेज ठहाको से उनका ध्यान टूटा और उन्होंने साथ में सभी महिलाओ को आते देखा तो मनोहर दास मुस्करा उठे|
“कहाँ है हमारी डिकरी – यहाँ तो कोई दिखी नही रहा – बधा कयम गया (सब कहाँ गए)|” ये कुसुम काकी थी जो बाकी औरतो के साथ अन्दर आते आते पुकार रही थी|
“कुसुम बेन इधर है सब – आपका ही इंतजार था|” मनोहर दास हाथ जोड़े उनका स्वागत करते हुए कहते है|
“मारे तमारी जोडे वात करवी छे (मुझे आपसे आप कहनी है) – लग्न का घर छे और न कोई ढोल न बाजा – सू करू छू |”
“अब आप आई है तो होगा न सब – जा बिटिया सबके लिए जल पान ले आ|” वही बैठक में बैठते हुए वे किरन को कहते है तो बाकी की स्त्रियाँ भी वही बैठ जाती है|
उन सबमे कुसुम काकी सबसे उम्रदराज थी इसलिए मनोहर दास उनका बेहद आदर करते थे बाकि की औरते भी उनकी बात सुनती क्योंकि वे हमेशा सीधी सीधी खरी खरी कह सुनाती थी|
“आप बैठो तो मोटी बेन |”
“बैठ तो जाऊ पण सू छे मनोहर भाई – चान्दलो मतली, गोल घना कुछ न हुआ – ये कैसे परिवार में हमारी डिकरी का लग्न कर रहे है ? कोई ससुराल से न आया और न शगुन का कुछ आया – उनका मन कैसा है अमे जान भी न सके फिर हमारी डिकरी कैसी रहेगी वहां – समझो न मनोहर भाई |”
वे बड़ी सहृदयता से बोली तो इस बात का दर्द उनकी आँखों में भी झलक आया पर किसी तरह अपने मन के भाव को नियंत्रण में लेते वे बात सँभालते हुए कहने लगे – “जिसकी जोड़ी भगवान ने बनाई उसमे मैं क्या करूँ कुसुम बेन – एक तरह से शादी तो बचपन में ही हो गई थी ये तो बस विदाई है – फिर बेटियां अपना भाग्य खुद ही लेकर आती है – सोचा भी नही था कि इतना बड़ा परिवार कभी मेरे जैसे मामूली आदमी की बेटी को स्वीकार भी करेगा – बस सब ईश्वर की मर्जी से हो रहा है|”
मनोहर दास के रूप में एक पिता का दर्द वे कम शब्दों में ही भांप गई और मुस्कराती हुई बोल उठी – “साची वात छे – तमे बिलकुल फ़िक्र न करो – हम तो अपनी डिकरी को पूरे धूम धाम से विदा करूँ छू – |”
मनोहर दास नम आँखों से उनके आगे हाथ जोड़ लेते है|
मनोहर दास से कहती है – “इतना सब जल्दी जल्दी हो रहा है और हमारे पास दिन नही बस घंटे है तो आज इन घंटो को ही हम दिनों जैसे जिएंगे और सारी रीते पूरी करेंगे – तमे चिंता न करो मनोहर भाई |”
“सारु कहूँ छे मोटी बेन |” बाकि की स्त्रियाँ भी उनकी हाँ में हाँ मिलाती है|
अब सभी उठकर अपनी अपनी जिम्मेदारी संभाल लेती है| कोई मण्डप की तैयारी करने लगती है तो कोई दरिया बिछाकर सबके बैठने का स्थान बनाती ढोलक लेकर बैठ जाती है| हर तरफ खिलखिलाहट भरा माहौल बन गया था|
“तमे सब सुनो छो – आज ही सांझी (मेहँदी), पीठी(हल्दी) और मामेरू मोसालू (मामा भात) सब होगा – तो सब तैयार रहो |” कुसुम बेन सबको निर्देश देती हुई ऊँची मचिया में बैठ गई और किरन को देखती हुई बुलाती है – ““आइया आओ बेसो(बैठो) डिकरी |” किरन को अपने पास बुलाती वे उसके बालो पर प्यार से हाथ फेरती हुई कहती है – “दिखा तो मेहँदी – केवी रीते खिली छु?”
वे जितना उत्साह से कह रही थी किरन उतनी ही उदासी से अपने हाथ उनके आगे कर देती है|
कुसुम बेन अनबुझी सी देखती रही| मेहँदी न के बराबर रची थी| इससे पहले कि वे कुछ कहती सारंगी बीच में आती गौरा वाली बात बताती हुई कहती है – “बस काकी – यही वजह से खराब हो गई मेहँदी – नही तो खूब गाढ़ी रचती |”
किरन अभी भी उदास बनी थी जिससे कुसुम बेन उसे अपने अंक में प्यार से लेती बोल उठी – “इन हाथो की मेहँदी तो कुछ दिन में वैसे ही धुल जानी हतु – सच्ची मेहँदी तो मन में रचू सू डिकरी |”
इस बात पर किरन उनके चेहरे की मुस्कान देखती धीरे से मुस्करा उठती है|
“और रही बात इन हाथो की तो जादू छे मारू पास ?” वे चमत्कृत आँखों से देखती हुई कहती है अब सबकी ऑंखें उन्ही की ओर उठा जाती है|
कोई कुछ पूछता उससे पहले ही वे सारंगी को अपने घर भेजकर कोई थैला लाने को बोलती है| सारंगी भी हवा की तरह भागती हुई उनके घर जाकर फट से आ भी जाती है|
वे थैले में इस तरह हाथ डालती है जैसे सच में वे कोई जादू सा करने वाली है| अब उनके हाथ में कोई लकड़ी के टुकड़े थे जो ठप्पे की तरह दिख रहे थे|
“ये छू वो जादू – इससे मेहँदी का ठप्पा लगाएँगे तो एक दिन तक गढ़ा लगा रहेगा – समझी न – तुमारी काकी के पास कोण सा जादू छे ?”
“अरे हाँ काकी ये तो मेले में मिलता है न – बस तुरंत फुरंत लगा दो और मेहँदी गाढ़ी सी रची दिखती है – वाह वाह मजा ही आ जाएगा |” सारंगी बच्चो सी उछल रही थी जबकि किरन काकी की गोद में सर ली थी|
“बस उछलती रहेगी या बन्ना बन्नी भी गावो छू ?”
काकी की ठसक भरी डाट पर सारंगी कमर में हाथ रखे कह उठी – “क्यों नही काकी बस आप ढोलक संभालो – मैं तो तैयार बैठी हूँ |”
बस माहौल तैयार हो गया| पल में एक ढोलक में थाप देने लगी तो दूसरी सामने बैठी उलटी चम्मच से उनमे अपनी झंकार मिलाने लगी| कोई घुंघरू हाथ से बजा रही थी तो कोई ताली की थापे देने लगी| पल में सुर में सारंगी शुरू हो गई|
“इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना इचक दाना……
छज्जे ऊपर बन्नी बैठी बन्ना है दिवाना इचक दाना…|”
सभी देखते रहे और सारंगी अब किसी बुड्डे की तरह छड़ी लेकर चलने का अभिनय करती गा रही थी –
“रोज सवेरे उठकर बन्ना गर्म जलेबी लाता है
दादा को दिखला-दिखला कर बन्नी को खिलाता है
दादा के मुंह पानी आये कैसा है जमाना है इचक दाना…..
इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना|”
सब एक साथ कसकर ठहाका मार कर हँस पड़ते है| अब अपने दुपट्टे को सर पर लेकर चलने का अभिनय करती हुई गाती है –
“इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना इचक दाना……
छज्जे ऊपर बन्नी बैठी बन्ना है दिवाना इचक दाना..
रोज सवेरे उठकर बन्ना गर्म समोसे लाता है
भाभी को दिखला-दिखला कर बन्नी को खिलाता है
भाभी के मुंह पानी आये कैसा है जमाना है इचक दाना…..
इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना|”
अबकी किरन भी होंठ दाबे हँस पड़ी थी| अबकी दुपट्टे को कमर में बांधती तनकर चलने का अभिनय करती हुई गाती है –
“इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना इचक दाना……
छज्जे ऊपर बन्नी बैठी बन्ना है दिवाना इचक…
रोज सवेरे उठकर बन्ना गर्म कचोडी लाता है
बहना को दिखला-दिखला कर बन्नी को खिलाता है
बहना के मुंह पानी आये कैसा है जमाना है इचक दाना…..
इचक दाना बिचक दाना दाने ऊपर दाना|”
इस बार सब लोटपोट होते हँसते हँसते एक दूसरे पर गिरने लगती है| सारंगी में अपनी मस्ती की पूरी तरंग की धूम मचा दी थी|
चारो ओर ख़ुशी का माहौल था और मन गीत से गुदगुदा कर खिल उठा था|
क्रमशः….