
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 44
वरमाला एकदूसरे को पहनाते जो अहसास उनके भीतर तक उतरता चला गया वो उनके जीवन का सबसे अनमोल पल बन गया| वरमाला के बाद होना तो ये चाहिए था कि वे दोनों साथ में वहां बैठते लेकिन आकाश की हड़बड़ी की वजह से मनोहरदास सारंगी को किरन को तुरंत ही ले जाने को कहते है| इस तरह दुल्हन के तुरंत जाने से वहां का माहौल सबको विस्मय कर गया|
आकाश की ओर से आया पंडित अब तुरंत ही मंडप में पहुँच कर फेरो की तैयारी कर रहा था| मनोहर दास की ओर से पंडित अभी इसके लिए तैयार नही था| वह मनोहरदास से अपना संशय प्रकट कर उठा –
“जजमान ये कैसी शीघ्रता है – सब कुछ तो मुहरत से होगा न |”
मनोहर दास इस समय कितने बेबस थे ये उनका मन ही जानता था पर कहे क्या इसलिए बस अपने पंडित के आगे हाथ जोड़ते हुए कहने लगे –
“बस आप सब शीघ्रता से कर दीजिए |”
“हाँ सब जल्दी निपटाए |” दीपांकर वही बीच में आता बेहद रुखाई से कहता है|
मनोहर दास की ओर आया पंडित सब देख सुन रहे थे| उनकी जल्दी और पिता की बेबसी भी| वह एक वयोवृद्ध दुनिया देखे सुने व्यक्ति भी थे| वे परिस्थिति को भांपते तुरंत ही स्थिति सँभालते हुए कहते है –
“देखिए जजमान – विवाह एक पवित्र संस्कार है – ये सिर्फ इस जन्म का नही बल्कि जन जमांतर का सम्बन्ध है – इसलिए मैं इसे पूर्ण विधि से करवाऊंगा – आप जिस रस्म में चाहे कटौती करे लेकिन शादी की विधि तो पूरे संस्कार के साथ ही होगी – |”
पंडित की कड़ाई से दीपांकर सकपका गया| सभी की नज़रे अब उसे ही घूर रही थी| अरुण स्टेज पर था तो आकाश बाहर और यहाँ उसे ही संभालना था| न वह आकाश के आगे बुरा बन सकता था और न अरुण के सामने तो स्थिति देखते वह थोडा नरमी से कहता है –
“देखिए आप समझ नही रहे – ठीक है – अब जितना जल्दी कर सकते है करे – वैसे कितनी देर लगेगी ?”
“कन्यादान के बाद फेरे होंगे फिर जाकर होगी विदाई – |”
“ठीक है जल्दी करे – मैं सर को बता देता हूँ |” अपना पल्ला झाड़ते दीपांकर बाहर आकाश की ओर चल देता है|
उसके जाते पंडित अब मंडप के संस्कारो की तैयारी करने लगते है| ये सब होता कुसुम बेन भी देख रही थी| वे मनोहर दास के पास आती धीरे से पूछती है –
“शुं केम छोह मनोहर भाई – इन्हें इतनी जल्दी सू छे – शादी कोणी हसी छे !! सब विधि विधान से होवे छो !”
मनोहर दास क्या कहते ? उनका मन तो खुद ही इस झंझावत में फसा था| ऐसा कुछ होगा उनकी कल्पना में भी नही था नहीं तो कभी इस शादी के लिए वे हामी नही भरते| वे शादी के दिन बारात लौटने के दर्द को भी नही देख सकते थे इसलिए चुपचाप सब सहन कर रहे थे|
“क्या कहूँ कुसुम बेन – बस सब सही से सम्पन्न हो जाए – एक बेटी का विवाह वैसे भी एक पिता को कितना दबाव में रखता है – बस अब जो हो रहा है ठीक से हो जाए|”
उनकी बेबसी उनके एक एक शब्द से झलक रही थी| कुसुम बेन अच्छे से उनकी मनस्थिति समझ गई| वे उन्हें भरोसा दिलाती हुई कहती है –
“तमे चिंता नथी करो मनोहर भाई – माँ अम्बा ज्यारे विवाह तय करवे छो तो आगे भी सारु संभालेगी – बस तमे तमारे दामाद को देखकर ये समझ लेवे चाही कि विवाह गलत परिवार में भलेही हुआ छो पण गलत व्यक्ति से नथी हुवा छो – मारी अनुभवी नज़रे कहवे छे कि ये साथ अब जन जमांतर का रहवे छो – तमे बस तमारे दामाद को देखो छो अने बाकी सब भूल जावो – अब तमे कन्यादान की तैयारी करो मनोहर भाई |”
कुसुम बेन ने सच में ये कहकर उनके मन को कुछ राहत दी और वे एक नजर अरुण की ओर डालते है फिर हामी में सर हिलाते होंठो को विस्तार देते वही बैठ जाते है|
***
रंजीत की दहाड़ से हॉस्पिटल गूंज उठा था| बहुत कोशिशो के बाद वर्तिका को बचा तो लिया गया पर उसकी मानसिक हालत बहुत खराब थी| ऐसा लग रहा था जैसे वह जीने की सारी उम्मीद ही खो चुकी थी| रंजीत उसे ठीक जान बस दूर से देखकर लौट जाता है| वह इस समय उसके सामने जाने की हिम्मत नही जुटा पा रहा था|
दुःख, वेदना और क्रोध ने उसके मन में भीषण आग लगा दी थी| उसका मन इस वक़्त क्या क्या करने का हो रहा था वो तो वह बस किसी तरह मन के भीतर गर्म अंगारों की तरह दबाए था|
सेल्विन उसके सामने खड़ा था| रंजीत उसकी ओर बिना देखे दांत पीसते हुए कहता रहा – “अब मैं उसे इतनी आसान मौत नही दूंगा – उसकी मौत के पहले की तड़प को मुझे देखना है – अब से दीवान परिवार अपनी बर्बाद जिंदगी को देखने की आदत डाल लो – पिछली बार तुम्हारे किए को मैंने माफ़ कर दिया क्योंकि वो सब मुझपर गुजरा था पर अबकी माफ़ी नही सजा मिलेगी उनके गुनाह की – अपनी बहन की तड़प पर गिन गिनकर हिसाब लूँगा – किसी को नही छोडूगा |”
घायल शेर की तरह गरजता हुआ रंजीतगरज रहा था| इस वक़्त उसके चेहरे पर गहरे नागवारी के भाव स्पष्ट थे|
***
आकाश एक बार भी अन्दर नही आया पर मनोहर दास तो अब अरुण को ही सम्पूर्ण बारात मान लिए थे और पूरे सत्कार के साथ सारी रस्मे कर रहे थे|
अब तुरंत ही मंडप के नीचे कन्यादान की तैयारी थी| सभी काकी मिलकर किरन को मंडप के नीचे लाती है जहाँ अरुण पहले से ही बैठा था|
इस वक़्त मामा की ओर से दी पीली साड़ी में घूँघट में किरन बैठी थी| मनोहर दास का परिवार तो ये सुवली गाँव ही था इसलिए शादी की रस्मे कब एमपी और गुजराती रिवाजो में मिल गई कुछ पता ही नही चला|
मंडप के आगे के सारे रिवाजो के लिए गुजराती रीती के अनुसार दूल्हा और दुल्हन के बीच अंतरपाल (पर्दा) कर दिया गया था| उनके बीच बैठे पिता सारी रस्मे करा रहे थे|
अब कन्यादान की रस्म होनी थी| पिता को बेटी का पीले करके उसका हाथ वर के हाथ में देना था| इसके साथ ही आज से वे अपना सबसे अनमोल हीरा वर को सौंपकर उसे संकल्प कराना था कि जैसे आज तक मैंने अपनी बेटी के सुख दुःख में उसका साथ नही छोड़ा अब से उसे भी इस परम्परा को उसी भाव से निभाना है| रिवाज के साथ पंडित जी उसके साथ जुड़े महत्व को भी बताते जा रहे थे|
“जिस तरह एक स्त्री विवाह करके जिस घर मे जाती है वहां उस परिवार को बेटी, बहन और माँ की तरह संभालती है अब से वर को भी वधु के हर सुख दुःख में उसी प्रकार साथ देना होगा – कन्या का आदान करते हुए पिता वर से अपेक्षा रखते कि जैसे अभी तक मैंने अपनी बेटी का पालन-पोषण किया उसकी जिम्मेदारी मैं आज से आपको सौंपता हूं – यही इस संस्कार की उपयुक्तता है |”
कहते हुए वे दोनों के हथेली एक के ऊपर एक रखते उसे पिता की हथेली पर टिकाते हुए पवित्र बंधन से उनका योजन करते हुए कहने लगते है|
“प्रदान मपी कन्याया: पशुवत को नुमन्यते? अर्थात पशु की भांति कन्या के दान का समर्थन भला कौन कर सकता है? परन्तु कन्यादान का सही अर्थ है कन्या का आदान इसका ये अर्थ नहीं होता कि पिता ने पुत्री को दान कर दिया है और अब उसपर उनका कोई अधिकार नहीं रहा – आदान का अर्थ है लेना या ग्रहण करना – इस तरह एक पिता कन्या की जिम्मेदारी वर को सौंपता है और वर उन दायित्वों को ग्रहण करता है इसे कन्या का आदान कहा जाता है – वास्तव में दान तो सिर्फ उस वस्तु का किया जाता है जिसे आप अर्जित करते हैं, किसी इंसान का दान नहीं होता – बेटी परमात्मा की दी हुई सौगात होती है, उसका दान नहीं आदान किया जाता है और इस तरह उसकी जिम्मेदारी को वर को सौंपा जाता है कन्या आदान को सुविधा की दृष्टि से कन्यादान कहा जाता है लेकिन इसके सही अर्थ को नहीं बताया जाता, इसलिए लोग कन्यादान का गलत अर्थ निकालते हैं लेकिन शास्त्रों में कन्यादान को महादान की श्रेणी में रखा गया है |”
कहते हुए वे तीनो हाथो के ऊपर से जल डालते हुए मंत्रो का उच्चारण करते है| वही सभी महिलाओ से संग बैठी सारंगी गीत गा रही थी|
वातावरण में मन्त्र और गीत कुछ इस तरह गूँथ गए कि इस विधि को देखते सभी का मन द्रवित हो उठा|
“हाथ सीता का राम को दिया..जनक राजा देंगे और क्या…बेटी बाबुल के दिल का टुकड़ा….दहेज़ कहाँ इससे बड़ा….हाथ सीता को राम को दिया..
ईश्वर की वरदान है बेटी…घरवालो की जान है बेटी….ये पगड़ी है बाबुल के सर की..ये लाज है सारे घर की…दान कन्या का जिसने किया…जनक राजा देंगे और क्या…हाथ सीता का राम को दिया..|”
बेटी का कन्यादान करते स्थिर बैठे पिता का मन कितना कांप रहा था ये बस उनका मन जानता था| घुंघट के परे किरन का चेहरा भी आसुंओ से भीगा जा रहा था वही अरुण किरन का रोता चेहरा देख तो नही पाया पर उसकी हथेली को अपनी हथेली पर महसूसते उसका मन उसके प्रति सौहार्द हो उठा था| जिन्हें लोग सिर्फ रस्मे समझते थे वह तो एक एक पल मन को कही बांधने तो कही से नाता छोड़ने की विधि मात्र थी|
इन सबके बीच किसी को भनक भी न लगी कि केकड़ा भाई भी उस भीड़ में आ पहुंचा था अपना काम करने…
क्रमशः…….