Kahanikacarvan

बेइंतहा सफ़र इश्क का – 59

अरुण एकटक सागर को देखे जा रहा था कि किस तरह से लहरे बार बार पूरी उमंग के साथ उठकर साहिल से टकराती और पूरी ख़ामोशी के साथ वापस लौट जाती| लहरें जितना और अधिक साहिल के पास आती साहिल की ख़ामोशी और उदासी से वह उससे और भी दूर हो जाती|
सूरत के एक तनहा बीच में अरुण और योगेश बैठे थे| अरुण की उंगली के बीच सिगरेट फसी थी| अब तक बैठे बैठे वह तीसरी सिगरेट पी गया था और उसकी निगाह सीधी सामने आसमान की ओर थी जहाँ शाम ढलते रात होने वाली थी| योगेश लगातार अरुण की तरफ देख रहा था| अरुण की उदासी उसका मन भी दर्द में डुबोती जा रही थी| वह देर से खामोश बैठा आसमान की ओर निहार रहा था|
अरुण की उदासी उसका होना भी जैसे लापता किए थी| उसे समझ नही रहा था कि वह ऐसा क्या करे जिससे अरुण पहले जैसा हर उदासी को दिल के किसी कोने में दबाए हँसता हुआ नजर आए जो वह हमेशा करता रहता था| वह आखिर अरुण की ओर देखता हुआ कह उठा –
“अरुण – मैं सोचता हूँ अगर मैंने तुम्हे कसम नही दी होती तो यकीनन तुम हर रोज की तरह आज भी अपने अंधेरों में घिरे कमरे में बैठे होते – लेकिन मैं तुम्हे इसलिए बाहर नही लाया कि तुम्हारा ऐसा चेहरा देखूं |” अरुण की चुप्पी देखकर योगेश उसे हिलाते हुए झल्लाता है|
“अरुण – कुछ बोलो तो सही !”
अरुण योगेश की तरफ देखे बिना ही गहरा कश लेते हुए कहता है – “योगेश तुम इन लहरों को देखते हो लगता है जैसे ये लहरे नही ढेरों उंगलियाँ है जो सभी मेरी ओर उठी है और चीख चीखकर कह रही हो कि तुम्हारा कोई नाखुदा नही – कोई नाखुदा नही – कोई भी नही |”
“अरुण !!”
योगेश की सरगोशी के बावजूद वह कहता रहा –
“वो देखो दूर पश्चिम दिशा का सूरज बिलकुल उदास अपनी गमी में बस डूबने को तैयार है – दूर रौशनी का कत्ले आम हो रहा है – पक्षी चीख रहे है – शोर मचाकर उस कत्ले आम को रोकने की कोशिश कर रहे है पर पश्चिम का सूरज अपने अंतिम पड़ाव में है – वह कितना बेबस नजर आ रहा है – चाहकर भी वह खुद को डूबने से नही रोक सकता – ये तो होकर ही रहेगा |”
अरुण की बात सुन योगेश लगभग घबरा सा जाता है| उसे देखकर लग रहा था जैसे उस पल की सारी उदासी, गहराई उसके दिल में समा गयी हो|
“जानते हो योगेश मैं क्यों नही तुम्हारे साथ आना चाहता था – डरता था कि कही तुम भी मुझे न छोड़ दो क्योंकि मैं जिसकी ओर हाथ बढाता हुआ वही मुझसे दूर हो जाता है – हर चेहरे में मैं अपने लिए शिकायत देखता हुआ – किसी राह से गुजरते हुए भी डरता हूँ मैं – लगता है जैसे हर किसी के सवालों के जवाब मुझे ही देने है – उनकी उठी हुई नज़रे मुझे भयभीत करती है – हर लम्हा अनजाने हाथो की कसावट अपने गिरेबान में महसूस करता हुआ मैं इतना बेबस हूँ कि उनके खिलाफ कुछ नही कर सकता – मेरा अस्तित्व शून्य होता जा रहा है जैसे मैं कुछ हूँ ही नही – |”
“अरुण तुम क्या कहे जा रहे हो इसका तुम्हे होश भी है !! तुम पागल हो गए हो और ये सिगरेट कब तक पीते रहोगे ?” कहता हुआ योगेश अरुण से सिगरेट लेता हुआ फेक देता है|
लेकिन इन सबका अरुण पर जैसे कुछ असर ही नही हुआ और वह अगली सिगरेट सुलगाने लगता है| ये देख योगेश बुरी तरह से खीज उठता है|
“मैं भी किसके संग सर खपा रहा हूँ हो – तुम वो अरुण हो ही नही जो दूसरो के लिए जीता उनके दुखो में काम आता था – वह आज इतना बेबस कैसे हो गया !! तुम वो अरुण हो ही नही |” योगेश गुस्से में खड़ा हो गया पर अरुण की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई वह यूँही सामने देखता सिगरेट का धुआ उगलता रहा|
“जानते हो तुम खुदगर्ज हो चुके हो – अपने अस्तित्व को तुमने खुद अपने अंदर कैद कर लिया है – कभी ये भी नही सोचते कि तुम्हे इस तरह देखकर तुम्हारे अपने भी दुखी होते होंगे – अब शायद तुम्हे किसी की जरुरत ही नही तो अब मैं भी तुमसे कभी नही मिलूँगा – मैं जा रहा हूँ – |” खड़े खड़े योगेश अरुण की ओर देखता रहा जो अभी भी सुलगती सिगरेट थामे उसके विपरीत देख रहा था|
योगेश कुछ देर खड़े खड़े ही उसकी ओर देखता रहा पर एक बार भी उसने पलटकर कोई प्रतिक्रिया नही की| अब अरुण सर झुकाए बैठा था| सूरज कबका डूब चुका था जिससे चारो ओर रात का घनघोर अँधेरा पसरा चुका था| आखिर योगेश चला जाता है|
***
मेंशन भी रात के अँधेरे में घिर चुका था| भूमि भी थकी हारी आती अपने अपने में चली गई थी| सबने आदतन रात का खाना अपने अपने कमरे में लिया| अब सभी अपने अपने कमरों में कैद थे|
किरन को जो कमरा दिया गया था वह वहां से निकली ही नही थी| हिरामन काका उसके लिए भी खाना लेकर आए पर उसे बिस्तर पर लेटा देख मन ही मन बुदबुदाते खाना मेज पर ढककर रखते वापस चले गए|
‘लगता है बिटिया थकी है |’
पर उन्हें क्या पता था नींद तो किरन से कोसो दूर थी| रह रहकर दर्द उसकी नसों में दौड़ जाता और उसके मन को अंदर तक अशांत कर देता| काका के जाते वह ऑंखें खोले अब छत निहारने लगती है| उसका मन जैसे वहां था ही नही वह कही और ही उड़ा जा रहा था| उसकी देह शिथिल हो चुकी थी|
मन ही गहरी सोच में वह निरंतर डूबती जा रही थी|
‘जाने किस ओर उसकी जिंदगी उसे ले आई थी – क्या उजला बनकर भी वह किरन के अस्तित्व को सह पाएगी !! सभी के दिलो में उसके लिए अपार नफरत है – क्या इस नफरत के साथ उस घर में वह रह पाएगी !! न पिता के घर की रही न पति के घर की !! आखिर किस अस्तित्व के साथ वह जी रही है इससे तो अच्छा है वह अपना जीवन खत्म ही कर ले – अब सब कुछ उसके लिए असहनीय होता जा रहा था – बिन कसूर के सारे परिवार, समाज ने उसे कसूरवार मान लिया तो हाँ अब वह भी सब स्वीकार कर लेगी – कम से कम उसके अंतर्मन की पीड़ा का अंत तो होगा – न अतीत उसका रहा न वर्तमान – दोनों परिवारों के दुखो का कारण एकमात्र मैं ही हूँ – न पिता के घर से सम्मान के साथ विदा हुई न पति के घर में ही मेरे लिए कोई जगह शेष रही – कहने को तो मैं उनकी पत्नी बनी पर मैं उनके लिए किसी यात्रा में मिलने वाले किसी अजनबी से ज्यादा कुछ भी नही हूँ – सबके टूटते अरमानो की वजह सिर्फ मैं ही हूँ |’
ज्यो ज्यो रात बीतती जा रही थी उसके मन की घबराहट भी बढती जा रही थी| उलझन में पड़ी किरन घबराकर कमरे से बाहर निकल आती है| उसका कमरा अभी किचेन के पास कोने वाला था जो सीढियों के विपरीत पड़ता है और बाहर बने सर्वेंट क्वाटर से अलग था| इसलिए बाहर निकलने के लिए उसे मुख्य बाहर का हॉल पार करना था| वह हलके कदमो से चलती हुई अपने में खोयी खोयी मुख्य हॉल से गुजर रही थी कि तभी एक आवाज से उसका ध्यान टूटा| वह पलटकर उस आवाज की दिशा की ओर देखती है|
गैलरी से गुजरते उसने जो देखा उससे वह बिन पानी की मछली जैसी तड़प उठी| शराब के नशे में चूर लड़खड़ाते हुए अरुण कुछ गुनगुनाते हुए आगे बढ़ रहा था| उसे देखते वह झट से परदे के पीछे खुद को छिपा लेती है| किरन परदे के पीछे छिपी अपनी साँसे रोके खड़ी थी| अरुण सीढ़ी की ओर बढ़ रहा था| पहली सीढ़ी पर कदम रखते वह लड़खड़ा जाता है ये देख किरन घबरा जाती है और इसी घबराहट में उसकी कलाई की चूड़ियाँ खनक उठती है|
उस पल के नीरव एकांत में अचानक से अरुण का ध्यान उस खनक की आवाज की ओर चला जाता है| जाने क्या सोच वह गौर से उधर देखता अब पलटकर उस ओर बढ़ने लगता है जिधर से आवाज आई थी इस पर किरन घबरा जाती है उसकी दिल की धड़कने तेज हो उठती है| वह धीरे धीरे पर्दे के पीछे से हटने लगती है जिससे स्थिर पर्दा हिल जाता है| किरन बढ़कर परदे को स्थिर करती है|
यही पल था जब उस ओर बढ़ते हुए अरुण की झपकती आँखों उसकी कलाई पर टिक जाती है| गोरी कलाई पर लाल हरी चूड़ियाँ….वह परदे के इस पार खड़ा उसका साया देख रहा था तो दम साधे किरन परदे के पार खड़ी थी| अरुण परदे के पार से उसकी कलाई के अक्ष को स्पर्श करता अपनी लड़खड़ाती आवाज में कह उठा –
“ओह – तो तुम आ ही गई – मैं जानता था कि तुम जरुर आओगी |”
किरन की साँसे जैसे धडकना भूल जाती है| वह बुत बनी परदे के पीछे खड़ी रह जाती है| अरुण अभी भी परदे के इस पार से उसकी कलाई को स्पर्श करता कह रहा था –
“तू ही सवाल तू ही जवाब मेरा….
तू ही रकीब तू ही हबीब है मेरा….
तू ही नाम तू ही बदनाम मेरा…
ए शुक्रिया तेरा जो तूने दिया..
तेरे प्यार के झूठे खवाब का..
तेरी नउम्मीद का…
दर्द के सैलाब का..
तेरे हर पल के इंतिख़ाब का…
जो तूने दिया उस हर बात का शुक्रिया…|”
अरुण अब और आगे बढ़ता परदे के पार से उसकी कलाई पर की चूड़ियों पर उंगलियाँ फिराता हुआ कहता जा रहा था| किरन बस बुत बनी खड़ी रह गई| वह परदे के पार से उसके कितने करीब था| उसकी साँसों की गमक उसकी सांसो में समाती जा रही थी| अरुण तो जैसे बेसुध सा कहे जा रहा था और न किरन में उससे दूर जाने को हिम्मत हुई –
“क्यों आई मेरी जिंदगी में…..क्यों मुझे उम्मीद दे दी कि फिर कभी नही जाओगी…..सब कहते है भूल जाओ…हूँअ….कैसे भूल जाऊ….जिसे खुद से ज्यादा चाहने लगा था….तुझे खोने से डरने लगा था….टूट कर तुझमे समाना चाहता था कि तुझे चाहने लगा था ये जिंदगी…..फिर क्यों मुझे छोड़ दिया…….तू मेरा सच्चा प्यार था कोई गुजरा वक़्त नही जो भूल जाऊं तुझे…..वो मेरी न हुई और मैं उसके अलावा किसी और का होना नही चाहता…..ए जिंदगी बता आज कौन सा रूप बदल कर आई है…बता….|”
एकदम से अरुण की आवाज तेज होती फिर ठसक भरी हंसी में बदल जाती है| किरन घबराकर अपनी कलाई परदे से हटाकर ज्योंही हटने लगती है उसी पल अचानक अरुण बढ़कर उसकी कलाई पकड़ उसे अपनी ओर खींच लेता है ऐसा करते हुए कलाई की कुछ चूड़ियाँ उसकी हथेली में ही टूट जाती है| किरन की कलाई और अरुण की हथेली से खून रिसने लगता है पर इससे बेखबर अब दोनों एकदूसरे के सामने थे| परदे की ओट उनके बीच से हट चुकी थी और एकटक वे एकदूसरे को देखते रह जाते है|
……..क्रमशः……………..

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