Kahanikacarvan

बेइंतहा सफ़र इश्क का – 61

रूबी हड़बड़ाती हुई हॉस्पिटल पहुँचती है| उसके दिमाग में बस अपनी माँ को लेकर ही फ़िक्र बनी हुई थी| वह उस वार्ड की ओर बढ़ी जहाँ उसकी माँ एड्मिड थी|
वार्ड को खाली देख वह तुरंत ही रिसेप्शन की ओर भागी|
“व वो मेरी माँ….!!” उसके होश बुरी तरह से उड़े हुए थे| कई तरह की बाते उसके दिमाग में डर की तरह उमड़ने लगी|
“अरे रूबी – तुम यहाँ क्या कर रही हो – मेरे केबिन में आओ तुरंत |”
ये डॉक्टर की आवाज थी जो ठीक उसके पीछे से आई| रूबी अब चौंककर उनकी ओर देखने लगी|
डॉक्टर अपनी बात कहकर वापस अपने केबिन की ओर चल दिए थे| रूबी भी बिना रुके तुरत ही उनके पीछे पीछे चल दी|
“मेरी माँ !! वो वार्ड में नही है |” केबिन में तुरंत ही पहुँचते वह डॉक्टर के बैठने का भी इंतजार नही कर पाई|
“काम डाउन रूबी – अभी तो ओपरेशन हुआ है तो कुछ देर बाद हम शिफ्ट करेंगे और फिर कीमो कब कब करानी…|”
डॉक्टर अपनी रौ में कहे जा रहे थे पर हकबकायी रूबी उनकी बात बीच में काटती हुई कह उठी – “ओपरेशन !! कीमो !!! पर मैंने तो फीस भरी ही नही |”
अब आश्चर्य डॉक्टर के हाव भाव में था|
“क्या बात कर रही हो – कल रात ही तो तुमने भिजवाए पैसे वो भी पूरे तीन लाख – लगता है तुम कुछ ज्यादा ही स्ट्रेस में हो |” अब वे तल्लीनता से अपनी बात कहते कहते एक फाइल खोलते हुए कहते है – “एक घन्टे बाद हम शिफ्ट करेगे उसके बाद मैं तुम्हे आगे का बता पाउँगा – तो ठीक है तुम मुझसे एक घंटे बाद मिलो – ओके |”
डॉक्टर अब अपना सारा ध्यान फ़ाइल में लगा देते है जिसका साफ़ अर्थ था कि रूबी से उनकी बात खत्म हो चुकी थी| रूबी थके मन से वहां से उठकर बाहर निकल गई| लेकिन अब उसके मन में कई सवालों की धमाचौकड़ी मची हुई थी कि आखिर किसने उसकी माँ के इलाज के रूपए दिए और क्यों ? क्या ये वही है जिसके पास वह रात भर रही !! क्या उसी ने उसकी मदद की !! सेल्विन से अनजान रूबी अब हॉस्पिटल से निकलकर फिर से उसके घर जाने को निकल गई अपने सवालो के जवाब पाने|
***
हरिमन काका चाय की ट्रे लिए अरुण के कमरे में आते उसे रोजाना की तरह वैसा ही उदासीन बिस्तर पर औंधे लेटा पाते है| अपनी नियमित दिनचर्या में वह अरुण को हौले से झंझोड़ते चाय का कप उसकी नजरो की सीध में रख देते है| पता था न अब वह चाय का कप लेगा न उन्हें आवाज लेकर अपनी पसंद बताएगा| उसका विराग देख उनका मन कैसा केसला हो उठा था पर कर भी क्या सकते थे| वह उसी निस्तेज भाव से वापस जाने लगे|
“काका !”
अरुण की आवाज सुन वे तुरन्त उसकी ओर पलटते है| वह अपनी अधखुली आँखों से उनकी ओर देखता हुआ कह रहा था –
“काका – मेंशन में कोई आई है क्या ?”
“कौन !!” काका सोचते हुए कहने लगे – “अच्छा हाँ – राजवीर लाया था उसे – वो शायद उसकी दूर की बहन है – बिचारी के याददाश्त गई हुई है जिससे वह अपने घर से बिछड़ी है तभी मालकिन ने रख लिया – उजला नाम है उसका |”
वे अपनी बात कहकर दो पल तक अरुण की प्रतिक्रिया के लिए रुकते है पर जब वह कुछ नही कहता तो वे वापस चले जाते है| अरुण भी मौन अपनी ऑंखें यूँ बंद कर लेता है मानो गुजरी रात की खुमारी अभी भी उतरी न हो|
***
भूमि को संस्था जाने की जल्दी थी| तब से बार बार उसके लिए कॉल आ रही थी| उसकी संस्था के लिए ये बहुत बड़ी ऐसी घटना थी जिससे उसकी संस्था की साख ही नही जुडी थी बल्कि इस वक़्त उसके परिवार की प्रतिष्ठा भी दाँव में लगी थी| इससे उसका मन पहले से ही झुंझलाया हुआ था उसपर क्षितिज की नैनी की गलती पर वह उसपर कुछ ज्यादा ही भड़क उठी|
“ये काम और जिम्मेदारी से ऊपर बच्चे में मन को समझने की बात है न – मैं बार बार तुम्हे कैसे बताऊँ कि उसको समझकर काम करो न कि उसकी हर एक बात मानते हुए – पता नही किसने तुम्हे नैनी बनाया -?”
वह मुंह बनाए खड़ी थी| भूमि अब क्षितीज के पास आती है| क्षितिज इशारे से अपनी माँ ओ झुकने को कहता है| भूमि के झुकते वह उसके गले में बाहे डालता हुआ कहता है –
“आप मेरी वजह से गुस्सा हो क्योंकि मैं आज फिर स्कूल नही गया – मैं आपको बहुत तंग करता हूँ न !”
उसका भोला सा चेहरा अपनी हथेली में भरती उसे चूमती हुई भूमि अब सहज होती कह उठी – “अपने क्षितिज से मैं कभी नाराज हो सकती हूँ क्या ? नही न – बस अभी मम्मा को बहुत जरुरी काम से जाना है तब तक आप अच्छे बच्चे की तरह रहना मैं शाम को आकर मिलती हूँ |”
“ओके मम्मा |” तुरंत चहकता हुआ क्षितिज कहता है| उसकी चहक ही बता रही थी ये स्कूल से आजादी की खनक थी|
भूमि भी उसकी बचपने पर मुस्कराती हुई बाहर निकल गई|
***
रूबी अपने ढेरो सवालों के साथ सेल्विन के घर के बाहर खड़ी थी| दरवाजा खटखटाते उसकी नजर दरवाजे पर लगे ताले पर जाती है| परेशान होकर वह अपने आस पास देखने लगती है| पास ही एक पान की दुकान पर खड़ा आदमी उसे घूरकर देख रहा था पर रूबी उसको अनदेखा करती हुई पान वाले के पास आती है –
“सुनो भईया जरा बताओगे यहाँ जो साहब रहते है वे कब आएंगे ?”
पान वाला पहले तो रूबी को गौर से देखता रहा फिर एक पान को अपने मुंह में दबाते हुए अपने तिरछे होंठ से कहता है –
“तो आप सेल्वन भैया की बात कर रही है – ऊ तो हमका नही पता कि कब आवांगे – कभी रात विरात आवत हई तो कबहूँ पूरा दिन योंही ताला परा रहिता है – कोनो जरुरी काम हो तो हमका बताई दो – हम उनका बताई देंगे |”
“नही रहने दो – मुझे तो फिर आना होगा |” अपनी बात धीरे से कहती निराशा से वापस मुड जाती है|
पान वाला रूबी को जाता हुआ उसी की ओर देखता रहा| इधर एक आदमी आकर उसके पैर पर जोर से हाथ मारता हुआ कहता है –
“और भईया कहाँ खो गए – कहाँ है मेरा स्पेशल वाला पान ?”
“अब आए हो जाकर – तबही बनाकर रखे थे – वो का है हमही खा गए – दूसरा बनाते है – अब मत जाना |”
वह आदमी मुंह बनाए वही खड़ा रहा| जबकि पान वाला बीच बीच में सेल्विन के घरकी ओर नज़र उठाकर देखता हुआ पान में कत्था मलने लगता है|
***
विवेक नुक्कड़ से चाय पीकर अब एक छोटे से ढाबे की ओर बढ़ रहा था| वहां पर एक कोने वाली टेबल पर बैठते वह जैसे ढाबे वाले लड़के के इंतजार में बैठा इधर उधर देखने लगा| उसकी नजर उधर नहीं गई जहाँ ढाबे का मालिक बैठा उसे ही घूर रहा था| शायद इस बात का विवेक को आभास था इसलिए वह जानकर उसकी ओर न देखते हुए एक लड़के को इशारा करके अपने पास बुलाता है|
वह लड़का एक नज़र विवेक को तो दूसरी नज़र ढाबे के मालिक की ओर दौडाता है जो अभी भी तीक्ष्ण नज़र से विवेक को देख रहा था|
इससे बेखबर विवेक उस लड़के के आते उंगली से इशारा करते कहता है – “एक प्लेट दधि थेपला लाना |”
लड़का अब भी कुछ न कहता बस चुपचाप बेबस नजर से ढाबे मालिक की ओर देखता है जो अब अपनी कर्कश वाणी से कह रहा था –
“पहला पिछला उधार चुकाओ तब मिलेगा अगला कुछ |”
आवाज के कर्कशपन से विवेक एकदम से उखड़ता हुआ चीख उठा – “मैं कही भागा जा रहा हूँ क्या ? तुम्हारे पास ही तो आता हूँ – उधार में खा रहा हूँ खैरात में नही |”
“हाँ तो उधार न चुकाने पर वो खैरात ही बन जाती है |” ढाबा मालिक फिर उसी ठसक से बोला|
अब विवेक तमतमाए चेहरे से कुछ और कहने वाला था कि तभी कुछ ऐसा हुआ कि विवेक के साथ साथ ढाबा वाला भी अवाक् रह गया|
अचानक दो हज़ार का दो नोट उसके सामने रखता हुआ सेल्विन कह रहा था – “दो प्लेट दधि थेपला और बाकि तू रख ले खैरात समझकर |” कहता हुआ सेल्विन अब विवेक के पास आकर बैठता हुआ उसे मुस्कराकर देखता है|
विवेक कुछ समझ नही पाया तो उठकर जाने लगा तो सेल्विन उसकी ओर देखता हुआ कह उठा – “अब मैं दो प्लेट तो नही खा पाउँगा – बस साथ देने तो रुक जाओ दोस्त |”
सेल्विन की दोस्ताना मुस्कान विवेक को रोक लेती है और वह बुझे मन से फिर उसके सामने की कुर्सी पर बैठ जाता है|
***
मेनका अपनी सहेली वैशाली के घर पर थी| मेनका उसके सामने उदास भाव के साथ बैठी थी और वह लगातार उसे समझा रही थी –
“तुम्हारे लिए मैंने भी पंचगनी छोड़ दिया अब यहाँ भी मेरे साथ कॉलेज ज्वाइन करने पर भी तुम कॉलेज नही आती – आखिर चल क्या रहा है तुम्हारे दिमाग में – तुम सुन भी रही हो मेरी बात या मैं यूँही बक बक किए जा रही हूँ !”
“हाँ सुना |” संछिप्त सा उत्तर देकर फिर वैसे ही सर झुकाए वह बैठी रहती है|
“वैसे सच पूछो तो ओ मजा वहां पढने में आता था वो यहाँ नही आता – हमारा कितना बड़ा ग्रुप हुआ करता था पर तू न बस विवेक के साथ ही रहती थी – वैसे उसका कुछ पता चला ?”
मेनका ख़ामोशी से अपना सर न में हिला देती है|
“तो कही तुम वापस पंचगनी जाने का तो नही सोच रही ?”
“नही – मैं तो बहुत दूर जाना चाहती हूँ जहाँ न मैं किसी को जानती हूँ न कोई मुझे जानता हो – बिलकुल अनजान जगह खो जाना चाहती हूँ – कम से कम अपनों के बीच तो अनजान होने के अहसास से बुरा अहसास तो नही होगा न !”
“मेनका ऐसा क्यों बोल रही हो तुम ?”
“क्योंकि तुम नही मिली विवेक से !” मेनका बिफरती हुई कहती रही – “कितने अनजानों की तरह वह मुझसे मिला – लगा वह शक्ल तो विवेक की थी पर वह कोई अजनबी ही था – मुझे देखकर भी उसके हाव भाव इतने बेगाने बने रहे कि बता नही सकती कि उस वक़्त मेरे भीतर कितना कुछ टूट कर बिखर गया -|” मेनका अपने आंसू किसी तरह जब्त करती कहती रही – “पूरे तीन साल से मैं उसका इंतजार कर रही हूँ – हर लम्हा उसके इंतजार में मैं डूबी रही पर उस पल की विरानगी का लेश मात्र भी अंश उसके चेहरे पर नही दिखा ? पता नही क्या हो गया उसे – ?”
वैशाली चुपचाप उसे सुन रही थी|
“जानती हो वैशाली जब विवेक को इतने समय बाद अचानक अपने सामने देखा तो मेरा मुरझाया चेहरा खिल उठा – लगा ख़ुशी के मारे दिल सीने से बाहर ही निकल आएगा – दिल थामे मैंने उससे नज़रे मिलाई लेकिन वह मेरा विवेक था ही नही – मैं खुद को बार बार अहसास दिला रही हूँ कि वो एक बुरा सपना था क्योंकि मेरा विवेक मेरे साथ ऐसा बेगानापन कर ही नही सकता |” इतना कहती मेनका फूट फूटकर रो दी|
वैशाली उसे संभालती हुई दिलासा देती कहती है –
“देखो मेनका हो सकता है वह किसी परेशानी में हो – अभी हमे ये भी नही पता कि अचानक से उसने अपनी पढाई क्यों छोड़ी ? इतने समय वह कहाँ रहा ? और तुमसे कोई कॉन्टैक क्यों नही किया – देखो अगली बार वह मिले तो कसम देकर उससे उसके दिल का हाल पूछ लेना और वह तुम्हे दिलो जान से चाहता है इसलिए वह तुम्हारी कसम नही झुठलाएगा |”
मेनका अब ख़ामोशी से उसके कंधे पर सर रखे धीरे धीरे सिसकने लगी|
अब आने वाले पल में विवेक किस तरह अपनी सच्चाई मेनका को बता पाता है ? देखना है मेनका किस हद तक उसके सच का सामना करती है ?
क्रमशः………………….

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