Kahanikacarvan

बेइंतहा सफ़र इश्क का – 62

विवेक किसी तरह से खाना हलक में उतारते उतारते सेल्विन की ओर देखता हुआ कहता है –
“दोस्त मैं – इसके पैसे तुम्हे कल तक चुका दूंगा |”
“घर तो बेच दिया अब क्या बेचने वाले हो ?” सेल्विन आराम से एक कौर मुंह के अंदर डालते हुए कहता है जबकि ये सुनते विवेक के होश उड़ जाते है|
“तुम ये कैसे जानते हो ? तुम हो कौन ?”
“बस इतना जान लो तुम्हारी मेरी मंजिल एक है |”
“मैं तुम्हे नही जानता फिर हमारी मंजिल एक कैसे हो सकती है ?” विवेक अब उसे घूरता हुआ कहता है|
“अभी तो दोस्त कहा |” सेल्विन के हाव भाव अभी भी इत्मिनान भरे थे|
“देखो तुम जो भी हो – मैं अहसान किसी का नहीं रखता |” कहता हुआ विवेक आधा खाया हुआ खाना परे सरकाता हुआ कहता है|
सेल्विन इस बात को नजरंदाज करता हुआ कहता है – “अहसान कैसा – तुम मेरा साथ देना और मैं तुम्हारा साथ दूंगा हिसाब बराबर – आखिर हम एकसाथ मिलकर उस दीवान परिवार को खत्म होते देखना चाहेंगे |”
विवेक हतप्रभ बना रहा|
सेल्विन भी अपनी प्लेट परे सरकाता हुआ कहता है – “तुम क्या समझते हो – इस छोटी मोटी चालो से इतने बड़े एम्पायर को हिला पाओगे ! बिलकुल नही – दुश्मन से लड़ने के लिए दुश्मन के कद तक आना पड़ता है – तब होती है बराबर की लड़ाई और मैं साथ दूंगा इसमें तुम्हारा |”
“क्यों ?”
“क्योंकि हमारी वजह अलग हो सकती है पर मंजिल एक ही है – तुम अभी चलो मेरे साथ |”
कहता हुआ सेल्विन तुरंत उठ जाता है, झक मारे विवेक भी उसके पीछे पीछे चल देता है|
विवेक सेल्विन की बुलेट के पीछे बैठा था| वह बुरी तरह से उलझा हुआ था पर इस वक़्त उस अनजान के संग रहने से वह खुद को रोक भी नही पाया|
सेल्विन किसी घर के सामने रोकता हुआ कहता है – “ये आज से तुम्हारा नया ठिकाना है – आज से तुम यही रहोगे |”
विवेक बुलेट से उतरता हुआ उस घर को घूरकर देखता हुआ कहता है – “मुझे समझ नही आता कि तुम मुझपर एहसान क्यों कर रहे हो ?”
“ये अहसान नही है – ये कीमत है उस काम की जो तुम मेरे लिए करोगे |”
“और मैं तुम्हारी बात क्यों मानु ?”
“तो क्या रोजाना स्टेशन और रहनवास में रात काटते हुए दीवान परिवार से अपना बदला लोगे ?”
कहता हुआ सेल्विन जिस तरह से हँसा उसे देख विवेक के दिमाग में जैसे खून का दौरा बढ़ गया| अबकी वह सेल्विन के ठीक सामने आता उसकी आँखों को घूरता हुआ कहता है –
“तुम्हे मेरे बारे में एक एक खबर है – आखिर तुम हो कौन और क्या चाहते हो मुझसे ?”
“सेल्विन और आज से तुम्हारा दोस्त और दीवान परिवार की तबाही का मददगार |” हाथ मिलाने सेल्विन विवेक की ओर अपना हाथ बढाता है पर विवेक उसी तरह तथस्त बना रहा|
“तुम्हे ये किसने कहा कि मुझे किसी की मदद की जरुरत है – मैं अपनी मंजिल खुद ढूंढ लूँगा – मुझे किसी की मदद नही चाहिए|”
विवेक की बात पर एक बार फिर सेल्विन हँसी उड़ाने के अंदाज में बोलता है – “इस वक़्त जो तुम्हारी हालत है उससे मंजिल तो दूर उसके दरवाजे तक भी नही पहुँच पाओगे और यही सच है – ये जो दुनिया है न बस दो हिस्सों में बटी है एक वो जिनके पास जरुरत से ज्यादा पैसा है तो एक वो जो अपनी जरुरत भर भी नही कमा पाते – और तुम सोचते हो कि इस दूसरी श्रेणी में खड़े होकर तुम पहली श्रेणी वालो का कुछ भी बिगाड़ पाओगे – अरे उससे पहले ही तुम्हारी भूख तुम्हे हरा देगी – तुम्हारी जरूरते ही तुम्हे तोड़ देंगी – इस रोजाना की भूख से लड़ना आसान नही है दोस्त – मैं भी इससे गुजरा हूँ इसलिए मुझसे बेहतर कौन तुम्हे इस वक़्त समझेगा – बाहरी दुश्मन से लड़ना तब होगा जब रोजाना की जिंदगी की जंग जीत पाओगे -|”
विवेक वाकई निरुत्तर हो गया था| उसकी चुप्पी देख सेल्विन आगे कहता है – “मुझपर विश्वास करो मैं वाकई तुम्हारे लिए मददगार साबित होऊंगा – अब ज्यादा मत सोचो और आओ अंदर |”
कहता हुआ सेक्विन अपनी पॉकेट से कोई चाभी निकालते उस दरवाजे का ताला खोलने लगता है| विवेक थके हाव भाव के साथ अब उसके पीछे पीछे हो लेता है|
***
हरिमन काका अब उस कमरे की ओर आते है जहाँ किरन को ठहराया था| उस कमरे का दरवाजा खुला था जिससे वे सहज ही उसमे आते कमरे को देखते रह जाते है| अबतक किरन कमरे को साफ करके अपने रहने लायक बना चुकी थी|
“अरे बिटिया तुमने तो कमरे जो चकाचक कर दिया -|”
किरन अब आवाज सुनते पीछे पलटकर देखती है| वे अभी भी कह रहे थे|
“हम सोचे थे कि तुम्हारी मदद कर देंगे – चलो बहुत अच्छा – तुम अब अपना काम निपटाकर रसोई में आ जाना |” कहकर वे वापस चले जाते है|
किरन उनको जाते ठहरी हुई देखती रही| उसके हाव भाव में अब एक निर्णय था या अपने वक़्त से समझौता ! ये वह खुद भी नही जानती थी पर अरुण से मिलने के बाद से ही उसने अपनी नियति को वक़्त का निर्णय मान लिया और इस घर को पूरे मन से स्वीकार कर लिया|
हालाँकि वह अभी खुद भी नही जानती थी कि जो घर उसके लिए पहले भी किसी चुनौती से कम नही था और अब तो और भी कठिनतम गुजरने वाला था| पर इन सबके बावजूद वह अब खुद को समर्पित कर चुकी थी| गहरा उच्छ्वास भरती वह रसोई की ओर चल देती है|
***
शाम का वक़्त था और मेंशन दूर से ही रौशनी से चमकने लगा था| बाहर की ओर बने गार्डन एरिया में चलते फव्वारे के पास ही दरबान तीन बच्चो को लेकर खड़ा था और उनके सामने खड़ी भूमि उन्हें समझा रही थी –
“बच्चो तुम्हे इस तरह संस्था से नही जाना चाहिए था – अगर कोई बात थी तो मुझे बताते खैर चलो सब भूल जाओ और अब ये सब किसी से कहने की जरुरत भी नही – |” कहती कहती नौकर की ओर देखती हुई कहती है – “इनके खाने के लिए कुछ लाओ |”
ये सुनते नौकर मेंशन के अंदर की ओर चल देता है जबकि बच्चे सिकुड़े से वही खड़े रह जाते है| भूमि भी मोबाईल पर किसी से बात करती करती कुछ दूर हो गई थी अब वे बच्चे हकबक अपने चारो ओर देख रहे थे| बेहद वैभवशाली था सब कुछ| फव्वारे की रंगीन रौशनी से गिरता पानी और उसके आस पास का गार्डन का एरिया सब कुछ अपनी अतीव वैभव में लिप्त था| अब बच्चे फुव्वारे के ऊपर बनी संगमरमर की मूर्ति के आकर्षण को देखने लगते है तभी उन्हें लगता है कि उसके पैरो के पास कोई चीज आती है| वे नज़रे झुकाकर देखते है वह कोई गेंद थी और इसी के साथ उनका ध्यान उस गेंद से खेलते बच्चे पर जाता है|
वे पुराने से कपड़े और बिखरे बाल के साथ उस घास पर निर्लिप्त खड़े थे| जबकि उनकी नज़रो के सामने खड़ा बच्चा बिलकुल उनकी उलट था| ये साफ़ दो विपरीत धारा का प्रदर्शन था|
क्षितिज गेंद खेलते खेलते वही आ गया था और अब ठहरकर वह भी उन बच्चो को देखने लगा था| गेंद बच्चों के पास थी| न उन बच्चो ने गेंद उसकी ओर फेकी और न क्षितिज ने अपनी गेंद मांगी| वह अभी भी उन्हें ध्यान से देख रहा था|
पर ये नजारा कोई और भी देख रहा था| गार्डन के एक हिस्से में बैठा आकाश जो आराम कुर्सी पर लेटा दूर से ये नज़ारा देख रहा था| वह क्षितिज को आवाज देकर अपने पास बुला लेता है|
क्षितिज आकाश के पास खड़ा था जो उसके कंधे पर दोनों हाथ रखे पूछ रहा था –
“क्या हुआ क्षितिज ?”
“डैडी वो मैं बॉल खेल रहा था और वो बॉल उनके पास चली गई |” वह उंगली से इशारा करता कहता है|
“तो क्या ले लो |”
“नही चाहिए मुझे |” क्षितिज अब सर झुकाते हुए कहता है|
“इन जैसो पर तरस खाकर जो भी दिया जाए वही ठीक है और जो तुम्हे अच्छा लगे और तुम्हे चाहिए हो वो उनसे छीन लो|”
“आकाश..!!”
आकाश देखता है कि भूमि अब ठीक उसके सामने खड़ी उसे तीक्ष्ण नजरो से घूर रही थी|
“कम से कम अपनी तरह मेरे बेटे को मत बनाओ |”
“तो क्या ये मेरा बेटा नही है?”
“हाँ क्यों नही बस यही एक बात तुम्हे क्षितिज से जोडती है और कुछ भी नही |” आक्रोश भरी नज़र उसमे डालती हुई भूमि क्षितिज को लिए उसके विपरीत चलने लगती है|
पर आकाश तुनकते हुए खड़ा होता चीखता हुआ कहता है – “यू डैमिड तुम हर वक़्त साबित क्या करना चाहती हो – लिसेन मी – मैं बात कर रहा हूँ तुमसे |” आकाश अपने हाथ में पकड़ी मैगजीन हवा में उछालते हुए चीखता रहा पर भूमि उसकी ओर पलटकर नही देखती|
दोनों गुस्से से भरे दिख रहे थे पर इस आक्रोश के बीच किसी की नजर नही गई तो इस बात पर कि क्षितिज पर इसका क्या असर हुआ| वह सहमा सा अब न पलटकर अपने पिता की ओर देख पाया और न सर उठाकर अपनी माँ की ओर|
और ये सब किरन दूर से ही देख रही थी| ये वो परते थी जो अब धीरे धीरे उसके सामने खुल रही थी जिसकी ओट में वह इस घर को समझने का प्रयास कर रही थी|
क्या अरुण पहचान सका अपने इस जाने पहचाने अहसास को जानने के लिए रखे इंतज़ार अगले भाग का…जिसमे होगी उनकी दूसरी मुलाकात….
***
भूमि क्षितिज को गोद में लिए मेंशन के अंदर आ जाती है| क्षितिज भी माँ से लिपटा छुपी नजर से अपने पिता का गुस्सा देखता रहा जो उसकी नन्ही बुद्धि से परे था|
“मम्मा – मैंने कुछ गलती की है !! फिर आप क्यों गुस्सा हो डैडू से !!” वह अपनी बाहें भूमि के गले में लपेटता हुआ पूछ रहा था|
भूमि उसे उसके कमरे तक ले जा रही थी| इस वक़्त बहुत कुछ घुमड़ रहा था उसके मन में पर उस मासूम से क्या कहती बस ख़ामोशी से उसे उसके कमरे तक ले जा रही थी| उसे उसके बिस्तर पर बैठाती प्यार से उसका माथा चूमती हुई कहती है –
“मुझे सिर्फ इतना पता ही कि मैं अपने बेटू से बहुत सारा प्यार करती हूँ तो उससे गुस्सा कैसे रहूंगी ?”
माँ के स्पर्श से क्षितिज किसी नन्हे फूल सा खिलता खनक उठता है|
“अब आराम से अपना फेवरेट कार्टून देखो तब तक मम्मा आती है थोड़ी देर में |” कहती हुई वह उस कमरे के इधर उधर देखती है तभी क्षितिज की नैनी जो कमरे के बाहर को खुलते बालकनी में फोन पर किसी से हँस हँसकर बात कर रही थी अचानक भूमि की मौजूदगी से झट से मोबाईल रखती हुई उसकी ओर भागती हुई आती है|
भूमि उसे गुस्से से देखती हुई कहती है – “तुम्हे क्षितिज के साथ साथ रहना था – क्या ये भी मुझे बताना पड़ेगा !”
“वो वो – जरुरी बात कर रही थी – सॉरी मैडम मैं देखती हूँ |” नज़रे झुकाए हुए वह कहती हुई|
जाहिर था भूमि उसकी बात से इत्तफ़ाक नही रखती थी पर फिर आगे कुछ न कहकर क्षितिज को प्यार करके चली जाती है|
***
रूबी दिनभर में कितने ही चक्कर काट चुकी पर सेल्विन के घर का दरवाजा हर बार उसे बंद मिलता| आखिरी बार रात में वह एक बार फिर उसके घर तक आई थी और इस बार ताला हटा दरवाजा देख वह कुछ ज्यादा ही उत्साह में आती झट से उस घर में प्रवेश कर जाती है|
दरवाजा अभी उड़का ही था जिससे वह तुरंत ही दरवजा धकेलती उसके घर में प्रवेश कर जाती है|
“सुनिए…|”
पर अगले ही पल अपने इस अतिरेक व्यवहार पर उसे खुद ही शर्म आ जाती है|
शायद सेल्विन भी अभी ही आया था जिससे न उसने बाहर का दरवाजा बंद किया और न रूबी का आना देख पाया| वह अपनी शर्ट उतारे खुली देह के साथ तुरंत ही आवाज की ओर मुड़ता है| रूबी अब नज़रे नीची किए ठीक उसकी नजरो के सामने खड़ी थी| सेल्विन रूबी की ओर देखता रहा| उसका कसरती जिस्म अभी भी खुला था| रूबी को इस तरह नज़रे नीची किए खड़ा देखकर भी उसने दुबारा शर्ट की ओर अपना हाथ नही बढाया बल्कि बेहद तीखे स्वर में पूछ उठा –
“इतनी रात क्यों आई हो ?”
“वो – आपने मेरी – इतनी मदद की तो – मैं कुछ दिनों में सारा रूपया चुका दूंगी |” वह किसी तरह रुक रूककर अपनी बात कहती है|
“ओह तो किस तरह से ?” सेल्विन के स्वर में गहराई उतर आई थी जिससे सामने खड़ी रूबी का जिस्म एक बार फिर ऊपर से नीचे काँप गया|
सेल्विन फिर कहता है – “मैंने तुमसे कहा है क्या लौटाने को ? इस वक़्त चली जाओ यहाँ से |” कहता हुआ वह उसकी ओर से पीठ कर लेता है|
रूबी के पास भी अब कहने को कुछ नहीं रहता तो वह भी पूरी ख़ामोशी से तुरंत ही बाहर निकल जाती है|
क्रमशः……….

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