
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 70
कुछ अलग ही सुबह थी जिसमे तरंगो की लहर वातावरण में अभी भी घुली हुई थी| आखिर इससे पहले मेंशन की ऐसी सुबह कभी नही हुई| भूमि मुस्कराती हुई क्षितिज को देखने आई थी जिसे उजला स्कूल के लिए तैयार कर चुकी थी| आकाश जो देर से उठता था पर जल्दी नींद उचट जाने से गार्डन में बैठा था| मेनका भी वही मौजूद सुबह की ताजगी में टहल रही थी| बस इन सबके बीच कोई अपने कमरे से नही निकला था तो वो था अरुण|
क्षितिज के पास भूमि और उजला दोनों मौजूद थे| उजला जहाँ क्षितिज का सामान सहेज रही थी वही क्षितिज अपनी माँ को देखते उसके गले में बाहे डाले खिलखिला रहा था| भूमि उसके गले की टाई की नॉट ठीक करने लगती है|
“मम्मा आपसे एक बात पूछू ?”
“हाँ पूछो |”
“आप चाचू को डाटती क्यों नही ?”
भूमि के हाथ एकदम से रुक जाते है वह चौंककर क्षितिज की मासूम आखों में देखती है|
“आप कहती हो डैडू जो पीते है वो गन्दी चीज है तो चाचू भी तो वही गन्दी चीज पीते है तो आप क्यों नही उन्हें मना करती !!”
क्षितिज भूमि का चेहरा अपनी नन्ही हथेली में लेता हुआ पूछता रहा – “डैडू वो गन्दी चीज पीते है इसलिए मुझसे कम प्यार करते है तो क्या अब चाचू भी मुझसे कम प्यार करने लगेगे – बोलो मम्मा !!”
भूमि उस नन्ही सोच के आगे ठिठक जाती है| वह समझ नही पा रही थी कि क्या जवाब दे| पीछे खड़ी उजला उसका मन भी उस मासूम सवाल से कांप उठा था पर किसी तरह से खुद को संभालती हुई वह झट से क्षितिज के पास आती हुई कहती है –
“ऐसा होगा ही नहीं |”
उजला क्षितिज को अपनी गोद में लेती हुई कहने लगी – “आप अब सबका कहना मानने लगे हो न और ऐसे अच्छे बच्चे की सारी विशेज परी जरुर पूरी करती है – |”
“सच्ची !!”
“प्रोमिस |” उजला बेहद मुस्कान के साथ ऑंखें झपकाकर हामी में सर हिलाती है जिसपर क्षितिज नन्हे फूल की तरह मुस्करा देता है|
भूमि मूक अपने स्थान पर खड़ी रह जाती है|
जिस बात पर उजला ने बच्चे का मन तो बहला लिया पर खुद को न समझा पायी| उसका मन अंदर ही अंदर रो पड़ा| उसी उदास भाव से वह रसोई की तरफ चल दी थी| ये समय जैसे तय था उसका अरुण के पास जाने का| वह बिन शब्द के काका के पास खड़ी ही हुई थी कि वह रोजाना की तरह चाय की ट्रे उसके हाथो में देते हुए कह उठे –
“क्या फायदा – रोज ही तो ले जाती हो चाय और वैसी ही वापस भी आ जाती है – जब से वो मुई सराब मुंह को लगी है हमारे बिटवा की सारी दुनिया ही बदल गई – राम जाने कब ये दिन बदलेंगे ?” गहरा उच्छ्वास छोड़ते हुए वे अन्यत्र काम में लग जाते है|
आज उजला का मन भी उस कमरे में जाने को कांप गया था| पता था क्या दिखेगा ? वही निस्तेज चेहरा जिसकी तलहटी पर मिटती हुई सबकी आशाए दिखेंगी बस उस चेहरे को इस बात का होश न होगा |
वह मुरझाए मन से उस कमरे की ओर बढ़ गई थी|
***
शराब का सिलसिला जो उस दिन से शुरू हुआ था वह अभी तक रात दिन चल रहा था| जिसने खुद को कमरे में कैद कर लिया हो उसके लिए अब दिन रात का कोई फर्क नही रह गया था| इस समय भी अरुण ने सुबह से ही काफी शराब पी रखी थी कि उसे खुद का होश ही नही था| उजला सहमे कदमो से कमरे में आती ट्रे मेज पर रखती हुई छिपी नजर से अरुण की ओर देखती एकदम से चौंक जाती है क्योंकि वह उसी की ओर देख रहा था|
वह वापस नज़रे झुकाकर जाना चाहती थी कि उसकी पुकार सुन ठिठक कर रह जाती है|
“इधर – आओ – |” वह नशे से बार बार बंद हो रही अपनी निगाह को जबरन खोले उजला को इशारे से अपनी तरफ बुलाता है|
वह होठ भीचे संकुचाती हुई उसकी ओर चल देती है| अरुण आधा लटका सा बिस्तर पर पड़ा था| जिसके एक हाथ की दूरी पर आकर उजला खड़ी हो जाती है|
“मेरा बहुत – मन – कर रहा है – कि तुम्हे एक बात बताऊ – |” वह अपनी लडखडाती हुई आवाज में कहने लगता है और सामने खड़ी उजला मौन खड़ी रह जाती है – “तुम्हारा किसी को अंदर से तोड़ने का – मन हो न – तो – बस उसे इतना यकीन दिला दो तुम – उसके साथ हमेशा रहोगे – उसे बताते रहो कि तुम उसके लिए बहुत कीमती हो – फिर – जब उसे तुम्हारी बात पर – यकीन हो जाए – तब उसे एकदम से छोड़ दो – यकीन करो वो शख्स बुरी तरह से टूट जाएगा – बस ये बात चोट खाने से पहले मैं ही नही समझ सका !”
उजला का दिल धक से होकर रह गया| उसे डर सताने लगा कि कही उसे पहचान तो नही लिया गया, इससे वह घबराती हुई पूछ बैठी –
“आप – ये मुझसे क्यों कह रहे है ?”
किसी दर्द की तरह ये शब्द उसके दिल से गुजर गए| वह घबराकर दो कदम पीछे होने लगी| उजला इस बात के लिए बिलकुल तैयार नही थी पर अरुण को तो जैसे खुद का ही होश नही था| तभी अरुण लपककर उसकी कलाई थाम लेता है जिससे वह दर्द से कराह उठी|
“क्योकि तुम्हारी मौजूदगी हमेशा मुझे उस शख्स की याद दिलाती है जिसे भूलने की कोशिश में मैं खुद को मिटाने चला हूँ |”
झटके के साथ वह उसकी कलाई छोड़ देता है| उजला सहमी सी देखती रह जाती है| उसकी ऑंखें उस दर्द से भर आई जिससे खुद भी वह गुजर रही थी बस वह कह नही सकी और अरुण ने उसे नशे में ही सही बयां तो कर दिया|
अरुण पर नशा सवार था| अब वह लेटा लेटा अट्टहास कर उठा| उसकी ये हालत देख उजला का मन दहल उठा वह बिसूरती हुई वहां से चली गई|
***
कार दीपांकर चला रहा था और पीछे बैठा आकाश बार बार खिड़की से बाहर देखता रहा| वह रास्ता बहुत ही अँधेरा भरा था| गलियों से होकर रास्ता जब ऐसी गली के सामने रुका जहाँ से कार का निकलना असंभव था तो दीपांकर पीछे पलटता हुआ कहता है –
“सर अब आगे पैदल ही जाना पड़ेगा |”
आकाश हामी भरता कार से उतर जाता है| वह एक नजर घुमाकर उस अँधेरी जगह को देखता है जो काफी गंदी नज़र आ रही थी| कही कूड़े का ढेर पड़ा था तो कही टूटी सड़क पर पानी बहता नजर आ रहा था| आकाश उस जगह के हिसाब से बेहद असहज था पर मज़बूरीवश वह दीपांकर के पीछे पीछे चलता रहा|
दीपांकर आगे आगे परिचित रास्ते की ओर बढ़ता रहा और उसके पीछे पीछे आकाश नाक पर रुमाल रखे चल रहा था|
कुछ ही पल में वह किसी अँधेरी जगह पर थे जिसके अंदर को जाते रास्ते पर मल्गिल्ला एक पीला बल्ब जल रहा था| उसी रौशनी को टटोलते वे एक अन्य कमरे में खड़े थे जहाँ बीचो बीच बड़ी सी मेज पर दो आदमी कैरम खेल रहे थे| दीपांकर उस ओर आगे बढ़ गया पर उन्हें देखते हरे आकाश ने अपने कदम धीमे कर लिए|
कैरम खेल रहा एक आदमी दूसरे आदमी को इशारे से जाने को कहता है जिससे वह बिना पीछे देखे स्टाईगर रखकर चला जाता है|
“हाँ साहब बोलो |” अब बैठा हुआ आदमी जो देखने में काफी हट्टा कट्टा नज़र आ रहा था वह दीपांकर की ओर देखता हुआ बोला|
“सर यही है बलबन जिसके बारे में मैंने आपको बताया था – आप बात कर लीजिए |” दीपांकर अब थोड़ा परे हटता हुआ आकाश को आगे आने को कहता है|
आकाश उस बदबूदार जगह पर असहज था पर किसी तरह से गहरा श्वांस खींचता हुआ कहता है –
“तो तुम मेरा काम करोगे ?”
पैसे के वास्ते अपन सब करेगा – तुम काम बोलो |” वह अकड़ी हुई आवाज के बोलता है|
“एक जर्निलिस है उसके पास से एक पेन ड्राइव लेकर आना है |” आकाश सोचते सोचते बोलता है|
“उसको टपकाने का है ?”
“नही नही – बस मुझे वो पेन ड्राइव चाहिए |” आकाश जल्दी से कहता है|
“और अगर सीधे से नहीं दिया तब !”
आकाश अब रुककर दीपांकर की ओर संशय से देखता है तो वह उस गुंडे के सामने आता हुआ कहता है –
“वो सब तुम जानो कि तुम्हे क्या करना है – बस किसी भी कीमत में वो पेन ड्राइव लाकर दो बस |” कहता हुआ आकाश की ओर देखता है जिसके संकेत पर वह अपने साथ लाए ब्रिफकेस को अपने एक हाथ में ही खोलकर उससे कुछ गद्दियाँ निकालकर उसकी ओर बढ़ाता हुआ कहता है –“बाकी काम होने के बाद |”
“अपन को उसकी तस्वीर और लोकेशन भेजो |” वह गद्दियाँ समेटता हुआ कहता है|
ये सुन दीपांकर अपने कोट की जेब से एक तस्वीर निकालकर उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहता है – “ये है और इस वाट दिल्ली में है |”
“वो नरक में भी होगी तो वही पर उसको ढूंढकर निपटाकर फिर नरक में फेक देगा अपन – बस माल बरोबर मिले तो काम भी बरोबर होगा |”
गुंडे की बात सुन आकाश कहता है – “उसकी तुम चिंता मत करो – बस काम होना चाहिए |”
“बस समझो हो गया |”
उसके कहते दोनों एकदूसरे का चेहरा देखते तुरंत वहां से बाहर निकलने लगते है|
दोनों साथ में उस अँधेरी गली को पार करके कार तक पहुँचते है तो आकाश संशय से दीपांकर की ओर देखता हुआ पूछता है –
“ये कुछ गड़बड़ तो नही करेगा न ?”
“डोंट वरी सर ऐसा कुछ नही होगा – सर मैं एक मिनट आता हूँ |” कहता हुआ दीपांकर कार को अनलॉक करके दुबारा उस गली के अंदर तेज कदमो से चल देता है|
एक क्षण में ही वह दुबारा उस गुंडे के सामने खड़ा सख्त हाव भाव के साथ हाथ से इशारा करता है जिसपर वह गुंडा बिना कुछ बोले एक गड्डी उसकी बढ़ी हुई हथेली में रख देता है| दीपांकर वापस बाहर चला जाता है| उसको जाते देख वह गुंडा टेबल पर पैर पसारते हुए बुदबुदाता है –
‘साला ये कोट पेंट वाला अपन से भी कमीना निकला |’
***
इजी चेअर पर बैठे मुंह में सिगार दबाए दीवान साहब सामने दीवार पर टंगी अपनी पत्नी कावेरी की तस्वीर को अपलक देखते विचारो में गुम खुद से ही बातें कर रहे थे| कमरे में काफी अँधेरा था और वे किसी काले साए की तरह नज़र आ रहे थे|
तभी एक खट की आवाज से उनके विचारो की तन्द्रा टूट जाती है और वे आवाज की ओर पलटकर कमरे में किसी आकृति को प्रवेश करते हुए देखते है| वे आकृति को पहचानने की कोशिश करते पूछते है –
“कौन है वहां ?”
वह आकृति कुछ और अंदर कमरे में आती हुई कुछ फासले पर रुक जाती है| उसके हाथो में कुछ था| कुछ पल तक कमरे में ख़ामोशी छाई रही शायद वह कुछ कहने की हिम्मत जुटा रही थी| वह झिझकती हुई कहती है –
“ज जी मैं हूँ |”
“मैं कौन ?” कुर्सी की पुश्त से पीठ हटाकर उस तरफ झुककर गौर से देखते हुए वह पूछते है|
“मैं – उजला |”
आवाज सुनकर वे फिर से कुर्सी की पीठ से पीठ सटाते हुए बोले –
“ओह – तुम हो – यहाँ क्यों आई हो ?”
“कॉफ़ी देने आई थी – आप खाने के बाद कॉफ़ी लेते है न !”
ट्रे से कप उठाकर उनकी ओर बढाती हुई वह कुछ पल तक वही खड़ी रही फिर कुछ सोचकर वापसी की ओर मुड़ने लगी|
“क्या हुआ – कुछ और कहना है ?”
“जी – आपसे एक बात पूछ सकती हूँ ?”
“अगर सुबह वाली बात के लिए कुछ पूछना है तो मेरा जवाब न में होगा – इसके अलावा तुम कुछ भी पूछ सकती हो |”
उजला बहुत झिझकती हुई पूछती है –
“यहाँ आपके सिवा तो कोई नही है फिर आप किससे बात कर रहे थे ?”
उजला कुछ क्षण तक खड़ी उनके जवाब की प्रतीक्षा करती रही पर जब वे कुछ न बोले तो सर झुकाती हुई कह उठी – “शायद मुझे नही पूछना चाहिए था |”
उजला ख़ामोशी से वापस मुड़कर चल देती है| दरवाजे तक पहुँचते ही पीछे से उनकी पुकार सुनते उसके पैर वही थम गए|
“रुको – बेटी |” वे बेहद कसे भाव से कहते है|
पर उनके शब्द जैसे उसके पैरो में बेड़ियाँ डाल देते उसे रोक लेते है| वह तुरंत उनकी ओर आती उनकी ओर झुकती हुई कह उठी –
“मुझ बदनसीब के तो भाग्य ही खुल गए – आपने मुझे बेटी कहा !”
“अरे उठो उठो – तुम |” उच्छ्वास छोड़ते हुए वे कहने लगते है – “तुम जानना चाहती थी न कि मैं किससे बात कर रहा था ?”
“जी – अगर आप बताना चाहे तो !”
एक गहरी सांस छोड़ते हुए वह बोलने लगते है –
“अपने गुजरे वक़्त से बाते कर रहा था – क्या करूँ जब अकेला होता हूँ तो मेरा अतीत आकर मुझे घेर लेता है|”
“आपको अकेलापन क्यों लगता है जबकि आपके आस पास आपके सारे अपने ही तो है – माफ़ कीजिए छोटे मुंह बड़ी बात पर क्या आपको ऐसा नही लगता है कि इस अंधेरो को आपने स्वयम जन्म दिया है |”
उजला की बात सुन दीवान साहब यकायक ठिठक जाते है| उजला उनके पैर छूकर बाहर चली जाती है| वे स्तब्ध उस तरफ देखने लगे जिस ओर से उजला गई थी| उसका कहा आखिरी शब्द उनके कानो में गूंजता रहा| वे खुद से ही कह उठे – ‘क्यों ये शब्द उन्हें तीर से चुभ रहे है – क्या ये सच है !!’
अचानक से वातावरण मूक होकर उन्हें अपने पाश में और घेर लेता है|
क्रमशः………