
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 86
एक बार फिर वर्तिका उसी बस्ती में मौजूद थी जहाँ जीवन का अजब अनुभव उसे मिला था| वह कार से उतरकर रानी और ड्राईवर को अपने साथ लाए सामान के लिए निर्देश दे रही थी| तभी कोई हाथ उसे अपने कंधे पर महसूस हुआ और वह पलटकर देखती हैरान रह गई|
आपस में एकदूसरे को पहचानने में उन्होंने बिलकुल देर नहीं लगाई|
वर्तिका उसे ऊपर से नीचे हैरानगी से देखती हुई बोली – “हेलो ऊष्मा जी आप यहाँ ?”
“मैं तो यहाँ आती रहती हूँ |” वह अपने एप्रेन पर टिकी वर्तिका की नज़र समझती हुई कहती है|
“ओह तभी आपको देखकर उस दिन मुझे लगा था कि आपको कही देखा है |”
“तो तुम भी यहाँ आती रहती हो?”
“बस ये दूसरी बार है |”
फिर ऊष्मा का ध्यान उसकी कार की ओर जाता है
“और ये इतने सारे खिलौने !! कोई इवेंट प्लान कर रही हो क्या ?” ऊष्मा ढेरो खिलौनों को देखती हुई पूछती है|
“हाँ यहां के बच्चो के लिए है ये सब |” वर्तिका भी उतने ही उत्साह से प्रतिउत्तर देती है|
“ओह – अच्छा ठीक है – अब मैं चलती हूँ – बाय |” कहती हुई ऊष्मा फिर से उस ओर बढ़ गई जहाँ लोगो की भीड़ अब बढ़ चुकी थी|
वर्तिका उन बच्चो के लिए खिलौने लाकर बहुत ज्यादा ही उत्साहित थी| उसने वे सारे खिलौने बस्ती के बच्चे को देने का काम रानी को सौंप दिया और फिर ड्राईवर के साथ वापसी को चल दी|
वह अपनी कार में बैठने ही वाली थी कि उसकी नज़र एक रुकी कार की ड्राइविंग सीट पर चली गई| जहाँ ऊष्मा चाभी घुमाते घुमाते परेशान हुई जा रही थी| ये देखते वर्तिका उतरकर तुरंत उसके पास आती ज्योंही खड़ी हुई ऊष्मा उसे देख फसी सी हँसी हँस पड़ी|
“लगता है एक बार फिर इसे एक अच्छे डॉक्टर की जरूरत है – आइए – मैं आपको घर छोड़ देती हूँ |” इस पर दोनों एकसाथ मुस्करा पड़ती है|
“हाँ लगता तो ऐसा ही है |” कहती हुई ऊष्मा वर्तिका के साथ चल देती है|
ऊष्मा ने जो पता बताया वहां पहुँचते वर्तिका हैरानगी से सब देखती रही| एक बड़े काले गेट के अंदर जाते उसकी नजरो के सामने एक बड़ा बंगला सीना ताने खड़ा था और उससे भी हैरानगी तब हुई कब कार के पोर्च पर रुकते उसे कतार से दो लग्जरी कार खड़ी दिखी|
“हैरान मत हो ये मेरा ही घर है – अकसर मुझसे पहली बार मिलने वाले ऐसे ही हैरान रह जाते है|” अपनी ओर उतरती हुई ऊष्मा कहती रही – “मजिस्ट्रेड हीरानंद गोविन्द पाठक जी का घर है ये – वे मेरे पिता है |”
“अच्छा हाँ – मैंने उनका नाम सुना है – शायद किसी न्यूज में |” वर्तिका हिचकिचाती हुई कहती है|
“हाँ वे अपने फैसलों की वजह से अक्सर खबरों की सुर्खियों में छाए रहते है |”
इस पर वर्तिका मुस्करा देती है|
“अच्छा अब मैं चलती हूँ !”
“पहली बार घर आई हो तो कॉफ़ी पीकर जाओ – प्लीज़ |”
“अरे आप प्लीज क्यों कह रही है ऊष्मा जी – मैं रुक जाती हूँ |” कहती हुई वर्तिका भी अब कार से उतरकर खड़ी हो गई थी|
अब वे साथ में उस बंगले में प्रवेश कर रहे थे| चलते चलते ऊष्मा करती है –
“वैसे तुम मुझे ऊष्मा भी बुला सकती हो – वैसे भी योगेश की कोर्समेट हूँ तो तुम क्लासमेट |”
“ओके ऊष्मा…|” बड़ी सावधानी से वर्तिका उसका नाम लेती मुस्करा देती है|
वर्तिका को लिविंग रूम में बैठाकर एक नौकर को आवाज लगाती हुई कॉफ़ी के लिए कह रही थी कि उसके चंद सेकण्ड में ही उसके पीछे से आदित्य अपने हाथ में ट्रे लिए उनकी ओर आता हुआ कहता है –
“ये लीजिए आप दोनों के लिए कॉफ़ी – इससे फास्ट डिलवरी तो कोई नही दे सकता |”
जहाँ वर्तिका जानकर आदित्य से नज़रे हटाए थी तो वही ऊष्मा हैरानगी से उन दो कप को देखती हुई बोल उठी –
“तुम्हे कैसे पता ?”
“दिल को दिल की राह होती है दी |” कह वह ऊष्मा से रहा था पर उसकी पूरी निगाह वर्तिका पर थी| ट्रे के कप को उन दोनों की ओर बढ़ाकर वह भी वही बैठ जाता है|
कप लेती हुई ऊष्मा बोल उठी – “ओह तो जनाब ने अपने लिए बनाई कॉफ़ी को दो कप में कर के दे दिया – कप की थोड़ी थोड़ी कॉफ़ी इसकी गवाही दे रही है |”
ऊष्मा की बात पर तुनकते हुए आदित्य बोल उठा – “क्या दी – आपको सबूत इकट्ठे करने को किसने कहा – आप तो बस कॉफ़ी का मजा लो |” अपनी बात कहता हुआ तुरंत पीछे खड़े नौकर को देखता हुआ कहने लगा – “तो महोदय आप दुबारा मुझे कॉफ़ी लाकर देंगे ?”
ये सुनते नौकर हड़बड़ाता हुआ तुरंत वापसी को मुड़ जाता है|
“वैसे इतनी जल्दी क्या थी – हम इंतजार कर लेते |” होंठो के कोनो से मुस्कराती हुई ऊष्मा कहती है|
“वो क्या है मेहमान भगवान होते है तो देवी को खुश कर रहा था |” कहता हुआ वह अपनी नज़रे सीधी वर्तिका की ओर उतार देता है जबकि ऊष्मा कसकर खिलखिला उठी थी|
“वैसे भी जब तक मेरी कॉफ़ी नही आ जाती और मैं उसे खत्म नही कर लेता तब तक आप दोनों को तो मेरे साथ बैठना ही पड़ेगा – ये मेनडटरी है|”
वर्तिका भी अब आदित्य की ओर देखने लगी लेकिन उसके हाव भाव वैसे ही नाराज बने हुए थे जैसे उस दिन योगेश के यहाँ पार्टी के दौरान बन गए थे जब आदित्य जबरन उसे डांसिंग फ्लोर तक ले गया था| तब तो अपनी घूरती ऑंखें दिखाकर वह वापस आ गई थी और आज फिर वह उसके सामने बैठा था|
“वर्तिका प्लीज़ नेवर माइंड – आदि की आदत है ऐसे मजाक करने की |”
इसपर वर्तिका न चाहते हुए भी धीरे से होठो को विस्तार दे देती है|
***
शाम बस होने वाली थी| समंदर के एक कोने में लालिमा बढ़ती जा रही थी फिर भी उतरती धूप रेतीले कणों में पड़ती हुई चमक रही थी और उन पर साथ साथ वे दो जोड़ी पैर कभी साथ साथ चलते तो कभी खिलखिलाते हुए एकदूसरे को पकड़ने दौड़ जाते| उनके कदमो के छूटे निशान पर वे उमड़ती लहरे बार बार अपनी हथेली फेरती उन्हें मिटा देती आखिर वे भी यही चाहते थे कि वे दुनिया की नज़रो से छिपे रहे इसलिए उस सुनसान समन्दर के किनारे को उन्होंने चुना था|
अब थककर वे एकदूसरे की बाहों में लेटे हुए खुले आसमान को निहार रहे थे| दूर से उनके भीगे जिस्म रेत में आफताब से दमक रहे थे|
“काश ये वक़्त यही ठहरा रह जाए – क्या तुम्हे ऐसा नही लगता विवेक ?”
“लेकिन मेनका न वक़्त ठहरता है न हाथ में रहता है ये तो बस गुजरता रहता है |”
“पर मेरे हाथ में तो है |” मेनका विवेक की ओर पलटती हुई उसकी बाँहों में पूरी तरह से समाती हुई कहती रही – “और इस वक़्त को हम मिलकर कही नही जाने देंगे |”
“बिलकुल..|” धीरे से कहता हुआ वह उसके उन्मुक्त बालो में हौले हौले उंगलियाँ फिराने लगता है और मेनका उनकी बाँहों में पूरी तरह से गुम होती ऑंखें बंद लेती है|
***
रंजीत सेल्विन की ओर मुड़ता हुआ कहता है –
“क्या बात है सेल्विन ?”
“आपको ये बताने आया था कि अबकी डीलिंग में देरी होगी |”
“क्यों ?”
“नया साल है तो इस बीच पुलिस की गश्त कुछ ज्यादा ही बढ़ गई है – डीलिंग के लिए कोई और सुरक्षित स्थान तय करने में समय लग रहा है|”
“इसमें ज्यादा देर नहीं होनी चाहिए – तुम्हे पता है न मैं इसमें बिलकुल नुक्सान नही उठा सकता |”
“नही होगा रंजीत साहब – वैसे भी यही समय तो शराब बिक्री का सबसे उम्दा समय होता है – पूरे स्टेट में आपका ही जलवा है |”
“ठीक है |” रंजीत शराब का गिलास उठाते हुए कहता रहा – “और उस कल्याण का क्या हाल है |”
“रंजीत साहब कल्याण अब किसी कठपुलती से कम नहीं है और उसकी डोर हमारे हाथ में है – आप जैसा चाहेंगे वह वही करेगा |”
“अच्छा कैसे ?”
सेल्विन चतुरता भरी मुस्कान के साथ कहने लगा –
“आजकल उसका एक ही ठिकाना है – शराब का अड्डा – उसे ऐसी शराब की लत लगाई है कि नशे में वह किसी का क़त्ल भी कर सकता है|”
“रियली !”
“जी हाँ बिलकुल |”
“तो अब वो वक़्त आ रहा है जब इन प्यादों से राजा को घेरकर उसपर चौतरफा वार किया जाए |”
“अरे आप क्यों इतना दिमाग में जोर देते है रंजीत साहब – आप बस दर्शक बनकर तमाशा देखिए – मुझे बस हल्का सा इन्हें पुश करना है बाकी का काम यही प्यादे करेंगे |”
“लेकिन इन प्यादों पर अपनी नज़र रखना – ये अपनी मर्जी से एक भी कदम न उठाने पाए |”
रंजीत एक बड़ा घूँट भीतर उतारने लगता है| सेल्विन अब उठकर खड़ा हो जाता है|
“रुको – ये लो – आज क्रिसमस है न – जाकर मौज करो |”
सेल्विन रंजीत द्वारा रखी नोटों की गड्डी उठाने लगता है| वह उन्हें अपनी जेबों में ठूंसकर तुरंत ही तेज कदमो से वहां से निकल जाता है| उसके निकलते रंजीतशून्य में ताकता हुआ खुद से ही बुदबुदा उठता है –
‘दीवान परिवार बस कुछ दिन और फिर तुम्हारी बर्बादी की कहानी तुम्हारी नियति बन जाएगी – मैं तुम्हारे एक एक गुनाहों का बदला लूँगा – पिछले दस साल से जिस आग में जला हूँ मैं अब उसमे तुम्हारे जलने की बारी है – जलाकर राख कर दूंगा तुम्हारा दीवान एम्पायर…|’
दांत भींचे वह अब शराब की बोतल को घूरने लगा था|
***
रूबी सेल्विन के घर पर थी| उसमे कमरा साफ़ किया| मेज पर केक सजाया| पूरे घर भर में कैंडिल जलाई और देखते देखते कमरा चमक उठा उजाले से| दूर दूर तक अंधेरो का नामोनिशान नही था|
सेल्विन जबतक अपने घर वापस आया रूबी ये सब कर चुकी थी अब वह हतप्रभता से ये सब देख रहा था|
रूबी उसके पास आती कह रही थी – “हैपी क्रिसमस |” कहने के बाद वह कुछ पल तक उसका चेहरा ताकती रही मानो उसे भी किसी चीज का इंतजार हो|
“तुमभी बोलो न मुझे |” रूबी भरपूर मुस्कान से कहा रही थी|
जबकि सेल्विन सपाट भाव से कहने लगा – “मुझे इन फेस्टिवल पर कोई बिलिवनेस नहीं है |”
“पर मेरा बिलिवनेस तुमपर है सेल्विन |” कहती हुई वह उसके और पास आ गई थी| वह अपनी गहरी गहरी ऑंखें उसकी बुझी हुई आँखों में डालती हुई लगातार उसे देख रही थी| वह उसका हाथ पकड़ लेती है जिसे छूडाते हुए वह कहता है –
“मैं फ्रेश होकर आता हूँ |”
“ओके |” कहती हुई वह जाते हुए सेल्विन को देखती रही फिर खुद में ही मुस्कराती हुई केक को और करीने से रखने का उपक्रम करने लगी|
कुछ देर बाद बदले हुए कपड़ो में वह हलके कदमो से चलता हुआ फिर से रूबी के सामने खड़ा होकर कह रहा था – “रूबी आज मेरा मन ठीक नहीं है तो क्या तुम कल आ सकती हो ?”
“क्यों ? क्या हुआ तुम्हे ? तबियत तो ठीक है न ?” एकदम से परेशान होती रूबी तुरंत सेल्विन का सर माथा छूने लगती है जबकि वह खुद को रूबी की पहुँच से दूर करने लगा था|
“बस आज मैं अकेला रहना चाहता हूँ |”
“लेकिन मैं आज की रात को यादगार बनाना चाहती थी|” कहती हुई रूबी अपनी हथेली उसके आँखों के सामने खोल देती है जहाँ दो रिंग चमक रही थी| उसे देखते सेल्विन बुरी तरह चौंक जाता है जैसे कोई डर उसके सामने जीवंत होगया हो| उसके हाव भाव जहाँ भयभीत बने थे वही रूबी के हाव भाव में बेहद प्यार उमड़ रहा था| वह झट से सेल्विन की रिंग फिंगर में एक अंगूठी उतारती हुई बोलती है –
“मैं तो हर तरह से तुम्हारी हो गई हूँ और आज इस बात पर मोहर भी लगा देती हूँ – आई लव यू सेल्विन –|”
कहती हुई वह कब दूसरी अंगूठी उसके हाथो से अपनी उंगली में पहन लेती है उसे भी पता नही चलता| सेल्विन तो जैसे अपने सारे होशोहवास खो बैठा था| रूबी अब उसके सीने से लगती हुई उसकी बाँहों के बीच गहरी गहरी साँसे ले रही थी| सेल्विन को पहली बार खुद से डर लगने लगा था| वह समझ नही पा रहा था खुद को| आज उसका मन ही उसके साथ दगा कर रहा था| आखिर यही विश्वास तो वह उसका जीतना चाहता था लेकिन उसे पाने की कोई ख़ुशी नहीं थी उसके पास| वह सहमा सा रूबी से छिटकना चाहता था जबकि वह उसकी बाँहों में किसी मुक्त दरिया की तरह समाई हुई कहती जा रही थी –
“मुझे तुमपर अब खुद से ज्यादा विश्वास है और आज से ये पल इस बात के गवाह बन जाएँगे कि मुझे तुमपर कितना भरोसा है – सेल्विन अब हम जल्दी ही शादी करंगे फिर देखना हमारी कितनी खूबसूरत सी दुनिया होगी जहाँ हमारे प्यार के सिवा कुछ नहीं होगा – देखना |”
रूबी उसकी बाहों के बंधन में खुद को कसती जा रही थी जबकि वह किसी बुत की तरह खड़ा आज पहली बार खुद को कितना हारा हुआ महसूस कर रहा था| धीरे धीरे कमरे की कैंडील की आखिरी लौ भी बुझ गई जहाँ न सेल्विन रूबी का विश्वस्त चेहरा देख पाया और न रूबी सेल्विन का डरा हुआ चेहरा…|
क्रमशः……….