
बेइंतहा सफ़र इश्क का – 88
भूमि जैसे ही अपनी संस्था पहुंची वर्तिका को देखती हैरान होती पूछ उठी –
“वर्तिका यहाँ कैसे ?”
“आपसे बात करनी थी लेकिन कही मैं आपको बेवजह परेशान तो नहीं कर रही ?”
“अरे बिलकुल नहीं – आओ ऑफिस में चलो |” कहती हुई भूमि वर्तिका का हाथ पकड़े अंदर ले चलती है|
अब दोनों संस्था के ऑफिस में बैठी थी|
“हाँ अब बताओ कि क्या बात है ?” भूमि इत्मिनान से बैठती हुई अपने सामने की कुर्सी पर बैठी वर्तिका को देखती हुई पूछती है|
“बस भाभी कुछ दिनों से बहुत कन्फ्यूज हो रही थी तब लगा आप ही सही राय दे सकती है|”
“हाँ बोलो |”
“मैं कुछ सोशल वर्क करना चाहती हूँ पर ये समझ नहीं आ रहा कि कैसे और कहाँ से शुरू करूँ – आप ही कुछ सजेस्ट करिए न |”
“ये तो बहुत अच्छी बात है लेकिन क्या तुम खुद को इसके लिए तैयार मानती हो?”
“क्या मतलब भाभी !!”
“आज से पंद्रह साल पहले जब यही बात मैंने अपने पिता से कही थी तब उन्होंने भी ठीक यही सवाल किया था मुझसे |”
वर्तिका हैरानगी से भूमि की ओर देखती रही जो सहज भाव से अपनी बात कह रही थी – “ये उम्र ही ऐसी है जब बहुत तरह के विचार आते है यहाँ तक कि लगता है कि बस चुटकियों में दुनिया बदल देंगे लेकिन फिर उसके बाद क्या !! समय बदलता है और उसके साथ विचार भी – इसलिए मेरे पिता ने भी मुझसे यही बात कही थी ताकि मैं खुद को सुनिश्चित कर सकूँ कि इस विचार को मैं आगे जाकर विचारधारा बना पाऊँगी भी या नहीं|”
“लेकिन आपके साथ तो ऐसा नही हुआ न भाभी !”
“हाँ इसीलिए तो कह रही हूँ कि खुद को समय दो खुद को टटोलो, खंगालो फिर देखो कि क्या विचार बनता है तुम्हारा |”
“सच कहती है आप – |” वर्तिका मुस्कराती हुई कह रही थी – “तभी तो मैंने भईया से कहा था कि इस मामले में आपसे बेहतर कोई राय नहीं दे सकता |”
“तुम अपने भाई रंजीतकी बात कर रही हो न !”
भूमि जिस बात को बड़ी सहजता से कह रही थी उसपर वर्तिका बुरी तरह हैरान होती हुई कहने लगी – “
“क्या आप उन्हें जानती है ?”
“हाँ मिली थी एक बार – वैसे कहाँ है आजकल मैंने इतने सालो में कही देखा नहीं उन्हें |”
“यही इसी शहर में – वैसे वे पार्टी और मीडिया से दूर ही रहते है|”
“ओके |” भूमि अब वर्तिका की ओर से अपना ध्यान हटा लेती है जबकि वर्तिका के हाव भाव अभी भी हैरान बने हुए थे|
वह संकोच से फिर पूछ उठी – “भाभी क्या सच में आप मेरे भईया को जानती है |”
“अरे हाँ भई इनफैकट रंजीतने मेरी मदद की थी – मुझे अच्छे से याद है वो मेरा पहला सोशल इवेंट था और मेरी एक भी टिकट नहीं बिकी थी और तब मैं बहुत हतौत्साहित हो गई थी फिर रंजीतथे जिन्होंने मेरी सारी टिकट बिकने में मदद की – अ वेरी गुड पर्सन |”
वर्तिका हैरान रह गई भूमि जिस बात को इतनी सहजता से कह रही है उस बात पर हमेशा उसका भाई असहज हो जाते थे और हमेशा ऐसा ही दिखाते कि वे भूमि भाभी को बिलकुल जानते ही नहीं आखिर ऐसा क्यों !!!
“वर्तिका चाय मंगाऊ ?” भूमि उसे चुप देखती हुई पूछती है|
“आं !!” वर्तिका का ध्यान अब भूमि की ओर जाता है|
“चाय ??”
“ठीक है – एक बात और पूछ सकती हूँ ?”
“हाँ पूछो |”
“क्या उस इवेंट की कुछ तस्वीरे होंगी आपके पास ? असल में भईया की पुरानी कोई तस्वीर नहीं तो शायद उसी में मुझे भईया की कोई तस्वीर मिल जाए !”
इसपर भूमि हँसती हुई कहने लगी – “बड़े अजीब है तुम्हारे भाई – चलो चेक करवाती हूँ कि रिकॉर्ड रूम में कोई है क्या ?”
कहती हुई एक बैल के साथ वह किसी महिला कर्मी को अपने सामने खड़ा पाती है जिससे वह कह रही थी – “जमीला क्या श्रीवास्तव जी है क्या – कुछ पुरानी तस्वीरे कम्पूटर में दिखवानी है |”
“हाँ मैंडम जी वही बैठे है – क्या बुला लाऊं ?”
इससे पहले कि भूमि इसपर कुछ कहती वर्तिका तुरंत कह उठी – “भाभी आप कहे तो मैं खुद वहां चली जाऊं – मैं तस्वीर पहचान भी लुंगी !”
“ठीक है |”
वर्तिका वाकई बेसब्र हुई जा रही थी| उसके लिए उसके भाई का जीवन किसी पहेली जैसा था| वह अपने भाई के साथ रहते हुए भी उसके बारेमे कुछ जानती ही नहीं थी| पर आज उसकी जिज्ञासा चरम पर थी और वह किसी भी हालत में इस क्लू को छोड़ना नहीं चाहती थी|
***
विवेक जानता था कि वह जो भी कर रहा है अपनी सीमाओ से परे कर रहा है जिसका डर उसके हाव भाव में समाया था जिससे अचानक दरवाजा खुलने से वह बुरी तरह से हडबडा गया|
रूबी जानती थी कि इस समय आकाश अपने केबिन में नहीं था इसलिए बिना दस्तख के वह किसी कार्यवश उसके केबिन में प्रवेश करती है पर वहां कोई और होगा इसका उसे अंदाजा भी नहीं था|
जितना विवेक उसे देखकर हडबडा गया था रूबी भी उसे देखती चौंक गई थी| वैसे भी इतने बड़े ऑफिस में कितने ही सारे कर्मचारी थे और सबको पहचान पाना मुमकिन भी नहीं था| फिर जो आकाश के केबिन में जो आया होगा वो जरुर आकाश की मर्जी से आया होगा क्योंकि उसके गुस्से से सभी वाकिफ थे इसलिए विवेक का वहां होना रूबी को कुछ ज्यादा अजीब नहीं लगा| विवेक रूबी के आते उस केबिन से यूँ निकलने लगा जैसे उसने उसे नोटिस किया ही नहीं| रूबी ने भी उसे नहीं टोका|
विवेक के जाते रूबी जिस फाइल के लिए आई थी उसे आकाश में टेबल से लेकर जाने लगी तभी उसकी नज़र आकाश की टेबल की तितर बितर हालत पर गई| रूबी सोचने लगी या तो उस शख्स से ऐसा हुआ या आकाश ही जल्दबाजी में ऐसा छोड़ गया होगा फिर जाने क्या सोच वह उसकी मेज ठीक करने लगी| तभी ठीक इसी समय आकाश अपने केबिन में लौटता है और उसकी नज़र रूबी पर पड़ती है|
“तुम – मेरे अप्सेंस में क्या कर रही हो यहाँ ?”
“सर – मैं ये फाइल लेने आई थी|” वह अपने हाथ में पकड़ी फाइल उसे दिखाती हुई कहती है|
लेकिन आकाश उसपर अपन तीक्ष्ण नज़र गड़ाए रहा क्योंकि फाइल उसके हाथ में थी फिर भी उसने उसकी टेबल पर उसे अन्य सामान के साथ देखा था इससे वह भन्नाया हुआ तुरंत उसके पास आता उसकी बांह अपनी पकड़ में लेता हुआ कहता है –
“तुम्हे मेरे पर्सनल दायरे में आने का इतना ही शौक है तो इस शौक को पूरा क्यों नहीं करती !”
“जी !!!” रूबी आकाश की पकड़ से छूटने की कोशिश करती विचलित हो रही थी|
आकाश उसकी बांह को झटके के साथ छोड़ता हुआ उसकी परेशान हालत देखता मुस्करा उठा था जबकि उसकी पकड़ से छूटती हुई रूबी बुरी तरह घबराई नज़र आ रही थी|
तभी एक नॉक के साथ केबिन का दरवाजा दुबारा खुलता है और उस पार से अरुण अंदर प्रवेश करता है| पहली नज़र में वह रूबी को उठ्ते हुए देख रहा था तो दूसरी नज़र ऑंखें तरेरते हुए आकाश पर जाती है|
अरुण तुरंत रूबी के पास आता उसे उठने में सहायता करता हुआ पूछता है – “आर यू ओके मिस रूबी ?”
रूबी घबराहट में बस हाँ में सर हिलाती अब खड़ी हो गई थी|
“गिर रही थी बेचारी |” आकाश अब तीक्ष्ण स्वर में कह रहा था|
रूबी खुद को संभालती हुई अब बाहर निकल जाती है| अरुण सोचता हुआ जाती हुई रूबी को देख रहा था जिससे आकाश पुनः अरुण की ओर देखता हुआ कह उठा – “लीव इट एंड स्टार्ट नेक्स्ट |”
***
वर्तिका बहुत देर तक मिस्टर श्रीवास्तव से सारे पुराने फोटोज खंगाल डलवाती है| आखिर बड़ी मुश्किल से उसकी नज़र में वे तस्वीरे आ जाती है जो भूमि की संस्था के पहले इवेंट की थी| एक एक करके वे सारी तस्वीरे देखने लगी थी| मिस्टर श्रीवास्तव हैरान हुए जा रहे थे क्योंकि वह इवेंट के बजाए उस इवेंट की अन्य तस्वीरो पर अपनी नज़र गडाए थी| ये तो बस वर्तिका ही जानती थी कि वह क्या तलाश रही थी|
आखिर एक अदद तस्वीर वो मिल ही गई जिसने रंजीतके अतीत की चुगली कर ही दी| उस तस्वीर में स्टेज के बगल के कोने में भूमि खड़ी थी और ठीक उसके बगल में रंजीतथा जिसकी नज़र स्टेज पर होनी चाहिए थी पर उसकी नज़रे तो बस भूमि पर टिकी थी| दो पल तक वर्तिका उस तस्वीर के अर्थ को अपने मन में तलाशती रही पर सिर्फ एक तस्वीर अपने आप में पूरी कहानी नहीं होती इसलिए वह इसे बस एक क्लू मानकर चलती है| फिर अगली एक और तस्वीर ने इस क्लू तक पहुँचने का उसे रास्ता दे दिया| वह तस्वीर थी स्टेज के सामने की कुर्सी पर बैठे एक शख्स की जिसे देखते ही वह पहचान गई|
“थैंक्यू श्रीवास्तव जी आपने मेरी बहुत हेल्प कर दी – |”
“जी जी |” वह भी आँखों से आभार प्रकट करता है|
“मुझे जरा जल्दी है – आप मेरी ओर से अपनी मैडम जी को भी थैंक्स कह दीजिएगा |”
“जी जी |”
इसके बाद तो वर्तिका भूमि के पास वापस न जाकर तुरंत ही संस्था से बाहर निकल जाती है|
***
जब से अरुण दादाजी का मंदिर सँभालने लगा था तब से वह शाम को जल्दी वापस आ जाता था| आते ही वह कमरे में पहुँचता नही कि पीछे से उजला चाय लिए हाजिर हो जाती| एक आदत सी हो गई थी उसकी मौजूदगी की| वह कपड़े चेंज भी कर चुका पर उजला अभी तक नहीं आई| उसका इंतज़ार नहीं था फिर भी वह क्यों नहीं आई इस बात से वह अपना ध्यान नही हटा पाया| एक दो बार बालकनी तक टहलते वह दो तीन सिगरेट भी पी गया फिर भी वह नहीं आई|
तभी एक आहट हुई और उसका ध्यान तुरंत दरवाजे की ओर गया|
“उजला..!”
“नहीं छोटे मालिक मैं देवेश |” वह आते चाय का कप उसकी नज़रो के सामने की मेज पर सजाते हुए कहता है – “कुछ और चाहिए आपको ?”
“उजला कहाँ है ?”
“पता नहीं दोपहर से देखा नही उसे छोटे मालिक|” कहता हुआ वह दो पल तक अरुण के सामने खड़ा रहा कि आगे वह कुछ कहे|
“ठीक है जाओ |” कहता हुआ वह देवेश को जाता हुआ देखते सिगरेट को बुझाकर दो क्षण रूककर कुछ सोचता रहा फिर तुरंत ही कमरे से बाहर निकल गया|
अरुण क्षितिज के कमरे तक आ पहुंचा था| उसे उम्मीद थी उजला वहां तो जरुर होगी पर वहां पहुँचते क्षितिज को उसके टूशन सर से पढ़ते देख वह उससे पूछने लगा – “क्षितिज तुमने उजला को देखा ?”
“नहीं चाचू – क्यों ?” वह भी वही सवाल कर रहा था जो अरुण खुद से नहीं करना चाहता था|
“कुछ नहीं – तुम पढ़ो |” कहता हुआ वह तुरंत ही उसके कमरे से निकलकर मुख्य हॉल की ओर बढ़ने लगा जहाँ उसे हरिमन काका आते दिख रहे थे| उसे नहीं पता वह क्यों उजला को खोज रहा था पर उसका न मिलना उसमे बेचैनी भर दे रहा था|
“काका |”
“हाँ बोलो बिटवा ?”
“वो उजला कहाँ है – मुझे कुछ काम था उससे |” अरुण भरसक अपने हाव भाव को सख्त किए रहा|
“उसे तो हम भी ढूंढ रहे तब से – वैसे कही जाती नहीं – हो सकता है पीछे गार्डेन तक गई हो – हम अभी ही देख कर आते है |”
हरिमन काका तुरंत ही बाहर जाने को व्यग्र होने लगे तो अरुण उन्हें टोकता हुआ कहने लगा – “आप रहने दीजिए – मैं गार्डन तक ही जा रहा हूँ देख लूँगा |”
कहता हुआ अरुण लम्बे लम्बे डग भरता हुआ मुख्य हॉल को पार करके बाहर निकलने लगा|
अरुण बाहर निकलकर गार्डन तक मुड़ा ही था कि कोई अहसास उसे अपने पैरो के आस पास तेजी से महसूस होने लगा| ये बडी था जो उसे देखते तुरंत उसकी ओर लपकता आ पहुंचा था| वह उसके पैरो के आस पास होता बार बार उसके पैरो के बीच से निकलने लगता तो कभी उसे पीछे की ओर धकेलने लगता|
“अरर रे बडी आज तुझे हुआ क्या है – छोड़ मुझे – अभी तेरे संग खेलने का मेरा कोई मूड नहीं |”
बडी ने जैसे उसकी बात सुनी ही नहीं बल्कि और ज्यादा उसकी ओर वह घुसने लगा| बार बार वह अरुण को पीछे धकेलता रोकने लगता तो कभी अपनी गले की बंधी चेन को उसके पैरो के इर्द गिर्द लपेटता हुआ जैसे उसे बांध ही लेता| इससे अरुण परेशान होने लगा| आज उसे बडी का बर्ताव बड़ा अजीब लग रहा था| हर बार जब वह बडी को झिड़क देता तो वह कोना पकड़े बैठ जाता लेकिन आज तो वह जैसे उसकी कुछ सुन ही नहीं रहा था| अरुण उसे बार बार अपने से पीछे धकेल रहा था पर जब बडी ने उसकी बात नहीं मानी तो वह बड़ी चालाकी से उसकी चेन का एक सिरा पास की झाड़ी पर फंसा देता है| अगले ही पल बडी की सीमा रेखा तय हो जाती है|
“मुझसे बदमाशी !! अब तब तक यहाँ बंधे रहो जब तक मैं वापस नहीं आ जाता |”
बडी अब अरुण तक नहीं पहुँच पा रहा था जिससे वह आगे की ओर झुका हुआ कू कू कू की दयनीय आवाज निकालने लगा| लेकिन इस बात को अनदेखा करता अरुण तुरंत ही जाने को ज्यो पीछे मुड़ता है सहसा चौंक जाता है| अचानक से उजला उसकी नज़रो के सामने थी| वह चौंक गया क्योंकि उसने उसे आते हुए देखा ही नहीं| आखिर कब और कहाँ से वह आई?
“तुम कहाँ थी ?” बिना सोचे आखिर वह पूछ उठा|
“कुछ काम था आपको ?” उजला ने उसके सवाल का उत्तर नहीं दिया|
“हाँ वो आरती का सामान नही मिल रहा था इसलिए |”
“लेकिन मैंने तो आरती की थाली तैयार कर दी थी |”
अरुण से अब कुछ कहते नहीं बना बस एक नज़र उसे देखता तुरंत ही वापस अंदर की ओर चल दिया| उसे जाता देखती उजला अब बडी की ओर देखने लगी जो अभी थी झुका हुआ कू कू की दयनीय आवाज निकाल रहा था| उजला उसकी ओर झुकती हुई उसकी गर्दन को सहलाती हुई उसे चेन से मुक्त कर देती है लेकिन वह उससे दूर नहीं जाता बल्कि उसके पैरो के पास ही लोटता हुआ अभी भी कू कू की आवाज निकाल रहा था|
‘क्या करूँ मन नहीं मानता न – किसी तरह दूर से ही सही बाबू जी को देख आती हूँ तो मन संभल जाता है – पता नहीं कब मेरे बाबू जी इस चिरनिद्रा से निकलेंगे|’ वह बहुत धीरे से अपनी बात कह रही थी और बडी भी अब उसकी ओर मुंह उठाए यूँ देख रहा था मानो उसकी सारी बात समझ रहा हो और उसे मौन ही ढाढ़स दे रहा हो|
लेकिन दोनों को ही नहीं पता था कि उन्हें दूर से ही अरुण देख रहा था ये बात अलग थी कि वह उजला की कही बात नहीं सुन पाया पर बडी का उजला के प्रति समर्पण वह हतप्रभता से देखता रहा|
क्रमशः……