Kahanikacarvan

मुफ़्त की मिठाई

मास्टर जी एक हाथ में साग की गड्डी और दूसरे हाथ में दो चार मूलिया थामे झूमते हुए अपने घर में प्रवेश करते है| मास्टर को देख आंगन में हाथ चक्की चलाती मास्टरनी रुक गई|

‘हाय दैय्या सब्जी तो घर पर रख्खी थी फिर काहे लई आए सब्जी |’ चक्की रोक मास्टर जी को तकती रही|

‘अरे कालू के बापू ने दी है |’ अपने पीले मटमैले दांत निपोरते हुए मास्टरनी के बगल में सब सामान रखते हुए बोले|

‘ओह्ह समझी – मुफ़्त में उठा लाए|’ कहती हुई पुनः चक्की चलाती रही|

‘काहे मुफ़्त में हुई जी ! ‘ मास्टर जी एक दम से भमक पड़े – ‘मास्टर हूँ जी जान से पढ़ाता हूँ उस पर थोड़ा कुछ विद्यार्थी  के माई बाप साग पत्ता दे दे तो का ये मुफ़्त में हुआ जी !’

मास्टरनी जी बहस के मूड में नहीं थी अपना ही बडबडाती हुई चक्की चलाती रही|

‘सब मुफ़्त में लगे है – यहाँ जान दे दे कर बच्चों को ज्ञान दे उसका कुछ नहीं|’

‘अरे रहने दो मुंह न खुलवाओ तुम तो लई आते हो सामान और तुम्हारे पीठ पीछे उनकी लुगाईयां कही मिलती है तो मुझे देख ठिठोली करती है लो मास्टरनी जी आ गई – कुछ चाहिए का ?’

मास्टरनी की सुन कमरे की देहरी पार करते करते मास्टर जी रुक गए फिर पलट कर जबाव देने में तुल गए|

‘काहे ठिठोली करे है – तुम भी कह दिया करो गुरु को गुरु दक्षिणा तो लगती ही है न|’

‘हूं – गुरु हर दम गाँव से गुज़रते खेत घूरे तो दक्षिणा तो देनी ही पड़ती है – कहे देती हूँ ऐसे ही मुफ़्त के चक्कर में कहीं किसी दिन लेने के देने न पड़ जाए |’

‘अरे जी तुम तो अपना ज्ञान रहने ही तो और चुपचाप अपना काम करो |’

मास्टरनी जानती थी कि वो जो कहना चाहती है उसे भूलकर भी मास्टर जी नहीं समझेंगे इसलिए चुप होकर अपना काम करने में लग गई|

मास्टर जी की अब ये आदत बन सी गई थी कि किसी भी अपने विद्यार्थी के परिवार वालों से किसी न किसी बहाने से कुछ न कुछ लेते रहते पर मास्टरनी  को ये कतई ना पसंद था पर कर भी क्या सकती थी|

होली आने को थी और मास्टरनी मास्टर जी को कब से मिठाई लाने को बोल रही थी|

‘ठीक है आज शाम ही ले आऊंगा|’ दांत पीसते हुए बोले

मास्टरनी अपनी कह कर चली गई पर मास्टर जी ने मन ही मन सोच लिया था कि होली की मिठाई भी कैसे मुफ़्त  में लानी है|

उनके एक विद्यार्थी लल्लन के पिता हलवाई थे| इस वक़्त वे अपने एक नए नौकर को अच्छे से डांट पिला रहे थे फिर गुस्से में बोले ‘ कमबख्त तुझे नमक और चीनी में फर्क नहीं लगता – सारे पेडे खराब कर दिए – अब जा यहाँ से |’ फिर मन में ही बुदबुदाते हुए – ‘अब इतने पेडे को कैसे बर्बाद जाने दूँ – चलो इसे सजाए देता हूँ – दूंगा किसी को नहीं – कम से कम दूकान तो त्योहार में भरी दिखेगी|’ पेडे सजा कर ज्यों ही पलटे ही थे कि कुछ आवाज़ सुनकर झटके से पीछे देखते है  कि लल्लन सीढ़ी से गिर पड़ा| वो दौड़ कर उसके पास पहुंचे|

‘अरे नालायक त्यौहार में ये क्या कर दिया – सब जान के दुश्मन बने है (गुस्से में भुनभुनाते हुए) चल दवा लगा दूँ|’

वहां पास में हाय तौबा करती लल्लन की अम्मा को थोड़ी देर दूकान में बैठने को कहकर चल दिए|

‘हे राम का हुआ मेरे लल्लन को|’ मुंह लटकाए लल्लन की अम्मा दूकान पर बैठ गई| यही वक़्त था जब मास्टर जी वहां से गुज़रे|

‘नमस्ते जी -|’

‘हाँ हाँ नमस्ते मास्टर जी|’

‘आज लल्लन के बापू कहाँ गए?’

‘हाँ वो अन्दर ही है ( सोचा कि अब क्या सुबह की हाय तौबा का सारा किस्सा उन्हें बताए)|’

‘और लल्लन की पढ़ाई कैसी चल रही है?’

‘यही तो मैं कहना चाह रहा था थोड़ा ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है ( फिर कुछ पल रुक कर) हाँ अगर थोड़ा मैं ही अलग से स्कूल में ध्यान दे दूंगा तो सुधर जाएगा|’

‘हाँ हाँ मास्टर जी थोड़ा देख लिया करो|’ हलवाईन तुरंत उचकी|

‘हाँ क्यों नहीं अच्छा (फिर थोडा मुंह बिचकाते हुए) चलता हूँ|’

‘कुछ चाहिए था का मास्टर जी!”

‘हाँ मास्टरनी ने मिठाई लाने को कहा था पर यहाँ आ कर देखा कि बटुआ तो मैं घर में ही भूल आया |’ अपने पूर्व अनुभवों का दांव लगा रहे थे

‘अरे बस इत्ती सी बात – अरे हमारी ओर से मास्टरनी जी के लिए मिठाई ले जाई |’

‘अरे आप भी |’ थोड़ा बेमन दिखाते हुए मुस्कराए|

हलवाईन  जल्दी से पेडे मिठाई के डिब्बे में बंद कर मास्टर जी को दे कर अपने खीसे निपोरने लगी|

मास्टर जी भी मन ही मन सोचे लो काम भी हो गया और लगभग दौड़ते हुए घर पहुंचे|

‘लो देखो मिठाई ले आया|’

मास्टरनी जल्दी से बाहर आई और सोचने लगी आज मास्टर जी ने कैसे इतनी जल्दी बात सुन ली ?

मास्टर जी शेर की तरह फ़ैल कर चौकी पर बैठ गए – ‘लाओ प्लेट पहले दो चार पेडे चखता हूँ|’

मास्टरनी जल्दी से प्लेट ले आई| मास्टर जी ने लपक कर प्लेट पकड़ी और दो चार पेडे निकाल कर गप्प से मुंह में धर लिए | मास्टरनी मुंह देखती रही और मास्टर जी ने एक एक करके झट से बहुत सारे पेडे निगल लिए कि तभी उनके चेहरे का रंग बदल गया | मुंह की हालात ऐसी थी न उगला जाए न निगला जाए | ऐसा लग रहा था जैसे नमक का पूरा पैकेट की निगल लिया हो |   

उधर मास्टरनी जी मास्टर के चेहरे को घूर रही थी ‘का हुआ ज्यादा मीठा है क्या!!

मास्टर जी को कुछ कहते न बना बस खिसियानी बिल्ली की तरह मास्टरनी का मुंह तकते रहे और मन ही मन मुफ़्त की मिठाई पर पछताते रहे|

@समाप्त..

6 thoughts on “मुफ़्त की मिठाई

  1. और गुरु दक्षिणा लो और सब का उल्लू काटो . मुफ्तखोरों को ऐसे ही रास्ते पर लाया जाता है पर हलवाईन से तो ये अंजाने में हुआ अगर हकीकत में होता तब तो सोने पर सुहागा होता
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