
शैफालिका अनकहा सफ़र – 19
नाश्ता खत्म करते करते मानसी शैफाली से पिछली रात का वाकया भी पूछ बैठी – “ये बताओ – क्या तुम उस पार्टी में से किसी को जानती थी ?”
शैफाली शब्दों से न बोलकर बस न में सर हिला देती है|
पर इससे मानसी एकदम से चौंकती हुई कह उठी – “तुमको पता भी है – वो किस तरह की पार्टी थी – कितनी बड़ी मुश्किल में फंस सकती थी तुम !!” शैफाली खामोश मानसी की ओर देखती रही – “वो तो कहो जय था उस समय तुमको पहचान गया और सुरक्षित वहां से निकालकर मोहित की हेल्प ली – पूरी रात मोहित तुम्हारे साथ बना रहा – मैं तो अभी आई हूँ सुबह – कम से कम किसी अजनबी पर विश्वास करने से पहले उसे परख तो लो |”
बेहद तनाव से अपनी बात खत्म करती शैफाली को घूरती रही जो बेहद शांत तरीके से कह रही थी –
“थैंक्स |’
“दोस्ती में नो थैंक्स नो सॉरी – लीव इट – |” मुस्कराकर मानसी शैफाली के हाथ पकडती हुई बोली – “अब बस आगे से ख्याल रखना और हाँ मैं तुम्हें एक कैब वाले शम्भू भईया का नंबर देती हूँ |” कहती कहती टेबल से मोबाईल उठा कर उसके बटन दबाती हुई बोली – “मैं इसमें फीड कर देती हूँ – जब भी तुम्हें कही भी जाना हो बस इन्ही को फोन करके बुला लेना – ये तुम्हारे लिए वेट भी कर लेंगे साथ ही नहीं जाने वाली जगह की जानकारी भी तुम्हें दे देंगे – बहुत विश्वसनीय है ये शम्भू भईया |” अपनी बात कहते कहते उसमे नंबर सेव करती हुई मानसी फुर्ती से खड़ी हो जाती है – “अब मैं चलती हूँ – तुम्हें कोई भी जरुरत हो मुझे कॉल कर देना – ओके टेक केअर – बाय|”
जितनी तेजी से अपनी बात कहती उसी तेजी से कंधे पर बैग टांगे मानसी बाहर की ओर निकल गई| उसके जाने तक हलकी मुस्कान की विदा के बाद शैफाली बहुत देर अपनी जगह बैठी निर्थक, निष्काम भाव से सामने के खाली कप को देखती रही| देखते देखते पिछली रात के कई चेहरे उसकी आँखों के सामने आने लगे और न चाहते हुए भी उसका मन तुलनात्मक होता खुद को खंगालने लगा, आखिर कितना फर्क है यहाँ के लोगों और लन्दन के लोगों में| रोजाना मिलने वाले भी कितने अजनबी रहते कि उसके लिए पहचाने और अनजाने चेहरों में कोई ख़ास फर्क नही होता| रात की पार्टी के बाद सब तितर बितर होते अगली रात तक जैसे किसी अनजाने ब्लैक होल में समाए रहते कि उनका उसके आस पास होना किसी अदृश्यता की तरह होता पर इसके विपरीत यहाँ के लोग कितने सहजता से निकट आते कि अजनबीपन की लेश मात्र भी गंध नही छोड़ते, उसे इस पल भावना और मानसी में कोई फर्क नज़र नही आया| मोहित कौन है क्यों सारी रात उसकी देखरेख करता रहा पर हाँ उसका सामने होना उसे अच्छा लगा था| सोचती सोचती वह कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाती ड्रावर की ओर हाथ बढाकर उसमे से सिगरेट और लाइटर निकाल लेती है| अपने अभ्यस्त हाथों से सिगरेट को जलाकर होठों के बीच रखते एक गहरे कश के साथ वह हौले से आंख बंद करती जैसे निज एकांत में और गहरे समा जाना चाहती थी|
पूरा दिन एक कमरे से दूसरे तीसरे कमरे में टहलती आज बहुत करीब से वह हर दीवार को निहार रही थी जैसा उसने पहले कभी देखा| भावना और पवन नामौजूद होते हुए भी हर जगह उपस्थित थे| कमरे की दीवार पर उसकी शादी की तस्वीर से लेकर कुछ ख़ास लम्हों की तस्वीर जैसे हर कोने से उसे निहार रही थी| भावना हर तस्वीर में अपनी भरपूर मुस्कान से पवन के साथ थी मानों उसकी समस्त दुनिया पवन के अलावा अन्यत्र कही न हो, मानों अपने ग्रह की धुरी वह खुद हो| कुछ पल बिताने वह बालकनी में बैठी रही, इस तरह इधर उधर करती वह खुद से कोशिश करती रही कि शराब न पिए, पर दोपहर होते होते मौसम की तल्खी और सख्त हो उठी| उसके लिए दिल्ली की उमसभरी गर्मी को बदार्श्त करना असहज हो रहा था, बार बार ठंडा पानी पीते हुए भी उसका गला सूख रहा था, दो बार ठंडा शावर भी ले चुकी पर बहुत कोशिश करने पर भी आखिर ठंडी बिअर को आधा हलक में उतारकर ही चैन पाती है|
शाम तक उसी बिअर को बार बार एक एक घूंट से वह किसी तरह पीती रही जबकि उसे पता था शाम को बिना वाइन के उसे नींद आना भी मुश्किल है, कई बार अपनी इस तड़प पर उसे गुस्सा भी आता कि आखिर क्यों करा रही है वो ये सब खुद से !! उनके लिए !! जो कब तक रहेंगे उसके जीवन में !! फिर क्या होगा ? वही लन्दन की लम्बी शाम और दोस्तों का झूमता हुआ झमघट तब यही तो जरिया होगा उसे उनके बीच बनाए रखने का ! इतना सोच लेने पर भी खुद पर नियंत्रण कसे रही आखिर रात को थोड़ी सी वाइन हलक में उतारकर बहुत जल्दी बिस्तर पर चली गई| काफी देर करवट बदलते बदलते रात के दूसरे तीसरे पहर में नींद आखिर उसकी आँखों को बोझिल बना ही देती है|
सुबह कब हुई उसे दरवाजे की लगातार की कॉल बेल से अंदाजा हुआ| बहुत देर से बजती कॉल बेल को सुनते बिस्तर छोड़कर वह दरवाजे की ओर लपकती है| दरवाजा के पार वही मुस्कराता चेहरा देख उसके उनींदे चेहरे पर भी मुस्कान आ जाती है|
मानसी झटपट अन्दर आती हुई कह रही थी – “अब कैसी हो – क्या करूँ कल यहाँ से निकलती इतनी बिजी हो गई कि चाहकर भी तुमसे मिलने एक बार भी न आ सकी – खैर अभी तुम फटाफट तैयार हो जाओ – तुम्हें चलना है मेरे साथ |”
अपनी आदतन झटपट बोलती शैफाली का चेहरा देखती है जिसके हाव भाव में क्यों तैर गया था|
“अरे चलो तो और ब्रेकफास्ट किया तुमने |” फिर मौन ही सर न में हिला देख मानसी कह उठी – “ओके तुम तैयार हो – मैं……..अरे छोड़ो मुझसे अच्छा तो तुम्ही बना लेती हो |” एक लम्बा पॉज़ देती मानसी जिस तरह अपनी बात खत्म करती है उससे उसकी बेचारगी देख शैफाली को हँसी आ जाती है|
“गिव मी टेन मिनट |”
शैफाली के कहते मानसी अबकी बिन शब्द के हाँ कहती आराम से कमरे में बैठ जाती है|
पंद्रह मिनट के अन्दर ही शैफाली तैयार मानसी के सामने खड़ी थी, उस समय कफ्तान ड्रेस उसे वहां के मौसम के हिसाब से बिलकुल मुफीद लगी| मानसी उसे लिए फ्लैट लॉक करती लिफ्ट से बाहर निकलती उसे स्कूटी में लिए आराम से वहां के फसाऊ ट्रेफिक से निकलकर अब किसी पौश इलाके तक आ पहुंची थी| पीछे बैठी शैफाली अब आस पास देखकर उस अनजान जगह का अंदाजा भर लगा रही थी फिर किसी गेट के सामने स्कूटी खड़ी कर रूकती हुई कहती है – “ये मेरा घर है – सोचा किसी रेस्टोरेंट में खिलाने के बजाए मौसी के हाथ का खिलाती हूँ – चलो |”
शैफाली चुपचाप उसके पीछे पीछे चलती हुई लॉन पार करती बंगले में दाखिल होती है| दरवाजे तक पहुंची भी नहीं कि सामने से आते कमिश्नर साहब को देख वही ठिठक गई फिर उनसे मुस्कान मिलते उनकी एक बांह में लगते बोल उठी – “पापा |”
शैफाली वही ठहरी अब सामने देखती है पुलिस ड्रेस में वे मानसी के पिता थे ये अंदाजा वो लगा चुकी थी| कमिश्नर साहब भी उसकी ओर प्रश्नात्मक देखने पर मानसी आगे बढ़कर शैफाली की ओर इशारा करती कहती है – “पापा ये मेरी दोस्त शैफाली है |”
शैफाली उनसे निगाह मिलते अदब से गुड मोर्निंग कहती है|
“गुड मोर्निंग बेटा – और मानसी आज भी बिना नाश्ता किए कहाँ चली गई थी तुम -?”
“पापा शैफाली को ही तो लेने गई थी – घर पर अकेली थी – अब आ गई हूँ न तो साथ में नाश्ता कर लेंगे |”
“गुड टेक केअर बेटा |” कहते जल्दी से बाहर की ओर बढ़ जाते है|
मानसी भी उन्हें झटपट बाय बोलती शैफाली के आगे आगे चलती लिविंग रूम तक आते उसे बैठने को कहती अन्दर की ओर तेजी से दौड़ जाती है| उसके चंद ही क्षण बाद मानसी उसे लिए डाइनिंग टेबल पर बैठी होती है और उनके बगल में खड़ी सुनीता मौसी बड़े प्यार से उसकी प्लेट पर डोसा सजा रही थी| शैफाली प्लेट में रखे उस खाद्य वस्तु को असहजता से देख रही थी|
इसके विपरीत मानसी बोलने में लगी थी – “मौसी ये सिर्फ न आप ही कर सकती है – इतनी जल्दी बना भी दिया – मुझे तो सौ साल लगते इसलिए तो शैफाली को ले आई यहाँ – शैफाली |” कहते कहते वह शैफाली की ओर देखती है – “खाओ न – |”
सुनीता मौसी के चेहरे पर आत्मीय मुस्कान उफान पर थी वे कुछ और लेने फिर रसोई की ओर चल दी| शैफाली मानसी की बात सुन टेबल के मध्य में स्टैंड पर रखी फोर्क उठाकर फिर रूककर उस बड़े से रोटी नुमा चीज को देखती है|
उसे छोड़ मानसी हाथ से ही डोसा तोड़ तोड़कर खाने लगी थी| शैफाली एक क्षण उसकी ओर देखती डोसे का एक टुकड़ा फोर्क में फसाकर सब्जी में डीप कर जबान के बीच में लेती ही है कि उसे बड़ी तेज पानी की तलब लगती हो| जिससे मेज पर रखा गिलास दो चार बड़े बड़े घूंट में वह पी जाती है|
“क्या हुआ तीखा है !!” अबतक सुनीता मौसी उसके सामने आती उसकी हालत समझ गई और झट से उसके सामने की प्लेट लेती अन्यत्र प्लेट उसके सामने रखती हुई कहने लगी – “अरे मुझे पता ही नही था कि तुम तीखा नही खाती हो – मानसी को तो तीखा ही पसंद है – ये लो सादा डोसा – इसे खाओ |”
“अभी लन्दन की जबान में यमुना का पानी कहाँ चढ़ा है ?” कहकर मानसी हँस दी |
“अच्छा लन्दन से आई है तुम्हारी दोस्त – वैसे मैं देखकर पूछने ही वाली थी|” मौसी उनके सामने बैठी बातों के मूड में आ चुकी थी|
“अरे मौसी ये भावना की बहन है अभी इस समय वो पवन के साथ गोवा गई है न तो घर पर अकेली थी तो मैंने सोचा यहाँ लिवा लाऊ |”
“अच्छा तो अकेली है और फिर खाना कैसे करती होगी – क्या खुद बनाती है ?”
मौसी का प्रश्न सुन मानसी खुद अवाक् सोचती रही तो शैफाली बीच में कह उठी – “मैं कर लेती हूँ मेनेज |”
“पहले क्यों नही बताया – लन्दन से बिचारी यहाँ बहन के पास खटने थोड़े आई है – घूमने आई होगी – मानसी अब से रोज तीनों समय का मैं बना दूंगी और भिजवा भी दूंगी |”
“इसकी कोई जरुरत नही है |” शैफाली को ये अटपटा सा लगा|
पर ये सुन मानसी झट से अपनी कुर्सी से उछलती हुई बोली – “हाँ ये तो मैंने सोचा ही नहीं – ये ठीक रहेगा |”
“इसकी कोई जरुरत नही है मानसी|” शैफाली फिर अपनी बात दोहराती है पर किसी की न सुनने वाली मानसी अब कहाँ सुनने वाली थी|
“बस बस तय हो गया – भिजवाने का मैं देख लुंगी – मौसी बस आप टिफिन तैयार कर दीजिएगा – ओए कहाँ चले ?”
अचानक मानसी की आवाज का बदले टोन से उसकी निगाह से बाकि दोनों जोड़ी ऑंखें देखती है एक किशोर लड़का चुपचाप उनके पीछे से निकल जाना चाहता था पर मानसी की नज़रों द्वारा पकड़ लिया गया था|
अब मानसी पूरी तरह से तैनात खड़ी उसकी ओर अपनी नज़रे गडा देती है |
“कही नही दीदी बस बाहर गार्डन तक जा रहा था |”
“हाँ फालतू कहीं जाने की जरुरत भी नहीं है – तुम्हारी कोचिंग के लिए मैंने किसी से बात कर ली है शाम को मेरे साथ तुम चलोगे समझे |”
“पर..|”
“अब अपनी कोचिंग नहीं जाओगे तो वही चलोगे समझे |”
अब उसके पास कहने को कुछ नही रहा और उसे पता था मानसी के आगे कुछ कहने का फायदा भी नही, इसलिए चुपचाप उसके सामने से जाना ही उचित समझा उसने|
शैफाली धीरे धीरे खाती हुई हैरान सारी गतिविधि देखती रही|
क्रमशः…………………………….