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शैफालिका अनकहा सफ़र – 29

जाने के लिए शैफाली ने भावना का रखा हुआ सलवार कुरता पहना| ढलती दुपहरी में दोनों आगे पीछे हुए खेतों की ओर चल रहे थे, शैफाली मोहित के पीछे पीछे चलती अपने आस पास देखती हुई चल रही थी, घरों को पार कर वे किसी तालाब से गुजरकर अब खुले स्थान की ओर बढ़ चले थे जहाँ दूर से ही लहलहाते खड़े खेत दिख रहे थे, मोहित चलते हुए दूर से ही फसलों के नाम बता रहा था तो शैफाली औंचक उसे सुन रही थी, मक्के के खेतो के पास पहुँचते घेरने को लगाई गई झाड़ी से गुजरते शैफाली का कभी कुर्ता खिचने लगता कभी दुपट्टा उलझ जाता, मोहित बड़ी देर से देख रहा था कि अपने कपड़े समेटते किसी तरह से उनसे बचती हुई वह चल रही थी| अबकि उसका दुपट्टा बुरी तरह से उलझ जाता है जिससे रुककर वह उसे छुड़ाने लगती है तो मोहित उसके पास आता उसका दुपट्टा झाड़ियों से धीरे से निकालता हुआ कहता है – “तुमसे किसने कहा इस तरह के कपड़े पहनने को – जिसमें तुम कम्फरटेबल हो वही कपड़े पहनो|” उसका दुपट्टा झाड़ियों से निकलकर अब उसके हाथ में था, उसकी निगाह मोहित पर टिकी थी पर बिना उसकी ओर देखे वह दुपट्टे के दो विपरीत छोर का कोना आपस में गुथकर गांठ बांध कर आधा आधा उसके कंधो पर इस तरह डाल देता है कि अब दुपट्टे के सरकने की गुंजाईश ही नही रहती|

“लो अब टिका रहेगा|”

शैफाली अब अपने कंधे पर टिके दुपट्टे को देख सच में चहक पड़ती है – “वाह – ये किस स्कूल से सीखा?” उसकी ऑंखें अभी भी मोहित की आँखों पर टिकी थी जो उसकी आँखों से बचती अन्यत्र भटक रही थी|

उसके दुपट्टे में फंसे आखिरी घास के तिनके को निकालते हुए कहता है – “मेरी माँ ऐसे ही दुपट्टा लेती थी|”

कहते हुए वह उसकी ओर देखता है, शैफाली देखती है कि वे ऑंखें कुछ पनीली हो आई थी|

“मेरी माँ स्कूल में पढ़ाती थी – मैं उन्हें हमेशा ऐसे ही दुपट्टा डालते हुए देखता था |” मोहित वही पक्की ईंट के मेंढ़ पर बैठ जाता है|

उसके बगल में शैफाली भी बैठी मोहित को सुन रही थी जो कहीं खोया खोया बस कहे जा रहा था – “मोगा में मेरी माँ और पिता रहते थे – दोनों अध्यापक थे और मैं वही पढ़ता था बस जब भी छुट्टी मिलती हम तीनों यही गाँव आ जाते – यही मेरी दुनिया थी पर एक दिन मोगा से आते सर्दियों के कोहरे या जाने किस वजह से बसों की टक्कर हो गई – उनमें से एक बस में हम तीनों थे – पता नहीं होनी क्यों हर बार काल के पंजों से मुझे सरक जाने देती है शायद जीवन की सारी विद्रूपताओं को झेलने के लिए|” खुद पर हँसते हुए वह कहता है|

शैफाली हतप्रभ उसे सुन रही थी वे बोलती ऑंखें कहते कहते रक्तिम हो गई थी|

“माँ और पिता के बाद फिर कभी मोगा नहीं गया यही रह गया|”

“तुम अपनी माँ को बहुत याद करते हो !”

“हाँ |” अबकि वह उसकी आँखों में देखता है – “बहुत ज्यादा – काश वे अभी होंती|” उसके शब्द भर्रा गए थे|

कुछ पल तक उनके बीच ख़ामोशी रही जैसे उस ख़ामोशी में मोहित कोई प्रार्थना कर रहा था, शैफाली भी मूक सामने खेतों की ओर अपलक देखती रही|

“तुम्हें भी तो अपनी माँ याद होती होगी !!” प्रश्न करते हुए अबकि वह उसके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश करता है|

“नही |” वह दो टूक उत्तर देकर फिर खामोश हो जाती है|

मोहित हैरत से उसके चेहरे पर आई अनायास कठोरता को देखता रहता है|

“नही याद आती क्योंकि मुझे उनकी शक्ल भी नही याद – मैं नौ साल की थी मुझे हॉस्टल भेज दिया गया क्योंकि मेरे सो कॉल पेरेंट्स के पास मुझे सँभालने के लिए समय नहीं था – फिर बस खबरे आती थी वे नही – एक खबर सुनी कि उन्हें कैंसर हो गया जिससे वे बीमार रहने लगी फिर सुना मिस्टर सेन बिजनेस मीटिंग में थे जब वे गुजर गई – उन्हें भी एक दिन बाद पता चला – तो सोचो वो खबर मेरे पास कब आई होगी – मैं न उन्हें देखने गई न किसी ने बुलाया – फिर एक दिन मिस्टर सेन भी नही रहे – मैं तब भी नही गई पर मेरे लिए वे बहुत सारी दौलत छोड़ गए बस वही मुझे अपना सा लगा जिसे लेने के अधिकार से मैं यहाँ आई |” बेहद तल्खी से वह अपनी बात खत्म कर मोहित की आँखों में देखती है जो उसी की ओर तक रही थी| दोनों की पनीली आँखों मानों पहाड़ों से विपरीत दिशा से उतरती नदियाँ थी जो अवश एक दूसरे से आ मिली थी|

दोनों ने एक साथ थूक की गटकन से अपना सूखा गला तर किया और दोनों के मुंह से एक साथ स्वर फूटा तो दोनों के चेहरे पर एक फीकी हँसी तैर गई|

“कभी कभी वक़्त के निर्मम फैसले बस मानने पड़ जाते है पर जीवन तो नही रुकता|” मोहित सामने दूर तक देखता कहता रहा – “जाने वाले चाहे जैसे भी गए हो पर सच यही है कि वे किसी हाल में भी वापस नही आते पर उनकी यादें जीवन जीने का सहारा बन सकती है – तभी मैं यहाँ आता हूँ और अपना गुजरा वक़्त याद करके हमेशा उनसे जुड़ा हुआ महसूस करता हूँ|”

“पर मेरे पास याद रखने को ऐसा कुछ भी नही है|” शैफाली एक पल मोहित की ओर देखती कहती हुई उठकर चलने लगती है| उठकर मोहित भी उसके साथ हो लेता है, अब दोनों साथ साथ थे| चलते चलते शैफाली मोहित से कहती रही – “तुम्हारा परिवार सच में बहुत अच्छा है – थैंक्स मुझे यहाँ लाने के लिए|”

“वैसे सच कहूँ मुझे लगा नहीं था कि तुम यहाँ सहज रह पाओगी|”

वह रूककर एक क्षण उसकी ओर देखती है जो कह रहा था – “सभी बड़ी तारीफ करते है तुम्हारी |”

“चलो तुम्हें यकीन तो हुआ कि मैं यहाँ ठीक से चल पाऊँगी|” कहते कहते वह मोहित से तेज कदम बढ़ाती आगे आगे चल देती है|

अब वे चलते चलते फिर तालाब तक आ गए थे और वहां की कुछ गीली कुछ सूखी मिट्टी से अचानक उसका पैर लड़खड़ा जाता है, वह बस गिरने ही वाली थी पर उस पर अपनी नज़र गड़ाए मोहित तेजी से आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लेता है फिर भी उसका एक पैर मिट्टी पर थोड़ा फिसल जाता है जिससे उसकी सलवार के पायचे पर मिट्टी लग जाती है| शैफाली को अहसास नही था कि उसके पीछे पीछे चलते मोहित का ध्यान उसपर होगा, वह अवाक् देखती रह गई| उसके संभलते वह उसका हाथ खींचता हुआ अब उसे पूरे सूखे स्थान की ओर खीँच लेता है|

शैफाली देखती है कि मोहित धीरे धीरे हँस रहा है इससे चिढ़कर वह उसका हाथ झटके से छोड़ देती है जिससे डगमगाती वह एकदम से नीचे गिर पड़ती है| अब अपनी हालात पर शैफाली की भी हँसी छूट जाती है| उस एक क्षण दोनों कसकर हँस पड़ते है|

“हो गया अब इधर आओ|” शैफाली फिर उसका बढ़ा हाथ थाम लेती है, वह उसे सैंडल उतारने को कहकर नंगे पैर ही तालाब की गुदगुदी मिट्टी पर चलाता लाता उसके कुर्ते पर लगी मिट्टी धोने लगता है| उसका दुपट्टा पेड़ की ओट लिए जैसे दोनों को शरमा कर देख देखकर खुद में ही सिमट जाता था|

अगले ही पल जाने किस मदहोशी में वे दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़े तालाब के किनारे किनारे की मिट्टी पर साथ साथ चलते चलते वह उसे बताता जा रहा था कि बचपन में इसी तालाब के पानी के किनारे  पहरों बैठकर वह अपना समय बिता देता पर उसका मन कभी नही भरता|

कुछ पल ठहरे वह तालाब की तरफ मुंह किए सामने एकटक निहारता रहता है|

“भलेहिं हम उस जमीं में न उगे हो….

फिर भी हमारी जड़ें वहां मिलनी चाहिए…..

हमारी ढ़ेरों रंगीन तस्वीरों में कुछ…..

ब्लैक एंड वाइट तस्वीरें भी रहनी चाहिए……

पापा की व्यस्तता, माँ की नौकरी, छुट्टी का अभाव…..

फिर भी एक दिन तलवों पर मिट्टी की परतें चढ़नी चाहिए….

गड गड, तड तड की फैली आवाजों में कभी…

टुल्लू की आवाज भी घुलनी चाहिए…..

पत्थरों पर चलते चलते कभी..

काटों में भी उतरना चाहिए….

सूखी पड़ी आँखों में कभी…..

चूल्हे के धुंए से आंसू भर आने चाहिए….

कभी खुद को भी आईने के सामने रखना चाहिए…

इसलिए एक गाँव होना चाहिए……एक गाँव होना चाहिए…|” मोहित कविता कहता कहता तालाब में चलने लगता है|

शैफाली एकटक मूक उसे सुनती रहती है, मोहित चलता चलता अब दूसरे छोर तक चला गया था, वह शैफाली से जोर जोर से बोलकर कह रहा था – “पता है मैं यही रहना चाहता हूँ – लौट आना चाहता हूँ अपने घर|” 

“और मैं भी – मुझे भी यहाँ एक बार फिर आना है|”

“अच्छा अबकि पूरी तैयारी से आना ताकि फिर दुपट्टा न फंसे तुम्हारा|”

इसपर दोनों उस ढलती दुपहर के नारंगी बादलों की छांह में साथ हँस पड़ते है|

आसमान से धीरे धीरे सरकता सूरज क्षितिज की ओट में छुपा जा रहा था, शैफाली के कपड़ों में लगी मिट्टी मोहित तालाब के पानी से किसी तरह साफ़ कर देता है साथ ही खुद के कपड़ों पर लगी मिट्टी भी साफ़ करता है जिससे दोनों के कपड़े गीले हो चुके थे| दोनों की हालात देख अपने सर पर हाथ मारते मोहित धत कहता है तो शैफाली का ध्यान उस पर जाता है उसकी आँखों के प्रश्न को सुलझाते वह इतना कहता है कि सारे मेहमान आ चुके होंगे और ऐसी हालत में हम ऐसे गए तो पक्का अच्छे से बाल की खाल निकाल लेंगे सब|

“तब !!” शैफाली उसकी और देखती हुई अब तालाब से दूर होती सूखे स्थान पर आती अपनी सैंडिल पहनने लगती है|

वो मोहित का चेहरा देखती रही और वह सोचता हुआ कही और देख रहा था| फिर जाने क्या सोच उसका दुपट्टा जो अभी पास के पेड़ पर टंगा था उठा लाया और खोल कर उसको ओढा दिया, जिससे शैफाली औचक उसकी ओर देखने लगी|

“देखो कुछ समय की बात है – बस ऐसे ओढ़ लो – गाँव में निकलने तक थोड़ा दूर दूर चलना किसी को शक नही होगा – बस थोड़ा ध्यान से चलना मैं तुम्हारे पीछे रहूँगा |” फिर उसको ओढ़ाकर उस झीने  परदे के भीतर झाँककर उसकी नीली आँखों को तलाशता हुआ पूछता है – “तुम्हें दिख तो रहा है न !!”

इस पर मुस्कराती हुए वह हाँ में सर हिला देती है|

सच में उनका आइडिया काम कर गया| गाँव से गुजरते एक दो लोगों ने उनकी ओर देखा, किसी ने मोहित का हालचाल भी लिया पर शैफाली का उसके साथ होना कोई समझ नहीं पाया अब वे आंगन की पिछली दीवार से सटे खड़े थे| शैफाली आँचल हटा कर मोहित के बगल में खड़ी पूछती है – “अब !!”

मोहित आंगन के भीतर झाँकने की कोशिश करता उसको चुप रहने को उसका बाजु कस कर थाम लेता है| वह चुप होती ओढ़नी की छाया से उसे देखने लगती है|

मोहित चुपके से अन्दर का जायजा लेता पीछे सरकता हुआ कहता है – “मर गए सब वापस आ गए – और इस समय तो सारे के सारे आंगन में डेरा डाले बैठे है |” बाकि के शब्द मन में ही दोहराता है ‘परजाई जी की तीनों बहने भी आ गई अगर इन तीनो ने मुझे शैफाली के साथ देख लिया तो बस…|’

वह पलट कर बेचारगी से शैफाली की ओर देखता है जो अभी भी सर पर ओढ़नी डाले थी| मोहित कुछ समझ नहीं पा रहा था कि क्या करे, इसी सोच में उसे ख्याल ही नहीं था कि वह शैफाली की बांह अभी तक थामे था, शैफाली भी ख़ामोशी से उसके साथ खड़ी थी|

जब वे दोनों कुछ सोचते किसी खट की आवाज से वे डर कर अपने पीछे देखते है| पीछे छोटा सरदार हैप्पी सिंह जी अपनी साईकिल में खड़े उन्ही दोनों को घूर रहे थे| वे दोनों भी किसी मुजरिम की तरह एक दूसरे का हाथ छोड़ उसकी ओर मुड़कर सीधे खड़े हो जाते|

हैपी साईकिल के हैंडिल पर अपनी हथेली पर अपनी ठोढ़ी टिकाए उनकी ओर देख रहा था|

मोहित थोड़ा सँभलते हुए उसको ऊपर से नीचे देखता है, हैपी शायद खेल कर वापस आया था, उसके कपड़े भी थोड़े गंदे थे, साईकिल भी बुरी तरह से गन्दी थी ये देख वह अपने चेहरे पर कठोरता लाता हुआ कहता है – “ये क्या हाल बना रखा है – ?”

“असी तो रोज का काम है – तुसी कहो चाचू?”

मोहित उसकी बात सुन अपनी बगले झांकता रह गया|

“ठीक है – मैं जा रिहा हन पर मैं त्वाडी हेल्प कर सगदा हा|” धीरे से अपनी साईकिल पीछे करता कहता है|

“अच्छा – रुक जा भाई|’ मोहित का गिडगिडाता चेहरा देख हैपी मुस्करा देता है|

“तो चाचू हुण कमाल देखो|” एक शैतानी भरी मुस्कान उसके चेहरे पर दमक आई| “असी अहसान याद रखना|”

कहते हुए पलटता वह छोटी सी एक आंख दबा लेता है जिसपर शैफाली चुपचाप सब देख दबी हँसी से हँस पड़ती है पर मोहित के चेहरे की हवाइयां उडी थी कि जाने क्या होगा अब !!

पर हैपी अपनी ही धुन में साईकिल में पैडल मारता आंगन की ओर साईकिल बढ़ा देता है, वहां सभी अपने में मस्त थे| दार जी के आस पास घर के बड़े बैठे थे तो उनके आस पास मौजूद बाकि के लोग अपना अपना झुण्ड बनाए हँस बोल रहे थे, किसी का ध्यान हैपी पर नही गया वह साईकिल चलाता आंगन के दाएं तरफ अपनी साईकिल गिरा कर अचानक तेजी से जोर से चिलाते हुए जान कर जमीं पर गिर पड़ता है|

आवाज सुन सभी का ध्यान उसकी ओर जाता है तो सब उसकी ओर तेजी से भागते है| इरशाद झुककर उसे उठाता तो जोगिन्दर भाई उसकी साईकिल खड़ी करते है, दार जी भी छड़ी टेकते वही आ जाते है  अब आंगन के सारे के सारे लोग उसे घेरे खड़े उसी की ओर देख रहे थे, यही मौका देख मोहित शैफाली का हाथ पकड़े आंगन के बाएँ हिस्से से प्रवेश करता हुआ चुपचाप तेजी से अन्दर आता हुआ उसे कमरे की ओर छोड़ झट से दूसरी ओर चुपचाप निकल लेता है| कमरे के अन्दर आते शैफाली एक दम से पीठ के बल बिस्तर कर गिर पड़ते पेट पकड़ कर हँस हँस कर अकेले ही दोहरी होती रही| इधर मोहित भी आंगन से गुजरते आज का याद कर अपने में ही मुस्कराता हैपी की ओर देखता हुआ आंगन से गुजरने लगता है|

———————क्रमशः

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