पूरी चिट्ठी को पीडीऍफ़ पर डाउनलोड करने से पूर्व तसल्ली के लिए उसे एक नज़र पढ़ते है – ‘प्रिय बेटी भावना…..मुझे पता है कि मैं पिता कहलाने लायक नहीं पर शायद अपने खून के वास्ते जो एक कतरा भी अधिकार है आज उस अधिकार से तुम्हेँ ये चिट्ठी लिखने का हौसला कर पा रहा हूँ – हो सकता है जब तक ये चिट्ठी तुम तक पहुंचे मैं इस दुनिया में न रहूँ और ऐसा होना भी चाहिए आखिर किस मुंह से मैं तुम्हारी नज़रों का सामना कर पाता, जिंदगी भर जिस दौलत के पीछे मैं भागता रहा आज अपने अंतिम क्षणों में सिर्फ यही मेरे पास बची रह गई – रिश्ते, प्रेम, विश्वास सब कुछ मैं अपनी जिंदगी से खो चुका हूँ – बेटी मैं वो अभागा पिता रहा जिसे ईश्वर ने दो दो बेटियों का मोती दिया पर खुद को ही मैंने इस सुख से वंचित कर लिया – मुझे पता नहीं कि तुम्हें कितना और क्या पता है अपने पिता के बारे में पर आज मैं वो सब कुछ कहना चाहता हूँ जो मुझे तुम्हारी नज़रों में चाहे सबसे बड़ा अपराधी ही क्यों न साबित कर दे फिर भी मैं आज स्वीकार करता हूँ कि अपने दौलत के नशे में चूर अपनी छह महीने की बेटी और निरपराध पत्नी का त्याग करके भी मेरा मन न पसीजा – तुम्हारी माँ सुमित्रा ने तब बहुत कोशिश की कि किसी तरह से मैं भारत में अपने परिवार के पास वापस आ जाऊं, इसके लिए कितनी चिट्ठियां लिखी, कसमे दी पर दौलत की अंधभक्ति ने मेरे सामने के सारे रिश्ते नाते धुंधले कर दिए और मैंने बिना किसी हिचकिचाहट के अपने पीछे तुम दोनों को छोड़कर यहाँ लन्दन आकर अपनी नई दुनिया बसा ली – अपने ही बॉस की इकलौती बेटी से शादी कर यही बस कर रह गया – तब ये न सोचा कि तुम दोनों कैसे किस हालत में रह रहे होगीं – मैं तुम्हारा भी उतना ही गुनाहगार हूँ जितना सुमित्रा का – मैं चाहता हूँ बेटी कि तुम मुझे कभी माफ़ मत करना – मेरी आत्मा को कभी तृप्ति नहीं मिलनी चाहिए…हाँ…मैं यही चाहता हूँ..वो तड़प…वो दर्द मुझे मृत्यु के बाद तक सालना चाहिए लेकिन जाते जाते मैं अपना एक गुनाह सुधारना चाहता हूँ, मैंने अपनी एक बेटी के साथ तो नाइंसाफी किया तो कम से दूसरी की बर्बाद होती जिंदगी तो बचा सकूँ और वो तुम्हारे बिना तो संभव ही नहीं – हाँ एंजिला से मुझे जो बेटी मिली मैंने उसकी भी कोई कद्र नहीं की – एंजिला कैंसर से सात साल की शैफाली को छोड़कर सदा के लिए चली गई और मैं नालायक पिता अपनी इस बेटी को भी न सम्भाल सका – अपने बिजनेस के जूनून में शैफाली को हॉस्टल के हवाले कर अपनी जिम्मेदारी से खुद को मुक्त कर लिया जिसकी सजा मुझे शैफाली की मेरी तरफ की बेख्याली के रूप में वापस भी मिल गई – होना ही था – कब तक अपने कर्मो से फल से बचता मैं – शैफाली जो मुझे मिस्टर सेन बुलाती है – पहले मैंने उसे अपने से दूर रखा और अब वो मेरे पास नहीं आना चाहती – अपने किन्ही दोस्त के साथ रहती है – जब पैसों की जरुरत होती है तो उसका एक ईमेल आता है बस हमारे रिश्ते का एकमात्र यही तार शेष है खैर हैरान होने वाली बात भी नहीं – जिस संस्कृति में पली बढ़ी है उससे और क्या अपेक्षा रख सकता हूँ मैं – आज मेरे अंतिम समय में भी वह अपने दोस्तों के साथ पार्टी में व्यस्त है – खबर भेजी फिर भी नही आई – मुझे तो अपने किए का दंड मिलना ही चाहिए लेकिन शैफाली का जीवन क्यों मेरी अनदेखी की आंच से तपे इसलिए मैं हाथ जोड़कर तुमसे एक मात्र गुज़ारिश करता हूँ कि तुम उसे अपने पास रख लो – मुझे पता है सुमित्रा के संस्कार जो तुम्हे विरासत में मिले होंगे उनकी एक झलक भी शैफाली पर पड़ गई तो मैं खुद को इस पाप से कुछ हद तक मुक्त समझ लूँगा – इसके संभव होने का रास्ता भी मैंने निकाल लिया है – मैंने अपनी वसीयत सशर्त उसके सामने रखी है जिसमें उसे मेरी संम्पति पाने के लिए भारत आकर तुम्हारे संरक्षण में कम से कम छह महीना रहना होगा और उसके बाद तुम्हारी सर्वसम्मति के बाद ही उसे अपने हिस्से की सम्पति मिलेगी – बेटी तुम इसे मेरा स्वार्थीपन मानों पर अपने जाते पिता की ये आखिरी विनती मान इसे अस्वीकार मत करना – तुम्हारा अभागा पिता, श्रीधर सेन|’
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चिट्ठी पढ़ते पढ़ते उनके अन्दर भी जैसे कुछ बदल जाता है…कई आवाजों का शोर उनके जेहन में उमड़ने लगता है…’तुमि फिरे आशो’ का स्वर उनके चारोंओर हवाओं में घुलता उनके कानों में गर्म सीसे सा उतरने लगा जिससे बेकल होते वे अपने कानों में हाथ धर लेते है…पर कानों का स्वर अब कुछ शक्लें इख्तियार करता चलचित्र सा उनकी आँखों के सामने से गुजरने लगता है…गाँव की धूल में सनी एक वृद्धा की ढलकी देह और वही स्वर ’तुमि फिरे आशो’ सब आते जाते सुनते, कोई हँसता कोई तरस खाता हुआ आगे बढ़ जाता…वे भी उतने की कातरता से उस वृद्धा को देख रहे थे….ऐसा करते फिर एक अपराध बोध उनके ह्रदय में अपना गहरा जमावाडा बना लेता है….बीस साल पहले गाँव में अपनी हद भर कोशिश की थी कि काकी की जमीन बचा ले ताकि उनका बेटा अपने गाँव वापसी कर सके पर कागजी लड़ाई हार गए और नही बचा पाए….काकी का बेटा फिर न वापस आया और काकी उस बेटे के इंतजार में यही दोहराती जैसे गुजरे वक़्त की एक ही धुरी पर टंगी रह गई…क्या करता फिर गाँव में रहना खुद पर भारी गुजरने लगा….और एक दिन हमेशा के लिए उन्होंने भी अपना गाँव छोड़ने का फैसला कर लिया…जाते वक़्त सिर्फ माँ की आखिरी आस लेकर गए जो अपने आखिरी वक़्त तक अपने बेटे के सर पर से इस कलंक को मिटते हुए देखने की आस लिए ही चली गई…फिर न वे कभी भारत अपने देश लौटे और न कुछ खबर ही ली…आखिर अब माँ के बाद से वहां किसे उनका इंतजार ही था !!! यहाँ लन्दन में भी न शादी की न रिश्ते बने…बस कागजो की जिंदगी पर आहिस्ते आहिस्ते पूरे बीस साल कब गुजर गए पता भी न चले….वे अपनी आंख झपकाते जैसे खुद को अतीत से हिलाकर वापस ले आते है….पर माँ का आखिरी कहा वाक्य उनके जेहन में उमड़ पड़ता है…माँ चाहती थी कि जिस दिन तुम किसी को उसके देश वापस भेज दोगे ये पाप तुम्हारे सर से उतर जाएगा….श्रीधर को तो न भेज पाए पर शैफाली !!!! सोचते सोचते वे एक दृष्टि खिड़की के कांच के बाहर डालते है, सुबह हो चुकी थी…ये सोच वे भावना को ईमेल कर वे अपनी अकड़ी गर्दन सीधी करने शरीर को हिलाने खड़े होकर सीधा करते ही है कि टेबल पर रखा फोन बज उठता है और उस पर से आई खबर सुन उनके हाथों से कोड्लेस फोन छूटकर गिर पड़ता है, उस पल खुद को खड़ा रख पाना उनके लिए मुश्किल हो जाता है तब किसी तरह से खुद को सँभालते हुए वे फिर से बैठते अपना सर दोनों हाथों से थामे अपने बेकाबू आंसू बह जाने देते है|
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उनका दोस्त श्रीधर अब हमेशा के लिए जा चुका था, ये सोचते अश्रु पूर्ण श्रधांजलि देते उनका ह्रदय बिलख उठा| काफी देर इसी तरह दर्द की नदी में बहते कुछ सोच अचानक वे अपना सर उठाकर सामने दीवार घड़ी की ओर अपनी नज़रे जमाते हुए खुद से ही कहने लगते है ‘ऐसे बैठे रहने का समय नही है ये…दोस्त चला गया पर उसका शेष काम अब मुझे ही करना होगा..शैफाली को खबर भेजकर भारतीय दूतावास को भी खबर करनी है…साथ ही भारतीयों की कमिटी से भी कुछ भारतीयों को इकठ्ठा कर श्रीधर का ससम्मान दाह संस्कार भी करना है…मैं ऐसे बैठा नहीं रह सकता|’ खुद को समेटते हुए वे चेतन में आते तुरंत बाहर की ओर निकल जाते है|
चैटर्जी अपना फर्ज निभाते शैफाली को खबर भेजते श्रीधर की अंतिम किया का प्रबंध करने में लग गया| अंतिम क्रिया के समय वह बमुश्किल कुछ एक लोगों को इकठ्ठा कर पाया, उसे पता था श्रीधर ने कभी किसी से कोई नाता नही बनाया हालाँकि सिर्फ उसका स्वभाव ही इसके लिए जिम्मेदार नही था बल्कि उसका एंजिला से शादी करना भी इसका एक कारण था जिसकी वज़ह से वह ब्रिटिश और भारतीय समुदाय के बीच त्रिशंकु बना रहा….चटर्जी ने कुछ देर तो शैफाली का इंतजार किया पर उसे नही आना था तो वह नही आई आखिर चटर्जी उसके बिना ही अंतिम क्रिया कर देता है|
शाम होते होते भी शैफाली की ओर से कोई प्रतिक्रिया न पाकर अब उनके मन को कोई आश्चर्य नही हुआ, वे शांत कुर्सी पर अपनी देह ढीली छोड़ गर्दन उसकी पुश्त से टिकाकर ऑंखें बंद कर लेते है|
क्रमशः…………………
शैफालिका अनकहा सफ़र – 3
