
शैफालिका अनकहा सफ़र – 38
मोहित के लिए अब गाँव में रुके रहना मुश्किल हो गया, वह जल्द से जल्द दोस्तों के पास पहुंचना चाहता था| ताई जी भी ये सुनकर फूली नही समाई और सबने निश्चित समय पर आने का भरोसा दिया| पर परजाई जी मोहित के मुंह से जैसे कुछ और भी सुनना चाहती थी पर मोहित और शैफाली का मौन उनकी समझ से परे था|
जाने की विदा बड़ी भावपूर्ण थी| परजाई जी शैफाली को गले लगाकर प्यार से उसका माथा चूमती हुई कह रही थी – “क्या कहूँ – तुम्हारा जाना मन स्वीकार ही नही रहा पर रोकने का अधिकार भी तो नही देती !!” वे शैफाली का चेहरा अपनी हथेली में भरती कुछ पल तक निहारती हुई कहती रही – “इस घर को हमेशा तुम्हारा इंतजार रहेगा जब चाहे वापस आ जाना |” वे उसके बैग में लांचा सहेजती हुई कह रही थी – “कम से कम जब ये देखोगी तो हमारी याद जरुर आएगी|”
गुरमीत का नन्हा चेहरा भी आंसूओं से भीग गया था, वह शैफाली की उंगली छोड़ ही नही रही थी तब शैफाली पंजो के बल बैठती उसकी नन्ही नन्ही आँखों को प्यार से पोछती हुई हाथों के इशारे से उसे अपना जाना जरुरी बता रही थी|
आज तो हैपी की वो खिलंदड़ हंसी भी जैसे कहीं खो गई थी, वह अपनी कॉपी से फाड़े पन्ने में बनाये कार्ड को देकर बिना कुछ कहे चला गया, शैफाली अवाक् उसे जाता देखती रही| वह आज चाहकर भी खुद को आंसूओं में डूबने से नही रोक पा रही थी, यही तो वह कभी नही चाहती थी, अब रिश्तों के होने से एक अनजाना डर उसमे समाने लगा था, ये अनजाना जुड़ाव आज उसकी आँखों से भी नदी बन बह निकला था| बार बार खुद पर ही गुस्सा आ रहा था कि मोहित सही था, वह यहाँ नहीं आती तो सही रहता, गाँव की गीली मिट्टी पर बनी छाप कोई आसुओं की नदी की लहर भी नही ढांप पा रही थी| वह ऑंखें कसकर बंदकर शेष आंसू ह्रदय में छुपा ले गई|
मोहित का भी गाँव से लौटते मन बड़ा विकल हो उठा था पर नौकरी की मजबूरी उसे उसके स्थान से वापसी करा ही देती| कार में बहुत देर से मौन ही दोनों का मन जैसे अन्दर ही अन्दर बवंडर मचाए था, मोहित के कानों में परजाई जी के कहे शब्द अभी तक गूंज रहे थे, वे अपनी दुविधा का उत्तर चाहती थी पर उन दोनों के चेहरे की खामोशी उनकी समझ से परे थी वे बस मोहित से साधिकार यही कह पाई –‘लाला जी ऐसी सोणी कुडी फिर न मिलेगी – रोक लो न |’
अचानक मोहित ने ब्रेक लगा दी और एक झटके में दोनों अपनी अपनी तन्द्रा से बाहर आ गए| शैफाली चौंककर अपनी आँखों से ही मोहित से सवाल करती है तो वह धीरे से मुस्करा कर कहता है – “इस ढाबे में रुके बगैर मैं आगे नही बढ़ता – |”
शैफाली भी मोहित के संग उतर जाती है| वह देखती है सच में ढाबे वाला वही सरदार मोहित को जानता था और वह उसका अपनी भरपूर पंजाबी मुस्कान से स्वागत कर रहा था|
“आहो – कि सेवा करे दसो जी|”
मोहित बस दो चाय का ऑर्डर कर वही बैठ जाता है| शैफाली देखती है कि सरदार जी मोहित को काफी अच्छे से जानता था, वह अपना काम करता करता उससे घर के सभी सदस्यों का हाल चाल भी ले रहा था, ऐसा अपनापन जहाँ कोई पराया था ही नही, सच में लन्दन की सख्त जमी में ऐसे अपनेपन की नमी कभी समा ही नही सकती|
अचानक मोहित की आवाज पर वह देखती है कि ढाबे के कोने में लगे गन्ने के ढेर से एक गन्ने का टुकड़ा उठाकर उसे दांतों से छीलते मोहित कह रहा था – “वाह सरदार जी – बड़ा रसीला है|”
“असी खेत का है|” वह चाय के पैन में चमचा डाल उसे हिलाते हुए कह उठा|
“कुड़ी नु भी खिला लो |”
सरदार के कहने पर वह उस पल अपनी ओर आती शैफाली की ओर देखते चाकू खोजने का उपक्रम करने लगा तो इस पर सरदार जी अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते थोड़ा ज्यादा ही मुस्कराते हुए कहते है – “ऐसे ही खिलाओ – झूठा खान से प्यार बढ्ता है|”
मोहित के हाथ वही थामे रह जाते है वह धीरे से मुस्कराता है अबतक शैफाली उसके पास आ चुकी थी उसने नही जानना चाह कि शैफाली ने उनकी कितनी बात सुनी वह अब उसे गन्ना दिखाते खाने का पूछ रहा था तो वह अपने कंधे उचकाती अपनी अबूझता दिखाती है तो मोहित झट से अपने दांतों से छीलकर उसे गन्ना खाना बताता उसकी ओर बढ़ाता है|
गन्ने के मुहाने पर अपने गुलाबी होंठ धर एक बारगी वह खिलखिला कर हंस पड़ती है और मोहित बरबस उसे देखता रह जाता है|
रास्ता कितना लम्बा था पर आज चुटकियों में कटा जा रहा था| वे लगभग आधे रस्ते तक आ चुके थे| वे किसी जगह रुके अब वापस जाने को तैयार थे तभी मोहित देखता है कि शैफाली ड्राइविंग सीट पर बैठी कह रही थी – “मैं चलाऊं !!”
“हाँ |”
मोहित जिस सहजता से स्वीकृति दे देता है शैफाली उससे चौंक उठती है उसे लगा था मोहित इसे उसका मजाक समझेगा – “देख लो कही टकरा दी तो !!”
“तो क्या साथ में चलेंगे ऊपर |” कहकर मोहित हँसते हुए कहता है – “पर राईट लेफ्ट का देखना क्योंकि यहाँ ड्राइविंग सीट राईट की तरफ होती है |”
“हम्म – तो बांध लो सीट बेल्ट |”
और सच में शैफाली ने ड्राइविंग सीट संभाल ली मोहित भी बेख़ौफ़ साथ में बैठा अब जानकर उसकी ओर बार बार मुड़कर देख लेता, कभी कुछ कहने कुछ समझाने वह भी मुस्करा देती|
“देखना बस रास्ता नही भटकना |”
“मैं तो आगरा ले जाउंगी|”
मोहित चौंकता है – “आगरा !!!”
“हाँ मुझे ताजमहल देखना है|” वह बड़ी मासूमियत से मन की कहती है|
“ओह |” मोहित मुस्कराते हुए कहता है – “ठीक है वो भी घुमा देंगे – पर स्कूल ज्वाइन करने के कुछ दिन बाद अभी तो मेरी छुट्टियों से सब खार खाए बैठे होंगे|” अपना आखिरी वाक्य वह धीरे से कहकर खुद ही मुस्करा देता है|
“अच्छा एक बात पूछूँ – बड़े दिन से मन में थी !!”
वह अपनी सहमति से अपनी नज़र अब उसी पर धर देता है|
वह अपनी आशंका जाहिर करती जानना चाह रही कि उसके घर में भाई जी, ताया जी, दार जी यहाँ तक की हैपी भी पगड़ी पहनता है तो वह क्यों नही पहनता|
ये प्रश्न जैसे उसे फिर अतीत के गलियारे में खींच ले जाते है| वह उसी बस की दुर्घटना को न चाहते हुए भी याद नही करना चाहता था जिसने उसके माता पिता के साथ उससे इसका भी अधिकार उससे छीन लिया एक्सीडेंट में सर पर चोट के बाद से वह दुबारा केश कभी धारण नही कर पाया तभी सामने से आते ट्रक से मोहित एकदम से भयकूल होता शैफाली का हाथ पकड़ता स्टेरिंग को तुरंत अपनी ओर घुमा लेता है शैफाली चौंककर उसकी ओर देखती रह गई, ट्रक निकलकर जा चुका था, पर मोहित अभी भी भयभीत सड़क के मुहाने को देख रहा था| हर बार हादसा उससे कुछ छीन लेता इस डर से काफी देर अनजाने ही स्टेरिंग पर टिके शैफाली के हाथ पर अपना हाथ रखे रहा|
अब उतरकर मोहित ड्राइविंग सीट संभाल लेता है फिर काफी देर के मौन को तोड़ती आखिर शैफाली उससे पूछ उठती है – “आर यू ओके ?”
“हाँ |” वह खुद को सहज दिखाने फिर धीरे से मुस्करा देता है|
तभी इरशाद का फोन आते मोहित उसकी बेसब्र आवाज़ सुनकर अपनी हंसी दबाते हुए कहता है – “यार एक हफ्ते बाद आता हूँ |”
“नही मेरी इंगेजमेंट है – आ जाओ यार नही तो डेट आगे बढ़ानी पड़ेगी |” बच्चों सा रुठते कहता है तो मोहित अपनी हँसी नही रोक पाता, पीछे से शैफाली को भी ये सुनकर हँसी आ रही थी|
“तो तुम मुझे बना रहे हो न – तुम रस्ते में हो !!”
“हाँ…|” कहकर मोहित कसकर हंस पड़ा जिससे झेंपते इरशाद उसे देख लेने की धमकी देता फोन काट देता है|
“बस ये आखिरी पड़ाव है अब हम दिल्ली में जल्दी ही प्रवेश कर जाएँगे|” मोहित स्टेरिंग दोनों हाथों में सँभालते एक भरपूर नज़र से शैफाली की ओर देखने लगा कि अब वह कुछ कहेगी.., पर वह मौन हौले से मुस्करा कर बस उसकी आँखों में देखती रही….कुछ पल वह भी नीले समन्दर में डूबता उतराता रहा फिर हौले से किनारे आते रास्ते पर आगे बढ़ गया|
जब वक़्त को थामना चाहो तभी वक़्त तेजी से रेत सा हाथों से फिसल जाता है| काफी देर की उनके बीच की ख़ामोशी में वे अगले जाने किस अनजान पल में वह शैफाली के अपार्टमेंट की बिल्डिंग के नीचे खुद को खड़ा पाते है| वहां पहुंचकर जैसे उन दोनों के चेहरे का रंग ही फीके पड़ गए थे, वे दो जोड़ी ऑंखें बार बार एक दूसरें का हाथ थाम लेना चाहती पर संकोच की सीमा रेखा किसी से पार नहीं हुई|
वे बेहद खामोशी से लिफ्ट से ऊपर आ गए| मोहित शैफाली का ट्रोली बैग थामे था और शैफाली के हाथों के बीच उसी का एक छोटा बैग था| उनके बीच की नीरव ख़ामोशी में उनकी धड़कनों की आवाज़ वे साफ़ साफ़ सुन पा रहे थे, पर न उनके हाथ सामानों से हटे न उनके कदम ही कहीं रुके अब वे फ्लैट के ठीक सामने थे| वे ऑंखें तेजी से एक दूसरें की ओर उठी, होंठों के मौन गर्म सांसों के रूप में उनके ह्रदय का स्पंदन तेज करने लगे, बैग उनके हाथों से छिटक गया, कोई मदहोशी सी उनपर सवार हुई जा रही थी कि अब नही तो कभी नहीं, दिल को भी कितना हौसला देना पड़ता है, शैफाली अपना हाथ मोहित की ओर बढ़ा देती है मोहित भी अपना हाथ उसकी ओर बढ़ा देता है| बिन शब्दों के आँखों में अशेष निवेदन बूंदों के रूप में झलक आए| शैफाली का हाथ तेजी से पकड़ उसे अपनी बाँहों के घेरे में खींचकर एक चुम्बन उसके सुर्ख गालों में अंकित कर कह उठता है – “आई मिस यू शेफी |”
क्रमशः………..
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