
शैफालिका अनकहा सफ़र – 51
उस एक पल में सारा सच सामने आते उन तीनों की लिए मोहित को संभालना और मुश्किल हो गया| शाम होते होते लगा जैसे रात का सारा अँधियारा उसकी जिंदगी में समा गया, तीनों उसे घेरे बैठे कुछ समझाना चाहते थे पर बोल किसी के मुंह से नही फूट रहा था|
मोहित अपने में खोया धीरे धीरे बुदबुदा रहा था|
“मैं उसे ढूंढने जाऊंगा – भावना सही कहती है मुझे ही उसे ढूंढना चाहिए –– मैं जाऊंगा उसे ढूंढने – वो ऐसे नही जा सकती – उस दिन भी सारे बिल चुकता कर क्या सोचती है कि उसके मेरे बीच का सारा हिसाब चुकता हो गया – नही बहुत बकाया है उसपर मेरा और मेरा उस पर – कैसे सब अधूरा छोड़कर जा सकती है – मैं जाऊंगा उसे ढूंढने वो बस खो गई है |”
“मोहित |” वे उसे झंझोड़ने जैसे होश में लाते है|
“छोड़ों मुझे – तुम लोग दोस्त नही दुश्मन हो –|” रुंधे गले से वह कह उठा|
“होश में आओ मोहित अब सच को स्वीकार लो – नही है शैफाली हमारे बीच |” बड़ी मुश्किल से समर अपना आखिरी शब्द कह पाया|
“नही……..|” एक चीख सी ह्रदय को चीरती मानों चारोंओर कानफोडू स्वर बनती फ़ैल गई|
“झूठ है ये सब – जिस कार ने मुझे कभी खरोच भी नही पहुँचने दी तब मैं इतने बड़े एक्सीडेंट से बच गया जिन्दा तो उसे भी कुछ नही हुआ होगा अगर मोहित है तो शैफाली भी है – यही सच है |” कहता हुआ वह अपना बैकपैक झुककर तैयार करने लगा|
“यार चली गई है न तो भूल जा उसे |” जय जबरन अपने भावों में नफरत लाता हुआ बड़ी कठोरता से बोला|
ये सुन हतप्रभ मोहित का चेहरा उसकी ओर मुड़ता है|
“क्यों – अब क्यों भूल जाऊं – वो तुम्हीं थे न जय जो हमेशा मुझे उसकी ओर धकेलते थे तो अब क्या हुआ – बोलो – अब क्यों !!” उसने तेज किस्म की सरगोशी की – “लेकिन अब मेरा लौटना मुश्किल है – जीना साथ तो मरना भी साथ|”
ये सुन तीनों का मन कांप गया….अब उनके बीच हौसले की दिवार दरकने लगी थी किसी को समझ नही आ रहा था कि कौन किसे कैसे संभाले ??
परजाई जी जल्दी जल्दी रसोई में हाथ चलाती एक आहट पर पीछे पलटकर देखती है पीछे गुड्डी चुपचाप उनके पीछे से आती उन्हें चौंका देना चाहती थी पर अब उसकी शरारत पकड़ी जा चुकी थी|
“तुसी भी न – मैनू चौकाना न तुहानू |” रूठती हुई गुड्डी बोली तो परजाई जी जल्दी से हाथ सलवार में पोछती उसे खींचकर अपने गले लगा लेती है|
“इतने दिन बाद आई बस यही मैनू चौंका दित्ता – कैसी है पुत्तर ?”
“भहुत चंगी |”
खिलखिलाकर कहती अब वह अपनी आंख मटकाती इधर उधर कुछ तलाशने लगती है ये देख परजाई जी मुस्कराती हुई कहती है – “त्वाडी आँखों को जिसकी तलाश है वो वही है जहाँ होना चाहिदा – जा मिल ले |”
सुनते ही गुड्डी किसी पतंग सी तुरंत उस कमरे से निकलती भागती हुई बाहर चल देती है| जितने रास्ते वह भागती रही उस रास्ते भर कोई न कोई उसे पुकार लेता पर जिस धुन में वह भाग रही थी उससे कोई भी परिचित आवाज उसे न रोक पाई और दौड़ती भागती वह तालाब तक आकर ही रूकती है| बुरी तरह हांफती हुई वह नज़रे घुमाकर जिसे तलाश रही थी उसकी पीठ दिखते ही उधर ही भागी आती वह पीछे से बस उससे लिपटने ही वाली थी कि वह चेहरा उसकी ओर मुड़ता उसे थाम लेता है, वह मुस्कराती ऑंखें उसका आना जान चुकी थी जिससे फिर रूठती हुई गुड्डी मचलती बस उसके पास आकर बैठ जाती है|
“पता नई सबके पास कौनसी जादू की छड़ी है सब पहले ही जान लेते है – |”
वह उसे प्यार से अपने गले लगाकर उसके बालो पर हाथ फेरती उसका सलोना चेहरा देखती रही, कितना बदल गई थी गुड्डी, सर से पैर तक सुहागन के सिंगार की निशानियाँ थी, कितना चमकीला चेहरा हो उठा था उसका मानों चाँद का नूर उसके गुलाबी कपोलो पर ठहर सा गया हो…क्या प्रेम से इतना कुछ बदल जाता है…लड़की औरत होते कितनी खूबसूरत हो जाती है…पर बातों से वही लड़कपन जो मायके आते और बचपने से खिलंदड़ हो उठा था|
“पर मैनू तो बहुत कुछ पूछना है – तुसी अकेले क्यों आए? वीर जी क्यों नही आए? त्वाडा झगड़ा हुआ कि? और परजाई जी कहन्दी कि आप नू फोन भी कारने से मना कर दित्ता !! ऐसा भला किउं ?”
वह इस पर हलके से हँस दी पर गुड्डी की मासूम प्रश्न भरी आंखे उसी पर टिकी रही|
“क्या इन सारे प्रश्नों का उत्तर मुझे देना ही पड़ेगा ?”
“हांजी लेकिन नहीं भी देंगी तब भी तुसी मेरे लिए वही रहेंगी जो पहले थी फिर भी एक महीना बीत गया तबभी मोहित वीर जी किउं नही आए ?”
“क्योंकि मैं तुम सबसे मिलने आई थी और देखो अब कल वापिस भी जा रही हूँ हमेशा के लिए |”
ये सुन गुड्डी यूँ देखने लगी मानों उसकी अब रुलाई ही फूट पड़ेगी|
“समय कितनी तेजी से बीत जाता है – अब मुझे वापस जाना ही होगा – मेरा भारत का वीजा खत्म हो रहा है|”
गुड्डी झट से बिलखती उसके गले लग गई जिससे वह हौले से उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगी|
गुड्डी इतने समय बाद अपने मायके लौटी थी जिससे उससे मिलने को बेसब्र उसकी सखियाँ उसे तलाशती तालाब तक आ पहुंची| वे उसे अपने पास बुला रही थी पर गुड्डी इस वक़्त शैफाली को छोड़कर बिलकुल नही जाना चाहती थी तब शैफाली ही उसे जबरन उनकी ओर भेजती है| गुड्डी जाना तो नही चाहती थी फिर भी उसे जाना पड़ा पर जल्द ही वह फिर अपने प्रश्न के साथ वापस आने वाली थी इस वादे के साथ ही वह गई ये सुन शैफाली मुस्करा पड़ा|
उसके जाते फिर उसका एकांत उसे अपने पाश में घेर लेता है जहाँ वह खुद को मोहित के ख्याल से जरा भी नही हटा पाती| ये इंसानी दुविधा है कि जिन हालातों से हटना उसके लिए आसान था उसे मन से भी वह उतनी ही आसानी से हटा पाएगी ये हर बार कहाँ संभव होता है…बावरा मन कब किसके नियंत्रण में रहता है?? वह एक महीना पहले भी खुद को हौसला देती वापिस लौट जाना चाहती थी पर अनजानी बेड़ियों ने उसे जाने कैसे गाँव आने को मना लिया..हालाँकि वह बस मिलकर वापस चली जाना चाहती थी पर वीजा खत्म होने तक रुकने के सबके इसरार पर वह फिर रुक गई पर क्यों ?? वह आज तक ये प्रश्न खुद से न पूछ पाई फिर आखिर कैसे वह गुड्डी के सवालों के जवाब दे पाती?? और उन सबने भी तो उसको बिना किसी सवाल के अपना लिया..पर अब उसकी वापसी सुनिश्चित हो चुकी थी…
वह एक उदास नज़र तालाब के चारोंओर घुमाती है कितनी जान पहचान हो गई है उसकी इस मिट्टी से, जाने कैसा अनजाना रिश्ता बन चुका है उसका यहाँ से जिसे छोड़कर जाने के लिए जाने कैसे वह खुद में फिर हिम्मत समेट पाएगी??
सोचते सोचते हर एक पल उसकी आँखों में जीवंत हो उठा जब वह इस देश में पैर तक नही रखना चाहती थी और आज गहरी छाप उसकी यहाँ छूटी जा रही है| क्या उसके पिता ये सब जानते थे इसलिए ऐसी अजीब शर्त रखी कि एक बार भारत आने पर वह खुद ही नही लौट पाएगी !! जाने कितने प्रवासी पक्षी भी यूँही ठहर जाते होंगे अनजाने देश में…सीमाए मन को क्यों नही बांध पाती उफ्फ्फ काश बांध पाती तो आज भी वह अपने पीछे सब कुछ छोड़कर आसानी से वापिस लौट सकती….पर अब लौटना तो है ही उसको भलेही ये एकमात्र वजह न हो !!! क्या उसे इंतजार था कि मोहित उसे इन अनजानी गलियों में ढूंढता आएगा शायद नही…..वह थकी सी सांसे छोड़ती अपलक आसमान में कुलाचे भरते पक्षियों के झुण्ड को निहारती रही जो लौट चले थे अपने अपने नीड़ की ओर…वह भी धीरे धीरे छोटे छोटे क़दमों से वापिस लौट रही थी…
शैफाली के आते उस घर में ही नहीं गाँव में भी बहुत कुछ बदल गया था…उसकी पहल से ही वहां बना स्कूल उसके दिशा निर्देश से शुरू हो सका…पहले पहल तो बहुत मुश्किल था आखिर गाँव में कौन पढ़ाने आता पर शैफाली ने जब पढ़ाना शुरू किया तो निकुंज भवन का स्कूल बच्चियों की भीड़ से गुलजार होता गया….साथ ही गुरमीत की बिन आवाज की दुनिया को भी ढेरों शब्द मिल गए..वह अपनी बात बिन शब्दों के भी अब सभी को समझा लेती थी…हैपी सिंह का मन भी स्कूल के नाम पर बल्लियों उछल पड़ता लेकिन शैफाली के जाने के नाम पर फिर सब सूना हो चला था| लेकिन खत्म हो रही वीजा की मियाद पर किसी का कोई बस नही था|
शैफाली अपना सामान पैक कर चुकी थी..इंटरनेट पर बैठी वह टिकट बुक करके अब लन्दन के रिचेस्ट एनआरआई बिजनेस मैन की तस्वीर में से अपने पिता की तस्वीर के साथ अपनी माँ की तस्वीर भी निकाल लेती है| वह सिर्फ जी भरकर उनका चेहरा देखना चाहती थी पर भाई जी उन तस्वीर को फ्रेम में लगवा कर निकुंज भवन में जहाँ मोहित के माता पिता की तस्वीर थी वही लगवा देते है| शैफाली इस अहसास के लिए बिलकुल तैयार नही थी पर ये अपनापन उसे अंतरस आद्र कर गया आखिर जिन माता पिता को उसने खुद नयन भर कर कभी नही देखा भाई जी उन्हें सदा के लिए सबकी आँखों के परिदृश्य में ले आए थे|
परजाई जी भी अपने दिल को संभाले शैफाली की वापसी के लिए खुद को तैयार कर रही थी लेकिन भाई जी ये देख बहुत नाराज़ हो उठे थे…वे मोहित को बस फोन मिला ही देते उससे पहले ही वे उन्हें रोकती हुई बोल उठी – “ना जी ऐसा न करो – जब नई चाहिदा तो उसका दिल न तोडो |”
“ए कि हम दिल तोड रहे या वो जा रही है हम सबका मन तोड कर और मोहित को क्यों नही दस सगदे – बताती बी नई |” वे अपने कठोर मन के अन्दर दर्द भरी आह छुपाते अपने शब्दों में नाराजगी भरे भाव लाते बोल पड़े|
“कुछ भरोसा था सो आई न हमारे पास जी तो बस उस रब पर भरोसा राखो जिसने जोड़ी बनाई है वो मिल्वएगा बी जी |” पर उनका मन जैसे कुछ भी मानने को तैयार ही नहीं था इसलिए परजाई जी उनका हाथ पकडे आँखों से भरोसा देती समझाती रही – “आज जा रहे है न हरमिंदर साहिब बस अब सब रब के हवाले कर दित्ता वही अपनी मेहर हम सब पर बरसाएँगे |”
अब इसके आगे वे क्या कहते…चुपचाप जाने की तैयारी करने लगे…गुड्डी के आने से आशीष लेने सब स्वर्ण मंदिर माथा टेकने जा रहे थे…ठण्ड ज्यादा होने से दार जी न सके तो उनकी देख रेख के लिए ताई जी भी रुक गई इससे अब जहाँ दो गाड़ियाँ जाने वाली थी उसकी जगह बलवीर जी अपनी गाड़ी से गुड्डी, भाई जी, परजाई जी, हैपी – गुरमीत और शैफाली संग जाने को निकल पड़ते है|
मोगा से बस दो घंटे की दूरी पर था तो धुंध छांटते वे साथ में उस पवन धाम पहुँच चुके थे… अबतक मोहित के साथ भारत घूमी शैफाली पहली बार उसके बिना कहीं आई थी..वह दूसरी बार किसी गुरूद्वारे आई थी…वही पवित्रता का अहसास वही उद्वेलित मन को शांत कर देने की क्षमता रखता वह पावन प्रांगण जिसपर पैर रखते शैफाली एकाएक डगमगा गई अगर समय रहते साथ चल रही परजाई जी उसे संभाल न लेती तो वह पक्का अचेत गिर पड़ती| सबके मन में मानों भगदड़ ही मच गई…आनन फानन वहां उपस्थति गुरु माई उसकी मध्यम चलती नब्ज को अपने कानों से लगाए उन सबकी ओर देखती है…फिर उसे आराम से अन्दर आरामगाह में लेटाकर उसकी अच्छे से जाँच पड़ताल करती धीरे से मुस्करा देती है…लेकिन सबके चेहरों पर तो डर और घबराहट के घंटे बज रहे थे…
आखिर क्या हो गया था शैफाली को…क्या मौसम या मन की थकान उसके देह में उतर आई थी या उदासियों से बोझिल हो उठा उसका जिस्म…एक ओर परजाई जी तो दूसरी ओर उसका हाथ थामे बैठी गुड्डी भरी आँखों से उसके होश में आने का इंतज़ार कर रहे थे| हैपी और गुरमीत तो मानों सहम कर रह गए थे…भाई जी और बलवीर जी अवाक् बस बैठे रह गए| लेकिन इन सबके विपरीत गुरु माई मुस्करा रही थी और परजाई जी के कानों के पास आती खुशखबरी बोलती शैफाली के सर पर हाथ फेरती उठ जाती है| ये सुन वे हतप्रभता से कभी शैफाली की ओर देखती तो कभी सबके हैरान चेहरों की ओर…जिनके चेहरों के प्रश्न अब और गाड़े हो चुके थे…
क्रमशः……………………
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