
सुगंधा एक मौन – 10
वे ठीक एक बजे किसी कैफे में मिलने वाले थे, चिराग वहां पौने एक बजे ही पहुँच जाना चाहता था| रास्ते में बस कुछ लेने रुका और फिर सही समय वहां पहुँच गया| वह बाइक खड़ी कर उस रेस्टोरेंट के मुख्य द्वार की तरफ बढ़ा ही था कि दो कदम और उसके साथ हो लिए, फिर वे नयन आपस में एक दूसरे को देख शरमा उठे, दोनों समय से पहले वहां पहुँच गए थे|
किसी कोने की टेबल पर आमने सामने बैठे एक दूसरे की ओर बार बार देखने की चाह में उनकी नज़रे पूरे रेस्टोरेंट के चारोंओर घूम जाती और फिर आपस में टकराती हौले से खिल उठती|
चिराग के पास पहली बार शब्दों की बेहद कमी हो गई थी, तभी सुगंधा की पीठ के पीछे की कांच की दीवार धुंधली हो उठी, बिन आवाज़ के शीशे के पार बारिश हो रही थी, अब सुगंधा हौले से मुड़कर उस बारिश को नज़र भर कर देख रही थी|
“सुगंधा -|”
वह उसकी ओर देखती है फिर टेबल पर सधे उसके हाथों की ओर से होते उसकी उँगलियों के बीच फंसे एक सुर्ख लाल अधखिले गुलाब की ओर देखती है तो उसकी धड़कने धौकनी बनती उसका दिल यूँ धड़काने लगती है माँ नों मीलों दूर से वह भाग कर आई हो, अपनी विश्राम स्थली में|
वह देखती है उसके हाथों के पास कुछ और भी था, कुछ ऐसा जो उसकी हथेली की तलहटी में समाँ जाए पर दिल में समंदर से बाहर छलक जाए| एक कांच में कैद ताजमहल|
“मुझे नहीं पता कि किस तरह से मैं अपनी भावनाएं तुमपर व्यक्त करूँ हो सकता है तुम्हें लगे कि बड़ी जल्दी है इस लड़के को – पर सच कहता हूँ हर बार तुमसे मिलकर कुछ भी नया नहीं लगता – लगता है जैसे हम रोज ही तो मिलते है खवाबों में – आज बस आमने सामने आ गए – |” वह बढ़कर टेबल पर टिका उसका हाथ थाम लेता है, वे नयन तेज़ी से एक दूसरे से मिल जाते है फिर अगले ही क्षण असहज होते अपने आस पास देखने लगते है|
“क्या हुआ ?” चिराग उसकी परेशान होती नज़रो को पढ़ता हुआ अपना हाथ पीछे खीँच लेता है|
“मैं पहली बार ऐसे किसी जगह आई किसी से मिलने – पता नहीं क्यों मैं इंकार भी न कर सकी – मैं जाना भी चाहती हूँ और नहीं भी – क्यों हो रहा ऐसा मेरा मन -|”
उसके प्रश्न करती नदी के किनारों सी झुकती आँखों को देख वह धीरे से मुस्करा दिया|
“चलो यहाँ से कहीं और |”
उसने ये भी मान ली उसकी बात, और चंद की क्षणों में वे किसी पार्क के अन्दर किसी सुनसान बैंच के दोनों किनारों पर बैठे दूर दूर तक नज़र डाले बस सामने देखने का उपक्रम कर रहे थे| बारिश के बाद का मौसम और भी सुहाना हो गया था| आसमान गहरा नारंगी और जामुनी हो उठा था उसके खुशरंग चेहरे की भांति|
“चिराग बहुत देर हो गई – अब मुझे जाना चाहिए|” वह मानों गुज़ारिश कर उठी|
“ठीक है – फिर कल !!”
वे देखती रह गई|
“अगर दो पल भी मिल लो तो |”
उसके होंठो के किनारे मुस्करा रहे थे|
“मैं सिटी कॉलेज के पास ऑटो से उतरती हूँ और तिराहे से रिक्शा लेती हूँ |”
चिराग के लिए ये चंद लम्हे भी किसी सौगात से कम नहीं थे|
अगले दिन वह तिराहे की ओर अपना कदम बढ़ा ही रहा था कि सुगंधा की आवाज़ और उसकी प्रतिक्रिया एक साथ हुई और अगले ही पल उस पर्स छिनने वाले गुंडे की गर्दन उसकी मजबूत पकड़ में थी, जिसे वह पास के पुलिस वाले को सौंप रहा था|
सुगंधा बेहद डर गई तो चिराग बढ़कर उसका हाथ थाम लेता है, वह बरबस उसकी ओर देखती रह गई क्योंकि वह उसकी हथेली पर पेन से कुछ लिखता हुआ कह रहा था – “ये मेरा मोबाईल नंबर है – कभी भी किसी भी वक़्त तुम मुझे बुलाओगी मैं दौड़ता तुम्हारे पास आ जाऊंगा – तुम्हारा और सिर्फ तुम्हारा चिराग |” कहते कहते जैसे कोई पाण्डुलिपि हस्ताक्षर कर दी हो|
स्पर्श में माँ नों दर्द की दवा थी, अब उसका डर छू हो गया|
“कभी ऐसा हो तो पर्स छोड़ देना – तुम्हारी जान ऐसे कई पर्सो से कहीं ज्यादा कीमती है|”
“पर कुछ कीमती था इसमें तुम्हारे लिए|” कहती हुई वह पर्स में से एक छोटा गिफ्ट उसकी तरफ बढ़ा रही थी| चिराग उत्सुकता में झट से खोलते हुए देखता है, वह कोई फ्रेगरेंस था|
“अब तो मन क्या तन भी सुगंधा हो उठा – लगता है जैसे मैं सब भूल जाऊंगा पर सुगंधा नही – इसे आज ही अपने कॉलेज की फेरवल पार्टी में लगा कर जाऊंगा|”
फिर वही नाम उसे जैसे अतीत से खीँचकर वापस भी ले आया, अब वह किसी अतीत में नहीं बल्कि क्लास में खड़ा था|
“आप कौन है – क्लास तो खत्म हो चुकी है |”
वह ऐसा क्यों बोल रही थी? चिराग देखता रह गया, उसके प्रश्न से उसकी चेतना शून्य होती गई|
चिराग के दिलोदिमाग दोनों इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे, पर वह सच में उसे नही पहचान पा रही थी नही तो क्या उसे सामने देख वह इतना सहज रह पाती|
“आप अभी जा सकते है|” कहकर वह टेबल के नीचे झुकती अब उसकी दराज का सामान निकाल रही थी चिराग अब उसका चेहरा नहीं देख पा रहा था इसलिए उसके लिए और वहां खड़े रहना नामुमकिन हो गया तो वह थके क़दमों से वापस चल दिया|
क्रमशः………
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