
सुगंधा एक मौन – 13
वहां से निकलकर बाहर आते चिराग का मन यूँ झूम रहा था मानों मसाबो नशा उस पर हावी हो, बिन वजह सा मुस्कराता हुआ अपने आस पास का हर आता जाता शख्स उसे खुश दिल नजर आ रहा था| उस पल उसका जी चाह रहा था कि किसी भी आते जाते शख्स को रोक कर जोर से चिल्लाते हुए अपनी ख़ुशी का राज़ उसको ज़ाहिर कर दे पर किसी तरह से खुद पर नियंत्रण करते वह खुद में ही झूमता हुआ अपनी कार की तरफ बढ़ गया| ड्राइविंग सीट पर पहुँचते वह गुनगुनाते हुए रेडियो ऑन कर यूँ चल देता है मानों हलकी बारिश में कोई संभल कर कदम रख रहा हो| प्यार की बारिश में भीगते हुए उसे पता ही नहीं चला कि कब वह घर आ गया|
घर आते आते अँधेरा हो आया था, लेकिन जब सभी को खाने की मेज पर देख कर दीवार घड़ी की ओर उसने नज़र दौड़ाई तब उसे अपनी बेखुदी का अहसास हुआ कि रात के नौ बज गए थे| वह चुपचाप खाने तक आता अपनी चेअर सरकाकर चुपचाप बैठ जाता है पर चेहरे पर समाँ ई अताह ख़ुशी के फूल मानों चारों ओर बिछे महसूस हो रहे थे जिससे एक गहरी मुस्कान उसके चेहरे पर छाई हुई थी| वह नज़र उठाकर एक सरसरी निगाह से अपने पिता, माँ के सपाट चेहरे देखता है तो एक आहट से उसका ध्यान अपनी बगल में बैठे अतुल की तरफ जाता है जो उसके आते उठकर चुपचाप निकल रहा था जिसपर वह अपनी उंगलियाँ उसके सर पर फिराता मुस्कराता हुआ कह उठा –
“गुड आज खुद ही सारा खा लिया – क्यों आज खाना सरकाने का प्लान कैंसिल |” कहकर खुद ही हँस पड़ा चिराग|
अतुल बिना किसी प्रतिक्रिया के उठकर चला जाता है|
काकी झट से चिराग के आगे प्लेट लगाकर खाना परोसने लगती है| आज प्रेम से उफनता चिराग का मन अधीर होता हर एक बात पर अपनी प्रतिक्रिया दे रहा था| वह एक कौर झट से मुंह में रखता ढेर शब्दों से सब्जी तो कभी रोटी की मुलायमियत पर चहकते हुए कह रहा था|
काकी मुस्कराई खाना तो रोज जैसा था पर आज चिराग उस पर कुछ कह रहा था, ये सुन वे एक और फूली रोटी उसकी प्लेट में डालती है तो चिराग मना ही नहीं करता, उसका तृप्त मन मदहोशी में उदरस्य पूर्ति कर रहा था|
इस बीच वह कई बार निगाह उठाकर अपनी माँ का चेहरा देखकर मौके की नजाकत को भांपने की कोशिश करता पर उनके चेहरे के सपाट भाव उसके मन की लहरों को थपका कर शांत कर देते और वह फिर खाने की ओर झुक जाता| उस वक़्त चिराग के मन में जितनी हिलोरे उठ रही थी उससे कही ज्यादा ही वह स्थान शांत बना हुआ था, बस कुछ एक पल में प्लेट से टकराती चम्मच की आवाज भी वहां गूंज जाती|
चिराग अब धीरे धीरे खाना खाता हुआ कुछ वक़्त और वहां बैठकर मौका तलाशता हुआ अब अपने पिता को भी जाता हुआ कनखनी से देख रहा था| प्लेट का आखिरी कौर वह उँगलियों से धीरे से इधर उधर सरकाते सरकाते देखता है कि काकी रसोई के अन्दर व्यस्त थी तो माँ मेज पर का खाना समेट रही थी| चिराग उनकी तरफ धीरे से देखता हुआ कह उठा –
“माँ |”
वे चौंक कर उसकी तरफ देखती है – “कुछ और चाहिए क्या !!”
“मुझे आप से कुछ बात करनी है |” वह बेसब्र होता तुरंत मुद्दे पर आ गया|
पर वे उतनी ही शांत बनी रही और सारा समेटती हुई रसोई में चली गई| चिराग इस पल को जब तक समझता वे वापस आती अब चिराग के सामने से प्लेट उठाती हुई कह रह रही थी – “रात बहुत हो गई है अब तुम्हें सोने जाना चाहिए |”
ये सुन वह झटके से उनकी तरफ देखता है जहाँ भावों की शुन्यता उसकी समझ से परे थी|
“माँ सच में बहुत जरुरी बात करनी है – अभी इसी वक़्त |” उसकी ऑंखें माँ को रूककर उसकी तरफ देखने के बजाय अपने काम में व्यस्त देख इतनी उलझ गई कि माँ का हाथ पकड़ता हुआ कह उठा – “हुआ क्या है माँ – आप मेरी बात पर ध्यान क्यों नही दे रही ??”
माँ अपना हाथ धीरे से छुड़ाती हुई उसकी तरफ बिना देखे कई बर्तन एक साथ समेट लेती है| वह उन्हें जाता हुआ देखने भर से उठकर खड़ा होता उनकी तरफ झुकता हुआ धीरे से कहता है – “मुझे सुगंधा के बारे में बात….|”
एक तेज़ आवाज से उसके शब्द वही ठहर जाते है, उसकी नजर सामने देखती है कि उनके हाथों से प्लेट सरककर अब फर्श पर तेज आवाज के साथ नाच रही थी और माँ अपनी घूरती आँखों से उसे देख रही थी|
प्लेट के शांत होते चिराग झट से उनके पास आता कुछ और कहता उससे पहले वे धीरे से अपनी सधी आवाज में कह रही थी – “डॉक्टर ने कहा है तुम्हें अपने दिमाग पर ज्यादा जोर नही देना चाहिए इसलिए जाओ और जाकर आराम करो|”
“लेकिन मुझे आप से बहुत जरुरी बात करनी है – सुगंधा…|”
मानों शांत समन्दर में कोई ज्वारभाटा आ गया हो, मानों मुद्दतों दबे ज्वालामुखी में किसी ने जबरन आग झोंक दी हो, वे एकदम से फटती हुई बोली – “सुगंधा…सुगंधा..नहीं सुनना ये नाम – ये नाम हमारे दो साल खा गया अब और क्या चाहिए इसे !!”
चिराग माँ का चेहरा देखता रह गया, उसे ऐसा कुछ होने की कतई उम्मीद नही थी| वह स्तब्ध खड़ा रह गया| माँ धाराप्रवाह कहे जा रही थी –
“तुम्हारी सारी मनमानी हमने बर्दाश्त कर ली पर अब और नहीं – मैं तुम्हें अपनी जिंदगी के साथ खिलवाड़ करते सब चुपचाप नहीं देख सकती – माँ हूँ तो नही हौसला होता अपने ही हिस्से को बार बार टूटते हुए देखने का..|”
वह अवाक् दर्दीली नदी का उफान देखता रह गया, उसका इतना हौसला न हो पाया कि वह बढ़कर माँ को रोक ले, ये एक टूटी माँ की आवाज थी –
“तुम्हें अंदाजा है कि आखिर वो साल हमपर कैसे बीते – एक एक पल मुझे याद है |” कहते कहते उनका चेहरा आंसुओ से भीग गया था – “त्यौहार आते जाते रहे और हम बस एक उम्मीद पर तेरी शांत देह के पास जीवन की आस लिए मंडराते रहे – कभी कोई कुछ बताता वहां चली जाती – जाने कहाँ कहाँ नही मत्था टेका कि मेरा बेटा मेरे सामने फिर खड़ा हो सके – उस एक पल के लिए हमने अपने सारे पल नौछावर कर दिए – पता है तुझे – नहीं पता होगा – तुम तो एक ख़ामोशी में लेटे रहे पर हम अपनी खुली आँखों से एक एक पल कैसे बिता रहे थे ये सिर्फ हम ही जानते है |”
“अब तुम सुनो मेरी – मुझे अतुल ने सब बता दिया – क्यों !! – क्यों आखिर सिर्फ एक नाम की इतनी खोज जब उसका कोई अस्तित्व ही नही – |” वे तुरंत आगे आती उसका हाथ अपने सर पर रखती हुई कहती है – “कसम है तुझे जो ये नाम तूने दुबारा कभी लिया |”
एक पल में जैसे सब थम गया, सांसे सीने की कोटरों में बर्फ सी जम गई तो आँखों का रुका पानी मोती बन पलकों की देहरी पर पड़ा बिलख पड़ा| अब तक उनकी आवाज सुन काकी जो फर्श पर का बर्तन समेटती समेटती हुई उन्हें बरबस ही तकती रह गई| पापा सीढ़ियों के ऊपरी हिस्से पर थमे सारा नजारा देख रहे थे, वही अतुल परदे की ओट लिए अपनी सांसे रोके चुपचाप सारा नज़ारा देख रहा था|
क्रमशः………
Very very🤔🤔🤔🤔🤔👍👍👍