
सुगंधा एक मौन – 23
सुगंधा के लिए अब वहां रहना मुश्किल हो गया वह भीड़ से गुजरती घर के लिए वापस निकलती छवि को अपनी खराब तबियत का बहाना का मेसेज कर चली गई| छवि भी मूवी देखती उसे ओके कह आराम से बैठी रही|
चिराग और छवि के बीच की एक सीट खाली बनी रही|
इस बेरहम वक़्त को सुगंधा वक़्त की जरुरत माँ न वापस आ गई, उसे अकेला वापस आते देख वोहरा मैम चौंकती हुई पूछ बैठी – “इतनी जल्दी वापस आ गई और छवि कहाँ है ?” कहते कहते वे लिखती लिखती रुक जाती है|
सुगंधा की अरुचि से वे वाकिफ़ थी इसलिए फिल्म को आधा छोड़कर उसका आना और छवि का मूवी देखने रुकना उनके लिए यूँ तो कोई आश्चर्य का विषय नहीं था फिर भी वे उनकी ओर से चिंतालू हो उठी थी| सुगंधा का उदास चेहरा उसके मन के दर्द को छुपा ले गया जिसे वोहरा मैम ने अरुचि समझ लिया|
“आप क्या कर रही है – क्या कुछ मदद करूँ मैं आपकी ?” वे उनके सामने की मेज पर फैले ढ़ेरों कार्ड्स को देखती हुई बोली|
“हाँ ये निमंत्रण कार्ड्स है – असल में हर महीने हमाँ रे लेडीज क्लब की ओर कोई न कोई सामाँ जिक संस्था में डोनेशन के लिए एक सामूहिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है – ये उसी का निमंत्रण कार्ड्स है – वैसे अच्छा ही हुआ तुम वापस आ गई – मैं अकेले इनमें नाम लिखते लिखते परेशान हो रही थी –|”
“पर मुझे अब छवि जी को अकेला छोड़ना बुरा लग रहा है |”
“अरे तुम उसकी चिंता मत करो – वो मूवी देखकर आराम से वापस आ जाएगी – वैसे भी बेचारी को रोजाना के कॉलेज से बस यही एक दिन तो मिलता है अपने अकेलेपन को जीने का |” वे सुगंधा को अपने पास बैठने का इशारा करती हुई कहती रही – “मैं तो कहती हूँ कोई एक दिन तो होना ही चाहिए जब सभी अपने दिल की कर सके – पता है छवि प्रतीक को बहुत मिस करती है पर क्या करूँ अपने बेटे को मैं भी तो बहुत याद करती हूँ – |”
सुगंधा मुस्करा कर अपनी सहमति देती है|
“वैसे तुम्हें भी तो एक सन्डे मिलता है तब तुम्हें भी अपने मन का करना चाहिए |” वे मुस्करा कर सुगंधा की ओर देखती है|
“जी अबसे यही होगा – मैंने अपने सुदामाँ नगर वाले घर को ठीक ठाक कराकर वहां पर कोचिंग खोलने की पूरी व्यवस्था कर ली है, कल पूजा भी करा रही हूँ – अब आस पास जितने भी जरुरत मंद बच्चे होंगे उन्हें सन्डे के सन्डे फ्री पढ़ाऊँगी अब से |”
“वाह – ये तुमने कब किया – ये तो बहुत ही अच्छा है –|”
सुगंधा की ऑंखें अब कार्ड्स की ओर झुकी थी|
“वैसे भी तुम कौन सा ज्यादा फीस लेती हो – इतनी मिनिमम फीस में तो पढ़ाती हो|”
“मेरी जरूरते भी तो बहुत मिनिमम है |” कहकर वह आखिरी कार्ड में नाम लिखती हुई कहती है|
सुगंधा की यही सहजता सदा वोहरा मैम का मन मोह लेती, भलेही इसके विपरीत उनकी बहु छवि को ये सब बकवास सा लगता, वह अपने पति के लौटने तक अक्सर बहुत सारी शोपिंग और अपने साथ की प्रोफ़ेसर सहकर्मियों संग ऐसे ही वक़्त बिताने किसी मल्टीप्लेक्स चली जाती, छवि की रूचि अपनी सास से भिन्न थी फिर भी दोनों सहजता से एक दूसरे को बिना ज्यादा गिले शिकवे के अपना लेती|
“पर इतना भी खुद को व्यस्त मत कर लेना कि तुम्हारे शोध में उसका कोई फर्क पड़े |”
“आप बेफिक्र रहिए – मैं इसका ख्याल रखूंगी |”
तभी कार रुकने की आवाज से छवि के आने का भान होते वे जल्दी से सुगंधा से बोल पड़ी – “तुम अपने कमरे में चली जाओ सुगंधा नहीं तो मेरे साथ बात करते देख तुम्हारी वापसी को झूठ समझ नाराज़ हो उठेगी तुम पर फिर खामखाँ ही तुमसे कई दिन बात नहीं करेगी |”
सुगंधा उनके तात्पर्य को भलीभांति समझती धीरे से मुस्कराती ऊपर छत की ओर चल देती है|
चिराग किसी तरह से मूवी पूरी करता अमित और तृप्ति के बहुत कहने पर भी उनके साथ बाहर डिनर न करने का बहाना बनाते हुए उन दोनों को तृप्ति के घर छोड़कर अपनी कार को अनिश्चित दिशा की ओर मोड़ लेता है|
सुगंधा इसी शहर में है ये सोचते आज उसे सामने देख उसे पाने की दबी जुस्तजू जैसे उसके दिल में फिर किसी तूफ़ान सी लौट आई….चिराग खुद पर झुंझला उठा कि वादा किया था कभी अकेला न छोड़ने का फिर आखिर किस बेरहम वक़्त की दवाब में सुगंधा फिर से उससे दूर चली गई पर अब वह और खुद से वादाखिलाफी नही करेगा…ये सोचते सोचते यंत्रवत स्टेरिंग सुदामाँ नगर की ओर मुड़ जाती है| अगले ही पल चिराग सुदामाँ नगर कॉलोनी के मुहाने में अचानक अपनी कार रोके सामने की ओर अपनी नज़रे जमाँ ते हुए खुद से कह उठा ‘आखिर कैसे सुदामाँ नगर जैसी घनी कॉलोनी में बिना किसी अता पता के वह सुगंधा को ढूंढ पाएगा..!!’
कुछ क्षण वह खड़ा खुद से ही उलझता सामने कॉलोनी की ओर देखता सोचता रहा कि कैसे समंदर सी कॉलोनी उसके दिल के मोती को अपने अन्दर छुपाए है…ये विचारते हुए अब वह कार पीछे कर पास ही रोड से गुजरता अपने आस पास देखता रहा कि सहसा वह एक मंदिर के मुहाने पर आकर रुक गया| फिर खुदको उस मंदिर में जाने से वह न रोक सका| बरबस ही उसके कदम अन्नपूर्णा मंदिर की चौखट तक उसे खींच लाते है|
वह चौखट लांघता अन्दर तो दाखिल होता है पर पूजास्थल न जाकर अनमना सा रूठा हुआ सीढ़ियों पर बैठ जाता है| शाम की आरती होने से अभी मंदिर में काफी भीड़ थी, लोग उसके करीब से गुजरते मंदिर के पूजास्थल में जमाँ होकर आरती में शरीक हो रहे थे पर चिराग उदास भाव से वही बैठा रहा, अब वह नज़रे झुकाए जैसे सब कुछ हारे जुआरी सा प्रतीत हो रहा था, उसे पता भी चला कि वह कबतक ऐसा ही बैठा रहा फिर किसी के दो तीन बार की पुकार पर वह सर उठकर अब अपने सामने किसी पंडित जी पूजा थाली लिए खड़ा देखता रहा|
“माँ के दरबार में सिर्फ चौखट में आकर न रुके रहो – जाओ बेटा माँ के दर्शन करो और अपने सारे दुःख माँ के चरणों में अर्पित कर दो|” कहते हुए वे टीका उसके माँ थे में लगाते हुए आगे बढ़ गए|
टिके का प्रभाव था या सच में माँ के दर्शन माँ त्र से उस पल कोई अनजाना सुकून सा उसके जेहन में सूखी नदी में बारिश के पानी सा उतर आया, वह कुछ पल हाथ जोड़े सच में सारा दर्द उनके चरणों में अर्पित करता उस पल का सुकून दिल में लिए अब वापस घर की ओर चल देता है|
घर आते उसके इंतजार में बैठी माँ को खाने के लिए मना कर अपने कमरे की ओर बढ़ जाता है| बालकनी में बैठे उसकी नज़र अब आसमाँ न की ओर उठ गई थी, आज पूर्णिमाँ की भरपूर रात थी, चाँद अपने पूरे शबाब में खिला उदास धरती को माँ नों जबरन अपने अंक में समाँ ने को बेचैन दिखाई दे रहा था, उस पल की बेचैनी कुछ कुछ चिराग की आँखों में भी उमड़ आई थी, अब चाँद भी थोड़ा उदास हो चला, इसी पल सुगंधा भी छत वाले कमरे में बेचैनी से करवट लेती बरबस ही खिड़की से झांकते चाँद पर अपनी नज़र टिका देती है| नींद जैसे दोनों की आँखों से रूठी थी, बेकरारी दोनों के जेहन में उमड़ रही थी और दबी ख्वाहिश एक ही थी जो ख़ामोशी से चाँद देखता किसी बच्चे सा रूठता खुद को कुछ पल के लिए बादलों की चादर के पीछे छुपा लेता है| एक अकेला चाँद और विपरीत दिशा से ताकते दो जोड़ी बेचैन नयन सब उस पल की ख़ामोशी में जब्त होकर रह जाते है|
रात जितनी बेचैन थी सुबह उतनी ही उम्मीदों भरी गर्म थी, लिहाफ हटाते चिराग सात बजे ही तैयार होकर बाहर निकलने लगा, उसे नाश्ते के लिए पुकारती माँ उसे कमरे से तैयार होकर निकलते देख चौंककर देखती रह गई| कुरते में वे उसे ऊपर से नीचे देखती हुई ब्लेज़र उसकी बाजू में टंगा देख वे हैरानगी से उससे पूछती है इसपर चिराग सपाट भाव से कहता हुआ आगे बढ़ जाता है|
“मंदिर जा रहा हूँ – वही से ऑफिस निकल जाऊंगा – ब्रेकफास्ट भी आज बाहर ही कर लूँगा – बाय माँ |” वे हैरान उसे जाता हुआ देखती रही और चिराग अपनी रफ़्तार से सीढियाँ उतर गया|
अगले ही पल चिराग फिर उसी मंदिर की चौखट पर खड़ा अन्दर बढ़ने ही वाला था कि कुछ अनजानी आवाज उसका ध्यान अपनी ओर खींच लेती है, वे अपनी ओर बुलाती फूल नारियल की दुकानों से आती कुछ आवाजे थी, आखिर चिराग उनकी ओर बढ़ता हुआ उन्हीं दुकानों के बीच में उदास भाव से बैठी एक बूढी अम्मा तक उसका ध्यान जाता है, वह उनकी और झुकता हुआ उनके सामने सजे दो चार नारियल रखे देख एक नारियल लेलेता है, जिससे उस पल की उनके चेहरे की मुस्कान कृतज हो उठती है|
नारियल लेकर चिराग मंदिर के पूजास्थल में जाता अब दिव्यमूर्ति के सम्मुख खड़ा था| माँ की सेवा में लगे पंडित जी सभी भक्तों को क्रमशः उनका चढ़ावा प्रसाद के रूप में उन्हें वापिस दे रहे थे, ऐसे ही भाव से वे हाथ में लड्डू लिए इधर उधर देखते मन ही मन बुदबुदा उठे – ‘कहाँ गई वो बिटिया !!’ फिर चिराग की ओर नज़र करते है जो नारियल उनकी ओर बढ़ा रहा था, वे नारियल लेते वह लड्डू उसकी अंजुली में रखे माँ ता की ओर मुड़ जाते है, चिराग हाथ जोड़ता प्रसाद के साथ बाहर निकल जाता है| आधा नारियल चढ़ा कर ज्योंही पंडित जी वापिस चिराग की ओर मुड़ते है उनकी नज़र अब उसके स्थान पर परिक्रमाँ कर वापिस आती सुगंधा पर पड़ती है तो उन्हें कुछ समय पहले उसका प्रसाद देते उस लड्डू का ख्याल आते वे आधा नारियल उसकी अंजुली के सुपुर्द करते आशीष देते हुए वापिस माँ की ओर मुड़ते हाथ जोड़ते मन ही मन बुदबुदा उठते है – ‘माँ ही जाने किसके हिस्से क्या आएगा |’
सुगंधा पूर्ण श्रध्दा से नारियल अपने अंक में लेती घर वापिसी की ओर अपने कदम बढ़ा देती है तो चिराग अब तक सुदामा नगर कॉलोनी का चक्कर काटने गाड़ी से निकल चुका था|
क्रमशः……
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