
सुगंधा एक मौन – 24
मंदिर होकर सुदामा नगर के सेक्टर के चक्कर काटना और फिर ऑफिस को निकल जाना अगले कुछ दिन तक चिराग की यही दिनचर्या रही, ऐसे ही किसी दिन वह मंदिर से निकलकर थोड़ी दूर खड़ी अपनी कार की तरफ बढ़ रहा था कि अपने नाम की पुकार पर वह पीछे पलटकर देखता है, वे अपने भरसक तेज कदमों से उसकी तरफ तेजी से आ रही थी और चिराग अवाक् उस ओर देखता रह गया|
“मैंने तो तुम्हें दूर से भी पहचान लिया |”
वह चिराग के ठीक सामने आकर रूकती हुई अपनी भरपूर मुस्कान उसपर उड़ेलती हुई कहती है जिससे उसके होठों के किनारे भी फ़ैल जाते है|
“मौसी जी – आप – आप कब वापस आई ?” चिराग आगे बढ़कर उनके पैर छूता है तो वे भी उसकी लम्बी कद काठी को अपनी ओर झुकाती उसका माँ था चूम लेती है|
“आज सुबह ही वापस आई – आसरा की पचीसवीं वर्षगांठ है न |” वे बड़े उत्साह से कहती है जिससे चिराग अपने दिमाँ ग पर जोर देता हुआ याद करता है तो आसरा नाम की एक सामाँ जिक संस्था का चित्र उसके मष्तिष्क में उभरता है|
“पर ये बताओ मेरा डैशिंग बच्चा यहाँ क्या कर रहा है – ये न घर के रास्ते में है और न ऑफिस !”
चिराग उनकी बात पर हौले से हँसता हुआ एक पल को उनका उम्रदराज चेहरा देखता रहा जिसमें हमेशा की तरह से उसके लिए ढेरों फ़िक्र भरा प्यार था, जब भी वे शारजाह से आती हमेशा उससे मिलने जरुर आती अबकी वे वाकई काफी समय बाद आई थी|
“तुम्हें ऐसे ही खुश और स्वस्थ सामने देखूं यही आशीर्वाद है मेरा – अच्छा मैं जा रही हूँ कल्याणी के पास – शाम को जल्दी आना फिर मिलकर खूब बात करेंगे |” बिन रुके धाराप्रवाह कहती वे जल्दी से अपनी कार की तरफ बढ़ गई और चिराग वही खड़ा मुस्करा कर कुछ पल तक उनकी तरफ देखता रहा|
चिराग की माँ की बड़ी बहन और माँ यके के रूप में अब वे बहनें ही एकदूसरे का संभल थी, कल्याणी से सात साल बड़ी थी पर अपने अत्यधिक उत्साह और उम्र को धता पढ़ाती जिजीविषा ने उन्हें सदा अंतर्मन से जवां रखा| बहुत प्रारंभिक में पति विहीन होने से निसंतान्तता के फलस्वरूप चिराग और अतुल को ही वे सदा माँ तृत्व स्नेह देती रही और शेष जीवन सामाँ जिक उत्थान के लिए कार्य करती अक्सर भारत आती तब यहाँ उनके पति द्वारा शुरू की गई आसरा नाम की संस्था उनके जीवन का एक अहम् उद्देश्य बन जाता|
दोनों एक दूसरे के सामने आती अतिरेक हर्ष से गले लग गई|
“जीजी आने का बताया क्यों नही – मैं एअरपोर्ट गाड़ी भेज देती|”
“कोई जरुरत नही थी – आसरा से गाड़ी आ गई थी – चिराग की तबियत सुनकर कितनी बार आने का प्रयास किया पर हर बार कोई न कोई कारण से टिकट कैंसिल करानी पड़ती तो इस बार सोच लिया कि अचानक पहुंचकर सबको चौंका दूंगी |”
“हाँ – वाकई आपने चौंका दिया |” वे हाथ पकड़कर उन्हें बैठाती हुई पूर्ण हर्ष से कह उठी|
“अरे चौंका तो चिराग ने दिया – जिस उम्र में लड़के पब के चक्कर काटते है वो मंदिर मंदिर क्यों घूम रहा है – शादी वादी क्यों नही कर देती और उस लड़की क्या हुआ – कुछ पता चला ?” एक साँस में ही वह सब कह बैठी|
जितने उत्साह से वह सब जानने को उत्सुक थी कल्याणी जी उतनी की नीरसता से कह उठी – “छोड़ो जीजी उस लड़की की बात – अच्छा है वह चिराग के जीवन से दूर ही रहे – उसकी वज़ह से दो दो बार चिराग मौत के मुंह तक पहुँचते पहुँचते बचा – मनहूस है वो चिराग के लिए |” उस पल वे जितनी नफरत अपने भाव में ला सकती थी उस भाव से वह अपनी बात कहती है|
“कैसी बातें करती हो कल्याणी – तुम भी जाने किस अन्धविश्वास में जीती हो – ये होनी थी जो हो कर टल गई – हो सकता है चिराग उसकी वज़ह से हर बार मृत्यु से बच पाया हो – कभी तो सकारात्मक सोचा करो |”
हलके से डांट लगाती वे कहती है तो कल्याणी जल्दी से बातों का रुख मोड़ती हुई कहती है – “अच्छा ये सब छोड़ो जीजी – ये बताओ अबकि महिनाभर तो रुकोगी न आप !!”
“कह नही सकती – इस बार बड़ी दुविधा में आई हूँ – दोनों तरफ जरुरत है – अब देखो कब तक रुक पाऊँगी – अतुल कहाँ है – क्या कॉलेज गया है ?”
“हाँ |” कहकर दोनों की मुस्काने एकसार हो उठी|
“अच्छा पहले आप फ्रेश हो लो मैं आपका नाश्ता लगवाती हूँ फिर हम मिलकर ढेरों बातें करेंगी|” कहती हुई कल्याणी जी उठ गई तो मौसी जी थोड़ा और पसरती हुई अपनी पीठ सीधी करने लगी|
“कल्याणी बहुत काम है – अब थोड़ा धर्म कर्म का काम तुम भी कर लो – मेरे साथ संस्था का थोड़ा बोझा ले लो|”
“हाँ जीजी कितने का चेक चाहिए – मैं जरुर संस्था के लिए दूंगी |” वे खड़े खड़े पूर्ण हर्ष से बोली तो कनकलता जी उनका चेहरा गौर से देखती हुई बोली – “कल्याणी धन नही बल्कि सहयोगी हाथों की जरुरत है – धन तो मैं भी भेजती रहती हूँ – ईश्वर ने तुम्हें सुपुत्र दिए है पर आकर कभी उनका दर्द बाटों जिन्हें उनके अपनों ने ही त्याग दिया|”
“क्या पता जीजी ये तो वक़्त ही बताएगा – बेटे तो अपने होते है पर आने वाली बहु को कौन जाने – क्या पता कल को उस आश्रम मुझे भी जाना पड़े|” वे हंसी उड़ाते अंदाज में हंसी तो वे उनका चेहरा देखती रह गई|
आसरा संस्था बेसहारा वृद्धों के लिए प्रेम पूर्ण आश्रय थी, जिसकी मुख्य संचालिका चिराग की मौसी कनकलता थी, कुछ दिन पश्चात आसरा अपनी पच्चीसवीं वर्षगांठ मनाने जा रही थी, इसके लिए सिर्फ वे ही नही बल्कि सुगंधा की नूतन मैम भी अति उत्साहित थी|
कार्यक्रम छुट्टी वाले दिन आयोजित हो रहा था जिससे तैयार होकर नूतन मैम बस निकलने ही वाली थी तो सुगंधा को भी निकलते देख वे उससे पूछती है – “कहाँ सुगंधा !!”
“सुदामाँ नगर अपनी क्लास के लिए |” सीढ़ियों से उतरते उतरते वह कहती है|
“चलो मैं भी उसी ओर जा रही थी आसरा संस्था के लिए – आज कार्यक्रम है न |”
“ओह हाँ – कोई जरुरत हो मेरी तो बताईएगा मुझे !”
“हाँ हाँ क्यों नही – ऐसा करना क्लास के बाद तुम वही आ जाना – फिर साथ में वापस आ जाएँगे – मुझे वैसे भी जरुरत थी कि कोई मेरे साथ चले |” अपनी बात कहते कहते अब वे वही कुछ दूरी पर टी वी के सामने पसरी छवि को देखती हुई पुकारती है – “छवि !”
“अब आप मेरी ओर मत देखिए मैं छुट्टी वाले दिन कहीं नही जा रही|” बिना उनकी ओर देखते रिमोट से चैनल पलटती हुई बेरुखी से बोली|
“अरे मैं तो ये कह रही हूँ कि हमे देर हो जाएगी – खाने पर हमाँ रा इंतजार मत करना |” वे भी उतनी ही बेरुखी से मुंह बनाती हुई बोली तो छवि एकदम से उनकी ओर पलटी, उसे लगा था वे चलने की इल्तिजा करेगी और वह नखराती हुई मना कर देगी पर यहाँ पासा ही उलट पड़ा|
छवि उनके चेहरे की तिरछी मुस्कान देख और चिढ़ती हुई बोली – “मैं भी खाना नही बना रही – बाहर से ऑर्डर करुँगी |” कहती फिर टी वी की ओर अपना ध्यान ले गई|
“चलो सुगंधा हम भी आज बाहर खा कर आएँगे |”
सास बहु की इस मीठी नोंकझोंक देख सुगंधा के होंठों पर भी हलकी हंसी तैर गई|
“जीवन का वो पड़ाव जब अपने हिस्से का श्रम कर शरीर अपनों के बीच सुकून से रहना चाहता है क्योंकि थका शिथिल तन अब और जीवन की कठिनाइयों का बोझा नहीं उठा सकता तब उस वक़्त वही अपनी औलादे उन्हें व्यर्थ समझ त्याग देती है उस पल उन बूढी आँखों का दर्द कोई नही समझ सकता – मैं कभी नही चाहती कि ऐसे आश्रम और खुले बल्कि चाहूंगी ये आखिरी वृद्धा आश्रम हो – |” मंच पर संबोधन करती कनकलता अपना संभाषण प्रस्तुत कर रही थी और सामने नूतन मैम के साथ सुगंधा और उनके बगल में अजनबी बनी बैठी कल्याणी जी और बाकि उपस्थित कार्यकर्ता श्रोता दीर्धा में बैठे उन्हें सुन रहे थे|
“पर आज दिन प्रति दिन जिस तरह से ओल्ड ऐज होम के आकड़े बढ़ रहे है उस तरफ हमे ध्यान देना होगा – हमाँ रा परम कर्तव्य इनकी देखभाल करना होना चाहिए, उन्हें सहारा देने के बजाय उनका साथ देना होना चाहिए…..|”
अचानक कोई आवाज उनके भाषण की बाधा बनती उनके बीच आ गई जिससे सबका ध्यान उस ओर चला गया, कनकलता जी रूककर संस्था की संचालिका वंदना जी की ओर देखती है जो कहती हुई उठकर तेजी से उस आवाज की ओर बढ़ गई|
“सीता देवी की आवाज लगती है – मैं देखती हूँ |”
वंदना जी के पीछे पीछे कनकलता जी भी अब उस ओर बढ़ जाती है| उपस्थित लोग भी खुद को उस ओर जाने से नही रोक पाते| अब सबकी नज़र एक वृद महिला की ओर थी जो गुस्से में सामाँ न फेंकती अपनी कांपती देह के साथ उकड़ू बैठी थी| पास ही डरी सहमी खड़ी सेवाकारी महिला सामाँ न हाथों में लिए अब सबको आता देख जल्दी से वंदना जी की तरफ बढती हुई धीरे से कहती है – “फिर वही जिद्द खाना नही खा रही और संस्था द्वारा दिया शाल भी फेंक दिया |” घबराती आवाज में कहती एकबार फिर वह उस वयोवृद्ध देह की ओर देखती है|
ये सुन वंदना जी के चेहरे पर भी परेशानी के भाव उमड़ आते है, हतप्रभ खड़ी कनकलता के बगल में खड़ी कल्याणी जी अपनी बहन का बाजु हलके से खींचती हुई इशारे से कारण पूछती है तो वे धीरे से कहती है – “इनका बेटा ही इन्हें आश्रम के बाहर छोड़ गया तब से न कोई खबर ली और न खुद कभी आया – अब ऐसे ही कभी कभी बहुत उग्र हो जाती है और खाना पीना छोड़ बैठती है – |”
ये सुन उस पल कल्याणी जी के चेहरे में जैसे कुछ बदल गया|
सब अभी भी हतप्रभ उस ओर देख रहे थे कि सहसा किसी आवाज पर उनका ध्यान सुगंधा की ओर जाता है जो शाल हाथो में लिए उनके सामने खड़ी कह रही थी – “अम्मा आपके लिए |”
आवाज सुन वे अपना झुरियों भरा चेहरा उठाकर सुगंधा की ओर अपनी झपकाती आँखों से देखती है|
“बेटे का दिया शाल भी नही लेंगी – देखिए इसमें लिखा है |”
सुगंधा शाल के पैकेट के ऊपर अंग्रेजी के लिखे अक्षरों को उनकी नज़रो के सामने करती हुई कहती रही – “लिखा है अम्मा इस बार शाल भे रहूँ – अभी व्यस्त हूँ – बहुत ज्यादा काम है पर जैसे ही समय मिलेगा तुरंत भागता हूँ आऊंगा आपके पास |”
“क्या सच मेरे बेटे ने भिजवाया है ये शाल !!” वे अपने कांपते हाथों के बीच उस शाल को समेटती खुश होती हुई बोल पड़ी|
“हाँ देखिए लिखा है इसमें – मैंने तो सिर्फ पढ़ा है |” कहती हुई सुगंधा खाने की थाली लिए अब उनके बगल में बैठी उनका सर धीरे से सहलाती हुई कह रही थी – “तो अब अगर आप अपना ध्यान नहीं रखेंगी तो अपने बेटे संग वापस कैसे जाएंगी – आपको कमजोर देख उसे भी बुरा लगेगा न |”
ये सुन उनकी बूढी आँखों में जैसे उम्मीद की कोई चमक लहक उठी और जल्दी से थाली अपनी ओर खींचती वे खाना खाने लगी| सब ये दृश्य आँखे फाड़े देखते रह गए|
अब उनको सेवाकारी महिला की निगरानी में छोड़कर सब मंच की ओर बढ़ गए लेकिन सुगंधा ने जो किया उससे कनकलता जी अपनी नज़रे उस पर से नही हटा पाई और उसके पास आती बड़े प्यार से उसे देखती हुई पूछ बैठी तो नूतन मैम उनके बीच आती हुई कह उठी – “मेरी बेटी है – निशा – यही सुदामाँ नगर में मैथ्स की कोचिंग लेती है जरूरतमंद बच्चो की – आज मेरे साथ यहाँ चली आई|”
“ओह – बड़ी नेक है आपकी बेटी – तुम्हारे जैसे नई उम्र के बच्चे यहाँ से जुड़े तो ये सबके लिए प्रेरणादायक हो सकता है|”
“तो क्या मैं यहाँ कभी भी आ सकती हूँ !!” सुगंधा पूछ बैठी|
“अरे पूछना क्या – जब जी करे तब आओ बेटी – हम तो बल्कि कृतग्य होंगे |”
उनकी हाँ सबके चेहरे पर मुस्कान बन खिल आया|
आखिर समय पर सभी कार्यक्रम सही तरीके से संपन्न हुआ और कल्याणी जी के साथ कनकलता उनके घर साथ में चली आई| इस बीच थोड़ी थोड़ी देर में कई फोन आ गए जिससे वे थोड़ी परेशान हो उठी|
क्रमशः…..