Kahanikacarvan

सुगंधा एक मौन – 28

गुज़री रात कैसे कटी फिर सुबह कब हुई सब उसकी अधखुली चेतना का अच्छे से पता था, उसे लगा वह उड़ते हुए संस्था पहुँच जाए पर रास्ता तो अपनी समय सीमाँ  से तय होता, अब वह संस्था में मौजूद था| वहां के कर्मचारी चिराग को हैरान देखते रह गए कि इस उम्र का मेनेजर क्या कर रहा है संस्था में !!!

वहां पहुंचकर उसे कुछ देर में ही अहसास हो गया कि कल मौसी जी जब सब कुछ समझा रही थी काश वह कुछ पल के लिए समझ लेता पर अब यहाँ की व्यवस्था उसके सर के ऊपर से गुज़र रही थी और सभी ऑंखें उसकी ओर टकी हुई माँ लूम पड़ रही थी| किसी तरह से कार्यवाही करता उसका मन बार बार दीवार फांदकर सुगंधा को देख आता..फिर घडी में शाम के चार बजते चिराग ने खुद को वहां सबसे ज्यादा व्यस्त कर लिया|

चार बजते सुगंधा सच में वहां आ गई, उसके आने का आभास चिराग को हो चुका जिससे उसके दिल की धड़कने धौकनी की भांति चलने लगी थी| गेट से प्रवेश करते ही चौकीदार सुगंधा को टोकते हुए बोला – “अरे बिटिया कल काहे नहीं आई?”

“हाँ वो कल कोचिंग नहीं थी तो इस ओर आना ही नहीं हुआ |” वह सहज मुस्कान से अपनी बात कहती है पर इसके विपरीत चौकीदार का चेहरा तनाव से ग्रसित बना रहा|

“आ जाया करो बिटिया अब तो यहाँ की दुनिया ही उलट पुलट हो गई है- नए मेनेजर साहब आए है|”

सुगंधा कुछ पल रूककर उसका चेहरा देखती है पर कुछ समझ न पाने की स्थिति में आगे बढ़ जाती है| कमरों के गलियारे से गुजरते रसोईघर से निकलते गनेसी सुगंधा के सामने आता हुआ कह रहा था – “देखो दीदी – नए मेनेजर साहब क्या किए – हम सामाँ न लिखने को बोले थे तो देखो क्या लिखकर दिए है तीन किलो मिर्चा और पाव भर आलू – |” एक कागज का पुलिंदा उसकी आँखों के सामने करता हुआ कहता है तो सुगंधा हैरान लिस्ट देखती रह जाती है|

सुगंधा अब ऑफिस की ओर बढती हुई कहती है – ‘कौन है नए मेनेजर साहब – अब तो देखना पड़ेगा |’

अभी वह ऑफिस की ओर बढ़ी ही थी कि मिश्रा जी कुछ भुनभुनाते हुए अपने हाथों में एक गठरी लिए हुए वापस निकल रहे थे|

सुगंधा ठहर कर उसकी तरह देखती कुछ पूछने को ही होती है कि उससे पहले ही वह बडबडाने लगता है – “अब कोई इतना भी अबूझ कैसे हो सकता है कि पर्दा और चादर में फर्क ही नहीं पता – बोला था धोबी को चादर देना है तो परदे दे दिए |” वे बिना रुके अपनी बात कहते निकल गया|

अबकी सुगंधा को सच में हलके से हंसी आ गई वह मन ही मन कह उठी कि देखना पड़ेगा ऐसा भी कौन अनगढ़ होता है| वह अन्दर प्रवेश करती है तो कमरे की रौशनी में उसकी नज़रो की सीध में वह जिसकी काठी देखती है तो उसके चेहरे के भाव पल में बदल जाते है, वह उसकी ओर पीठ करे अपनी टेबल को खिड़की के पास सरका रहा था, सुगंधा की हैरान नज़रे अपने सामने के परिदृश्य पर जमी रह गई, जिसकी परछाई भी वह भीड़ में पहचान सकती थी उसके यहाँ होने की उम्मीद उसका दिल कतई नही कर रहा था, ये वक़्त ये लम्हा उसकी सोच के विपरीत खड़ा था और वह हैरान न आगे बढ़ पाई और न कदम पीछे ले जा पाई|

चिराग बिना पीछे पलटे अपने कदम पीछे करता टेबल लगाता रहा, उस पल उसके दिल का वो आलम था कि लग रहा कि उसकी बाजुओं ने मेज नही बल्कि उसका हर पल भारी होता दिल संभाल रखा है जिसे बड़ी मुश्किल से वह उठा पा रहा है, वह अपने धडकते दिल के साथ मेज रखता धीरे से पीछे पलटता है| वह पूरी कोशिश किए था कि सुगंधा का वहां होना उसके लिए एक आश्चर्य के रूप में उसके चेहरे पर दिखता रहे पर बड़े हौसले से वह खुद से ये करा पा रहा था|

उस पल उनके चेहरे और ऑंखें एक दूसरे की सीध में थी, वह जड़वत हुए एक दूसरे को देखते रहे, चिराग नयन भरकर उस दृश्य को अपने दिल की अतुल गहराईयों में उतार लेना चाहता था पर सुगंधा के लिए वो पल खुद को सयंत रखना मुश्किल हो गया, लगा आँखों की तलहटी में जमाँ  कुछ आँखों से बह जाएगा और दूर तक अनवरत बहती नदी सी वह किसी सूखे पत्ते की तरह दूर तक बह जाएगी जिसे किसी जलप्रपात में गडमड होकर मिलना ही उसकी इति होती फिर भी न जाने किस हौसले से वह खुद को संभालती तुरंत उसकी ओर से पलटती चिराग की ओर पीठ करके खड़ी हो गई ये देख चिराग के चेहरे पर हलकी मुस्कान तैर गई वह मध्यम क़दमों से उसकी ओर बढ़ने लगा, उसके विपरीत सुगंधा वहां से चली जाना चाहती थी पर किसी तरह से हौसला करती वह उसकी ओर पलटी अब वे एक हाथ के भी फासले में नही थे, चिराग को लगा उसकी चेतना बस उसकी एक बांह की दूरी पर है वह बढ़कर उसे थाम लेना चाहता था पर सुगंधा की झुकी नज़रे उसे परेशान कर गई बस वह उसे पुकार ही सका माँ नों शून्य होते ह्रदय को अंतिम स्पंदन दे रहा हो|

“सुगंधा…!”

“मुझसे कोई सवाल मत करना मैं उसकी कोई जवाबदेही नहीं कर पाऊँगी |” उसकी टूटती आवाज माँ नों झरने की तरह उसके मन की सूखी चट्टान पर एक झटके में आ गिरी हो|

“मैंने तो कुछ पूछा ही नहीं |” वह एक कदम और उसकी ओर बढ़ गया जिससे सुगंधा उसकी आँखों में  सीधा देखती रह गई जहाँ सच में कोई सवाल का नामोनिशान तक नहीं था सिर्फ विश्वास का दीप्त दीया प्रकाशमय था, वह हैरान उन आँखों को देखती रह गई, उसकी बेजान किस्मत को इन आँखों की जीवंत ऊष्मा कैसे नसीब हो गई..वह तो अभागी सुगंधा है !!

तभी उनके बीच कोई आवाज जबरन प्रवेश करती गूंज गई – “अरे मेनेजर साहब यहाँ आइए – सामाँ न आया है देख लीजिए आ के|”

इस आवाज से दोनों की तन्द्रा साथ में भंग होती है तो सुगंधा फिर वापस मुड़कर जाने लगी तो पीछे से चिराग की आवाज उसके क़दमों को वही रोक लेती है|

“सुगंधा मेरी थोड़ी सी मदद कर दो – मुझे कुछ यहाँ समझ नही आ रहा – बड़ी मुश्किल से ये नौकरी मिली है अगर ये नौकरी छूट गई तो बेचारे मेरे छोटे भाई की पढ़ाई भी छूट जाएगी – वैसे भी आज बहुत गड़बड़ कर चुका हूँ मैं – प्लीज़ |” चिराग अपनी आवाज में जितनी बेचारगी ला सकता था लाता हुआ कहता है|

चिराग की बात सुन सुगंधा का एक पैर जैसे देहरी के ऊपर हवा में टंगा रह गया| कुछ पल तक जैसे दोनों अपने स्थान पर जडवत खड़े रह गए माँ नों खेल खेल में कोई उन्हें स्टैचू कह गया हो, चिराग को बस सुगंधा की अगली प्रतिक्रिया का इंतजार था जो उसके लिए किसी जीने मरने की प्रश्न से कम नही थी जिसपर वह अपने युद्ध और प्रेम में खेले गए हर दावं की तरह अंतिम दावं देकर इंतजार कर रहा था| फिर अगले ही क्षण सुगंधा जाने क्या सोच अपने कदम वापिस लेती चिराग की तरफ मुड़ जाती है और चिराग इस एक पल की बेइन्तिहाँ ख़ुशी भी बड़ी मुश्किल से अपने चेहरे से छुपा ले जाता है|

क्रमशः………

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