Kahanikacarvan

सुगंधा एक मौन – 29

सुगंधा चिराग की ओर पलटकर आती जरुर है पर उसकी तरफ देखे बिना ही उसके सामने खड़ी रहती है किसी बेबस मुजरिम की तरह, जिसे अहसास था अपने कसूर का जिसे सजा भी मंजूर थी पर दिल गवाही देने से बच रहा था, वह चिराग की निगाहों को अपने चेहरे पर टिका महसूस कर रही थी फिर भी वह एक कदम भी वापसी की ओर नहीं मोड़ पाई, उस पल खुद पर ही झुंझलाहट हो उठी कि क्यों वह चिराग की हर बात सहज माँ न लेती है| उसका दिल हर बार उसे ही धोखा दे देता और वह माँ यूस सी वक़्त के हाथों खिलौना बनी रहती, अजब है चाहना भी जिसके सबसे करीब है उसी से दूर भी होना चाहते है, अबकी रुकना भी चिराग के लिए ही था और जाना भी उसी के लिए, कैसे दोराहे पर उसका मन टिका रह गया था|

“अरे मेनेजर साहब अब आइएगे भी |” वह आवाज उनकी तन्द्रा फिर भंग करती है तो सुगंधा और चिराग अपने अपने ख्यालों के आसमाँ न से उतरकर हकीकत की जमी में आ जाते है|

सुगंधा बिन शब्दों के ही चिराग को अपने साथ चलने का कहती उस आवाज की ओर चल देती है| अगले ही पल राशन के सामाँ न के ढेर के सामने दोनों खड़े थे और वहां के कारिंदे हर सामाँ न को लिस्ट से देखते अलग अलग श्रेणीबद्ध करते उन्हें रख रहे थे| ये सब देखते चिराग के दिमाँ ग के सारे फ्यूज उड़ गए, कभी रसोई में न झाँकने वाला चिराग बहुत देर दाल और मसालों को देखता रहा जिसमे से किसी का भी नाम उसे नही पता था, ये देख आधों की आँखों में आश्चर्य तो कुछ इस संस्था की बेचारगी पर तरस खाने लगे, आखिर सुगंधा के मुंह से भी निकल पड़ा कि तुमने दाले कभी नही देखी !! अब चिराग मन मसोजे सिर्फ मुस्करा कर रह गया अब क्या कहता कि मेज पर पका खाना देखते हुए कभी सोचा ही नहीं उससे पहले उसका क्या रूप रहा होगा ?

सुगंधा कुछ क्षण उसका चेहरा देखती रही शायद आने वाली चुनौतियों के लिए खुद को तैयार कर रही थी| जैसे तैसे वहां से निपटकर चिराग ने एक गहरा उच्छवास लिया ही था कि मिश्रा जी उसे आवाज लगाकर अपनी ओर उसका ध्यान आकृष्ट कराते है| चिराग अब सब्जियों के ढेर के सामने हतप्रभ खड़ा कभी सब्जी को देखता तो कभी बारी बारी से मिश्रा जी, गनेसी और सुगंधा को जो उसकी अगली प्रतिक्रिया के लिए अब उसी का चेहरा ताक रहे थे| चिराग को पूरे हफ्ते का मेन्यू तैयार करना था जबकि उसकी मुश्किल ये थी कि उसे न खाने में कोई रूचि थी न उसकी रेसिपी में, घर पर जो बना खा लिया कभी अतुल की तरह खाने को लेकर उत्साहित नही रहा| आखिर सुगंधा ने जैसे आँखों से ही चिराग की परेशानी समझ ली और आगे आती सब्जियों को देखकर सुझाव देने लगी जिसे चट से चिराग नोट पैड में नोट करता रहा|

किसी तरह से एक पूरा दिन चिराग यहाँ की व्यवस्था समझता हुआ जान पाया कि संस्था का काम उसके ऑफिस के काम की तरह बिलकुल नहीं था, मेनेजर होने का अर्थ संस्था को किसी परिवार की तरह चलाना था जिसका उसे नाम माँ त्र का भी अनुभव नहीं था| पर आज सुगंधा ने सच में उसकी जान इस झंझटों से बचा ली|

रोजाना की अपेक्षाकृत आज सुगंधा को वहां कुछ ज्यदा ही देर हो गई, घडी में सात बजते सुगंधा वहां से जाने लगी तो पीछे से उसे टोकते हुए चिराग कह उठा – “थैंक्स |” ये सुन सुगंधा गलियारा पार करते करते वही थम कर उसकी ओर पलटी माँ नों आँखों से कह रही हो कि जहाँ अधिकार दे दिया हो वहां औपचारिका का कोई अर्थ नही|

वह फिर चलने को हुई तो चिराग कह उठा – “कल क्या होगा – अभी कुछ दिन तुम्हारी हेल्प मिल जाती तो….!” वह जानकर अपने शब्द अधूरे छोड़ता आगे कह उठा – “तुम्हारा तो नंबर भी नही पता |” बड़ी बेचारगी से वह अपनी बात कहता है, उसे लगा कम से कम सुगंधा उसे अपना नंबर तो आज दे ही देगी..

सुगंधा ठहरकर उसकी ओर बिना देखे ही कह रही थी – “कल सुबह ठीक दस बजे आ जाउंगी एक घंटे के लिए फिर जाकर तीन बजे ही आ पाऊँगी क्योंकि इस बीच मेरी क्लास भी है |” कहकर सुगंधा वापसी की ओर अपना कदम बढ़ा देती है|

चिराग नही देख पाया कि ऐसा कहते सुगंधा का चेहरा कैसा हो आया पर उसके चेहरे पर तो जैसे एक साथ हज़ार बसंत खिल आए थे अगर इस पल सुगंधा उसकी ओर मुड़कर उसका चेहरा देख लेती तो इस दीवाने दिल से दूर जाने का वो कभी नही सोचती पर सुगंधा जा रही थी अब पीछे से चिराग भी जाने को तैयार बाहर की ओर निकलकर आता है तो गेट के सामने खड़ी ऑटो के बगल में सुगंधा खड़ी थी जिससे ऑटो वाला कह रहा था – “बिटिया आज बहुत देर कर दी |”

जिसपर सुगंधा बस धीरे से मुस्करा कर ऑटो में बैठ कर अब गेट की ओर देखती है जहाँ चिराग खड़ा उसकी ओर ही देख रहा था आखिर सुगंधा धीरे से पूछ उठी – “छोड़ दे क्या ?”

“नहीं चला जाऊंगा |” झट से उसके मुंह से निकला और वह हैरान देखता रहा कि सुगंधा एक ही बार में उसकी बात स्वीकारती आराम से बैठ गई और ऑटो उसकी आँखों के सामने से चला जा रहा था| देरतक वही खड़ा चिराग उस ऑटो को जाता देखता हुआ सोचता खुद पर ही नाराज़ हो उठा कि क्यों औपचारिक हो उठा काश उसी वक़्त हाँ कह देता तो इस वक़्त उसके साथ बैठा होता ये सोच दूसरे पल खुद की दीवानगी पर उसे हंसी भी आ गई और वह मुस्कराता हुआ पैदल उस गली की ओर बढ़ गया जिसके छोर पर वह कार खड़ी करके आया था|

ये रात अब उसकी कैसे कटेगी यही सोचते वह झूमता हुआ घर वापस आता है, आज आधा दिन वह सुगंधा के साथ रहा उनके बीच कितने शब्द मौन नदी से बहते रहे और वह उसकी ओर देखता रह गया, सुगंधा का साथ होना भर ही उसके लिए इस वक़्त बहुत था पर होता है न कि दिल माँ गे मोर जितना भी मिलता है दिल हमेशा उससे कही आधिक चाहता है इसी सोच में मन ही मन कुछ गुथता हुआ चिराग रसोई में आ जाता है, अचानक रोटी सेंकती काकी चिमटा थामे रह जाती है तो माँ कटोरी में उसके हाशिए से अधिक सब्जी डाल बैठती है| चिराग सामने कांच के मर्तबान की दालों के नाम पूछ रहा था तो आज जानना चाहता था कि सब्जी कौन सी बनी है| माँ हैरानी से कह उठी – “आलू मटर की |”

“कितने किलो आलू पड़े है इसमें ?”

चिराग के इस प्रश्न पर उनकी हैरान नज़र अगले ही पल हंसती हुई कह उठी – “हुआ क्या है चिराग – कोई रेस्टोरेंट खोलने जा रहे हो क्या ?” माँ को हँसते देख काकी की भी हंसी छूट गई|

इससे चिराग को अपनी बेख्याली का ख्याल आते वह सकपकाता हुआ कह उठा – “वो वो असल में मेरा डोसा खाने का मन था तो इसीलिए —|” वह सबसे ऑंखें चुराता अपने ही सर पर टीप माँ रता झट से वहां से निकल गया|

“सुगंधा – !” नूतन मैम अचानक सुगंधा को पुकार उठी|

सुगंधा चौंककर उनकी ओर देखती है|

“क्या हुआ ?”

वह हैरान उनकी तरफ देखती माँ नों उन्ही से पूछ उठी कि उसे क्या हुआ !!

“तुम अभी मुस्करा रही थी – क्या सोच रही थी ?”

नूतन मैम की बात सुनते उसे अपनी बेख्याली का अहसास होता है तो धीरे से नज़र उठाकर वह अपनी उपस्थिति की ओर ध्यान देती है कि खाने की मेज पर वह जाने कब चिराग के ख्याल में डूबी उसको सोचती हुई उसी में खो गई थी, सब्जियों को देखते उस पल चिराग के चेहरे पर आती बेचारगी भरी माँ सूमियत पर उसे बड़ी तेज हंसी आई थी तब उसके अर्धचेतन मन में सब्जी का थैला लिए मुस्कराते चिराग के चेहरे पर चला गया तब वह देहरी पर खड़ी कैसे निहार रही होती उसे ये सोचते खुद पर ही वह हंस उठी थी|

“जरा हमें भी सुनाओ क्या हंसी की बात तुम्हे याद आ गई |”

वे मुस्कराती हुई अभी भी सुगंधा की ओर देख रही थी और वह सामने नज़र उठाकर छवि को तो कभी मैम को देखती झेंप गई|

“जी कुछ नही ऐसे ही |” कहती जल्दी से आखिरी कौर खत्म कर वह खाने की मेज से उठ जाती है|

सुबह के इंतजार में रात जैसे उन दो जोड़ी आँखों की नींद सेमल के फाहे सी गुजर गई और वे पत्ते से खुद में ही थरथरा कर रह गए|

चिराग समय से दस मिनट पहले ही पहुंचकर कार को तय जगह छोड़कर संस्था की ओर पैदल ही बढ़ रहा था| उस गली में पहुँचते किनारे खड़े एक ऑटो को देख वह तेज़ी से उसके पास पहुँचता उसके अन्दर बैठने लगता है तो ऑटो वाला पूछ उठता है – “कहाँ जाना है साहब ?” वह उसे कार से उतरता अपनी ओर आता हुआ देख रहा था|

“बताता हूँ स्टार्ट करो – सीधा चलो |” चिराग ऑटो के बाहर झांकता इधर उधर नज़र घुमाँ ता हुआ देखता रहा और ऑटो वाला स्टार्ट कर गली के अंतिम छोर पर जाकर ऑटो रोकता उसके अगले निर्देश के लिए रुककर फिर पलटकर उसकी तरफ देखता है पर चिराग की निगाह तो आस पास रास्तों पर घूम रही थी कि तभी सुगंधा का ऑटो उसके सामने आता वही रुकता है जिसे जानकर अनदेखा करता चिराग ऑटो से उतरता एक नोट उसकी तरफ बढ़ाता एक सरसरी निगाह सुगंधा की ओर दौड़ाता है जिसकी घूमती नज़र अब चिराग से निगाह से मिलते उस पर ठहर गई थी| वह एक अप्रत्याशित नज़र उसकी ओर डाल मुस्करा दिया तो सुगंधा के होठों के किनारे भी हलके से विस्तारित हो उठे|

वे दोनों साथ में अन्दर संस्था की ओर साथ में बढ़ चले तो पीछे ऑटो वाला चिराग के द्वारा दिया सौ रूपए अपने हाथ में लिए अवाक् उसकी ओर देखता सोचता रहा कि सिर्फ पचास मीटर चलने का कोई सौ रूपए क्यों देगा…ये बड़े लोग दो कदम भी नहीं चल पाते….या बिचारे इस जवान लड़के के पैर में कोई तकलीफ है !!!

क्रमशः……..

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