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सुगंधा एक मौन – 30

नवम्बर के आखिरी दिनों के मौसम में कुछ कुछ ठण्ड की खुमाँ री सी चढ़ने लगी थी जिसकी कुछ कुछ हरारत उन दोनों के चेहरे पर भी गुलाबी हो आए कपोलो के रूप में दिख रही थी या ये इश्क का सुरूर था जिसके नशे की ताबीर में उनके मन अपनी बेखुदी में हमकदम हुए चले जा रहे थे जिसमें उनके चलते कदम न थोड़ा आगे होते न पीछे छूटते बस नदी के किनारों की तरह साथ साथ हवाओं संग चले जा रहे थे|

सामने घास के मैदान के मुहाने से गुज़रते हुए वे कदम बड़े एतिहात से पार कर रहे थे माँ नों किसी अदनी सी आहट से भी वे अपनी तन्द्रा भंग नही करना चाहते थे|

“मेनेजर साहब – इन चावलों का क्या करना है ?” एक दनदनाती आवाज बरबस उनके नेह के बीच सेंध लगाती ज्योंही प्रवेश करती है वे दोनों चौंककर उसकी ओर एक साथ देख बैठते है| गनेसी खाली हाथ खड़ा किसी ओर इशारा करता पूछता खड़ा था, उसके संकेत से दोनों की नज़रे अब रसोईघर के दरवाजे के कोने में पड़ी बड़ी बड़ी दो बोरियों पर थी| चिराग को इस वक़्त ये सब नीरस सा लगा पर आशिकी पर वक़्त का मरहम लगाता थोड़ा चिढ़कर कह उठता है – “मुझे नही पता |”

जिससे सुगंधा उसका तना चेहरा देखती रह जाती है, गनेसी का मुंह तो अवाक् खुला रह जाता है| अगले ही पल हालात समझता चिराग अपने स्वर में थोड़ी नरमी लाता हुआ कहता है – “तो गनेसी जी आप ही बता दे इनका मैं क्या करूँ ?”

“मेनेजर आप हो तो हमको क्या पता क्या करना है – आज सबेरे ही कोई संस्था को दान में दे गया |” गनेसी अपना सा मुंह लिए बोरे और सरकाकर जैसे अपना विरोध दर्ज कराता है|

गनेसी के उकताए चेहरे से ध्यान हटाकर चिराग की बहकती नज़र सुगंधा की ओर उठी ही थी कि एक वृद्धा अपनी थुलथुल देह को सुबह के गाउन में समेटे लगभग दौड़ती हुई वहां आती हुई कह रही थी – “सुन तो निशा – आज का जोक |”

“गुड मोर्निंग दादी |” सुगंधा अब आवाज की दिशा की ओर देखती हुई मुस्कराई|

चिराग की नज़र अब उसी ओर जमी देख रही थी कि अपने हाथ का पकड़ा मोबाईल का स्क्रीन पढ़ती हुई दादी संग सुगंधा भी हँस पड़ी थी फिर वे उसे अपने साथ ले जाने लगी तो सुगंधा अपने हाथों में पकड़ी किताबें समेटे थोड़ी उलझती हुई सकपकाई तो गनेसी तुरंत उसकी ओर आता हुआ कहता है – लाओ दीदी मैं किताबे रख देता हूँ |”

सुगंधा मुस्करा कर किताबे उसे सौंपकर दादी संग चली गई और चिराग वही थमाँ  उसे जाता हुआ देखता रहा|

“मेनेजर -|” एक घनी मूछों वाले अधेढ़ चिराग को लगभग घूरते हुए पुनः चीखे – “मेनेजर |”

“ज जी !” आवाज की सरगोशी से जैसे सुगंधा की ओर से भागता हुआ उसका मन अब आवाज की ओर देखता है|

चिराग उनकी ओर देखता थोडा सकपका गया था और वे भी कुछ पल तक उसे यूँ घूरते रहे माँ नों सुगंधा को ताकती उसकी नज़रों की चोरी उन्होंने पकड़ ली हो|

“जी कहिए |” वह एक उड़ती हुई नज़र गलियारे की ओर फेकता हुआ देखता है कि सुगंधा अब वहां से जा चुकी थी जिससे उसके स्वर में भी उकताहट आ गई थी|

“मेरे गले में थोड़ी खराश है तो आज लंच में कढ़ी बनवा दो |”

ये सुनते चिराग जो रसोईघर के नजदीक खड़ा था तुरंत मिश्रा जी को आवाज लगाता है|

आवाज सुन बाहर आता है|

“आज लंच में कढ़ी बना दे|”

कहकर चिराग ऑफिस की ओर पलट ही रहा था कि वे फिर कह उठे|

“वो भी सिन्धी कढ़ी |”

“मेजर सिन्धी क्यों – म्हारे को राजस्थानी कढ़ी खाणी है आज |” गलियारे में तेज क़दमों से आते दूसरे अधेड़ की आवाज ने उन्हें टोका|

“मैनू पंजाबी कढ़ी खानी है मेनेजर |” एक सरदार जी अपनी सफ़ेद दाढ़ी पर हाथ फिराते हुए चिराग को घूरते हुए बोले|

“मने गुजराती कढ़ी खानी है|”

चिराग ऑंखें फाड़े देखता रहा और उसके सामने आते हुए एक के बाद एक साथ चार पांच बुजुर्गों की बहस से उसके दिमाँ ग के सारे फियुज ही उड़ गए| वह अचरच भरी आँखों से देखता हुआ धीरे से बुदबुदा उठा – ‘क्या कढ़ी भी इतने तरह की होती है !!!’

वहां आता गनेसी अपनी तिरछी मुस्कान से चिराग की पस्त होती हालत पर धीरे से मुस्कराता हुआ माँ नों मन ही मन कह उठा हो कि अब क्या करोगे मेनेजर साहब ??

“अब तुम ही बोलो मेनेजर कौन सी कढ़ी बनेगी ??”

ये सुनते हुए अपने चेहरे की उडी हवाइयों से वह बारी बारी से उनकी घूरती हुई आँखों की ओर बेचारगी से देखता रहा|

“बोलो मेनेजर – अब तुम ही बताओ कौन सी कढ़ी बनेगी ?” वे कई ऑंखें अब एक साथ तीर की तरह चिराग के तालू को एक साथ चुभोए तनी खड़ी थी जिससे चिराग के मुंह से एक भी स्वर नही फूट पा रहे थे|

“अंकल बेफिक्र रहिए आज आप सबको अपने अपने तरह की कढ़ी मिलेगी – चलिए मिश्रा जी मैं बताती हूँ |”

अचानक सुगंधा की आवाज उस पल के तने माँ हौल में सर्द मौसम में चटक धूप सी लहक उठी तो सभी उसे देख एक साथ मुस्करा पड़े, चिराग तो बुत बना बस देखता रह गया| सुगंधा मिश्रा जी को समझा रही थी –

“आप बेसन में मट्ठा मिलाकर पहले बिना हल्दी की कढ़ी बना कर पकोड़ों वाली पंजाबी कढ़ी बना लीजिए फिर उसी कढ़ी में हल्दी डालकर बिना पकोड़ों वाली तीखी राजस्थानी कढ़ी बना लीजिए फिर बाद में कुछ सब्जियां फ्राई कर उसमें मिलाकर आप सिन्धी कढ़ी बना लीजिए फिर उसी कढ़ी में दालचीनी और हलकी चीनी डालकर गुजराती कढ़ी बना लीजिए |”

“वाह बिटिया क्या खूब बताया – एक ही कढ़ी से चार प्रकार की कढ़ी तैयार हो जाएगी |” मुस्कराते हुए मिश्रा जी के रसोईघर में जाते उनके पीछे पीछे गनेसी भी लगभग झूमता हुआ रसोईघर में घुस गया|

चिराग तो जैसे अपनी डूबी तन्द्रा से वापिस आते हैरान सुगंधा की ओर देखता हुआ सोचता रहा कि कैसे उसने झट से समस्या सुलझा दी ये सोचता वह खड़ा रहा|

चिराग की खुदपर टीकी नज़रे जानकर नज़रअंदाज़ करती सुगंधा चुपचाप ऑफिस की ओर बढ़ गई| उसके जाते चिराग भी झट से उसके पीछे पीछे ऑफिस की ओर चल देता है| वे साथ में ऑफिस में आते अपनी घूमती नज़र से एक दूसरे को देखते पहली रात के दूल्हा दुल्हन से शरमाँ  कर एक दूसरे से आंख बचाते मेज के विपरीत खड़े थे| अब आमने सामने खड़े चिराग को किसी तरह से नज़र उठाकर सुगंधा देखती है तो चिराग की उसी पर टिकी आँखों से वह सकपका जाती है अब वे दोनों अन्यत्र देखने लगते है|

सुगंधा मेज पर रखी किताबें उठा रही थी और उसके सामने बैठा चिराग दिल थामे जैसे आँखों से ही उससे कुछ पल और रुकने की इल्तिजा कर रहा था|

“ग्यारह बजने वाले है तो मैं चलूँ !!”

ये सुनते चिराग दीवार घड़ी की ओर देखता जैसे वक़्त से शिकायत कर उठा कि ऐ वक़्त थोड़ा थम जा दोस्त !

“अभी तो पंद्रह मिनट है ग्यारह बजने में |” उसका डूबता दिल बस यही कह पाया|

यही पल था जब उनकी नज़रे आपस में मिली और एक दूसरे की आँखों में समाँ ती चली गई पर एक बार भी एक दूसरे से नज़र न हटाने वाली नज़रे नही देख पाई कि आज अनजाने ही उनके कपड़ों के रंग कैसे एकसार से हो गए थे| जहाँ सफ़ेद सलवार कमीज पर नीले उन्मुक्त आकाश सा दुप्पटा सुगंधा ओढ़े थी तो ऑफ़ वाइट पेंट के साथ आज चिराग को जाने क्यों आसमाँ नी रंग की शर्ट ही पसंद आई थी पर इन सबसे बेखबर उनका मन तो आज बसंती हो उठा था|

“लो दीदी चाय पीकर जाना |”

अचानक गनेसी आकर उनके बीच चाय के प्याले रखता हुआ मुस्कराया तो चिराग का चेहरा भी खिल उठा, उस पल उस गनेसी पर उसे इतना प्यार आ गया कि लगा उसे बढकर गले लगा ले| एकदम सही समय आया था| चिराग मुस्करा रहा था तो सुगंधा नज़रे नीची किए अपने में गुम अपने वक़्त से गुहार लगाती कह रही थी ‘क्यों ऐसे दोराहे पर खड़ा कर दिया मुझे, जिसके लिए जिससे दूर जा रही थी आज उसी के लिए उसके नज़दीक होकर भी उससे कितनी दूर है वह|’

जबकि चिराग का दिल बल्लियों उछाल माँ रता अपने में मस्त झूमता खुद से कह रहा था ‘कितना कुछ कहना है तुमसे पर तुम्हारे सामने आते जाने मेरे शब्द कहाँ खो जाते है, तुम्हें देखते हर बार लगता है जैसे पहली बार मिल रहा हूँ तुमसे|’ ये सोचते उसका दिल तड़प उठा|

सुगंधा कप होठों से लगाती अपनी छुपी नज़रों से एक बार फिर चिराग की तरफ देखती है जिसकी नज़रे जाने कबसे सुगंधा पर ही जमी थी ‘क्यों आए हो फिर से मेरे सूने जीवन में, मुझसी लाखों होंगी तुम्हारे लिए फिर क्यों चुन रखा है तुम्हारी आँखों ने सिर्फ मुझे हाँ जानती हूँ और समझ भी रही हूँ तुम्हारी आँखों को चाहे तुम कुछ न कहो फिर भी तुम्हारा सारा अनकहा जानती हूँ मैं पर समझते क्यों नहीं कि नही आ सकती मैं तुम्हारे पास क्योंकि अपनी मौजूदगी से तुम्हारे जीवन पर एक भी दंश नही सह सकती मैं इसलिए मुझे फिर से जाना होगा तुम्हारी जिंदगी से दूर बहुत दूर अबकी सदा के लिए चिराग |’ आखिरी घूंट गले से उतारती माँ नो असीम दर्द गटक जाना चाहती थी वह|

वह फिर जाने को उठी तो चिराग प्रश्नात्मक मुद्रा में उसकी ओर देखता है|

“तीन बजे तक आउंगी |” सपाट भाव से कहती वह जाने को तत्पर हो उठी तो चिराग उठकर जाना चाहता था पर सामने से सलीमाँ  के आते जबरन उसकी नज़रे सुगंधा से उसे हटानी पड़ी|

“चलो मेनेजर जी अभी चलो मेरे साथ |”

कहकर चिराग की प्रतिक्रिया का इंतजार किए बिना वह पलटकर वापस चलने को तैयार हो गई तो आखिर चिराग को भी उठकर उसके पीछे चलना पड़ा पर सुगंधा को बस नज़रों से ही वह बाहर तक छोड़ पाया इसका अफ़सोस उसके चेहरे पर चस्पा बना रहा|

अब वह पुरुषों के रहनवास पर खड़ा अपनी नज़रों की सीध में लोगों की भीड़ देख रहा था, सभी महिला पुरुष किसी को घेरे खड़े थे, वह जबतक बात समझता उसकी पास आते मिश्रा जी उसे बताने लगे – “डॉक्टर साहब आए है – सभी का चेकअप करने |”

धीरे धीरे छटती भीड़ से उसे उनके बीच का चेहरा स्पष्ट होता है, वहां कोई प्रोढ़ व्यक्ति सफ़ेद कोट में उन सबसे हंस हंसकर बात करता अब उसकी तरफ आ रहा था|

“हेलो यंग मैन – तो तुम्ही हो यहाँ के नए मेनेजर – मैं हूँ डॉक्टर विशम्भर नाथ – हेल्थ चेकअप के लिए आता हूँ |”

अब दोनों साथ में चलते हुए बाहर की ओर आ रहे थे|

“तुम्हारे जैसे नौजवान को यहाँ देखकर अच्छा लगा पर तुम यहाँ नौकरी करते हो ये देखकर बुरा लगा |” कहकर वे हंस पड़े तो चिराग हैरत से उनकी तरफ देखता रहा|

“मतलब नही समझा मैं आपका !!”

वे चिराग के कंधे पर हाथ धरते हुए कह रहे थे – “पता है मैं इनका इलाज करते इन्हें जो दवाइयां देता हूँ वो इनपर असर नही करती |”

चिराग की हैरान नज़रे डॉक्टर पर तनी रह गई वह उनकी बात अभी तक नही समझ पाया था|

“यंग मैन इन सबकी आँखों को प्यार और साथ की जरुरत है वो भी उन अपनों से जिनके लिए अपने जीवनकाल में हाड़तोड़ मेहनत की इन्होंने और आज उन्ही ने इनका साथ छोड़ दिया – वे कौन है वे इनके जवान बच्चे है इसीलिए मैंने कहा कि तुम्हारे जैसी उम्र को यहाँ देखकर अच्छा लगा पर नौकरी करने का अर्थ तुम अभी इनसे भावात्मक रूप से नही जुड़े हो – खैर चलो मैं इनकी डाईट रिपोर्ट अपडेट कर देता हूँ|”

चिराग के साथ वे ऑफिस की ओर चल देते है वहां काफी देर वे वहां के लोगों के बारे में उसे बताते रहे, उनकी हर एक बात से उसके अंतर्मन का एक नया पन्ना खुलता जा रहा था सच में उसने इससे पहले अपने आस पास की दुनिया को ऐसा कभी नही देखा न सोचा और न समझा| अपनी हरदम तनी मूछों पर ऐठ देने वाले मेजर के जीवन का भी कोई लचर हिस्सा होगा ये सुनते चिराग हैरान रह गया| वे अच्छी पेंशन पाते थे पर जीवन के इस पड़ाव के अकेलेपन से भागते वे इस संस्था को अपना पड़ाव बना बैठे| तो हर दम मोबाइल में देख देखकर जोक सुनाने वाली दादी रात के अनबुझे अँधेरे में कब रो आती है ये सबको खबर थी| विदेश में अपने ही बच्चों के बीच त्याग दी गई माँ नसिकता की तरह वे लगभग मरणासन्न स्थिति तक पहुँच गई थी पर तभी कनकलता जी उसे यहाँ ले आई तो फिर कभी उनके बच्चों ने पलटकर उनकी तरफ नही देखा| ऐसी ही हर किसी की कितनी दर्दभरी दास्ताँ थी जिन्हें न कह पाने का हौसला न डॉक्टर में था और न उन्हें जब्त कर पाने का हौसला चिराग में|

शाम होने से पहले सुगंधा आई तो कब वो वक़्त भी झट से गुज़र गया ये उसे उसके जाने के समय पर आभास हुआ फिर इन्ही सब यादों में लिपटा वह घर वापिस आ गया| हर एक दिन उसे लग रहा था कि सुगंधा उसके लिए और अनबूझ सी होती जा रही है पर इश्क में तूफानी दरिया पार करने वाले कहाँ कभी किसी की सुनते है वह तो बस इश्क की अनजानी राह पर बिन सोचे विचारे बढ़ चला था|

क्रमशः………………

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