
सुगंधा एक मौन – 33
आज सुगंधा का जन्मदिन था और इस दिन से बेहतर क्या होगा अपनी दिल की बात कहने के लिए…ये सोचते चिराग का चेहरा बार बार खिल आता था….वह बहुत देर से तैयार हो रहा था….कितनी शर्ट बदलकर भी उसका मन किसी शर्ट पर खुश नही था….किसी तरह से सी ब्लू कलर की शर्ट को चुनते उसे सुगंधा से सराबोर करता वह गुनगुना उठा था, फिर करीने से ट्रिम की हुई दाढ़ी पर हाथ फिराते वह आईने के सामने खड़ा खुद को ऊपर से नीचे देखता हुआ बुदबुदाता है….धमाँ ल लग रहे हो बॉस….काश आज इश्क की इनायतें भी हो जाए उसपर…..सुगंधा…आ रहा हूँ मैं तुम्हारे पास अपने दिल की बात कहने…आज तुम्हें तुम्हारी ख़ामोशी में गुम नही होने दूंगा…..तुम्हें सुनना ही होगा मुझे…सुगंधा……सुगंधा…सुगंधा के ख्याल भर से उसका मन झूम उठा था…
चिराग तैयार होकर बस निकलने ही वाला था कि सीढियों पर पापा उसे रोकते हुए पूछ बैठे – “चिराग इतनी जल्दी कहाँ तैयार होकर जा रहे हो – अभी तो आठ ही बजे है…|”
पापा की आवाज से जैसे उसकी मदहोशी का आलम टूटता है तो जल्दी से खुद को सँभालते हुए वह कहता है – “वो डैड – संस्था जा रहा था पहले – फिर ऑफिस भी जाना है न |”
“मेरे ख्याल से आज तुम पहले ऑफिस चले जाओ फिर संस्था चले जाना – |”
पापा इत्मीनान से कह रहे थे और चिराग की धड़कने बढ़ी जा रही थी, अब किस तरह से वह कहता कि आज उसका जाना कितना जरुरी है|
“वैसे भी रोज रोज संस्था जाने की क्या जरुरत है – तुम किसी को भेजकर भी व्यवस्था करा सकते हो |” सीढियों के विपरीत छोर पर वे दोनों खड़े थे, चिराग सीढियाँ उतर कर जाने को बेचैन था पर इस लम्हें एक कदम भी आगे नही बढ़ा पा रहा था|
“हाँ वो तो कोई बात नहीं है पर जब तक मौसी जी नहीं आ जाती तब तक अगर पर्सनली मैं ख्याल रखूँगा तो उन्हें भी अच्छा लगेगा न डैड |” चिराग किसी तरह से अपनी उफनती सांसों को सयंत करता हुआ बोला|
ये सुनते पापा उसकी तरफ एक कदम और बढ़ते हुए उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहते है – “तुम सबके लिए बहुत सोचते हो पर बेटा इतनी मेहनत करने की क्या जरुरत है – तुम्हारी मौसी अगले हफ्ते तो आ ही रही है फिर दोनों जगह जाने से तुम पर अतिरिक्त बोझा पड़ता है इसलिए मैंने कहा – वैसे भी आज मैं दोपहर तक ही ऑफिस आऊंगा – तुम्हारी माँ को डॉक्टर के पास लेकर जाना है|”
“डॉक्टर के पास – क्यों – माँ को क्या हुआ ?” एकाएक चिराग के चेहरे पर घबराहट के भाव आ गए|
वह उनकी प्रतिक्रिया का इंतजार किए बिना ही माँ के कमरे की ओर चल देता है, पीछे पीछे पिता भी चल देते है|
“माँ क्या हुआ है आपको और आपने मुझे क्यों नही बताया|” वह परेशान होता अपनी माँ के पास आ गया|
चिराग की आवाज सुन वे उसके परेशान चेहरे को देख हलके से मुस्कराती हुई बोली – “मुझे क्या हुआ है – कुछ भी तो नही – |”
“फिर पापा आपको डॉक्टर के पास क्यों ले जा रहे है ?”
“अरे तुम्हारे पापा यूँही हलकान हुए जा रहे है – मुझे सच में कुछ नही हुआ बेटा |” माँ प्यार से चिराग का गाल सहलाती हुई द्रवित हुई जा रही थी|
“जरा सी बात नही है कल्याणी जी – आप अपना ध्यान बिलकुल नही रख रही |”
“छोड़िए जी – आपकी बात सुनकर मेरा बेटा परेशान हुआ जा रहा है|” उनकी हलकी झिड़की पर पापा भी मुस्करा दिए पर चिराग का चेहरा यूँही परेशान बना रहा|
“आखिर बात क्या है !!”
चिराग को परेशान होते देख माँ उसको शांत करती हुई कहती है – “कुछ नही बेटा – बस दो चार दिन से कुछ इचींग है यहाँ तहां बस |”
“तभी तो डॉक्टर को दिखाना जरुरी है |” पापा अपनी बात को और पुख्ता करते हुए बोले|
“हाँ बिलकुल माँ आपको डॉक्टर को दिखाना चाहिए – मैं ले चलता हूँ आपको |”
“बेटा तुम परेशान न हो – मैं ले जा रहा हूँ |”
पापा की बात सुनते सुकून की साँस लेता हुआ चिराग कहता है – “ठीक है पापा – आप दिखा कर बताईएगा कि क्या कहा डॉक्टर ने और आप ऑफिस की ओर से बेफिक्र रहिए – मैं सब संभाल लूँगा |”
बेटे के आश्वासन से माँ ता पिता के चेहरे सुकून से भर गए जिससे वे एक दूसरे को देख मुस्करा उठे|
चिराग के जाते माँ धीरे से कह उठी – “मैं न कहती थी कि समय सब ठीक कर देगा – देखिए – वक़्त के साथ वह उस लड़की को भूल भी गया और खुश भी रहने लगा – अब बस जल्दी ही शादी की बात भी करती हूँ उससे |”
पापा उनको कहते हुए अपने ख्यालों में गुम होता चुपचाप देखते रहे|
चिराग को आज सुबह संस्था जाना ही था फिर ऑफिस भी, दोनों कैसे मेनेज करे ये सोचता वह कमरे से बाहर निकला ही था कि उसकी नज़र चुपचाप निकलते अतुल पर चली गई, चिराग तुरंत उछलकर उसके पास पहुँच गया|
“कहाँ निकलने की तैयारी है ?”
चिराग की आवाज सुन अतुल के पैर जाते रास्ते में ही थमे रह गए जबकि वह चुपचाप निकलने की फ़िराक में था पर चिराग की तीक्ष्ण नज़रो की गिरफ्त में आते अब वह मुंह बनाते हुए उसकी बात सुन रहा था|
“कहीं जाने की जरुरत नही है – आज मेरे साथ ऑफिस चलोगे – अभी से जाना शुरू करो तो तुम्हारी मोटी बुद्धि में कुछ घुसेगा भी – जल्दी से पांच मिनट में बाहर आओ – मैं वेट कर रहा हूँ फिर मुझे संस्था भी जाना है – समझा |”
कहता हुआ चिराग बाहर की ओर अपने तेज कदमों से चला गया और हमेशा की तरह अतुल अपनी बात कहता ही रह गया| उसे पता था ये हुक्म था और उसकी असहमति के कोई माँ यने नही थे तो मरता क्या न करता चिराग के जाते वह विनी को फोन लगाकर जल्दी से अपनी बात कहता है – “यार विनी मुझे भईया के साथ ऑफिस जाना पड़ रहा है – हाँ बे ऑफिस – अब मज़बूरी ही समझ – देख आज मॉल जाने का सारा प्रोग्राम कैंसिल कर दे – मेरे बिना कोई कहीं नही जाएगा – हाँ हाँ – जाना ही है बोला न क्योंकि भईया को संस्था जाना है – यार ये तो मैंने सोचा ही नही – चल तू पता कर – अभी मैं निकलता हूँ – बाय |” जल्दी से फोन काटते वह भी बाहर की ओर भारी क़दमों से चल देता है|
सुगंधा अपनी किताबे सहेजती हुई फिर उसमें से अगला गुलाब निकालती हुई अलमाँ री के उस हिस्से में रख देती है जहाँ पहले से ही और सूखे गुलाब रखे हुए थे, उन फूलों को निहारते सुगंधा के अंतरस जैसे जज्बातों की हिलोरे सी उठने लगती है, जिससे एक ही पल में उसका मन उदासी भरी मुस्कान से कुछ मुस्करा पड़ता है| उसे आभास था चिराग की नज़रों का हरदम उसी पर टिका रहना, फिर भी वह जानकर उन्हें अनदेखा कर के हमेशा आगे बढ़ जाती पर उसका दिल ही जानता था कि उसपल कितना टुकड़ा टुकड़ा बिखर जाता था उसका मन, ये गुलाब रोज चिराग उसकी किताबों में रखता था जिन्हें जानकर वह अनदेखा करती पर खुद से उन्हें विरक्त भी नही कर पाती, आज माँ की तस्वीर देखती हुए उसे उनकी बहुत गहन जरुरत महसूस हो आई थी, पर आखिर कौन था इस वक़्त जिससे वह अपने दिल की कह पाती…ये सोचती वह टेरिस की ओर बढ़ जाती है जहाँ के फूल ही इस वक़्त उसके मित्र थे जिनसे वह कम से कम कहकर अपना मन हल्का कर लेती|
वह टेरिस के फूलों को पानी दे रही थी पर उसे आभास नही था कि वहां पहले से मौजूद कोई ऑंखें बहुत देर से उसी पर टिकी हुई थी|
“हेलो – मैं आर्यन – मिला था कल आपसे – लगता है इन फूलों से बहुत प्यार है आपको – ये सभी आपने लगाए है – बहुत खूबसूरत है सब |” वह कहता रहा और सुगंधा अपने में खोई बस हाँ में सर हिलाती अपनी सहमति देती हुई खुद से ही कह उठी ‘तुम क्यों बार बार मेरे करीब आने का प्रयास करते हो जबकि मैं तुमसे दूर जाने वाली हूँ चिराग, बहुत दूर इसलिए आज आखिरी बार जाउंगी संस्था|’
“ये सन फ्लावर है न – इन सबमें बस यही पहचानता हूँ मैं !”
वह फिर हाँ में सर हिलाती खुद से बोल उठी ‘हमाँ री तुम्हारी किस्मत की राह बहुत अलग है तो तुम भूल क्यों नही जाते मुझे माँ ना ताउम्र मैं तुम्हें नही भूल सकती फिर भी तुमसे ये उम्मीद कर रही हूँ कि भुला दो तुम मुझे…’
“आप कुछ बोलती है कि नही या हाँ हूँ से ही अपना काम चला लेती है|” वह बहुत देर से की सुगंधा के मौन से परेशान हो उठा था|
“हाँ !!” वह चौंककर उसकी तरह देखती है माँ नों अब तक की उसकी मौजूदगी का कोई आभास ही न हो|
वह अब अपनी भरपूर मुस्कान से उसकी ओर देखने लगता है कि शायद अब वह कुछ कहे|
सुगंधा उसकी ओर देखती हुई कहती है – “मुझे देर हो रही है – मैं चलती हूँ |”
कहकर सुगंधा तुरंत चली गई और वह अवाक् खड़ा उसकी ओर देखता मन ही मन बुदबुदा उठा – ‘अजीब है ये लड़की |’
चिराग ऑफिस का काम जल्दी से निपटाते अतुल को अपने आने तक वही रुकने को कहकर संस्था चला गया| अभी नौ बजे थे और संस्था पहुंचकर उसे आगे का अपनी योजना के अनुसार सब करना था, उसके वहां पहुँचने से पहले वहां उसके कहेअनुसार सजावट का काम चालू था, गेट से लेकर अन्दर तक फूलों की सजावट थी| वहां पहुँचते सजावट का काम देखते हुए वह उन्हें जल्दी काम खत्म करने का निर्देश देता अन्दर आता है तो झट से मिश्रा जी उसे घेर लेते है|
“ये क्या हो रहा है मेनेजर साहब – तब से ये लोग आकर सजा रहे है – बोलते है आपने कहा है|”
“हाँ मैं करवा रहा हूँ |” इत्मीनान से कहता आस पास की सजावट का मुआयना करता हुआ दूसरी ओर निगाह कर लेता है|
पर परेशान मिश्रा जी अभी भी सब हैरानगी से देखते हुए कहते है – “पर काहे की सजावट – कौउन आ रहा है ?”
चिराग उसकी ओर पलटता सहजता से कहता है – “इलाके के सभासद आ रहे है – ये देखिए |” कहता हुआ अपनी पॉकेट से कोई पत्र निकाल कर उसकी नज़रों के सामने लहराता हुआ कहता है –“ये पत्र आया था कल – देखिये मैं कोई झूठ थोड़े ही बोल रहा हूँ |”
मिश्रा उस पत्र को दूर से ही देखकर नज़र घुमाँ लेता है, वह पत्र अंगरेजी था – “तो अतनी सजावट की का जरुरत थी – एईसा लग रहा है जैसे कोनो सादी होने वाली है – कनकलता दीदी को फिजूलखर्ची बिलकुल ही पसंद नहीं है – अगर उनको पता चला तो…|”
“आप इस सब की चिंता छोडिये – वो कुछ नही कहेंगी – और आप बेफिक्र रहे ये संस्था के पैसे से नही हो रहा है – सभासद की ओर आए थे |” चिराग बात को इतनी गहनता से कहता है कि मिश्रा जी को माँ नना ही पड़ता है|
“लेकिन इन नेतन को इतना खर्च करते नही देखा कभी |”
“हो सकता है किसी निजी कारण से आ रहे हो – आप खाने की व्यवस्था करिए जाके |”
“तो का खाना भी खा कर जाएँगे का ?” वह हडबडाते हुए बोले|
“अरे नही – आज सबके लिए कुछ ख़ास बना दे आप |” बात वह मिश्रा से कह रहा था और उसका सारा ध्यान दरवाजे की ओर लगा था, अभी दस बजने में पंद्रह मिनट थे और चिराग को बस सुगंधा के आने का इंतजार था जो अपने समय की पाबंध थी|
मिश्रा जी अबूझे ही रसोईघर की ओर चले गए, चिराग मुख्य गेट की ओर देखता अभी भी गलियारे में खड़ा था|
“मेनेजर |” एक बुलंद आवाज से चिराग अब पीछे की ओर देखता है|
मेजर अपनी नजरे उसी की ओर गड़ाए थे, उनके पीछे और भी लोग खड़े उसी को देख रहे थे|
“ये सब क्या हो रहा है – सुबह से सजावट देख रहा हूँ – कोई तो नही आया अभी तक |”
“हाँ वो तो मुझे भी लग रहा है|” चिराग थकी आवाज में गेट की ओर देखता गहरा उच्छवास छोड़ता हुआ कहता है|
“क्या मतलब !!” वे कई आवाजे एक साथ पूछ उठी|
चिराग अब उसकी तरफ देखता है, वहां लगभग लोग मौजूद उसी को घूर रहे थे| चिराग देखता है दादी स्वेटर बुनते बुनते ही वही आ गई थी|
उनकी तरफ देखता हुआ चिराग बेचारगी से देखता हुआ कहता है – “अब मुझे तो बोला गया था – नहीं आए नेता जी तो मैं क्या करूँ – अब शायद आएँगे भी नही |”
“तो !!”
“काश कुछ ख़ास दिन आज होता तो सजावट काम आ जाती|” वह जानकर दादी की ओर देखता हुआ कहता रहा – “गुरुपर्व तो कल है – आज कुछ खास नही है न |” वह कंधे उचकाते हुए कहता है|
“गुरुपर्व …!!” दादी एकाएक चिराग की ओर देखती हुई बोली – “तो इससे आज अपनी सुगंधा का जन्मदिन हुआ न |”
“सुगंधा का जन्मदिन !!”
सब एकसाथ चौंककर एक दूसरे को देखते है पर इसके विपरीत चिराग चेहरे पर की आई ख़ुशी किसी तरह से जब्त करते हुए कहता है – “अरे वाह तो दादी जी आप चाहती है कि हम सब सुगंधा का जन्मदिन मनाए – फिर तो केक भी मंगाना होगा – सब हो जाएगा |”
सब अवाक् देखते रहे और चिराग झट से गनेसी को बुलाकर कोई दूकान बताता हुआ कहता है कि जो केक मिले वहां से ले आना, गनेसी अभी निकला ही था कि सबकी नज़र मुख्य फाटक की ओर गई जहाँ से सुगंधा औचक सब सजावट देखती हुई आ रही थी|
वह हैरान सबकी ओर बढ़ रही थी और सबके खिले चेहरे अब सुगंधा को देखते हुए एक साथ हैपी बर्थडे गाने लगे, जिसमें उन सब के पीछे खड़े चिराग की आवाज भी शरीक थी| सुगंधा वही थमी रह गई, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये हो क्या रहा है?? वह तो आज सबसे आखिरी विदा लेने आई थी, फिर ये !!
वह हैरानगी में पड़ी अनबूझी देख ही रही थी कि गनेसी एक बड़ा सा केक लिए वहां आ गया जिसे पल भर में ही मिश्रा की मदद से गलियारे के मध्य में रखी मेज पर सजा दिया गया, एक पल को सब उस ह्रदय के आकार के गुलाबी केक के मध्य में नाचती मुद्रा में लड़की की आकृति देखते रह गए, केक वाकई बहुत खूबसूरत था| सुगंधा जब तक कुछ प्रतिक्रिया करती दादी उसका हाथ पकडे उसे केक तक लाती है, सभी के हाथ बढ़कर उससे केक कटवा रहे थे फिर ढेर आशीष के साथ सब उसके सर पर हाथ फेर रहे थे पर उसके चेहरे पर हैरानगी के भाव जस के तस बने हुए थे लेकिन इसके विपरीत सबके चेहरे खिले हुए थे| वह यहाँ सबकी चहेती थी, आखिर वही तो थी जो निस्वार्थ उनकी दुनिया में शरीक थी, दादी अब उसके सामने एक पैकेट लिए खड़ी थी जिसपर सुगंधा का नाम लिखा था, सुगंधा को वो लेना पड़ा वह नज़रे नीचे किए किसी तरह से अपनी भरी आँखों को नियंत्रित किए थे| अब मिश्रा जी सबको केक बाँट रहे थे, सब केक खाने में लग गए और सुगंधा वहां से जाने के लिए अपनी किताबे ढूंढने लगी, जो कुछ समय पहले मेज के कोने में उसने रखी थी, गनेसी ने शायद हमेशा की तरह उसे ऑफिस में रख दिया था, वह सबकी नज़रों के कतराती ऑफिस की ओर बढ़ गई| वह झट से अन्दर आती मध्य में रखी अपनी किताबे देखती बढ़ी ही थी कि एकाएक हवाओं की सरसराहट के साथ उसके चारोंओर सुर्ख गुलाब की पंखुडियां फ़ैल गई…..ये आसमाँ न आज उस कमरे में उतर आया या उसकी आँखों का कोई धोखा था….उन उड़ती पंखुड़ियों के पर्दों के पीछे भरपूर आकाश ही तो मौजूद था….वह न चाहते हुए भी उस पर से अपनी निगाह नहीं हटा पाई, वह चिराग था….जो चलता हुआ अब उसके सामने आता उसके सामने घुटनों के बल बैठा अपने हाथ में पकड़ा गुलाब उसे दे रहा था….और वह ऑंखें फाड़े माँ नों खुद को नींद से जगा रही थी….अगले ही पल उसे सारा माँ जरा समझ आ गया…वो सजावट….वो केक आकस्मिक कतई नहीं थे….न सीलिंग फैन के परों में छुपाए गए ये गुलाब भी…सब कुछ उसके लिए किया गया था….पर माँ न कैसे ले….अगर दिल ने यकीन कर लिया तो ये मन लौट नही पाएगा फिर कभी….
वह सब पर से आंखे फेरती वापसी की ओर मुड़के लौटने लगी….उस पल वह खुद को जितना बेरहम बना सकती थी उस हद से भी वह गुज़र गई….वह देहरी पार कर ही रही थी पर ये वक़्त ये लम्हा आज चिराग किसी तरह से भी अपने हाथों से जाने नही देना चाहता था….वह झट से उसकी बांह थाम लेता है…दो दिल एक साथ धक् से रह जाते है…….
“रुको सुगंधा …|”
वह अभी भी उसकी बांह थामे था…और वह वही ठहरी अब एक कदम भी आगे नही बढ़ा पाई|
“सुगंधा…|”
दिल की पुकार पर उसे पलटकर पीछे देखना पड़ा…सुगंधा के चेहरे को देखते चिराग की हंसी छूट गई…वह अपनी ऑंखें बंद किए थी…
“तुम इस वक़्त उस कबूतर की तरह लग रही हो जो खतरा सामने देख अपनी ऑंखें बंद कर लेता है पर सुगंधा अपने जीवन के डर से ऑंखें बंद नही की जाती उनका सामना किया जाता है…आज जो कुछ भी तुम्हारे मन में है – कह दो – मैं तुम्हें सुनना चाहता हूँ..|”
वह कसमसा कर अपनी कलाई छुड़ाती हुई नज़रे नीची किए कहती है – “पर मुझे कुछ नही कहना – जाना है मुझे |”
वह फिर जाने को व्यग्र हो उठी तो चिराग जल्दी से दो कदम और उसके पास आता हुआ कह उठा – “पर मुझे तो कहना है तुमसे कि ये दिल तुम बिन कहीं लगता नही हम क्या करे….|” वह हलके से गुनगुना उठा|
चिराग को उसके चेहरे पर जिस मुस्कान का इंतजार था वहां नाराजगी छा गई|
“ये सब करना बंद करो चिराग – मुझे जाने दो |”
“कहाँ जाओगी….मैं परछाई हूँ तुम्हारी…और कोई परछाई से भी भाग सका है |” वह उसकी गहरी गहरी आँखों में देखता रहा पर वह लगातार अपनी नज़रे नीची किए खड़ी थी माँ नों प्रेम की अपराधिन हो वह !!
“हमे किस्मत ने मिलाया है इससे कब तक तुम इंकार करोगी – क्यों खुद को लगातार सजा दे रही हो – किस बात की ?”
“सजा नही फैसला है भाग्य का – इसे माँ नने में ही भलाई है – हमाँ रे भाग्य की रेखाएं नही मिलती एक दूसरे से यही सच है |” कहकर वह अपनी किताबे उठाने झुक गई|
उस एक पल वह कमरे के नीरव सन्नाटे को चीरती निकल ही रही थी कि एक टीस से उसकी नज़र चिराग पर गई जो अपनी सख्त आँखों से उसकी ओर देखता अपनी हथेली पर पेन की टिप से कुरेद कर लकीर बना रहा था, जिससे उसकी हथेली पर खून की नलियाँ खुल कर फ़ैल गई…ये देखते सुगंधा के हाथों से किताबें फिसलकर फर्श पर गिर गई…वह दौड़ती हुई उसके पास आती उसकी हथेली को थामती हुई लगभग उसपर बरस ही पड़ी –
“इसी कारण – इसी कारण मैं तुमसे दूर जाना चाहती हूँ – तुम्हें खून से लिपटे नही देख सकती – क्यों नही समझते तुम – क्यों करते हो ऐसा|” वह नाराज़ हो रही थी, या सिसक रही थी खुद सुगंधा को भी नही पता, चिराग तो बस उसे उसकी हथेली पर अपना रुमाँ ल बांधते अब मुस्कराते हुए देख रहा था|
“मेरे भाग्य और मैंने दोनों ने तुमसे दूर जाने की बहुत कोशिश की पर दोनों ही नाकामयाब रहे…क्या करे |”
वह उसकी आँखों में देखने से खुद को नहीं रोक पाई, वह प्रेम से लबरेज ऑंखें आज हटने को बिलकुल तैयार नहीं थी| पट्टी बांध कर वह उससे छिटककर दूर खड़ी हो गई|
“अगर भाग्य में तुम नहीं थी तो उस दिन संयोग से नही मिलती तुम मुझे जबकि तुम फिल्मे देखने नही जाती थी….न हम तुम सिर्फ एक दो मुलाकात से इतने करीब आते कि दो साल की बेहोशी में मैं सब भूल चूका था सिवाए तुम्हारे नाम के…फिर तुम मुझे मिली….हर बार तुमसे मेरी मुलाकात भाग्य की ही देन है फिर कैसे इनकार करोगी तुम इससे…किस बात का डर है तुम्हें कि मेरी ओर बढ़ते अपने क़दमों को जबरन तुम रोक लेती हो…बोलो ?”
“ये भी भाग्य की नियति है |”
वह दबे स्वर में कहती है तो चिराग का स्वर और तेज हो उठता है –
“झूठ – सरासर झूठ – खुद से कब तक झूठ बोलोगी – प्यार करती हो माँ नती भी हो बस साथ नही चल सकती – ये क्या बात हुई – तुम मुझसे नही बल्कि खुद से भाग रही हो सुगंधा |”
“मुझे जाना है |” उसके स्वर में विनती उभर आई|
“आज ऐसे नही जाने दूंगा – या तो माँ न लो या इनकार कर दो कि नही है तुम्हें मुझसे प्यार – आज इस पार या उस पार हो जाओ सुगंधा|”
ये सुनते उसका दिल धक् से होकर रह गया, क्या सच में किसी एक पार का चयन कर पाएगी वह…!!
“बोलो |”
वह जवाब के इंतजार में उसकी ओर ताकता रहा और उत्तर की तलाश में वह अपने होंठ चबाती रह गई|
“ठीक है – इसका जवाब ढूंढने में मैं तुम्हारी एक सहायता कर सकता हूँ |”
चिराग के सपाट स्वर से वह बेचैन हो उठी|
“तुम मुझसे दूर जाना चाहती हो तो नही जा पाओगी हाँ मैं तुम्हे मुझसे तुमसे दूर करने का अवसर देता हूँ – कर लो जी जान से कोशिश कि मैं तुम्हें भूल सकूँ – अगले सात दिन तुम्हारे हुए सुगंधा – |”
वह हैरान आँखों से उसकी आँखों के विश्वास को चकित देखती रह गई और वह कहता रहा –
“सिर्फ अगले सात दिन तक की मोहलत देता हूँ – इस हर एक दिन में तुम अपने किए में जितनी नाकामयाब होगी उस हर एक पल में मेरा प्यार और मजबूत हो जाएगा – हर एक दिन से तुम मेरे साथ एक एक जन्म सी जुडती जाओगी – बोलो ये सात दिन की परीक्षा देने को तैयार हो !!”
सुगंधा ने मौन ही सब स्वीकार कर लिया…शायद वक़्त ने इस बार भी उसके लिए कुछ ज्यादा चुनाव नही रखा था|
वह पूर्ण ख़ामोशी से कमरे से बाहर चली गई| चिराग की निगाहे दूर तक उसे छोड़ने बाहर तक आई वह जानती थी फिर भी मन कड़ा कर एक बार भी पलटकर उसने पीछे नही देखा|
दोपहर को भी वह आई, उसे नही आना था फिर भी यंत्रवत वह आई, चिराग अब उसका दरवाजे पर खड़ा इंतजार कर रहा था, वह नजरे नीची किए उसकी ओर आती गई…..
यही पल था जब संस्था के बाहर किसी स्थान पर छुपा विनी उस तरफ का नज़ारा देख रहा था, और उसके कान में लगे फोन के दूसरी तरफ अतुल था…अवाक् विनी के मुंह से स्वर फूट पड़ा – “यार ये तो निशा मैम है तेरी – बिलकुल तस्वीर वाली – सच्ची कसम से यार – तो ये झोल है यार अतुल – |”
फिर उस पार से अतुल ने जाने क्या कहा कि विनी के चेहरे पर एक शरारती मुस्कान खिल आई|
क्रमशः…..
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