
सुगंधा एक मौन – 43
संस्था में रोजाना की तरह सबको चिराग का इंतजार था, हालांकि सभी को कनकलता जी का आना पता चल चुका था फिर भी उनके मन को यकीन नही था कि चिराग एकदम से आना बंद कर देगा, वन्दना जी भी बेटी की शादी कर बेंगलुरु से वापस आ चुकी थी| मौसी जी संस्था पहुंची तो वंदना जी ने अपनी भरपूर मुस्कान से उनका स्वागत किया|
“आहा कैसे रही बेटी की शादी – भई हम सब तो आ न सके अब तुमसे यही लेंगे शादी की दावत..|” ऑफिस की तरफ आती आती वे वंदना जी से बातें करती रही|
अब तक वंदना जी वहां के बदले रूप से अच्छे से वाकिफ हो चुकी थी और साथ ही प्रभावित भी, यही सब वे कनकलता जी से साझा कर रही थी|
“नई उम्र के पास नए विचार होते है – आज तो ये बात तय हो ही गई – हमने कभी इस तरह सोचा ही नहीं था – हमेशा सोचते रहे कि इनके उदासीन परिवार से कैसे इन्हें जोड़े – कभी ये नहीं सोचा कि जिनको असल में इनकी जरुरत है उन्ही से क्यों न इन्हें जोड़ा जाए – बड़ा अच्छा लड़का था – कैसे चुटकियों में सब सुलझा लिया |”
वंदना जी जिसकी तारीफों के पुल बांध रही थी नही जानती थी कि वह उन्ही का भांजा था, वे भी मंद मंद मुस्कराते हुए सब सुनकर जैसे आनंद ले रही थी|
अब तक गनेसी ने सब तक बात फैला दी कि वंदना दीदी के आते चिराग को नौकरी से हटा दिया गया, सब पर ये बात जैसे बिजली सी आ गिरी, चिराग का जाना किसी को रास नही नहीं आ रहा था, ये अहसास के रिश्ते थे, जिन्हें बस कोई समझ सकता था, कोई समझा नहीं सकता था| सबने मिलकर तय किया कि जिसने उनके लिए इतना किया अब वक़्त है वे उसके लिए कुछ करे यही सोच सभी भीड़ बनते ऑफिस के ठीक सामने आकर जमाँ हो गए|
कनकलता जी पहले पहल तो समझ नहीं सकी फिर सिलसिलेवार उन्हें सब बताया गया कि उनकी अनुपस्थिति में कैसे सुगंधा और चिराग ने सब संभाल लिया था, वे भी चुपचाप सब सुन रही थी| सबकी जुबान में सुगंधा और चिराग का साथ ही नाम था, दादी तो खुलकर कह उठी –
“कनक जी – क्यों हटा दिया बिचारे बच्चे को – अब आप ही बताईए – बिन नौकरी के कैसे उसकी शादी होगी – हम सब तो उन दोनों को सदा साथ देखने का सपना देखने लगे थे – चिराग नही आ रहा तो सुगंधा ने भी आना छोड़ दिया – कुछ तो करिए आप |”
वे सच में ये सुनते सोच में पड़ गई, अब तो मेजर साहब भी बोल पड़े –
“देखिए इस संस्था में दो मेनेजर भी रह सकते है और रही बात तनख्वाह की तो मैं अपनी आधी पेंशन दे दूंगा पर आप उसे बुला लीजिए |”
उनकी विनती सुन वे चकित रह गई पर उससे ज्यादा तो वे मिश्रा जी भी बात सुन हैरान रह गई –
“जी आप चाहे तो मेरी आधी तनख्वाह भी उसमे जोड़ लीजिए – आखिर मुझ अकेले की जरूरते है ही कितनी !!”
ये सब सुनते अब उनके मुंह से कोई स्वर ही नही फूटे बस किसी तरह से सारा माँ जरा समझने लगी|
“हाँ कनक दीदी – मुझे भी कोई एतराज़ नही – ऐसे नेक लोग मिलते कहाँ है – बुला लीजिए आप उसे |” अबकी वंदना जी भी निवेदन करती कह उठी|
कुछ पल तक वहां ख़ामोशी छाई रही, सभी जैसे अपने अपने हिस्से का कह चुके थे और उन्हें बस उनके जवाब का इंतजार था, फिर वे धीरे से कहती है –
“अगर यही बात है तो आप सभी खुद उसे ये सुझाव दे दीजिए – हो सकता है वो मेरी बात न माँ ने |” वे भौं उचकाती सबकी ओर देखती है तो सभी सहमति में हाँ करते है|
और शाम तक सभी उनके साथ चलने को तैयार भी हो जाते है| कनकलता जी ने शाम को ड्राइविंग सीट खुद संभाली तो बगल में वंदना जी बैठ गई और पीछे सभी की सहमति से दादी, मेजर साहब और झट से दौड़ता हुआ गनेसी बैठ गया, वह चिराग से मिलने को कुछ ज्यादा ही आकुल था| कनकलता जी भी मन ही मन मुस्करा रही थी कि जाने सच सामने आने पर वे क्या प्रतिक्रिया देंगे !!
अपनी इस उम्र की दहलीज में भी कनकलता जी काफी सक्रीय और जुझारू महिला थी यही शायद उनकी जिजीविषा भी थी| वे जहाँ तक संभव हो खुद ही ड्राइव करती थी जबकि उनकी बहन जो उनसे बस पांच सात छोटी होगी कभी खुद ड्राइव करने का सोचती भी नहीं थी…ये बात भी कल्याणी की नज़रों में बड़ी बहन का दर्जा और गंभीर बना देती…यूँही सोचते सोचते कुछ पल में वे अपनी बहन के घर आ गई, उनके आते घर का नौकर एक हॉर्न पर दौड़ता आता झट से बंगले का बड़ा सा फाटक खोल किनारे खड़ा हो गया|
कार को पार्किंग के लिए बंगले के बड़े से गैराज की ओर पार्क करती वे उतर जाती है साथ में वे चारों भी उतर जाते है…वे पहली बार वहां आए थे ये उनकी चारोंओर निहारती नज़र बता रही थी…वे औचक उस बंगले के मुहाने के गार्डन और उनके पीछे कनेर और बोगनवेलिया की छावं के पीछे शानदार दरोदीवार को ताक रहे थे…उनकी अनुभवी आँखे ये तो समझ गई कि जिसका भी ये घर था उसका वैभव इस घर से साफ़ साफ़ प्रदर्शित हो रहा था….यही सोचते गनेसी दादी के कानों के पास आता फुसफुसाता है –
‘दादी – किसका घर है ये ?’
‘किसका क्या कनक जी का होगा और क्या !”
उनके हतप्रभता में डूबे चेहरों को देख वे धीरे से मुस्कराती उस नौकर को आवाज लगाती हुई कह उठी – “हम सब यही गार्डन में बैठते है – नाश्ते का प्रबंध यही कर दो |” नौकर हाँ में सर हिलाता झट से अन्दर की ओर भाग गया|
अब सभी उनके पीछे पीछे बरमूडा घास के दालान पर अहिस्ता चलते चलते संगमरमर के मेज कुर्सी पर आकर बैठ जाते है, शाम की हलकी ढलती धूप में ऊपर की छतरी की छावं सभी को बड़ी भली लग रही थी पर उनके चेहरों के हैरानगी के भाव जस के तस बने हुए थे|
“ये मेरी बहन कल्याणी का घर है – अब आपलोगों को तो पता ही है कि मेरा सारा काम घर तो शारजाह में ही है तो जब भी अपने देश वापिस आती हूँ तो अपनों के साथ ही रहती हूँ – |”
“अच्छा – बड़ा सुन्दर घर है आपकी बहन का |” वंदना जी बातों का सिलसिला बढ़ाती हुई धीरे से कहती है|
“चिराग !!” सब को जैसे चिराग का इंतजार था, मेजर साहब झट से यहाँ तहां जैसे चिराग को ही ढूंढ रहे थे – “क्या उसे भी यही बुलाया है आपने ?”
कनकलता जी मुस्कराती कुछ कहने को ही थी कि फिर एक कार के हॉर्न से सबका ध्यान मुख्य फाटक की ओर चला गया, वे सब अब देखने लगे कि नौकर द्वारा फाटक के खोलते ही एक चमचमाँ ती स्पोर्ट्स कार ठीक गार्डन के मुहाने पर आकर ठहर गई थी…सब उसी ओर नज़र जमाँ ए थे, कार पार्किंग की ओर न जाकर वही खड़ी थी शायद उन सभी का वहां होना चालक द्वारा दूर से ही देख के भांप लिया गया था|
ड्राइविंग सीट की ओर से दरवाजे के खुलते जो उस कार से उतरेगा ये उन सभी की अभी तक की कल्पना में था ही नही ये उनकी हैरत से फटी ऑंखें बता रही थी, चिराग के उतरने का अंदाज और उसकी वहां की उपस्थिति ने जैसे बिन कहे ही सब कह दिया और अब एक नज़र वे अपनी ओर आते चिराग को देखते तो कभी मंद मंद मुस्कराती कनकलता जी को….
“ये है मेरी बहन कल्याणी का बेटा चिराग और मेरा भांजा |”
“तो आपने ये हमे पहले क्यों नही बताया और हम भी जाने क्या क्या सोचने लगे !”
“जब संस्था को कुछ दिन सँभालने की बात की तो चिराग ने खुद अपनी सहमति दी और अपने बिजनेस के साथ साथ वह संस्था का कार्यभार भी खुद ही संभालता रहा जबकि वह अपने ऑफिस के किसी कर्मचारी को भेजकर भी वह ये कर सकता था पर यही तो उसकी खूबी है |” चिराग मुस्कराता हुआ उनकी तरफ आता जा रहा था और मौसी अपने भांजे पर निहाल होती उसका गुडगान करती जा रही थी – “चिराग ही चाहता था कि मैं वहां न बताऊँ कि वह मेरा भांजा है ताकि सब उसे उसी के स्वैछिक रूप में अपनाए नाकि प्रभावित होकर और सच में चिराग ने हमेशा की तरह सबका मन मोह लिया – मुझे गर्व है अपने भांजे पर इसलिए मैंने सोचा बताने से अच्छा सीधे आप लोगों से मिलवा ही देती हूँ |”
अब तक सबकी आँखों के हैरानगी के भाव नेह्पूर्ण हो चुके थे, चिराग भी आता सबका आदर पूर्ण पैर छूता है तो सब चौंक ही जाते है|
“आज आप मेरे लिए मौसी जी के सामाँ न ही है – अब मैं आपका कर्मचारी थोड़े हूँ |” कहकर चिराग धीरे से हंस पड़ा|
गनेसी तो अभी भी ऑंखें फाडे उसे ही देख रहा था, चिराग अब उसके पास आता उसके कंधे पर हाथ रखता हुआ कह रहा था – “कैसे हो दोस्त ?”
“अच्छा – हूँ – भईया – नाही साहब जी |” वह किसी तरह से लड़खड़ाते शब्दों से बोला|
“मुझे भईया जी सुनकर ज्यादा अच्छा लगता है |” कहकर वह गनेसी को गले लगा लेता है|
अगले पल वे उनके बीच बैठा था बिलकुल अपनों की तरह, दादी उसे प्यार से निहारती कह रही थी – “कभी कभी जब समय मिले तो आ जाना बेटा – क्या करे तुमने हमे अपनी लत जो लगा दी है |” फिर धीरे से उनके कानों के पास अपना स्वर दबाती हुई कहती है – “जब से तुम गए हो सुगंधा भी नही आई संस्था – कोई बात हुई है क्या – रूठी है क्या किसी बात पर कहो तो मैं बात करूँ !!”
चिराग अपने अनकहे शब्दों को मुस्कान की तहों के नीचे धीरे से सहेजता हुआ आश्वासन का हाथ उनकी हाथ पर धरता हुआ धीरे से कहता है – “आपकी दुआ चाहिए बस बाकि वक़्त के हाथ में है – और चिंता मत करिए मैं भी आपको तंग करने आता रहूँगा |” अपना आखिरी शब्द थोड़ा तेज स्वर में कहता वह बिन आवाज के हंस पड़ा तो सभी की हंसी जैसे उसकी हंसी में आ मिली|
काफी देर बात करके भी जैसे उनका मन न भरा पर सबको वापस जाना ही था तो चिराग खुद उन्हें वापस छोड़ने उन्हें अपनी कार में बैठने का निमंत्रण देता है तो गनेसी झट से आगे की सीट पर बैठता खींसे निपोरने लगता है जिससे सभी को बड़ी तेज हंसी आ जाती है|
दादी उसकी कार में बैठती हुई कह रही – “चिराग बेटा तुम्हारा घर बहुत बड़ा है पर तुम्हारे दिल से बड़ा नही…|”
जाते जाते चिराग एक नज़र मौसी की ओर देखता है जो अब कन्खनियों से उसे देख रही थी……
क्रमशः……..
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