Kahanikacarvan

सुगंधा एक मौन – 45

कल्याणी जी अपने कमरे की दरो दीवार से बाहर बिलकुल नही निकलती थी पर सबको उनकी फ़िक्र थी इसलिए सभी बारी बारी से उनके पास बैठ आते, इस समय मौसी जी बैठी उनसे बात कर रही थी, तभी एकाएक वे नर्स पर बरस पड़ी, नर्स मुंह बनाकर खड़ी हो गई..मौसी जी को उसका रवैया कतई नागवार गुजरा|

“ये क्या है – तुम तो ऐसे व्यवहार करती हो जैसे वह कोई छूत की बीमाँ री से ग्रसित है|”

“मेरा काम जो है वही कर रही हूँ – दवाई देना – इनको देखना बस |”

जवाब सुन मौसी का चेहरा माँ नों तमतमाँ  गया लेकिन बीच में पड़ती कल्याणी जी दयनीय स्वर में कह उठी – “रहने दीजिए न |”

“रहने क्या दूँ – कोई अहसान कर रही है क्या – माँ नवता कुछ है कि नही |”

नर्स उनकी बातों से तल्ख़ होती बाहर चली जाती है|

“क्यों जीजी बेवजह अपना जी हलकान कर रही है – अब नर्स से जो होगा वही न करेगी |”

कल्याणी जी की बात सुन उनका स्वर थोड़ा दब जाता है – “सही कहती हो – काश इस वक़्त अपनी बेटी होती तो न दर्द समझती |”

उस पल दोनों गहरा उच्छ्वास लेती एक दूसरे को देखती रही|

“तभी कहती हूँ बहु ले आओ – कम से कम इस वक़्त तुम्हारे साथ तो होती |”

“बहु बहु होती है बेटी थोड़े हो जाती |”

ये सुन मौसी अपनी ही बहन के रवैया पर दंग रह गई|

“कल्याणी मुझे हैरत होती है तुम्हारी सोच पर |”

“हैरान होने जैसी क्या बात है – यही सच है कि आने वाली बेटी थोड़े हो जाएगी |”

“अगर तुम माँ की तरह अपनाओगी तो बेटी ही बनकर रहेगी – सिर्फ सोच का फर्क है – तुम जो दोगी बदले में वही मिलेगा न – ये कुदरत का नियम है हम जो आकाश में उछालेंगे वही न नीचे आयेगा – तुम प्रेम और विश्वास दोगी तो वही दूसरे से भी बदले में मिलेगा – अगर संदेह करती रहोगी तो आपही परेशान होती न खुश रह पाओगी न ख़ुशी दे पाओगी |”

ये सुन एक पल को वे खामोश होती अपनी जीजी के चेहरे की ओर देखती रही जहाँ विश्वास का उज्ज्वल दीया दमक रहा था|

मौसी जी ने मन ही मन जैसे तय कर लिया था कि बंद रास्तों के आगे भी बढ़ेगी तो मजिल जरुर मिल जाएगी…ऐसा ही कुछ सोच वे शाम को नूतन मैडम के घर जा पहुंची…|

सुगंधा को कहाँ खबर थी कि कौन आया… कौन गया… वह तो अपनी उदासी में लिपटी बेड पर कपड़े समेटती अनमनी सी बैठी थी| सामने मुंह खुला ट्रेवलिंग बैग पड़ा था, आधा सामाँ न उसमे सहेजा जा चुका था बाकि का इधर उधर फैला था, उस पल उस कमरे को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी गहरी उदासी के जद में घिरा है, हर सामाँ न अपनी तय जगह से हिला भर था, कहीं उल्टा पडा था….सुगंधा का मन भी कहाँ जाना चाहता था बस कुछ था जो उसे यहाँ से जबरन हटा रहा था…कोई जबरन का तूफानी धक्का जो उसे उसके ही स्थान से लगातार डिगा रहा था और उस तूफान के वेग के आगे वह बिलकुल हताश सी थी….उन सात दिन में से बस दो दिन तो शेष रह गए थे…उसने इसी कारण संस्था जाना भी बंद कर दिया था…कुछ तय ही नहीं कर पा रही थी…यूँ सब छोड़छाड़ कर जाना बुरा भी लग रहा था पर कर भी तो कुछ नही सकती थी…लग रहा था कि एक बार भी चिराग उसके सामने आ गया तो शायद वह जा भी न सकेगी इसलिए खुद के प्रति बेरहम होती निरीहता से खुद को खोल में छुपाए थी…वक़्त का सामना करने की उसमे जरा भी हिम्मत नही थी….माँ की तस्वीर के साथ साथ वह उन सूखे फूलों को भी अपने बैग में सहेज कर रखती हुई धीरे धीरे सुबक रही थी……ये मौन निवेदन था वक़्त – ओ हालात से बस…..

मौसी सी उसी डूबती शाम में बड़ी आशा के साथ नूतन मैम के घर के बाहर खड़ी उनके दरवाजे की कॉल बेल बजाती है| अगले क्षण में दरवाजा खोलती छवि आश्चर्य से उन्हें देखती दूसरे ही पल खुश होती हुई कहती है – “अरे आप – आपको तो मैं जानती हूँ – हाँ याद आया – आप सामाँ जिक उत्थान का काम करती है न – आप की तस्वीर देखी थी अख़बार में – आप वहीँ है न – जो शारजाह में रहती है |”

अति उत्साह में वह धाराप्रवाह कहती रही जिससे वे मुस्करा कर धीरे से पूछती है – “हाँ हाँ तो मैं आ जाऊं अन्दर ?”

“ओह्ह माँ फ़ कीजिएगा – एक्साईटमेंट में तो मैं भूल ही गई – प्लीज आप अन्दर आइए |” दरवाजे के एक किनारे होती वह उनका अभिनन्दन करती है|

“नूतन जी घर पर है ?”

“हाँ मम्मी जी घर पर ही है – आप बैठिए मैं उन्हें बुलाती हूँ |”

बैठक के सोफे की ओर उन्हें बैठने का इशारा करती हुई छवि बैठक से बाहर निकल गई|

कनकलता जी के आने का सुनती नूतन जी झट से जल्दी से वहां आई तो दोनों एक दूसरे को देख हर्षित हो उठी|

“आपको यहाँ देख बड़ी ख़ुशी हो रही है |”

“हाँ शारजाह से लौटी तो बड़ा मन हुआ कि आपसे मिलने आ जाऊं |”

मौसी के मन में क्या चल रहा था इससे अभी नूतन जी पूरी तरह से अनभिग्य थी, वे तो उनके अपने यहाँ आने भर से आनंदित हो उठी थी, छवि भी उनके बीच बैठी थी पर मौसी जी जो बात छेड़ना चाहती थी उसके लिए उन्हें नूतन जी के साथ एकांत चाहिए था पर छवि उनके बीच सहजता से बैठी उनकी बातों का रस ले रही थी, किसी तरह से बातों का तार इधर उधर से जोड़ती वे छवि की ओर देखती हुई कहती है –

“क्या पानी मिल सकता है – बड़ा गला सूख रहा है |”

“ओह्ह – आपकी ख़ुशी में आपको जलपान पूछना तो भूल ही गई |” अपने शब्दों में शर्मिंदगी लाती वे अपनी बहु की ओर देखती हुई कहती है – “छवि चाय बना लाओ |”

“अरे नहीं नहीं क्यों बहु को तकलीफ दे रही है – बेकार में बिचारी चाय पकोड़ों में उलझ जाएगी |” मौसी जी कन्खानियों से उनकी ओर देखती हुई बोली|

“अरे तकलीफ कैसी – छवि तो बहुत अच्छी अदरक वाली चाय बनाती है |”

“अच्छा !”

“मेरी बहु तो बहुत अच्छी है – खाली चाय थोड़े ही पिलाएगी – पकोड़ों के साथ लाएगी |” सास को आज फिर बहु को हलके से खीचने का बहाना मिल गया था|

“अरे नही – बेकार में परेशान होगी – बिचारी आलू प्याज की पकोड़ी बनाने में कहाँ उलझी रहेगी !” मौसी जी भी आज ताल में ताल मिलाने से कहाँ रुकने वाली थी|

“अरे एक बार आप खा के तो देखिए फिर आप रोज रोज आइयेगी |”

छवि उस पल समझ नहीं पाई कि ये हो क्या रहा है…मजे मजे में उसे झाड में चढ़ाया जा रहा है…मरती क्या न करती आखिर जबरन अपने हाव भाव में मुस्कान लाती हुई कहती है –

“जी क्यों नही – अभी लाती हूँ |” छवि की हालत पर उन दोनों की अनुभवी प्रोढ़ बुद्धि मन ही मन मुस्करा उठी थी|

“अच्छा निशा नही दिख रही है – क्या घर पर नहीं है ?”

“है क्यों नही – छवि उसे भेज देना |” जाती हुई छवि को कहकर वे फिर कनकलता जी ओर देखती हुई कहती है – “आपका अचानक आना अच्छा लगा |”

“अब अचानक समझिये या प्रयोजन से |”

“जी मैं समझी नही |”

“आपकी बेटी को माँ गने आई हूँ अपने बेटे के लिए |”

“जी !!”

“बहुत प्यारी लगी मुझे बस आप हाँ बोल दीजिए तो..|” जानकर अपनी बात अधूरी छोड़ती हुई वे उनके चेहरे के आते जाते भावों को देखने लगी |

वे कुछ कहना चाह रही थी पर हिचकिचाहट साफ़ उनके चेहरे पर दिख रही थी, फिर वे धीरे से कहना प्रारंभ करती है – “देखिए आपका बेटा है फिर तो किसी प्रश्न का कोई स्थान ही नहीं लेकिन निशा जिसे आप जानती है वो किसी और को अपने मनमंदिर में बसाए है पर दुर्भाग्य से वह भी उसकी किस्मत में नहीं इसलिए सब त्याग कर वह यहाँ से जा रही है |” एक एक शब्द को कस बंद कर वे किसी तरह से कहती है|

“ओह्ह मुझे लगा मेरे बेटे चिराग संग उसकी जोड़ी खूब सजेगी |”

“चिराग !!!” हैरत से उनकी ऑंखें जैसे बाहर को निकल आई – “चिराग कौन चिराग ?”

“अब आप कितने चिराग को जानती है क्या पता मैं तो अपने भांजे चिराग की बात कर रही हूँ जो मेरे  शारजाह जाने पर संस्था को संभालता था |” मौसी जी जानकर अनजान बनती मंद मंद मुस्कराती उस वक़्त का आनन्द ले रही थी जबकि नूतन जी की ऑंखें हैरानगी से चौड़ी हुई जा रही थी|

“जी आप जिस चिराग को जानती है वह मेरा भांजा चिराग ही है –|”

“एक पल को आपने मुझे डरा ही दिया – मैं सोचने लगी कि आपको मना कैसे करुँगी – मुझे बिलकुल नही पता था कि वह आपका भांजा है|”

“हाँ चिराग ने सब मुझे बता दिया – अभी सुगंधा भी नही जानती है ये बात पर मैं सुगंधा और चिराग के बारे में सब जानती हूँ |” वे उन्हें राहत देने मुस्करती हुई अपनी बात कहती रही – “इस सच्चे प्रेम को हम यूँही वक़्त के हाथों बिखरते नही देख सकते – मैं सब जानती हूँ – अपनी बहन और चिराग की माँ का स्वभाव भी – पर क्या करूँ उसे बदलने के लिए भी मुझे आपकी सहायता की बड़ी जरुरत है |” वे अतिउत्साही होती उनके पास सरकती बड़ी आस से उनके हाथ पर अपना हाथ रखती हुई कहती रही – “बस कुछ सोचा है – थोड़ा आप सहायता करे बाकि ईश्वर के हाथ में है –  हमे तो कर्म करना है फल देना तो ऊपर वाले के हाथ में है न – अपनी ओर से मैं कोई कसर नही छोड़ना चाहती तो बताईए आप ?”

“मैं क्या कहूँ – आपने तो एक ही पल में मुझे हैरान करते उलझा कर समाँ धान भी कर डाला – मुझे नहीं पता आपने क्या सोचा पर हर तरह से मैं आपके साथ हूँ – सुगंधा मेरी बेटी है मैं उसकी यशोदा माँ ही हूँ – मैं सब कुछ करुँगी उसे यहाँ रोकने के लिए |”

उस एक पल दोनों की ऑंखें विश्वास से दीप्तमाँ न हो उठी|

छवि अनमनी सी सुगंधा को आवाज देकर रसोई में पानी लेने चली गई, आज वह बुरी तरह से फंस गई थी…उस पल उसे लग रहा था जैसे वक़्त के पीछे लौट जाए और घर का दरवाजा सुगंधा को खोलने भेज दे पर अब कुछ नही हो सकता था…एक गहरा उच्छवास छोडती वह ट्रे में दो गिलास पानी लिए बैठक की ओर चल दी|

बैठक में अब तक सुगंधा भी आ चुकी थी जो उन दोनों के मध्य बैठी थी, छवि को पानी देते देख वह जल्दी से खड़ी होती हुई बोल उठी – “आप बैठिए भाभी मैं चाय बना लाती हूँ |”

“नही नही तुम बैठो – सबको मेरे हाथ की पकोड़ी भी तो खानी है |” छवि किसी तरह से एक एक शब्द हलक से निकाल निकाल कर कहती हुई वहां से चली जाती है|

सुगंधा के अलावा दोनों के चेहरे चुपके से मुस्करा दिए थे|

वे उसका हाल चाल लेती उसके मन का भरम लेने पूछ रही थी कि आजकल संस्था क्यों नही आती !! सुगंधा अपने मौन के खोल से झांकती बस धीरे से अपना व्यस्त रहना कह पाई तो इस पर वे बड़े प्यार से अपना हाथ उसके हाथ पर धरती हुई कहने लगी –

“वहां सभी तो तुम्हारा बड़ा इंतजार है – वंदना जी भी आ गई है |”

ये सुनते उस पल सुगंधा की आँखों के परिद्रश्य में चिराग की याद दौड़ गई कि जाने वह क्या कर रहा होगा…क्या उसका इंतजार….!!

मौसी जी अपनी रौ में कहती कहती चुपके से सुगंघा के बदलते हाव भाव पर भी नजर जमाए थी|

“पता है नूतन जी – मैंने उस नौसिखिये मेनेजर को हटा दिया – |”

“क्यों !!”

वे दोनों अब एक दूसरे को देखती हुई बातें करने लगी पर सुगंधा का कलेजा तो धक से होकर रह गया….पर संकोच की सीमा  पार कर वह कुछ न कह सकी….

क्रमशः…….

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