Kahanikacarvan

सुगंधा एक मौन – 46

दोनों अपनी छुपी नज़रों से सुगंधा के मन का भरम लेती उसकी मनोदशा को भली भांति समझ रही थी लेकिन सुगंधा खुद को इस कदर ख़ामोशी की दीवारों की ओट में छुपाए थी कि कभी लगता जैसे उसकी आवाज ही खो गई हो पर वे कहाँ आज माँ नने वाली थी, वे तो आज सुगंधा को उसकी ख़ामोशी की परतों से उघाड़ लेना चाहती थी……

“छोड़िए – क्या फर्क पड़ता है|” कहती हुई मौसी जी सुगंधा के सन्न चेहरे को देखती हुई पूछ रही थी – “क्या हुआ – तुम कुछ परेशान लगने लगी ?”

मौन सुगंधा शब्दों से कुछ न कहती ख़ामोशी से बस न में सर हिलाती चुप ही रहती है, जिससे अगले कुछ पल तक बातों का कोई छोर उनकी पकड में नहीं आता तो नूतन जी कनकलता जी से पूछने लगती है – “मुझे तो आप कुछ परेशान लग रही है – कोई बात है क्या ?”

ये सुन वे एक गहरा श्वांस खींच कर छोडती हुई कहती है – “हूँ तो परेशान पर क्या कहूँ ?”

“कह दीजिए – न हल निकला तो कम से कम मन का बोझा तो हल्का होगा |”

“सही कह रही है आप – असल में मेरी छोटी बहन जिसके यहाँ मैं रहती हूँ वह कुछ बीमाँ र है – घर में बेटे है पर वो बेचारे करे क्या इसलिए उसकी देख रेख के लिए नर्स रखी है आखिर स्त्री को स्त्री सेवार्थी ही चाहिए न –– मैं उम्र की वज़ह से ज्यादा इधर उधर कर नही सकती – |”

“तो परेशानी क्या है फिर ?” उतावली होती नूतन जी पूछ बैठी|

“ये कि वो नर्स कैसी खानापूर्ति करती है अपने काम की जबकि बाकि काम को घर में नौकर चाकर है – उसे तो बस रहना है उसके साथ फिर भी उससे ऐसे व्यवहार करती है कि अब क्या कहूँ – तभी मन द्रवित हो उठता है काश बेटी होती तो आज ये उपेक्षा न सहनी पड़ती |”

“ओह्ह…|” हमदर्दी का गहरा भाव नूतन जी प्रकट करती है|

अब दोनों खामोश होती कनखनी से सुगंधा की ओर देखती है जो शायद अभी भी चिराग के ख्याल में खोई थी…

जल्दी से नूतन जी बातों का सिरा पकडे पकडे कहती है –

“ये तो सही कहा – कुछ दिन की बात थी तो निशा ही मदद कर देती |” वे उसके नाम पर जोर देती अपनी बात कहती है पर वह तो ऐसे वहां थी ही नही, ये देख नूतन जी उसके कंधे पर हौले से हाथ रखती है जिससे वह एक झटके से वापिस आ जाती है|

कनकलता जी अपने अंदाज में बातों का तार जोड़ती गई –

“कैसी बात करती है आप – इतनी पढ़ी लिखी लड़की किसी अनजान की सेवा क्यों करेगी ?”

दो पल का मौन देती वे सुगंधा को जैसे बोलने का अवसर दे रही थी|

वो भी अब तक सारा माँ जरा समझती धीरे से कहती है – “आंटी जी सेवा का शिक्षा से क्या सम्बन्ध – अगर मेरी मदद से आपकी समस्या हल होती है तो मुझे कोई एतराज़ नही |”

सुगंधा से जैसे उन्हें यही उम्मीद थी जिसकी क्षणिक ख़ुशी उनके होंठों पर आती आती अन्दर सिमट गई|

“पर तुम तो जा रही हो फिर …!!”

“कहाँ जा रही है..?” कनकलता जी जबरन अनजान बनती पूछती है|

“ओह बताया नहीं मैंने – पोंडिचेरी युनिवर्सिटी में प्रवक्ता के पद पर नियुक्ति है इसकी |”

“इतनी दूर क्यों – यहाँ के सारे कॉलेज खत्म हो गए क्या – इंदौर में एक से बढ़कर एक कॉलेज है – कोई ऐसी बेरहमी से अपना शहर छोड़ता है क्या |” सुगंधा कुछ न कहती बस चुपचाप सर झुकाए जैसे सारा आरोप ग्रहण कर रही थी और वे उसके चेहरे को देखती मन की सारी भड़ास निकालने को आतुर थी – “अपना शहर कोई कागज में लिखा नाम है क्या बस कि जब चाहा बदल दिया वो तो दिल में बसता है – हम अपने शहर में भलेही हम न घूमे हो पूरा पर उस शहर में हमाँ री रूह बसती है जिसका अभी तुम्हें अहसास नही पर जब बाहर जाओगी न और कोई भूल से भी उस शहर की गली का नाम भर ले लेगा तब देखना तब ऐसा लगेगा जैसे किसी ने बालपन नाम पुकार लिया हो – ये कोई मुझसे पूछे – अपने देश से दूर रहकर कितना याद करती हूँ उसे….यादों से भागते नही है यादों के संग रहते है बेटी |” वे अपना स्पर्श उसकी हाथों पर रखती माँ नों अपनी भावना उसके दिल में भी सीधा उड़ेल देना चाहती थी| सुगंधा औचक उन्हें देखती रह गई….बस

जिस बात के सिरे को वे छूना चाहती थी आखिर बातों बातों में वे उस तक पहुँच ही गई|

“मैं एक दो दिन तो हूँ उसमे मैं आपकी हर संभव मदद कर दूंगी – बताइए क्या करना है मुझे ?” कुछ पल बाद धीरे से वह कहती है|

जितना वक़्त शेष था वही उनके लिए बस स्वर्णिम अवसर की तरह था|

“वो भी बहुत है मेरे लिए – बस एक दो दिन जबतक एक अच्छी परिचि को मैं न खोज लूँ बस तब तक मेरी बहन के घर पर रहना होगा |”

ये सुनते दोनों उन्हें मूक देखने लगे तो वे झट से कह उठी –

“अरे आप बिलकुल परेशान मत होइएगा – बिलकुल घर जैसी रहेगी – लगेगा अपने घर ही आई है – |”

कहती हुई वे सुगंधा के जवाब के इंतजार में उसका चेहरा ताकती रही |

“ठीक है |” धीरे से सहमति देती फिर कुछ सोचकर आगे पूछती है – “वैसे उन्हें हुआ क्या है ?”

“वहम |” एकदम से कह उठी तो बाकि दो जोड़ी ऑंखें उनकी ओर उठी रह गई|

“बस समझो उसकी ग़लतफ़हमी को दूर करना है बस |”

“मैं कुछ समझी नहीं |”

“असल में उसे कुछ दिन पहले कुछ दाने जैसे हुए – उसने डॉक्टर को दिखाया जबकि उसने कुछ तय नही कहा – कहा रिपोर्ट आयगी पर मन में तबसे वहम पाले है कि उसे सोरायसिस है – एक संक्रामक रोग – और खुद को परिवार से दूर करे खुद को एक चारदीवारी में कैद किए बैठी है – बस यही उसकी सहायता करनी होती है क्योंकि किसी भी काम के लिए वह खुद बाहर जाती नही है – तो बेटी तुम संभाल लोगी न !!” एक पल को संशय से वे सुगंधा की ओर देखती है|

“अगर वहम नही भी है तबभी अगर परिवार के किसी सदस्य को कोई कष्ट हो तो क्या उसे अकेला छोड़ दिया जाता है क्या – मुझे कोई एतराज़ नही है |”

“ओह्ह बस – यही तो…|” अति उत्साह में बस उनके मुंह से निकलने ही वाला था, झट से जीभ तले शब्द दबाती वे खुश होती हुई आगे कहती है – “तुमने तो मेरी परेशानी हल कर दी – बस कल सुबह तुम सामाँ न के साथ तैयार रहना मैं गाड़ी भिजवा दूंगी |”

“उसकी कोई जरुरत नही है – आप पता बता दीजिए – मैं ऑटो से आ जाउंगी |”

“जरुरत ही तो है |” वह किसी तरह से ख़ुशी को अपने भावों के पीछे छुपाती हुई खड़ी हो गई|

तभी छवि उस कमरे में प्रवेश करती है, उसकी आहट पर अब सब उसकी ओर देखते है, ठण्ड में भी पसीने से लतफत हाथों के बीच बड़ी सी ट्रे में चाय के कप और पकोड़ी के साथ उनके सामने खड़ी थी| वह कनकलता को जाने को खड़ा देख वही ठहरी रह गई तो वे उसकी तरफ आती हुई कहती है –

“अरे वाह – बहु हो तो ऐसी….|” कहकर हँसती हुई खड़े खड़े ही प्लेट से एक पकोड़ी उठाती हुई कहती है – “अब आराम से सर्दी में गर्म चाय और पकोड़ों का आनंद लीजिए – मुझे जो चाहिए था मिल गया |”

कहकर वे कमरे से कब बाहर निकली सब हैरान देखते रहे…..

***

घर पहुँचने तक जैसे आने वाली ख़ुशी से उनकी ऑंखें दीप्त हो उठी थी….वक़्त अपनी कोख से क्या जन्म देगा क्या पता !!! पर उम्मीदे तो अपनी जगह थी….

अब तक शाम का धुंधलका चारोंओर छा चुका था…वे आती हुई देखती है कि गार्डन की कुर्सी पर चिराग  अकेला बैठा जाने किस दुनिया में खोया था…..ये देख वे घर के पोर्च पर कार खड़ी कर घर के अन्दर न जाकर उसके पास चल देती है|

वे चिराग की तरफ न देखती हुई एक आह की आवाज छोड़ती उसके सामने की कुर्सी पर बैठ जाती है, जिससे एकदम से उसका ध्यान अपने सामने की ओर जाता है और मौसी जी को देखते तो जैसे वह ख़ुशी से उछल पड़ता उनके पास आकर बैठ जाता है|

पर मौसी जी कुछ न कहती बस इधर उधर देखने लगती है, चिराग को वे बताकर गई थी कि कहाँ जा रही इसलिए उसकी बेसब्र ऑंखें बस उनकी ओर ही जमी रह गई लेकिन वे बस एक अदनी सी मुस्कान उसकी ओर डालती पैर पर पैर चढ़ाए बैठ जाती है|

गहरी गहरी सांसे लेता छोड़ता चिराग उन्ही की ओर देख रहा था, फिर वे धीरे से मुस्करा कर उसकी ओर देखती हुई कहती है – “काश इस वक़्त अच्छी सी चाय मिल जाती तो मजा ही आ जाता |”

“चाय – अभी लीजिए – लाता हूँ मैं |” कहता हुआ सरपट भागता हुआ अन्दर की ओर जाता है| अगले ही पल चाय लिए अपनी भरपूर विजयी मुस्कान के साथ उनके सामने खड़ा था| मौसी जी चाय उसके हाथ से लेती फिर अनमनी सी दिखती है तो चिराग पूछ बैठता है –

“मौसी जी कुछ और !!”

“काश इस गर्मागर्म चाय के साथ मेरे मनपसंद बिस्कुट मिल जाते तो मजा ही आ जाता |”

“बस – मैं अभी लाया|” जितनी तेजी से वह आया था उतनी ही तेजी से फिर वापस हो लिया, ये देख वे धीरे से मुस्करा दी|

और सच में उसकी हालत देखकर लग रहा था कि यूँही भागता दौड़ता हुआ ही वापस आया था लेकिन मौसी जी के अभी भी चेहरे पर असंतुष्टि के भाव थे, जिससे हैरान होता चिराग फिर कारण पूछता है तो वे उसकी आँखों के सामने खाली कप लहराते हुई कहती है –

“अब तो चाय ही खत्म हो गई |”

“मैं दुबारा ले आता हूँ |” बेचारगी से वह कहता है|

“फिर तब तक बिस्कुट खत्म हो जाएँगे !”

ये सुनते जो बेचारगी के भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट हुए उन्हें देख उस पल मौसी जी कसकर हँस पड़ी, साथ ही चिराग भी फंसी सी हँसी से हँसता उनके सामने खड़ा था तो मौसी जी उसका हाथ पकड़कर बैठाती हुई कहती है –

“मिल के आई हूँ अभी |”

“क्या सच !!” अब तो उसके लिए अपनी ख़ुशी को दबाना मुश्किल हो गया, वह उनकी ऑंखें यूँ गौर से देखने लगा माँ नों उसमें के परिद्रश्य को वह दिल में सीधा उतार लेना चाहता हो….काश

“बड़ी मेहनत की है तुम्हारे काम के लिए |” वे जबरन चेहरे से तनती हुई कहती है तो चिराग झट से उनके पैरों के पास बैठा उनके पैर दबाने का उपक्रम करने  लगता है, उसकी बेचैनी पर उनको बड़ी तेज हँसी आ जाती है, ये देख चिराग अपने उतावलेपन पर शरमाँ  जाता है अब उनके लिए अपनी हँसी रोकना मुश्किल हो जाता है|

“कल आ रही है |”

“यहाँ !!

“और क्या इसलिए अब निकल लो तुम |”

“क्यों !!”

“अच्छा बच्चू वो यहाँ आएगी तो तुम यही बने रहोगे क्या !!”

“फिर !!” वह बेचारा सा मुंह लटकाए उसकी ओर देखता रहा|

“चुपचाप से निकल जाओ – |”

“कहाँ जाऊंगा मैं – ऐसा करता हूँ – मैं घर के कोने में कही छुपा रहूँगा – नही आऊंगा सामने |”

“और ये ऑंखें कहाँ छुपाओगे जो बिन बोले सब कह देती है |” कहती कहती वह उसका चेहरा उठाती हुई सच में उन्हें गौर से देखने लगती है, जहाँ तूफानों के शोर के साथ नीरव ख़ामोशी भी समाँ ई थी….कितनी नेह से लबरेज थी, वह कैसे इन्हें छोड़कर जा सकेगी…!!!

उसी पल पापा उधर आते सारा कुछ समझते मुस्करा रहे थे| साथ ही काकी आती हुई चाय के कप फिर उनके सामने सजाती हुई कह रही थी –

“हम सब भी तो नवेली के स्वागत को तैयार है |”

“हाँ भई – अब आगे हमे ही सब देखना है – कैसे भी कल्याणी को उसका नाम न पता चले और न सुगंधा को कि ये घर किसका है – जाने कैसे होगा पर करना है यही |” मौसी जी जैसे अपनी योजना के सारे पत्ते खोल रही थी|

“पर इससे कुछ होगा जीजी क्या !!” पापा अपना संशय जल्दी से प्रकट करते है तो सब उनकी ओर ऐसे देखने लगते है माँ नों सब भी यही सोच रहे हो|

“बस यही तो वक़्त के हाथ में है इसलिए सारे हालातों को आमने सामने कर रख रही हूँ बाकि सब तो ईश्वर जाने |” एक ठंडी शवांस छोडती हुई वे कहती है |

“और तब तक ये कहाँ रहेगे |” पापा चिराग की ओर भौं उचकाते हुए पूछते है|

“मैं कहाँ जाऊंगा ?” उस पल चिराग का स्वर यूँ हो उठा माँ नों कोई तय सजा की मियाद पूछ रहा हो|

“तुम ऐसा करो गोवा चले जाओ – नए कन्साइन्मेन्ट के लिए मैं किसी और को भेजने वाला था अब तुम चले जाओ वहां |”

पापा की बात सुन मौसी जी एकदम से खुश होती हुई कहती है – “हाँ ये सही रहेगा और मैं तो कहती हूँ उस छुटके को भी ले जाओ – ये यहाँ रहेगा तो जरुर कुछ गड़बड़ कर देगा |” मौसी जी जिस पल अतुल का नाम लेती कह रही थी उसी पल छीकता हुआ वह उधर से गुजर रहा था|

“किसी ने मुझे याद किया क्या ?” अतुल सबको अपनी ओर देखता हुआ थोड़ा सकपका गया था|

ये देख चिराग जल्दी से खड़ा होता उसकी ओर देखता हुआ कहता है – “हमे आज रात ही गोवा के लिए निकलना है |”

“क्यों और कब बुक किया आपने मुझे बताया भी नही |”

“तो अभी बता रहा हूँ न – जल्दी से सामाँ न पैक कर लो नहीं तो इन्ही एक कपडे में ले चलूँगा और दूसरा कुछ दिलाऊंगा भी नही |” चिराग अतुल पर अपना बड़प्पन झाड़ने का एक भी मौका नही गवाता था|

“पर मैंने अपने दोस्तों को भी नही बताया |”अतुल कुछ ज्यादा परेशान हो उठा था|

“तो कौन सा तू पी एम् है जो तेरे जाने से उनका काम रुक जाएगा – जल्दी अपनी पैकिंग कर नहीं तो …|”

तब से चिराग की अकड़ देख मौसी जी आखिर उसे पुकार उठी – “चिराग – अगर तुमने अतुल को परेशान किया न तो तुम्हारा यहाँ का काम रुक जाएगा – समझे |”

“अरे नही मौसी जी |” ये सुनते चिराग के स्वर में एक ही पल में नरमी उतर आई और वह अतुल के पास तुरंत पहुँचता उसके कंधे पर अपना हाथ फैलता हुआ कहता है – “ये तो मेरा प्यारा छोटा भाई है – चलो अपन भाई लोग बहुत मजा करेंगे समुंद में |”

चिराग जितना ज्यादा मुस्करा रहा था अतुल को उतना ही भय हो रहा था साथ ही वहां जो कुछ भी घट रहा था सब उसके सर के ऊपर से निकल रहा था, वह कुछ न समझते अपना सर ख़ुजाते पूछता है – “कैसा काम मौसी जी ?”

ये सुनते इससे पहले कि मौसी जी कुछ कहती चिराग झट से बोल पडा – “वो सब तुम छोड़ो और अपने दिमाँ ग के घोड़ों को न घास ही खाने दो – समय कम है जाओ जल्दी से तैयारी करो |”

ये सुनते अतुल मुंह लटकाए चला गया, उसके जाते मौसी जी और पापा अगल बगल बैठे बात करने लगे तो तब तक बातों के साथ साथ खाली हुए कप को काकी उठाने में लगी थी, ये देख चिराग अचानक उनको बुलाता हुआ कहता है – “मौसी जी वो मेरी कार तो यही खड़ी है…..आप चाहे तो किसी को लाने में आप यूज कर सकती है |” कहता हुआ चिराग एक बार भी किसी के चेहरे की ओर बिना देखे झट से वहां से निकल जाता है, पता था सब किस तरह मुस्कराते उसे ही घूर रहे होंगे, पर क्या करे सुगंधा का घर में आना सुनकर उसका जी कर उठा कि उसका स्पर्श का अहसास काश हर जगह बस जाए किसी ठहराव की तरह…….

कोई आँखों के सामने के परिदृश्य हटा सकता है पर मन…मन की तस्वीर को कोई कैसे धूमिल कर सकता है…बड़ा बेसब्र, बेक़रार हो उठा था वो दिल जिसकी तस्वीर आज हर अहसास में मुस्करा उठी थी…पर कैसा दर्द था कि जिसे पास लाने का सारा प्रयोजन हो रहा है आज उसी के लिए उससे दूर जाना पड़ रहा है…..चिराग तबसे लैपटॉप पर बैठा गोवा जाने की हर संभव फ्लाइट की बुकिंग कर रहा था…..

कनकलता जी जो चिंगारी छोड़ गई सुगंधा का ह्रदय सच में देर से उसी में सुलग रहा था…चिराग को उसकी नौकरी से हटा दिया गया तो अब कहाँ होगा….क्या सच में वह अब बेरोजगार होगा..तो उसके भाई की पढाई…क्या हो रहा होगा उसके जीवन में ?? चिराग के बारे में सोच सोचकर उसका मन गर्म मोम सा पिघला जा रहा था…इसी बेचैनी में वह झट से उठी और पिछले रविवार के और कुछ अख़बार निकालकर उसमे नौकरी के आवेदन वाले कॉलम को चिन्हित करने लगी कि एकाएक वह ठहर गई…उसे तो ये भी नही पता कि चिराग की शैक्षिक योग्यता क्या है…न घर का पता पता है न उसके काम की रूचि….कितनी बार मिली पर कभी कुछ जानने की सोची ही नही जैसे उसे देखते बस उसकी सारी दुनिया पूर्ण हो जाती थी….फिर किसी प्रश्न की जरुरत ही नही रह जाती थी….लेकिन काश उसने कुछ पूछा होता तो आज वह उसकी मदद कर पाती…उफ्फ एक हूक सी दिल में उठी और सारे अख़बार परे हटाकर वह चिराग को याद कर बिफर कर रो पड़ी….अपने दर्द को घुटनों के बीच सर रखे जाने कितनी देर वह यूँही बिलखती बहाती रह गई……..

वक़्त एक था पर हालात कितने जुदा थे आज उनके चिराग के पास जहाँ आने वाले वक़्त से ढेर उम्मीद जुड़ गई थी वही सुगंधा को हर पल उम्मीद की कश्ती डूबती नज़र आ रही थी…हालाँकि नींद का एक कतरा भी उनकी आँखों में नहीं था….एक को बेचैनी ने आ घेरा था तो दूसरे को बेकरारी ने…अतुल तबसे जाने कितने फोन मिला चुका था, वह लगभग अपने हर दोस्त को अपने जाने की खबर दे चुका था पर जाने क्यों वह संजना को अभी तक फोन नही मिला पाया था….कई बात उसका नंबर मोबाईल की गुफा से खोजकर सामने लाता और अगले पल उसे पीछे धकेल अपने आस पास देखता रह जाता….वह कब से कोशिश कर रहा था पर एक बार भी वह संजना को फोन नही मिला पाया…कैसा अनोखा अहसास था जहाँ कशिश थी, रवानगी थी तो साथ की मन की गुमशुदगी भी……

चिराग ने आखिर जल्दी सुबह की फ्लाइट बुक कर ली…अब बस ये रात कैसे भी काटनी थी जो अनजानी राह सी मीलों लम्बी खिंच चुकी थी….उन आँखों से नीद जैसे रूठ कर बैठी थी…न जरुरत थी न आस…चिराग बिस्तर पर औंधे लेटा अपने मोबाईल में से सुगंधा की तस्वीर निकाले उसे निहार रहा था….ये उसने कैसे भी तिगडम कर संस्था में कई बार में चुपके से उसकी तस्वीर उतार ली थी….वह जैसे दीवाना होता उन तस्वीरों से बात कर रहा था….प्रेम में पड़ा दिल की हर रिदम ही जैसे झंकृत हो उठती  है…तभी तो उसने मोबाईल में गाना लगाने में सर्च डाला ही था कि जैसे गूगल बाबा को भी उसके दिल की तड़प का भान हो गया….और सस्वर एक गाना उसके अहसास को सशब्द तरंगों में उतारता चला गया………….

मुझे रात दिन बस मुझे चाहती हो….

कहो न कहो मुझको सब कुछ पता है….

हाँ करूँ क्या मुझे तुम बताती नही हो…

छुपाती हो मुझसे ये तुम्हारी खता है….हाँ मुझे रात दिन बस मुझे चाहती हो………….

क्रमशः…..

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