Kahanikacarvan

हमनवां – 11

मानसी हर बार की तरह देर होने पर घर में चुपचाप प्रवेश करती है, आज तो उसे बहुत देर हो गई थी, वह मुख्य दरवाज़ा धीरे से धकेलती है, दरवाज़ा खुला होता है| मानसी राहत की साँस लेती है| धीरे से अन्दर आकर दरवाज़ा उड़काकर बंद करके अहिस्ते से झुककर अपनी हील की सैंडिल उतारती है कि एक तेज़ रौशनी उसके चारोंओर फ़ैल जाती है| मानसी के हाथ अभी एक ही सैंडिल खोल पाए थे|

एक हाथ में सैंडिल पकड़े टेढ़ी खड़ी वह सामने देखती है| उस अँधेरे कमरे में अब भरपूर रौशनी थी इसके बावजूद ढेर डर  का अँधेरा उसके मन में पसर गया, सामने अपने पिता को देख मानसी का गला सूख गया, शब्द जैसे गुलाटी मार कहीं दूर भाग गए| वह दम साधे यूँही एक पैर पर टेढ़ी अभी भी खड़ी थी|

‘मुझे लगता है तुम्हारे पिछले जन्मदिन पर मुझे तुम्हेँ घडी देनी चाहिए थी|’ वह सधे शब्दों में कहते उसकी तरफ एक टक देख रहे थे|

मानसी निशब्द सूखते गले को थूक की गटकन से अपना गला तर करती है|

‘रात के दस अभी बजे नही है|’ तभी उसका मोबाईल बज उठा जिसे जल्दी से अपनी जींस की पॉकेट से आज़ाद कर स्विच ऑफ कर पुनः अपनी पॉकेट में दबा देती है|

‘वो डैड मुझे आज ही देर…..|’ मानसी बड़ी मुश्किल से कह पायी|

‘अच्छा!!’ वे कहते कहते उसके सामने सोफे पर पसरते अपनी पीठ पुस्त से सटा लेते है|

मानसी बस उनकी तरफ अपनी छुपी नज़रो से देखती हुई अपनी दूसरी सैंडिल भी उतारकर किनारे सरका देती है|

‘वैसे मुझे लगता है कि तुम्हारी माँ के बाद से मैंने अपने फ़र्ज़ में कभी कोई कोताही नही बरती – तुम अख़बार में काम करना चाहती थी, मैंने नही रोका लेकिन अब..|’

उनका ‘अब’ इतना लम्बा खींचता देख वह उनकी तरफ प्रश्नात्मक मुद्रा में देखती है|

‘अब अगर तुमने अपने लिए कोई पसंद कर रखा हो तो बता दो नही तो तुम्हारी मौसी और बुआ ने कुछ रिश्ते मुझे सुझाए है|’ वे अपनी बात खत्म कर उसकी तरफ देखते रहते है मानों चेहरा पढ़कर कुछ समझना चाह रहे थे|

उस पल मानसी का जी हुआ कि झट से जय का नाम ले ले पर जाने क्या सोच शब्द मन में ही दबा लिए उसने|

‘ठीक है अब तुम जाओ और हाँ थोड़ा मानव को देख लिया करो आज कल जब देखता हूँ कमरे में ही रहता है – पढ़ ही रहा है या सोता रहता है……|’ उन्होंने जान के अपनी बात अधूरी छोड़ दी और मानसी की ओर देखने लगे जो अपने एक पैर का भार दूसरे पैर पर डालती अभी भी खड़ी थी|

‘जी..|’ मानसी ज्यादा कुछ कहने में नहीं पड़ी बस झट से वहां से निकल गई| वही अपने मन को देर तक खंगालती रही अपने पिता के सामने से आने के बाद भी काफ़ी देर तक उसके मन में प्रश्नों का मंथन चलता रहा|

***

इरशाद खाना खा कर अपने  कमरे में इत्मीनान से पलंग पर लेटा उस कमरे का मुआयना करता सोच की गहन सागर में गोते लगा रहा था| कुछ भी नहीं बदला था उस कमरे में जैसा वह छोड़कर गया था अप्पी ने उस कमरे का एक तिनका भी इधर से उधर नही किया था| बड़ी बहन का स्नेह और देखभाल चारोंओर से अपनी मौजूदगी का अहसास करा रही थी|

आखिर उन्हीं की बार बार की जिद्द ही तो उसे यहाँ आने के लिए मजबूर करती लेकिन हर बार किसी अजनबी सा ये घर उससे मिलता| वह सोचता कि अगर इस घर से उसकी अप्पी की मौजूदगी हटा दी जाए तो इस घर जैसा अजनबीपन शायद कही नही होगा| ये घर रहा नही कभी उसके लिए तो ये दीवारों से बनी खुली जेल थी जहाँ सांसे भी शर्तो पर थी| बहुत छुटपन से ही अपनी अम्मी को खो देने वाले इरशाद को उनकी तस्वीर दीवार कर देख कर ही उनका चेहरा याद आता, इतने छोटे में अम्मी की रुक्सती हो गई कि कोई भी स्पर्श के अहसास का बिंदु उसकी याद के घने जंगल में कभी नहीं उगता, हर बार स्नेह के नाम पर बस अप्पी का स्पर्श उसकी याद में रहता|

अब्बू तो हमेशा से उसके लिए सख्त थे उन दीवारों जैसे जिनपर न यादों की कोई तस्वीर टिकती है न विरोध की कोई ईंट ही सरकती है| बाप बेटे की उदासीनता के बीच कब झाड़ की तरह अहमद मियां उग आए वो जान भी न पाया| फिर सारा विश्वास, लियाक़त, हुनर, सलीका अहमद मियां बन गए और जिद्दीपन, बेपरवाही, लापरवाही, नालायाक होना उसके हिस्से आ गया| ये वक़्त की मार या उनका फैसला बन धीरे धीरे इस घर से उसे दूर करता ही रहा|

फिर एक दिन अपना खोल अहमद मियां को सौंपकर वे भी सदा के लिए विदा ले गए| अब अहमद मियां के रूप में अब्बू की आँखों के सवाल उसे घूरते सवाल करते और आरोप लगाते| हर बार की तरह पहले अब्बू से फिर अहमद मियां से उसे बचाती रही नजमा| ये एक अदद कमरा और अप्पी की आँखों का इंतजार ही बस उसकी पनाहगाह बन कर रह गए| अप्पी की बेऔलाद जिंदगी में इरशाद ही उनका भाई से बेटे सरीखा हो गया, जिसके हर इंतजार के साथ उनकी बेरंग जिंदगी की तिथि और आगे बढ़ जाती|

धड़ाम की एक आवाज़ इरशाद का सारा ध्यान उस आवाज़ की तरफ ले जाती है, वह आवाज़ को याद कर उसकी दिशा का अंदाज़ा लगाता है कई किताबों के एक साथ गिरने की आवाज़ थी| उसकी ध्यान में हवेली की लाइब्रेरी आती है जो उसके कमरे की दीवार के पार ही थी बस| वह जल्दी से उठकर जाता है|

कुछ समय पहले दिमाग में जो चेहरा चढ़ा और वैसे ही उतर गया था उससे दुबारा वह रुबरुह था| शायद ऊपर की अलमारी से कोई किताब निकालते वक़्त कई किताबे एक साथ ज़मी पर गिर गई थी जिनपर झुकी वह उनकी गड्डी लगा रही थी| लाइब्रेरी के दरवाज़े पर रुका वह उसी ओर देख रहा था| रे

शमी बालों के बादलो के पीछे का चाँद पूरी तरह से छुप गया था| किताबो की गड्डी लगाते हाथ कभी कंधे से ढकलते दुपट्टे  को फिर उसकी जगह पहुँचाते तो कभी बालो की अड़चन से परेशान उन्हें अपनी पीठ की तरफ फेक देते| उसे याद आया कि वह तो आवाज़ सुनकर यहाँ आया था वह झट से उसके पास आता है और थोड़ा दूर छिटकी किताब उठाने का उपक्रम करता उसकी तरफ देखता है|

आहट पाकर वह चन्द बादलो को हटा कर अब उसको देख रही थी|

इरशाद की नज़रे जैसे जम सी गई थी दिल कह उठा वल्लाह इन सपनीली नीली आँखों के समंदर इतने गहरे है|

‘शुक्रिया..मैं ठीक से लगाए देती हूँ|’ वह किताबो का भार लिए सीधी खड़ी हो जाती है|

एक गहरी साँस हवा में छोड़ एक लम्बी साँस अपने भीतर भरता है तो खुशबू से तर साँस उसके ह्रदय का स्पंदन और तेज़ कर देती है|

‘लगता है आपको अपने मतलब की किताब मिल गई!!’

 ‘नहीं मेरे मतलब का यहाँ कुछ नही – मैं अपनी अप्पी के लिए किताब लेने आई थी|’ तल्खी से वह कहती है|

उसकी तल्खी पर जैसे इरशाद को हँसी आ जाती है – ‘तो किताबो से आपकी कोई नाराजगी है क्या?’

‘सबसे…|’ इतना कहकर  वह बची किताबो को अलमारियों के सुपूर्त करने लगती है|

‘तो कैसी किताबे पसंद है आपको?’ इरशाद की नज़र जैसे उस पर जम सी गई थी|

‘मुझे किताबे नहीं पसंद|’

‘और इन्सान?’ इरशाद भी जैसे पीछे हटने को नहीं तैयार था|

‘हाँ दोनों ही |’ उसकी तल्खी शब्दों से स्पष्ट होती रही|

‘उफ़ ऐसी भी क्या नाराज़गी|’

‘बस आपकी सूरत नही पसंद हमे|’ वह सारी किताबे रख चुकी थी|

‘लगता है बिनकसूर के ही सज़ा दे रही आप मुझे – मैंने आपकी आपा को देखकर कोई इंकार नहीं किया था उस वक़्त तो आप भी होती तो हमारा इंकार जस का तस रहता|’

वह एक दम से इरशाद के चेहरे को घूर कर देखती रही अब उसकी नाराजगी चेहरे पर तनी भकुटी में समा गई थी|

‘हमारा तो ख्याल भी न कीजिएगा – हमारा रिश्ता भी तय है|’ वह झट से कहती हुई वहां से तेज़ कदमो से निकल गई|

उस पल इरशाद को लगा कि आगे बढ़कर उसका रास्ता रोक ले और बताए की उसके जेहन में कोई सूरत आज तक इस तरह न समाई फिर उस अपराध का दंड क्यों उसे मिले जिसका उत्तरदायी वह है ही नही| उस वक़्त अपनी नौकरी की धुन थी और अचानक अहमद मियां एक रिश्ता लेकर आ गए और समझाने लगे कि अब उनका बिजनेस हमारे में मिल का एक बड़ा रूप कैसे ले लेगा| ये सुनते सारी नाराज़गी जैसे उस रिश्ते पर गिर गई और बिन देखे बस ना कर वह घर छोड़ दिया उसने| वह चली गई और इरशाद दरवाज़े की ओर एक टक देखता रहा और सोचता रहा कि जो हुआ अच्छा ही हुआ|

***

भावना बेचैनी में कभी  इस कमरे से उस कमरे जाती कभी हाथ में पकडे मोबाईल पर जल्दी से एक ही नम्बर पर रिडायल करती लेकिन बार बार के बिज़ी टोन जैसे कानो में गर्म सीसा उड़ेल दे रही थी| बढ़ते समय ने उसके मन में ढ़ेरों दुश्वारियां भर दी थी| बार बार मन का खिचांव दीवार घड़ी की ओर ले  जाता जिससे उसका मन और बैचैन हो उठता| रात के दस ही तो बजे है कोई ज्यादा रात तो नहीं हुई, एक  शहर के लिए रात का नौ तो दुबारा जागने जैसा होता है, उसकी नज़र अपनी बालकनी से दिखते शहर की तेज़ भागती सड़क की ओर जाती है वहां शहर कितना तेज़ भाग रहा था, कौन पीछे छूट रहा इसकी परवाह किए बिना लेकिन भावना तो ऐसा नही कर सकती आखिर एक मौन वादा जो कर चुकी थी अपने जन्मदाता से, उसकी कीमत तो अदा करनी थी इसलिए शैफाली की जिम्मेदारी उस पर भार से कहीं ज्यादा जिम्मेदारी थी जिसे हर हाल में उसे निभाना था|

यही बात बहुत देर से उसे बेचैन कर रही थी| अभी जुम्मा जुम्मा हुए दो सप्ताह ही बमुश्किल से बीते है इस पर शैफाली आज अकेली ही बार चली गई बस उससे पता पुछा और चली गई| ये बार जाने का जूनून उसे बुरा लग रहा था पर कर भी क्या सकती थी घर पर उसका पीने का दौर देख देख कुड़ने से अच्छा है पीने का दौर खत्म कर के आए तो ज्यादा अच्छा हो| उसने कहा था एक घंटे में आ जाए नहीं तो वह उसे कहीं नहीं जाने देगी, कह तो दिया लेकिन शैफाली ने सुना कितना वह नही जानती थी|

खैर उसके साथ एक पल में ही वह जान गई कि मिलने वाली वसीयत के सिवा कोई कारण नहीं था उससे अपनी बात मनवाने का| पर आज पहली बार में ही उसकी ताकीद को उसने दर किनार कर दिया| घड़ी अपने निर्धारित चक्र को पूरा करती और उसकी टिक टिक की धड़कने उसके ह्रदय में उठने लगती| अब तो ग्यारह बजने को आए एक तरफ ये लड़की वापस नहीं आई दूसरी तरफ पवन का फोन भी पहुँच से बाहर बता रहा है ,आज प्रेस में ही कोई ख़ास आर्टिकल के कारण कहा था कि देर हो जाएगी| जल्दी जल्दी वह मानसी को मिलाती है वहां भी लम्बी घंटी बज कर अपना दम तोड़ दिया फिर स्विच ऑफ़ बताने लगा| क्या करे झक मारकर उसने अपने मोबाईल में सर्च किया कि अब इस समय वह किस्से मदद मांग सकती थी|

फोन की लिस्ट खंगालते उसकी नज़र में सामने जय के घर का लैंडलाईन नबर आते वह झट से उसी को डायल कर लेती है पर वहां भी पूरी रिंग जाती है वह सब्र से पूरी घंटी जाने तक रूकती है पर फोन नहीं उठता| भावना को  लगा अब बस वह रो ही देगी| बेचैनी में अपने होंठ काटती फिर उसी नम्बर पर रिडायल करती है|

अबकि फोन तुरंत उठा लिया जाता है| फोन मोहित द्वारा उठाया जाता है उसके हेल्लो कहते झट से औपचारिक परिचय देकर अपनी परेशानी बताती है किसी तरह से कोई शैफाली तक जा सकता है, वह अपना प्रश्न छोडती है, मोहित अपनी कलाई की  घड़ी देखता है|

रात के ग्यारह बज रहे थे| अब वही था जो उसकी बात सुन कर अनसुना नहीं कर सकता था| जय लौटा नहीं था इरशाद अप्पी के यहाँ गया था और समर आज बहुत थका आने से कबका सो चुका था यूँ तो मोहित भी बस सोने ही जा रहा था कि लगातार बजते फोन को उठाए बिना न रह सका| भावना से वह बार का पता पूछता झट से अपनी कार से उसकी बताई जगह की ओर कार बढ़ा देता है|

मोहित किसी भी प्रकार के व्यसन से कोसो दूर था और आज उसे बार आना पड़ा| उसके लिए ये बेहद भारी वक़्त था| उस बताये बार के बाहर से ही अन्दर का नज़ारा मिल गया| उसने दूर से लाइट मारते बोर्ड को एक नज़र देखा उसके आस पास खड़े लोगो को देखता है वे सब अपनी ही मदहोशी में खोये खड़े थे| कहीं कोई बेहद दिखावटी वस्त्र पहने कमसिन लड़कियाँ जिनकर झुके चिकने लड़के दिखे, माहौल को देख मोहित का जी हुआ कि तुरंत निकल जाए पर उसे अब बार के अन्दर जाना था, अन्दर का नज़ारा वह देखता है वहां कुछ कुछ रंगीन बत्तियों से बार बार टिमटिमाता अँधेरी गुफा जैसा था वहां का माहौल  जिसमें न चाहते हुए भी मोहित समा रहा था|

उसे यकीन था कि उस दिन टैरिस की तरफ जाते मिली लड़की ही शैफाली है वह उसे  आसानी से पहचान पाएगा फिर भी उसे इस बात पर संदेह था कि उसे लड़कियों के चेहरे आखिर याद भी कहाँ होते है| देर रात होने से भीड़ कम थी पर कुछ डांसिंग फ्लोर पर अभी भी मदमस्त हो कर नाच रहे थे तो कुछ बार की तरफ झुके अपनी मपसंद ड्रिंक का मज़ा ले रहे थे| पूरा माहौल किसी सुरूर में खोया जैसा था| शराब की तीक्ष्ण गंध और सिगरेट के धुएँ से अटा पड़े उस बड़े हॉल में मोहित बड़ी मुश्किल से उसे ढूंढ पाता है अगर उसका ध्यान किसी लड़की का बार बॉय से बहस करते हुए पर न जाता तो|

वह थोड़ा आगे बढ़ता है और एक ही नज़र में उसकी नज़र उस सुनहरे बालो वाली गोरी रंगत की लड़की को झट से पहचान लेती है| वह अंग्रेजी और जर्मन में मिली जुली गाली दे रही थी और बार बार उसे ड्रिंक देने का हुक्म दे रहे थी| उस पल न जाने किस अधिकार से उसमे इतनी चेतना आई की झट से उसने उसकी गिलास थामे कलाई थाम ली| ये पल शायद उसमे भी उतना ही आश्चर्य भर गया और वह एक पल मोहित की ओर देखती रह गई|

उसके अपनी और खीचने पर जाने कैसे गिलास छोड़कर वह खड़ी हो गई| उसकी नज़रे उसके ऐसा करने का कारण पूछना चाहती थी| मोहित एक साँस में ही उसे समझा देता है कि उसकी बहन ने उसे लिवाने मुझे भेजा है और तुरंत उसे वहां से चलना होगा| ये सुन शैफाली झटके से अपनी कलाई उसकी गिरफ से मुक्त कर फिर बार चेअर पर बैठ कर बार की तरफ मुंह कर लेती है| बार बॉय मोहित को देखकर अपनी शिकायत रखता हुआ कहता है कि कब से कह रहा हूँ कि अब बार बंद होने वाला है|

मोहित उसे फिर भावना का हुक्म  सुनाता है पर उसपर लेश मात्र भी असर न होने पर न जाने कैसे मोहित का चेहरा गुस्से में भींच जाता है और पुनः कसकर उसकी बांह वह थाम लेता है अबकि कितनी ही कोशिश पर भी वह उस कसरती हाथो की पकड़ से नहीं छूट पाती है तो उसकी बेलगाम जुबान धाराप्रवाह उसे कोसने लगती है| ये स्थिति मोहित में लगातार गुस्सा और नफ़रत भर रही थी इसी से परेशान वह उसे लगभग खींचते हुए बाहर की ओर लाकर ही उसका हाथ छोड़ता है| बाहर आकर अपनी दुखती कलाई सहलाती शैफाली बुरी तरफ उस पर फुंकार रही थी| इस सबकी परवाह किए बिना वह उसे अपनी कार की सीट पर जबरन बैठाकर तेज़ रफ़्तार से चन्द पलों में ही बिल्डिंग तक पहुँच जाता है|

‘चलो..|’ मोहित ड्राइविंग सीट से निकलकर उसकी ओर का दरवाज़ा खोलते हुए कहता है|

मोहित का तेवर  देख शैफाली इंकार भी न कर पायी| वह उसकी ओर बस आंख तरेरती हुई बाहर निकल आती है| नशा तारी होने से वह हलके से लडखडा जाती है जिससे मोहित झट से उसे संभालने आगे आता है| शैफाली जल्दी से खुद ही संभलती हाथ के इशारे से उसे रुकने का इशारा कर देती है|

‘संभाल सकती हूँ खुद को|’ अपनी लडखडाहट पर काबू करती वह कहती है|

‘हाँ वो तो दिखी रहा है|’ तंज कसता मोहित अपार्टमेंट की लिफ्ट की तरफ कदम बढ़ा देता है|

‘तुम..तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुझे ये कहने की..|’ वह लगभग दौड़ती हुई उसकी तरफ आती है|

‘तुम खुद को क्या समझते हो?’ मोहित का कन्धा पीछे से धक्का देती हुई कहती है|

‘अपनी हालत तो देखो – हर तरह से गई गुज़री हालत है तुम्हारी|’ उसका तंज़ शैफाली के कपड़ो को भेदता उसके मन को जा लगा|

‘ये मेरी अपनी जिंदगी है – चाहे जो भी करूँ|’ लिफ्ट का दरवाज़ा खुलते वह मोहित को हलका धकेलती खुद आगे बढ़ जाती है|

‘हाँ वो तो कर ही रही हो|’ अबकि उससे तेज़ कदम चलता वह निश्चित फ्लैट की कॉल बेल बजाता हुआ कहता है|

‘हाँ कर रही हूँ क्योकि ये मेरी अपनी जिंदगी है – |’ फ्लैट का दरवाजा खुलते सामने भावना आती है|

भावना एक पल शैफाली को तो दूसरे पल मोहित को देखती है| दोनों के चेहरे के चिढ़े भाव देख बस दरवाज़ा खोल कर एक किनारे खड़ी हो जाती है|

लेकिन अन्दर आने के बजाए भावना की ओर देखती हुई बिफर पड़ती है –‘मैंने कहा था न कि मुझे यहाँ नही बुलाओ अब कर लो मेरी जिंदगी कंट्रोल – हूंअ..|’ एक हिकारत भरी नज़र मोहित की ओर डालती है – ‘याद रखो ये एक डील भर है – मुझे यहाँ रखना किसी मरते आदमी की आखिरी ख्वाहिश और मुझे अपनी ही जायदाद पाने के लिए रखी शर्त से ज्यादा कुछ भी नही है|’ वह कहती हुई अन्दर चली जाती है| मोहित सन्न सा उसे जाता हुआ देखता रहा|

अब दरवाज़े पर खड़े मोहित और भावना एक दूसरे की ओर देखते है|

‘सॉरी मोहित मैं शैफाली की ओर से मांफी मांगती हूँ और शुक्रिया भी …|’ वह बिलखना चाहती थी पर रुंधे मन से यही कह पायी| अब आंसु को छुपाती वह अपनी नज़रे नीची कर लेती है|

‘नहीं शुक्रिया की कोई बात नहीं – मैं अब चलता हूँ|’ मोहित झट से पलट कर लिफ्ट की ओर वापस चल देता है|

क्रमशः………………..

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