Kahanikacarvan

हमनवां – 12

एक तरफ पवन तो दूसरी तरफ भावना बैठे अपने सामने बैठी शैफाली की बात सुन एकदम से चौंक जाते  है| कल रात की लेश मात्र भी शर्मिंदगी उसके चेहरे पर न देख भावना का चेहरा तन उठा, वह कुछ कहना ही चाहती थी कि पवन की आँख का इशारा देख बस जब्त करके ही रह गई| शैफाली मोबाईल में अपने किसी मित्र एडवर्ड से बात करती हुई किस करती है| भावना से ये अभद्रता और ज्यादा बर्दाश्त  नहीं होती वह उठकर वहां से चली जाती है| शैफाली तिरछी नज़र से सब देख रही थी, वह असल में ऐसा ही कुछ चाहती थी| भावना को ज़ेर कर वह मन ही मन मुस्कराई और अपनी मिनी स्कर्ट से झांकती जांघे सोफे पर और इत्मीनान से पसार कर बात करने लगती है| पवन को भी आखिर वहां से उठना पड़ता है|

‘मिस यू पुच्च …|’ वह खिलखिला कर बिन आहट से हँसी|

पवन देखता है भावना बालकनी में खड़ी अपने रुके बांध हटा कर आँखों की नदी हौले हौले बहा रही थी| वह कुछ समझाना चाहता था पर मन मसोज कर रह गया| आखिर रोज ही शैफाली की बेअद्बी उसका दिल दुखा रही थी और न चाहते हुए भी वह कुछ नहीं कर पा रही थी|

हालाँकि वह कानूनन रूप से उसपर जो रोक लगा सकती थी लगा चुकी थी जैसे उसे उसकी इच्छा के बिना कहीं बाहर जाने की अनुमति नही थी पर लौटती वह जानबूझ कर अपनी ही इच्छा पर थी, भावना ने उसे अपने साथ रहने के लिए मजबूर किया हालाँकि वह अलग स्वतंत रहना चाहती थी पर भावना के अधिकार पर उनके बीच हुए करार में उसे उन्ही के तौर तरीके से उसी घर पर रहना होगा, उसपर भावना न चाहते हुए भी उसे सिगरेट व शराब पीने से नहीं रोक पाती| वह शैफाली से न पीने की जिद्द कर देख चुकी थी कि उसकी देह इसकी कितनी आदतन हो चुकी है कि कुछ घंटों में ही उसके विपरीत असर उसके शरीर में दिखने लगते|

भावना पूरी तरह से उसकी ओर से निराश व हताश हो चुकी थी कि शायद ही वह उसे कभी सुधार पाए| पवन हर बार उसे वक़्त पर भरोसा रखने को कहते आखिर इसके सिवा उनके पास चारा ही क्या था| पवन और भावना की नज़रे मिलती है और दोनों ख़ामोशी से वहीँ खड़े अभी ही शैफाली की तरफ  देख रहे थे कि वह कैसे सिगरेट के धुंधले छल्लो के बीच अभी भी वह अपने मोबाईल में ठहाके लगा रही थी| ये स्वछंद हँसी थी अपने जीवन के प्रति लापरवाही की ये सोच भावना उस ओर से अपनी नज़रे फेर लेती है|

***

मोहित के लिए एक अच्छे दिन की शुरुआत का मतलब था सुबह सुबह खूब पसीना बहाया जाना| एक लम्बी जोगिंग और कसरत से पसीने से नहाया हुआ मोहित घर में आते ही जय को तैयार होते हुए देखता है|

‘आज बिना वर्दी के!!’ गर्दन पर टंगी तौलिए से पसीना पोछते हुए कहता है| 

‘आज छुट्टी ली है|’ तभी अन्दर से अपनी नई शर्ट को पहनते हुए अंश आता है जिसकी तरफ इशारा करते हुए – ‘आज हम दोनों का घूमने का प्रोग्राम है|’

अंश के चेहरे पर अमलताश खिल आया था|

‘वाह – मुझे अगर कॉलेज के स्पोर्ट्स डे की तैयारी न करनी होती तो मैं भी चलता – बहुत दिन हुए कहीं बाहर गए हुए|’ एक ठंडी आह के साथ मोहित ने कहा|

‘स्पोर्ट्स डे है!!!’ अंश मोहित की तरफ आता है|

‘आज नही इस सन्डे को – उस दिन मैं तुमको अपने कॉलेज ले चलूँगा – देखना बहुत मज़ा आएगा|’

अंश के चेहरे पर भरपूर मुस्कान आ जाती है|

अपनी स्पोर्ट्स कैप अंश के सिर पर पहनाते हुए मोहित अन्दर जाते हुए कहता है – ‘ओके एन्जॉय योर डे|’

जय जूते के तस्मे बाँधते हुए अंश की तरफ देखता है – ‘तो बॉस तैयार |’ और दोनों का हाथ हवा में एक दूसरे से हाय फ़ाय करता है|

वे निकलने ही वाले थे कि सामने से लगभग भागती हुई सी वर्षा आती है, जिसकी हालत देख अंश की हँसी छूट जाती है|

‘अरे क्या हुआ तुम्हारे पीछे कोई बन्दर पड़ा है क्या?’ कहकर अंश की तरफ देख जय भी हँस पड़ता है|

अपनी हालत देखती फिर अपने पीछे देखकर नाक चढ़ाती हुई कहती है – ‘बंदर पीछे नहीं पड़ा है – वो तो इस बन्दर के लिए दीदी ने खीर भिजवाई है|’ अपने हाथ में पकड़ा टिफिन अंश की तरफ बढ़ाती हुई कहती है|

‘थैंकू दीदी|’

‘वैसे आप लोग कहाँ जा रहे हो?’ अबकि जय की तरफ देखती हुई पूछती है|

‘हम दोनों जू जा रहे है – आज हमारे घूमने का बड़ा लम्बा प्रोग्राम है|’ कहकर अंश के छोटे कंधे पर अपना हलक भार देता है जय|

‘मुझे भी जाना था|’ वर्षा बच्चों सी रूठती हुई मुंह बना लेती है|

‘पहले बोर्ड का पेपर दो जाकर – उसके बाद कही जाना|’ हलके से उसके सिर पर धौल देते हुए जय कहता है|

‘अरे हाँ…|’ फिर जल्दी से याद करती हुई कहती है – ‘मैं तो भूल ही गई मुझे तो जल्दी वापिस जाना था – आज पता है गुरूजी के बेटे है न डॉक्टर अभ्युदय – वो आने वाले है – दीदी ने जाने क्या क्या बनाया है – और हाँ कहलवाया है कि दोपहर का खाना न बनाए|’

‘ओके मैडम और कुछ |’

जय के मजाकिया अंदाज़ पर मुंह बनाती वर्षा हवा के झोंके सी वापस चली जाती है|

***

वर्षा पूरी तन्मयता के साथ रसोई में लगी थी| किसी का भी आना उसमे एक अलग ही तत्परता भर देता था फिर पूरी लगन से वह आवभगत करती| जल्दी से मेज में अपने बनाए दही बड़े का डोंगा रखकर वह मुख्य कमरे से आती आवाज़ का पीछा करती करती वहां आती है जहाँ गुरूजी अपने बेटे को मना रहे थे पर हर बार वह धीरे से मुस्करा कर मना कर रहा था, आखिर ऋतु कह उठती है –

‘अब तो मुझसे भी नहीं रहा जाएगा|’

वर्षा को बातों के तथ्य तक पहुंचने की बड़ी जल्दी थी इसलिए हड़बड़ी में पूछ बैठी – ‘क्या!!!’

सब उसकी ओर देखने लगे, वर्षा संकुचा गई| वक़्त की नजाकत को समझकर अभ्युदय खुद ही बोल उठे – ‘लगता है आज मैं नही बच पाउँगा लेकिन बांसुरी है कहाँ..?’ कहते हुए अपने पिता की ओर देखते है जिनके चहरे पर अभी अभी ताज़ा ताज़ा मुस्कान खिली थी|

‘कार की पिछली सीट में शायद मिल जाए..|’

‘अच्छा आप पूरी तैयारी से आए थे|’

अब सबके चेहरे खिल जाते है| अभ्युदय के बाहर जाते ऋतु वर्षा को बताती है कि गुरूजी से अभी अभी पता चला कि अभ्युदय बहुत अच्छी बांसुरी भी बजा लेते है| ये सुन वर्षा के चेहरे पर आश्चर्य फ़ैल जाता है –‘सच्ची !!’

फिर तो जैसे उस पल कला चारों ओर अपना आंचल पसार कर बैठ जाती है| अभ्युदय भी ऋतु से अपना साथ देने का मनुहार कर बैठता है जिसे चाह कर भी ऋतु इंकार नहीं कर पाती| घर के पीछे के खुले प्रांगण में जहाँ ऋतु ने अपने डांस क्लास के योग्य स्थान बना रखा था, खुले बड़े प्रांगण के ऊपर हरे शेड की छाया के नीचे पक्का सफ़ेद फर्श था|

वहां की एक दीवार पर बड़ा सा शीशा लगा था बाकी की दो तरफ़ा नृत्य की भंगिमाओ की कलाकृतियों से सुसज्जित दीवारे थी वहीँ एक कोने की बड़ी अलमारी से कांच के शीशे से झांकते तबला, घुंघरू इत्यादि रखे थे| यही स्थान वह झरोखा था जो समर की रसोई से सीधा दिखता था और शायद इसलिए समर का घर का शेष वक़्त रसोई में ही गुज़रता था|

कुछ ही पल में वहां कला की महफ़िल सी सज गई| एक तरफ बिछे गद्दे के ऊपर वर्षा झट से एक चादर बिछा देती है, फिर उसपर गुरूजी तबले की थापों के साथ वहां अपना आसन जमा लेते है| पास ही एक तरफ तिरछा होकर बैठते अभ्युदय बांसुरी पर अपने अधर रख जैसे कही खो से जाते है| बीच में ऋतु अपनी साड़ी की प्लेटो को कमर में खोसकर वंदना की भंगिमा में खड़ी थी| दूसरी तरफ बैठी बुआ जी की जैसे बांछे सी खिल गई थी| वर्षा का उत्साह को चरम पर था| वह बस पालथी मारे उसी ओर टकटकी बांधें थी| संगीत न हवाओं के रुख से अपना रास्ता बदलता है और न मौसमों की तपिश से हुलसित होता है वह तो बस समय की धुरी पर सुधबुध खो कर कला की उंगलियों को थामे सब कुछ बिसरा कर अपनी ही धुन में झूम उठता है|

अगले ही पल अभ्युदय के अधरों से निकली बांसुरी की सुरीली धुन माहौल को लयमय बना देती है| एक पल ऐसा भी आता है जब गुरूजी के हाथ तबले की थाप देते देते वही थम जाते है, और ऋतु भी रुक कर बरबस बस बांसुरी की धुन को एकटक सुनती रह जाती है| इस सबसे बेखबर अभ्युदय बांसुरी में जैसे खो सा गया था|

यही एक पल था जब समर की छुपी नज़र वहां टिक गई थी, वह ऋतु की नज़रो को अभ्युदय पर टिका देख मन ही मन तड़प उठा था| उन नज़रो के नज़ारे तो उसी के अधिकार में आते थे फिर आज वह कैसे नहीं उसकी ओर मुड़ रही ये देखकर उसके मन में एक गहरी टीस सी भर गई| ये प्रेम में मौजूद द्वेष का सच था जिसे न चाहते हुए भी समर को पी जाना पड़ रहा था|

***

सगाई का कार्यक्रम अपने रौ में चल रहा था, नजमा पूरी तरह से व्यस्त थी उसमें पर सबसे बेखबर इरशाद किनारे बैठा अभी भी अपने मोबाईल में कुछ टाइप कर रहा था| कई बात टाइप करने के बाद  बार बार मिटाकर आखिर वह फिर से टाइप कर उन अल्फाजो को अपने मन में पढ़ता है तो ढेर शिकायत उसके मन में उतर जाती है| कोई जूनून सा तारी था नाज़ को जान लेने का|

नाज़ भी उसका हर सन्देश पढ़ती लेकिन हर बार किसी न किसी सिम्बल के रूप में इरशाद के लिए अपना उत्तर छोड़ देती| इस लुका छिपी से इरशाद जैसे तिलमिला उठा था आज उसने लिख दिया कि या तो आप अपनी झलक दिखाए या हमेशा के लिए इस लुका छिपी से वह अलविदा ले लेगा| वह अभी मोबाईल की स्क्रीन पर नज़र ही गड़ाए था कि किसी आहट पर उसका ध्यान ठीक अपने बगल पर जाता है| वह देखता है अहमद मियां ठीक उसके बगल में खड़े थे वह हडबडा कर खड़ा हो जाता है|

‘कहाँ  इरशाद आप कोने में बैठे है – आइए आपका परिचय कुछ  ख़ास लोगों से करवाता हूँ|’

इरशाद बड़ी उबाहट के साथ खड़ा हो जाता है|

अब दोनों चलते हुए भीड़ की तरफ आते है, फिर वहां आकर रुकते है जहाँ दो चार लोगो साथ में खड़े बातें कर रहे थे|

‘इनसे मिलिए ये है मुख़्तार साहब और इनके बरखुरदार अली खान – दो ही सालों में अपने अब्बू का बिजनेस पांच देशो तक पहुंचा दिया इन्होने|’ कहते हुए शेरवानी पहने शख्स के कंधे पर अपना हाथ धरते है| फिर बगल में खड़े शक्स की ओर देखते हुए कहते है –‘इनको तो भूले नही होगे – शहनवाज़ एक साथ चार चार कारोबार सँभालते है – मेरी बड़ी खाला के छोटे साहबजादे|’

वे आपस में एक दूसरें को सलाम करते है|

इरशाद को लगा जैसे कई मन पहाड़ो के नीचे उसे दबा दिया गया हो, उस पल उसकी आवाज़ ही घुट गई| उस पल उसे लगा जैसे भरे बाज़ार जबरन उसके वस्त्र उतार दिए गए हो| वह चिढ़कर अहमद मियां की ओर देखता है|

वह अभी भी बदस्तूर मौजूदा लोगों से उसका परिचय करा रहे थे और इरशाद के बारे में पूछने पर कह देते – ‘शौक बड़ी चीज़ है इत्मीनान रखिये – अभी खून में नया उबाल है – लुफ्त उठाने दीजिए जिंदगी का|’ कहकर कस कर हँस देते जिससे इरशाद पर जैसे ढ़ेरों बिजलियाँ एक साथ दौड़ जाती|

‘तो इरशाद साहब आप करते क्या है?’ सामने खड़े अनजान शख्स ने जिज्ञासा प्रकट की|

‘जनर्लिस्ट हूँ – अख़बार में काम करता हूँ|’

‘ओह्ह !!’ उसका मुंह जैसे एक आकार में ही आकर हवा में थाम जाता है|

‘जी – अपना काम करता हूँ और उसे उतनी ही शिद्दत से तवज्जो भी देता हूँ|’ बेहद तेज़ तल्खी के साथ इरशाद में अबकि अपने जीजू भाई की ओर देखते हुए कहा| दोनों की आंखे जैसे गुस्से में एक दूसरे से आपस में भीड़ गई थी|

‘हाँ हाँ – ये तो बेहद अच्छी बात है|’ शायद वे वक़्त की नजाकत भांप जाते है| ‘बरखुरदार लगे रहो|’ कहते हुए वे अहमद मियां की ओर देखकर बात करने लग जाते है –‘तो अहमद साहब आप परसों की दावत में आ रहे है न – बड़े रसूखदार लोग आ रहे है और उनमें आप नहीं होंगे तो कोई शान नहीं रहेगी जश्न की|’ वे अपनी ही बात पर दांत निपोरते हँस पड़ते है|

उनकी आपस की बात होते देख इरशाद धीरे से आदाब कर वहां से निकल कर सीधे अपने कमरे की तरफ बढ़ जाता है|

दूर कोई था तो सारा माज़रा देख सुन और समझ रहा था| इरशाद के कमरे में आते वह भी उसके पीछे पीछे आ जाती है|

‘इरशाद!!’

वह आवाज़ पर पलट कर देखता है नजमा उसका तमतमाया हुआ चेहरा देख डर जाती है|

‘मैंने कहा था न वे कोई मौका नहीं छोड़ते मेरी बेइज्जती करने का – यही शौक पूरा करने मुझे बुलाते है क्या – मैं उनके टुकड़ो पर पल रहा हूँ क्या – मैं अपना कमाता हूँ और अपनी जिंदगी चलाता हूँ – उन्हें आखिर मुझसे तकलीफ क्या है?’ इरशाद एक साँस में जैसे सब कह डालना चाहता था पर अप्पी के चेहरे की उदासी उसे और कहने से रोक देती है|

‘अप्पी मैं जा रहा हूँ|’ मानों मनो टन पत्थर उनके सीने में आ गिरा हो|

‘मैं आपको कभी दुखी नहीं देख सकता लेकिन शायद ही कभी ये बात वे समझ पाए|’ वह आगे बढ़कर अप्पी के कंधे अपने दोनों हाथों से थाम लेता है|

‘तुम समझ गए !!’

इरशाद चौंक गया|

‘इरशाद कभी कभी जो हम देखते है असल हकीकत कभी कभी उससे जुदा होती है|’

इरशाद के हाथ उनके कंधो से हट जाते है वह उन्हें एक टक देखता रहता है|

‘उनका तरीका गलत है पर वे गलत नहीं है – तुम्हें सच में वे वापस लाना चाहते है – इरशाद वे भी अकेले पड़ गए है पर नहीं कहते कुछ – आखिर ये इतने बड़े कारोबार का वारिस कौन होगा – तुम ही बताओ?’ वह प्रश्न उसके सामने रख चुप हो जाती है| इरशाद अनभिज्ञता से उनकी ओर देखता रहता है|

‘नजमा आपा’ किसी पुकार पर उन दोनों का ध्यान दरवाज़े की ओर जाता है, नजमा जल्दी से दरवाज़े की तरफ बढ़कर देखती है नूर वहीं आ रही थी|

‘आप यहाँ है – आपको सब तलाश रहे है – चलिए न|’ वह आगे बढ़कर उनका हाथ पकड़ लेती है|

अनबूझा सा खड़ा इरशाद उनकी ओर देखता रहा तो नूर जबरन उसकी ओर देखती हुई बोली – ‘आप भी चलिए|’ इस एक पुकार पर इरशाद का सारा गुस्सा जैसे काफुर हो गया और वह धीरे से मुस्करा दिया| नजमा उसकी ओर अचरच से देखती रह गई|

क्रमशः………………….

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