
हमनवां – 13
दोपहर का समय था और इस समय हमेशा ऑफिस में रहने वाली मानसी आज घर पर मौजूद थी| पिछले आधे घंटे से अपने ही कमरे में चहलकदमी करती मानसी अपनी हथेलियाँ मलती बेचैनी में कभी कलाई की घडी देखती कभी कमरे के बंद दरवाज़े की ओर देखती| उसे बार बार एक ही बात मथे जा रही थी कि क्या उसे अपने पिता की अनुपस्थिति में उनकी अलमारी खंगालनी चाहिए? शैली की बात मान वह कहीं किसी मुसीबत में तो नहीं पड़ने वाली? पर बार बार मन पर उसका दिमाग हावी हो जाता और उसे दिलासा दे देता कि वह कुछ भी गलत नहीं कर रही, जो ठीक लगेगी वही जानकारी वह उसे देगी| खुद को आश्वस्त करती आखिर वह अपने पिता के कमरे में जाने का ठान लेती है|
वह पहले रसोई की तरफ जाती है वह देखती है कि रसोई से मिले कमरे का दरवाज़ा उड़का हुआ है और सुनीता मौसी आराम से सो रही है| मानव बाहर है, इस तरह घर पर किसी के न होने की तसल्ली करती वह अपने पिता के कमरे में जाती है| वहां जाते जैसे उसके पैर कांप रहे थे, गला सूखा जा रहा था, फिर भी खुद को हौसला देती वह आखिर उस कमरे तक आ जाती है|
बहुत देर की छानबीन के बाद कई फाइलें एक साथ मेज पर खोल कर उन्हें पढ़ने लगती है| उन फाइलों को देखती हुई उसकी नज़रों से अब डर गायब हो चुका था अब वहां कोई आश्चर्य और जिज्ञासा का मिला जुला भाव मौजूद था|
बहुत देर की मेहनत के बाद भी उसे वहां कुछ भी अपने काम का नही मिलता तो वह फाइलों को ठीक से रख कर कमरे से निकलती है तो सामने मानव को देख चौंक जाती है|
‘दी आप !!’
वे एक दूसरे को हैरत से देख रहे थे|
मानव क्यों इस कमरे तक आया और मानसी तो इस समय घर पर रहती नहीं थी| दो चोर जैसे एक दूसरे को सामने देख अचकचा गए थे|
‘हाँ मैं कल पापा से बात करते करते अपनी चाभी यहाँ भूल गई थी वही लेने आई थी|’
‘पर चाभी तो नहीं है आपके हाथ में|’ मानव के सपाट शब्द पर मानसी हिल जाती है|
‘हाँ तो नहीं मिली तो क्या पर तू यहाँ क्या कर रहा है?’ मानसी की भौहे तन जाती है|
‘मैं वो दरवाज़ा खुला देख देखने चला आया|’
दोनों एक दूसरे को घूर रहे थे पर कह कुछ नहीं पाए|
***
आज अपना शहर उसे कितना जाना पहचाना लग रहा था, पूरा दिन मस्ती में गुज़ार देने के बाद दोनों आइसक्रीम खाते खाते किसी पार्क की बैंच पर जमे थे| पूरा दिन घूमने के बावजूद थकान की बजाय एक जोश भरा आनंद उनके चेहरे पर दिख रहा था|
‘आप हमेशा ही ऐसे घूमते है|’ अपनी पिघलती आइसक्रीम को चाटते हुए पूछता है|
‘नहीं बिज़ी रहने से ऐसे तो नहीं घूम पाता|’
‘फिर आज क्यों?’
जय एक दम से अंश का चेहरा देखता है जहाँ बहुत सारे प्रश्न जैसे कुलांचे मार रहे थे|
जय अपनी आइसक्रीम का आखिरी बाईट लेकर उसकी डंडी कुछ दूर कूड़ेदान की तरफ उछाल कर तिरछा होकर कहता है –‘वो दूर पार्क के बाहर स्कूल देख रहे हो|’
अंश आइसक्रीम खाना बंद कर उसकी उंगली की दिशा की ओर देखता है|
‘वो स्कूल है – मैं वहां पढ़ता था|’
वह एक दम से उछल पड़ता है जिससे उसकी आइस्क्रीम का एक बड़ा हिस्सा पिघलकर फर्श पर गिर पड़ता है लेकिन इससे बेखबर अंश पूरे उत्साह से जय की बात पर अपना ध्यान लगा देता है|
‘हाँ उसी स्कूल में पढ़ता था मैं जब दोपहर होती थी तो इसी पार्क में आकर बैठ जाता था – तब इस पार्क के चारों ओर कोई दीवार नहीं थी – और मैं शाम तक यही बैठा रहता तब तक जब तक मेरे बड़े भैया मुझे लिवाने नहीं आ जाते|’
‘पापा इंतजार करते थे आपका|’ वह झट से अपना मुंह बंद कर लेता है|
जय अंश के चेहरे के और समीप आता हुआ कहता है|
‘लगता है आज सब याद आ गया तुम्हें|’ कहते हुए जय के चेहरे पर गहरी मुस्कान छा जाती है|
अंश के चेहरे पर घबराहट आ जाती है ये देख जय उसे अपने बाजुओं में समेटता हुआ कहता है – ‘तुम सच कहकर भी आ सकते थे मेरे पास|’
अंश धीरे से अपनी गर्दन नीचे झुकाते हुए कहता है – ‘तब क्या आप मुझे इतना प्यार से रखते?’
उस मासूम सवाल पर जय तड़प उठता है –‘ऐसा क्यों कहा तुमने|’ जय जितना शब्दों में अपना दर्द बयाँ करना चाहता था उससे कही अधिक मन ही मन तड़प उठा वह| उसे अंश से ऐसे जवाब की कतई उम्मीद नही थी|
‘ऐसा क्यों लगा तुम्हें ?’ जय जानने को उत्सुक था|
‘पापा हमेशा आपकी बात करते करते दुखी हो जाते उन्हें हमेशा लगता कि आप कभी उनसे बात नहीं करेंगे – आपकी कितनी तस्वीरे है उनके पास – क्या आपके पास उनकी एक भी तस्वीर है?’
कई सवाल अपना जवाब नही तलाशते वह तो बस चुभ जाते है दंश की तरह और बरसों तक अपनी चुभन से उस शख्स पर सवालियां निशान लगाए रखते है|
क्या कहता उस बच्चे से बस खामोश रहा|
‘मैं आपसे मिलना चाहता था पर पापा हमेशा टाल जाते इसलिए मैंने आपका पता लिया और सीधा यहाँ चला आया|’
‘और ये भी नहीं सोचा कि पीछे तुम्हारे पापा कितना परेशान होते होंगे|’
जय अंश के चेहरे की ओर देख रहा था जहाँ शिकायत भी थी पर मिलने की भरपूर ख़ुशी भी थी|
‘लेकिन दिल से कहूँ तो अच्छा किया तुमने|’ कहकर वह उसे गले लगा लेता है| इस वक़्त उसकी पीठ की तरफ किए जय की ऑंखें नम हो उठी थी|
किसी और की नज़रे भी नम आँखों से उसी ओर ताक रही थी|
***
आकाश पूरी तरह से स्याह हो चुका था मानों उसकी गहरी लाली आज उनके दिलो में समा गई थी| गहरी उदासी आज उस खिलखिलाते घर पर प्रेत साया बन उसे पूरी तरह से ढँक चुकी थी|
जय ने घर आकर बता दिया कि अंश कौन था और अब उसे उसके घर तो वापिस जाना ही था पर उसने वादा किया है कि अपने हॉस्टल जाने से पहले वह सबसे मिलने जरुर आएगा इतना कहकर जय पूरे दिन की थकान से अब थका मंदा आकर सीधे छत पर आकर सिगरेट जला लेता है, आज अपने ही कमरे में जाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी, उसे अभी भी लग रहा था जैसे अंश उसे ढूंढ़ता हुआ वहां आ जाएगा और साथ में सोने चलने को कहेगा| एक गहरा कश खींचते जय को खांसी आ जाती है| खांसते खांसते उसकी आंख भर आती है| अंश आखिर कब तक रहता उनके साथ वह खुद को समझाता है और तारों भरे आकाश की ओर एकटक ताकने लगता है|
इरशाद भी जबसे वापिस आया था मानों दुःख का ढेर लबादा अपने सर पर लादे आया हो| अप्पी की कही बातें उसे देर तक सोचने को मजबूर करती रही कि कही वह अपने लिए स्वार्थी तो नहीं हो गया| ये तन्हाई कही कोरी जिद्द तो नहीं उसकी| उसके सवाल उसी को देर तक कचोटते रहे और मन की उदासी उसी तरह मन में और गहराती रही| वह अपने कमरे में लौट तो आया पर बार बार लगता रहा जैसे वह कई हिस्सों में बंट सा गया है| कही गैर जिम्मेदार है तो कही नाकामयाब इश्क है उसका जिसकी कोई ताबीर तक नहीं उसके पास|
समर भूख नहीं कहकर देर से अपने कमरे में पड़ा था| बार बार उसका मन उसे रसोई की खिड़की तक खीँच ले जाना चाहता पर उदासी का भार मन में इतना गहरा हो चुका था कि वहां से उठना उसके लिए किसी पहाड़ तोड़ने जैसा काम था| आंख बंद किए कोई चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया जिससे बिखरे मन ने मन ही मन उससे अपनी सारी शिकायते कर डाली और वह जवाब के इंतजार में यूँही देर तक पलके बंद किए बैठा रहा| मन के किसी कोने में जैसे कुछ जम सा गया था|
मोहित घर वापस आकर एक अजब मौन पाता है घर में| उसे अहसास होता है कि अंश की चन्द दिनों की ही मौजूदगी ने ही उनकी जिंदगियों में एक ख़ास जगह बना ली थी| शायद आज उसी सूनेपन को सभी अपने अपने मौन से भर रहे थे|
***
शैफाली के लिए घर में बंद होकर रहना ही अपने आप में कोई सजा जैसा था, वह किसी आज़ाद परिंदे सरीखी बन्धनों से परे थी लेकिन यहाँ आकर उसे भावना के निर्देशोंअनुसार काम करना पड़ता था जिसपर उनकी लगभग रोज़ ही जुबाँकशी होती थी| अभी अभी भावना उसे ढंग से कपड़े पहनने का निर्देश दे रही थी पर उल्टा शैफाली उसपर बरस पड़ी कि वह उसे बांध सकती है उसके तौर तरीको को नहीं|
भावना उसकी नूडल्स स्ट्रैप्स वाले नाभि से ऊपर के टॉप और मिनी स्कर्ट को देख मुँह बना लेती है|
‘मैंने तो पहले ही कहा था कि मेरी डील मान लो इससे हम दोनों ही फायदे में रहेंगें – अभी भी मैं अपनी आज़ादी के बदले अपने हिस्से का 60 प्रतिशत तक दे सकती हूँ|’
भावना को हैरत हो रही थी कि वह भी बिल्कुल अपने पिता जैसी ही है, सब कुछ खरीदने पर अमादा रहने वाली लेकिन वह उसे समझाना चाहती थी कि दुनिया में हर चीज़ बिकाऊ नहीं होती| उसे यहाँ रखना भलेहिं कोई डील जैसा हो फिर भी उसे यकीन था कि खून का रिश्ता कभी तो अपना असर दिखाएगा, इंतजार और विश्वास ही उसका बस एक मात्र सहारा रह गया था|
शैफाली कैसे भी बाहर निकलना चाहती थी लेकिन एक अनजान शहर में कैसे और कहाँ अकेली निकले यही बेचैनी उसे अब भावना के पास लायी थी, आखिर भावना ने तय किया कि वह मानसी से इस बारे में मदद लेगी|
क्रमशः……………..