
हमनवां – 15
समर को न पाकर ऋतु का मन उदास हो उठता है अब शैफाली के साथ कुछ खास बातचीत समझ नहीं आने पर वह वर्षा की पुकार पर मानसी के आने का भरोसा देकर तुरंत घर से बाहर चली जाती है|
शैफाली कुछ पल तो मानसी का इंतजार करती है फिर इधर उधर तकती घर के अंदर की ओर मानसी को देखने चल देती है| उस हॉल से अन्दर की ओर निकलते उसे पहला कमरा बंद दिखता है फिर कुछ सोचती वह आगे कदम बढ़ाती है| अगले कमरे का दरवाज़ा पूरी तरह से खुला था| वही रूककर वह कमरे से अन्दर की ओर देखती है, उस बड़े कमरे के एक दीवार के बीचोबीच की खिड़की के सामने टेबल पर मोहित को बैठा पाती है|
मोहित जो शायद हॉल के एक किनारे पर अपना कमरा होने से बाहर की हर गतिविधि से बेखबर बैठा किसी किताब में मग्न था|
शैफाली बिना आहट के अन्दर आती उस कमरे को अपनी सरसरी निगाह से देखती है| उस कमरे में एक किनारे बेड तो दूसरे किनारे एक अदद टेबल चेअर और तीसरी ओर खाली दीवार और चौथी ओर खुलते दरवाजे के सिवा कुछ खास इस कमरे में नहीं देखती है| फिर कुछ अन्दर बढ़ते उसकी नज़र फर्श की ओर जाती है जहाँ बेड के एक निचले कोने से झांकते कुछ व्यायाम के डम्बल इत्यादि पर उसकी नज़र जाते फिर उसकी नज़र घुमती हुई मोहित के स्लीवलेस स्पोर्टस् टी शर्ट से झांकती मांसल बाजुओं पर टिक जाती है|
मोहित अभी भी किताब में मग्न अपने कमरे में मौजूद शैफाली से पूरी तरह से बेखबर था|
“द लेजंड …|” कहती हुई किताब को पूरा पढ़ने का प्रयास करती है|
उसकी आवाज़ सुन मोहित चौंककर उसकी तरफ देखता है|
“तो ये तुम्हारा घर है|” कहती हुई शैफाली वही बेड पर बैठ जाती है|
“ये हम चार दोस्तों का घर है|’ कहता हुआ उसपर से ध्यान हटा कर फिर किताब की ओर देखने लगता है|
“इंट्रेस्टिंग – |”
कुछ पल तक की कमरे की स्तब्धतता को तोड़ती शैफाली की लाईटर से सिगरेट जलाने की आवाज़ पर मोहित का ध्यान फिर उसकी तरफ जाता है| अपने एक पैर पर दूसरा पैर चढ़ाए वह एक गहरा कश लेती ही है कि मोहित उसकी तरफ देखता हुआ कहता है – “सॉरी फॉर अबाउट लेकिन यहाँ हमारे घर में सिगरेट एलाऊ नहीं है –|”
‘ओह क्या सच में – चार मेल और सिगरेट नॉट एलाऊ|” शैफाली तिरछे होंठ कर पूछती है|
“हाँ ये नियम हमारे ही बनाए है वैसे भी हम में से कोई नहीं पीता|”
‘क्या सच में..!!”
“हाँ – जय इरशाद थोड़ा लेते है पर इसके लिए वे छत पर जाते है – घर पर तो ऐसा कुछ भी नही |” वह अब शैफाली की ओर बिना देखे कहता है शायद उसे लगा कि व्यसन की आदि वह भी छत पर चली जाएगी|
“ओह माय गोश – ऐसे भी लड़के है क्या इस दुनिया में|” हौले से हँसती शैफाली उठकर मोहित के पास जाकर सिगरेट खिड़की के चौखटे के किनारे मसलकर बुझाती हुई कहती है – “लो तुम्हारे घर का रूल नहीं तोड़ा मैंने|”
मोहित हलके से हँस कर उसकी तरफ देखता हुआ फिर किताब की ओर देखने लगता है|
शैफाली कुछ कहने को ही होती है कि एक तेज़ क़दमों की आहट पर अब दोनों का ध्यान दरवाज़े की देहरी तक जाता है जहाँ अब जय और मानसी खड़े थे|
“अरे तुम यहाँ आ गई – सॉरी वो मैं…|” कहती कहती मानसी जय की ओर देख अपना निचला होंठ दांत से दबाती हँस पड़ती है|
“इस्ट्स ओके – तुम इसी साईड गई थी तो मुझे लगा यहाँ तुम होगी पर यहाँ तो..|” अबकि शैफाली अपना निचला होंठ दबाती हँस पड़ी|
मोहित इसपर अपनी चेअर घुमाकर शैफाली की ओर देखने लगता है|
“अरे अच्छा ही हुआ जो अपने आप ही एक दूसरे से परिचय कर लिया – मोहित अबकि सन्डे को तुम्हारे कॉलेज में जो फंग्शन है वहाँ शैफाली को भी ले जाना|” मानसी अन्दर आती हुई कहती है|
“क्या कह रही हो मानसी – मैं …|” मोहित जैसे अपनी कुर्सी से उछल पड़ा|
“प्लीज मोहित – देखो शैफाली हम सबकी गेस्ट है न – तुम्हारे बहाने वो यहाँ के कॉलेज भी देख लेगी|”
मोहित एक पल शैफाली को तो दूसरे पल मानसी की ओर देखता रहा पर कुछ कह न पाया|
“हाँ हाँ ले जाएगा |”’ जल्दी से आगे आकर मानसी के पास खड़े होते हुए जय कहता है|
“क्यों तुम घुमाओ न इन्हें शहर मैं ही क्यों..!!” दबी जबान में वह मानसी की तरफ अपनी शिकायत पहुँचाता है|
“प्लीज यार – एक दिन तो छुट्टी मिलती है फिर उस दिन हमारा कुछ खास प्रोग्राम है|” कहता हुअ जय मानसी की कमर पर अपनी एक बांह फैला लेता है|
मानसी भी बड़े प्यार से उसकी तरफ पीछे मुड़कर देखती है, वही मोहित मरमरी हालत में उनकी तरफ देखता रह जाता है|
और शैफाली वहाँ हो रहे उस अजब तमाशे को बड़े इत्मीनान से अब बेड के एक किनारे बैठी हुई देख रही थी|
***
पूरे छह दिन से समर जबरन खुद को व्यस्त रखने का भरसक प्रयास किए रहा पर हर दिन जैसे उस पर पहाड़ जैसे गुज़रे आज उसका दिल चाह रहा था कि दौड़ता हुआ ऋतु के पास चला जाए और उसे अपने शाने में खीँच कर बता दे कि उसकी जुदाई उसमें कितनी बैचेनी भर रही है| उसको न देखने भर से जैसे उसके जीवन के सारे चित्र ही रंग हीन हो गए है| उसे रोज निहारने वाली आँखों पर चढ़ा चश्मा और धुंधला हो गया है| मन ही मन हजार बार धडकनों के रूप में उसका नाम लेने वाला दिल जैसे मृतप्राय हो चुका है उसे फिर उसके प्यार की ऊष्मा से जीवित करने की चाह उसमें बार बार उठ रही है|
वह आज सन्डे के दिन सबके उठने से पहले ही जल्दी से रसोई में पहुँचकर उस खिड़की की ओट से उस पार झाँकने लगता है| उसकी नज़रों को ऋतु नहीं दिखती फिर भी वह अपना इंतजार वहीँ छोड़कर चाय के लिए पानी चढ़ा देता है|
ज्यों ज्यों पानी खौलता है मन में विचारों का झुण्ड जैसे खौलकर उबलने लगता है|
दो बार खौला चुके पानी के पैन में वह दुबारा पानी डाल उसे उबालने लगता है पर ऋतु नही दिखती| फिर एकाएक उसकी नज़र बाहर से आते किसी शख्स पर टिक सी जाती है| उसकी उपस्थिति जैसे उसके मन को और खौला देती है| मन बिफर उठता है| चेतना की अस्वीकृति भी उस पल उससे अपना ध्यान नहीं हटा पाती वह खुद से प्रश्न कर बैठता है कि आखिर इतनी सुबह वह यहाँ क्यों है..???
रसोई में चाय फिर उबलकर पैन के जलने की गंध से मिलकर वहां की हवा में तीक्ष्ण महक से भर देती है|
***
आज गुरूजी और बुआ जी के धार्मिक गुरु का सत्संग था, अभ्युदय अपने पिता को वहाँ छोड़कर अपने पिता के कहने पर बुआ जी को भी वहाँ के लिए लिवाने आया था ये सुन बुआ जी गदगद होती हुई कहती है – “बेटा आश्रम से गाड़ी आ गई है – अब कोई जरुरत नहीं है पर चलो तुम इसी बहाने आ तो गए नहीं तो उस दिन से गए एक बार भी नहीं आए – अच्छा जब तक मैं नहीं आती यहाँ बैठो – ऋतु को भी बहुत अच्छा लगेगा|” ये कहते बुआ जी के चेहरे पर भरपूर मुस्कान थी और एक किनारे सारी वार्तालाप सुनती ऋतु औचक सी उनकी ओर देख रही थी|
आखिर एक दो बार के मनुहार से ही अभ्युदय वहाँ रुक जाता है| अब दोनों बाहर आकर बुआ जी को आश्रम से आई गाड़ी तक छोड़ने बाहर आते है यही वो पल था जब किसी की छुपी नज़र उनपर टिक सी गई थी|
“कहीं सुबह सुबह आकर मैंने आपको परेशानी में तो नहीं डाल दिया..?”
आवाज़ सुन ऋतु पीछे पलटकर अभ्युदय की ओर देखती है – “ बिल्कुल नही|’
“ओह शुक्रिया आपने ये कहकर मेरे मन से ग्लानि का बोझ उतार दिया|”
‘अरे इतना भी क्या सोचना|” ऋतु मुख्य दरवाज़ा बंद कर अन्दर आती है पीछे पीछे अभ्युदय भी चलता हुआ आता है|
“असल में अमेरिका में तो कोई बिना बुलाए किसी के यहाँ नही जाता|”
“अरे ये अमिरिका नहीं भारत है अपना|” कहकर ऋतु की हँसी से जैसे हजारों फूल झरने लगे वहाँ|
“मैं तो बस ये सोच रही हूँ कि आपको ही थोड़ी तकलीफ होगी..|”
‘क्यों..??” भौंचक्का सा वह ऋतु की ओर देखता है|
“असल में मुझे अभी रसोई में थोड़ा काम है आपके साथ यहाँ बैठ नहीं पाऊँगी – वर्षा का भी एग्जाम है वो पढ़ रही है – आपको ही कुछ देर अकेला बैठना पड़ेगा|’ ऋतु अपने काम की व्यग्रता में खड़ी खड़ी ही बात कर रही थी पर अभ्युदय आराम से दीवान पर बैठा हुआ था उसे लगा था कि ऋतु भी वही बैठने वाली है|
“बस इतनी सी बात – बल्कि मुझे बता दीजिए मैं भी कुछ आपकी हेल्प करा दूंगा|’
इस पर ऋतु फिर कस कर हँस पड़ी –“आप – आप क्या मदद करेंगे – क्या..???”
“आपको बता दूँ मैं वहाँ पर अपने सारे काम खुद ही करता था – मैं बर्तन भी धो सकता हूँ|’
इस पर दोनों एक साथ हँस पड़े|
अगले काफी देर दोनों वाकई साथ साथ बात करते करते रसोई में मौजूद थे, अभ्युदय ऋतु के मना करने पर भी अब रसोई की देहरी पर खड़ा अपनी बात सुना रहा था और बीच बीच में उसकी बात का जवाब देती ऋतु साथ साथ काम भी करती जा रही थी|
“मुझे तो अभी भी यकीन नहीं आता कि अमेरिका रिटर्न डॉक्टर इतनी अच्छी बांसुरी भी बजा लेते है – वाकई मैं तो मुरीद हो गई आपकी|”
“जी..??”
ऋतु का आखिरी शब्द पर वह अपना संशय प्रकट करता है तो ऋतु मुस्कराती हुई कहती है – “जी इम्प्रेस हो गई मैं तो|’
“ओह रियली..!!”
“हाँ सच में – उस पल अगर आप कृष्ण के वस्त्र पहनकर बांसुरी लेते तो जाने कितनी गोपियां आप पर फ़िदा हो जाती|”
‘आपको अच्छी लगी यही बहुत है|” वह थोड़ा शरमा गया|
“इस बार बहुत दिन बाद बजाई – सच कहूँ तो दिल से जुडी चीज़े समय कालांतर के भेद से परे होती है – मुझे भी यकीन नही हुआ कि मैं थोड़ा भी बजा पाउँगा – हो सकता है आपकी सोहबत का असर हो|’
“अच्छा ….!!!”
“संगीत तो मन का आत्मा से मिलन जैसा है संगीत तो आपको आपके भीतर से खीँच लाता है तब मन में सिर्फ और सिर्फ लय की सुरीली सरगम का झिलमिलाता तारों भरा खुला आकाश होता है जहाँ आप जैसा कोई चाँद मुस्कराता है|” वह अपना अंतिम शब्द धीरे से बुदबुदाता है और ऋतु को काम करते देख बस हौले से मुस्करा कर उसकी ओर देखता रहता है|
क्रमशः…………………………