Kahanikacarvan

हमनवां – 17

प्रेम देह के आकर्षण से भरपूर होता है तो मन की लगन से बरसो दीप्तमान रहता है| जय के लिए मानसी का साथ जैसे उसमे संपूर्णता को भर देता था| अपनी पहली मुलाकात से ही वह एक अज़ब ही आकर्षण उसके प्रति महसूस करता था| तब इरशाद की दोस्त के रूप में उसकी मानसी से पहली पहचान हुई थी फिर रोजाना की मुलाकातों ने कब उन्हें एक दूसरें के इतना करीब ला दिया कि वे जान भी न पाए कि कब वे दो देह और एक जान बन गए|

वे दोनों एक दूसरें का हाथ थामे बहती कल कल नदी को एक साथ निहार रहे थे शाम अपने शबाब को समेटती कही दूर छुपती जा रही थी और उन्हें धीरे धीरे एक दूसरे से अलग होने का सन्देश दे रही थी| ये दिन क्यों ढल जाता है..? ये वक़्त आखिर क्यों नहीं ठहर जाता..?

मिलन है तो जुदाई भी होगी इसी दर्द को समेटे जय की पीठ से सटी मानसी अपना चेहरा उसके शाने में छुपाकर मानों गुम हो जाना चाहती थी, पर एक चिर्र की आवाज़ के साथ उसकी बुलेट मानसी के घर से कुछ दूर रुक जाती है फिर विदाई का आखिरी चुम्बन उसके गुलाबी होंठ अपने अन्दर समेटे अंधेरों की उंगली थामे एक दूसरें से न चाह कर भी दूर हो जाते है|

घर आते आते भी जैसे जय पर से मानसी की खुमारी उतरी नहीं थी वह गुनगुनाते हुए अपने फुर्तीले कदम सीढ़ियों की ओर बढ़ा ही रहा था कि किसी परछाई का आभास उसे उस पल वही रोक लेता है|

वह हलके उजाले में देखता है सामने ऋतु थी उदास जैसे बस रोने को आई थी| वह एक पल जैसे उसका चेहरा पहचान नही पाया जहाँ मुस्कानों की भोर हुआ करती थी अब वही शाम की उतरती परछाई का आभास था|

ऋतु जय  के सामने अपना दर्द उड़ेल देती है|

“क्या सच में पर क्यों..!!!” जय के चेहरे पर हैरानगी जम जाती है|

“मुझे नहीं पता |” वह अपने भरे गले से बस इतना कह पाई|

“अच्छा रुको अभी आ गया होगा तो पूछता हूँ कि माजरा क्या है|” जय की भौहे तन जाती है|

जय झट से समर की कार की पार्किंग की जगह की ओर देखता वहाँ की खाली जगह पाते वह ऋतु की तरफ देखता हुआ कहता है – “तुम अब मुझपर छोड़  दो – मैं देखता हूँ आखिर उस पाजी को हुआ क्या है – वो जान कर ऐसा कर रहा है या सच में बिज़ी है  – मैं वादा करता हूँ उस बदमाश को कल तुम्हारे सामने लाकर खड़ा करूँगा – देखे कैसे नहीं आता?”

जय के कहने के तरीके से उस पल ऋतु में चेहरे पर भरोसे की हलकी मुस्कान झलक आती है|

***

समर बहुत सुबह ही तैयार होकर बस निकलने को था| वह धीरे से दरवाज़ा उड़का कर अपनी कार तक पहुँचता ही है कि अपने कंधे पर किसी के हाथ का भार पाकर पीछे देखता है|

“इतनी सुबह कहाँ – अभी कल रात तो नाईट ड्यूटी से आए फिर सुबह तो कोई ड्यूटी नही हो सकती|”

जय के प्रश्न पर समर उस से नज़र बचाते कार के दरवाज़े की ओर झुकता हुआ कहता है – “हाँ वो एम् एस की तैयारी कर रहा हूँ तो वही हॉस्टल के दोस्त के साथ पढ़ने जाता हूँ|”

“ठीक है मेरे भाई पर कोई और भी है जिसे तुम्हारे दीदार का इंतजार रहता है उससे इतनी बेरुख़ी क्यों..?”

समर जैसे कुछ जान कर भी अनजान बनता हुआ कहता है – “किसको परवाह है इस बात की|”

समर कार का दरवाज़ा खोलकर बैठ जाता है और जय हतप्रभ उसे ऐसा करते देखता रह जाता है फिर कार के स्टार्ट करने की आवाज़ से जैसे उसकी तन्द्रा भंग होती है पर तब तक समर की कार हवा से बातें करती वहां से जा चुकी थी|

***

रसोई में गैस पर चढ़ा कूकर बार बार सीटी दे रहा था पर वही पास ही खड़ी ऋतु जैसे कही और ही थी उसकी तन्द्रा बुआ जी द्वारा उसे हिलाने पर टूटती है तो वह झट से गैस बंद कर उनकी तरफ देखती है, वे कह रही थी –

“कहाँ ध्यान है तुम्हारा, जलने की बू तक चारोंओर फ़ैल गई तब भी तुमने गैस बंद नहीं की – तबियत तो ठीक है न|” वे अपनी हथेली उसके माथे पर लगाती हुई कहती है – “ताप भी नहीं पर ऑंखें क्यों सूजी हुई है – जैसे रात भर सोई न हो|”

“और क्या |” आवाज़ सुन वहां पर झट से आती हुई वर्षा कह उठी – “कल रात मैं एक बजे तक पढ़ती रही दी तब भी जागती रही और जब मैं सुबह पांच बजे उठी तब भी बिस्तर पर ऑंखें खोले पड़ी हुई थी|”

“काहे क्या हुआ..!” बुआ जी ऋतु की ओर चौंक कर देखती है, ऋतु सबकी बातों से बेखबर होती कूकर खोलने लगती है|

“अरे का हुआ बिटिया – ऐसी उदास उदास क्यों हो – कौनो बात है क्या|’

वे ऋतु के चहरे की ओर झुककर देखती है वह ना में सर हिला कर अभी भी नज़रे झुकाए अपने काम में लगी थी|

“अरे हम बताए हुआ का है – हमार बिटिया को आभास हो गया है कि ये घर आंगन अब छूटने वाला है|”

वर्षा चौंक कर बुआ जी ओर देखती है लेकिन ऋतु अभी भी उनकी तरफ नहीं देखती|

“हमको तो लगा हम शाम को बिटिया को सरप्राइज देंगे – शाम को अभ्युदय बेटा आने वाला है|”

“फिर क्यों ..!! अभी तो कल आए थे|” वर्षा झट से बोल पड़ी तिस पर उसे डपटती हुई बुआ जी बोली –

“अब आदत डाल लो तुम्हारी दीदी अमरीका वाली होने वाली है..|” बुआ जी के शब्द जैसे ख़ुशी का भार न संभाल पा रहे हो वह वर्षा का कन्धा पकड़ उसे गोल गोल घुमा देती है|

पर ये शब्द जैसे किसी के कानों में गर्म पिघलते शीशे से उतरे वह हतप्रभ बुआ जी को देखती है|

“अब हमारी बिटिया का भाग्य सवरने वाला है|”

“इतनी बड़ी बात आपने मुझे बिना बताए ही तय कर ली….|” ऋतु का एक एक शब्द जैसे खुद ही रुआंसा हो उठा|

“पूछना का – तुम्हें अपनी बिटिया की तरह नहीं पाले का हम – इससे अच्छा रिश्ता तुम्हारे लिए कोई हो ही नहीं सकता और सिर्फ मेरी की इच्छा नही बल्कि गुरु जी भी यही चाहते है – तभी न बेटा को साथ लिवा कर लाए और कल तो जानबूझ कर यहाँ भेजा – ये भी न समझी तुम..!”

ऋतु के चेहरे के सामने जैसे अभ्युदय से हर बार की मुलाकात का चित्र घूम गया वह मन ही मन खुद से प्रश्न कर बैठी कि क्या सच में हर बार अभ्युदय उससे जान कर मिलते थे..पर..!!!

“देखो बिटिया गुरूजी तुमको सदा अपनी बिटिया जैसा मानते रहे अब तुम्हारे माँ बाप के बाद उनसे विश्वसनीय व्यक्ति मेरी नज़र में नहीं फिर मेरी उम्र का क्या भरोसा अब वर्षा का तुम्ही को ध्यान रखना है|” बुआ जी ऋतु के कंधे पर हाथ रखती अब समझाने पर उतर आई|

वर्षा औचक उन दोनों की वार्ता सुन रही थी|

“गुरु दक्षिणा की ये कुछ ज्यादा कीमत नहीं है एक बार कम से कम आप तो मेरे मन को समझ लेती|” ऋतु उनका हाथ हटा कर पीछे हटती हुई कहती है|

“देख ऋतु अपने मन को अच्छे से समझा ले – मन तो चंचल होता है – आकर्षण और स्थायित्व में फर्क होता है और तुम जो मन में सोचे बैठी हो वो मैं इस जन्म किसी विधर्मी संग तुझे बंधने नहीं देख सकती और सोच ले अच्छे से कहीं ये तेरे मन का भ्रम तो नहीं क्योंकि अगर ऐसा होता तो खुल कर वो मुझसे तुझे मांगने न आता…सब ख्याली पुलाव है तेरे मन का..|”

बुआ जी की बात सुन ऋतु की जैसे सारी चेतना ही गुम हो गई…..मन विश्वास और अविश्वास के बीच झूल सा गया….एक पल में खिड़की से झांकता चेहरा धुंधला सा पड़ गया…उसका मन बिलख पड़ा..अब उसके लिए वहां रुकना किसी नदी में डूब जाने जैसा होता वह झट से वहां से लगभग दौड़ती हुई चली गई बस पीछे से बुआ जी की यही आवाज़ सुन पाई….

“शाम तक का समय है – सच और झूठ की परख भी कर ले|” फिर वर्षा की ओर देखती हुई कहती है – “चल तू मेरे साथ मदद करा – बड़ा काम पड़ा है|”

वर्षा कभी बुआ जी को देखती कभी पीछे पलट कर उस दरवाज़े की ओर जहाँ से अभी अभी ऋतु बिसूरती हुई निकल गई थी|

***

जब खुद की ही सांसे बोझिल हो जाती है तो आदमी को और ज्यादा खुले वातावरण की जरुरत पड़ती है ऐसे ही बिलखती हालत में ऋतु छत के कोने में खड़ी अपने सामने के घर की सूनी छत को निहारती हुई अभी भी गहरी गहरी सांसे ले रही थी|

उस पल उसे लगता है जैसे सारी कायनात ही अपने अपने क्षितिज से गायब हो गई है, सब ओर बस खाली सन्नाटा पसरा पड़ा है| आखिर वह अपने इस उदास वक़्त में किसे पुकारे..? किसे अपने मन की व्यथा सुनाए..?.कोई ह्रदय को तार तार करता उसे विरहणी की तरह छोड़ गया था| उस पल उसके मस्तिष्क में जैसे विरह का कोई गीत गूंज उठा…!! इससे उसका उदास मन और बिलख पड़ा…रोते रोते धुंधलाती आँखों से वह वापस नीचे की ओर जाती सीढियों की ओर चल दी|

मानों देह जा रही थी और मन यही अभी भी किसी की राह तकता वही छूटा जा रहा था| वह भारी क़दमों से नीचे उतर रही थी….उसके कंधो पर टिका दुप्पटा का छोर काफी पीछे से जैसे घसीटता सा जा रहा था| अभी कुछ सीढियाँ शेष थी कि बुआ जी की आवाज़ उस तक दौड़ती हुई आती है जिसमें उसको जल्दी आने की पुकार थी पर ऋतु के कदम कहाँ आगे की ओर बढ़ा रहे थे वह तो वही रूककर तकना चाहती थी पर देह उसे आगे खींचे लिए जा रही थी इससे  उसके अपने ही कदमो का ताल मेल गड़बड़ा गया उसने धोखे से अपने ही दुप्पटे पर अपने पैर फसा लिए…फिर ऋतु ने बस अपनी आखिरी चीखती आवाज़ सुनी और उसकी देह कुछ सीढियों से नीचे किसी गेंद सी लुढ़क गई|

***

नए आये एसपी ने उस सीक्रेट रिपोर्ट की बाग़डोर सँभालते हुए जय और साथ के और भी पुलिस कर्मियों को कांफ्रेंस रूम में बुलाया था| जय ने अपनी तहकीकात के अनुसार बता दिया कि घटनाओं को किसी और तरह से मोड़ा जा रहा है असल में ये सब आने वाले चुनावों के लिए पहले से तैयार पृष्ठभूमि की तरह है पर आपस में प्रतिद्वंद्वी होते जय के साथ के पुलिसकर्मी ने जय का इतिहास भी वहां थोड़ा खंगाल दिया जिससे अश्विन कुमार का नाम आते वह जैसे फट पड़ा और तेजी से कह उठा कि आप चाहे मेरा इतिहास खंगाले या भूगोल पर मुझे पता है कि मैं अपनी वर्दी के प्रति कितना वफादार हूँ, सीनियर की मौजूदगी से माहौल फिर भी शांत बना रहा पर वहाँ से निकलते जय का मूड पूरी तरह से ध्वस्त हो चुका था फिर उसका अस्सी फीसदी मन समर और ऋतु पर लगा था…

वह थाने से निकलकर सीधा ड्रेस में ही समर के हॉस्पिटल चल देता है|

उस सरकारी हॉस्पिटल की भीड़ से गुज़रते वह सीधा समर के केबिन तक आता है जहाँ समर और दिव्या जय को अचानक सामने देख बातचीत करते करते रुक जाते है|

दिव्या की ओर हलकी मुस्कान का हेलो कहकर वह समर को बाहर चलने का इशारा करता है, अब इस समय उसके पास जय की बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं था|

दोनों पार्किंग के किसी सूने हिस्से में खड़े थे| समर अभी भी अनमना सा खड़ा था और जय उसके सामने कहे जा रहा था – “यार तुम लोग के बीच हुआ क्या है – कुछ समझ नहीं आ रहा – एक तो तुम लोग आँखों आँखों में बात करते हो फिर झगड़ा कब किया..?”

“कोई झगड़े वाली बात ही नहीं और अगर तुम्हारी बात पूरी हो गई तो मैं जा सकता हूँ..?”

“यार जब तक मैं ये खिचड़ी सवाल सुलझा नहीं लूँगा तब तक न तुम्हें जाने दूंगा न खुद ही जाऊंगा..|” जय अड़ सा गया था|

“मुझे देर हो रही है|” समर जय के विपरीत दिशा की ओर देखकर कहता है|

“दिमाग दुरुस्त है या उसका भी ऑपरेशन कर डाला – मैं किसी और की नहीं ऋतु की बात कर रहा हूँ|” जय जैसे उलझ सा गया था – “क्या गुनाह हो गया उस बेचारी से जो इतनी बड़ी सजा दे रहे हो उसे..!!”

“गुनाह उससे नहीं मुझसे हो गया..|” समर जैसे बिफर ही पड़ा|

“समर…!!”

“हाँ उसके लिए मुझसे ज्यादा कोई और अच्छा ऑप्शन है|”

“क्या..!!! ऑप्शन…यार ये ऑप्शन वाली बात कहाँ से आ गई…?” जय का दिमाग समर की अनबुझी बातों से जैसे मथा जा रहा था|

“हाँ डॉक्टर अभ्युदय जो डॉक्टर भी है और कला का उतना ही बड़ा साधक भी और कहाँ मैं कला का ककहरा भी नहीं जानता…|” समर का मन जैसे कहते कहते गीला हो उठा|

“किसने कहा तुझे..?”

“कहेगा कौन – मैंने खुद देखा है – उसकी बांसुरी पर ऋतु का मोहना कोई नृत्य का अंग नहीं था – वह जब चाहे उसके घर भी आ जाता है और ….|” अपनी बात कहते कहते समर का चेहरा जैसे उतर सा गया था|

इसके विपरीत जय अपना पेट पकड़ कर दो पल के लिए हँसता रह गया, समर भौंचक्का सा उसे देखता रहा|

जय जब थोड़ा हँस लिया तब कहना शुरू करता है –

“यार तू डॉक्टर कैसे बन गया दिमाग तो तेरा घुटने में भी नहीं बचा..|”

समर की भौहे तन जाती है|

“यार उसकी ऑंखें तेरे इंतजार में राह तकते तकते सूज गई……तेरी इस बेफिजूल की सोच से परे जाने क्या क्या सोचती बेचारी की नींदे उड़ गई……तब से कितने चक्कर काट गई तुझे ढूंढने में……और जनाब प्यार को ऑप्शन जैसा नाम दे रहे है……अबे अगर तू ऋतु का मन नही पढ़ सकता तो तू सच में कुछ नही पढ़ सकता…..खुली मन की किताब है वो…कोई भी तेरा चेहरा उसकी आँखों में देख सकता है…|”

समर जैसे रुआंसा सा होता उसकी ओर देखता है|

“बस देखकर ही अपने प्यार की गहराई नाप ली…मेरे यार प्यार में बहुत उतार चढ़ाव आते है पर एक बार जिस विश्वास से हाथ थामों तो फिर छोड़ें नही जाते….ऐसे कितने एनआरआई आते जाते रहेंगे…चल अब घर चल….. बहुत हुआ तेरा नाटक…|”

“सच में ऋतु आई थी..!!!”

‘और क्या……तो क्या हवाओं ने मुझे उसकी हालत बताई……घर चल नहीं तो सच में वो बुआ न उस एनआरआई संग उसे बांध देगी तब बेटा बैठे रहना मुँह फुलाए…|”

“नहीं….!!!” उसने सरगोशी की|

“अब ऐसा कर तू घर चल मैं थाने हो कर आता हूँ|”

समर को उस पल ऐसा लगा जैसे उसके मन की सारी गिरह किसी ने एक झटके में ही खोल दी हो, मन की उदास खिड़की हवा के तेज़ झोके से खुल गई थी और उस पार ऋतु का वही मुस्कराता हुआ चेहरा उसके सामने दिखने लगा था| उस पल अचानक से उसकी धड़कने जैसे धौकनी सी चलने गई….लगा जैसे ऋतु के सामने जाएगा तो रो पड़ेगा, खुद को एक एक साँस देता वह वातावरण से एक गहरी साँस अपने भीतर खींचता हुआ सामने देखता है, जय अपनी बुलेट में सवार अब बुलेट स्टार्ट कर रहा था|

क्रमशः……….

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