Kahanikacarvan

हमनवां – 18

ऑंखें खोलने से पहले वह अपने चेहरे के ऊपरी हिस्से पर कोई भार सा महसूस करती है फिर कई स्वर एक साथ उसके कानों में पड़ते है, वह अहिस्ते से अपनी ऑंखें खोलती है, सामने से घूमती नज़र जल्दी ही सबको एक एक करके पहचानती है, गुरूजी से बातें करती बुआ जी, एक किनारे बैठी वर्षा और ठीक उसके सामने बैठा अभ्युदय जो उससे बेखबर मोबाईल के स्क्रीन में अपनी ऑंखें गड़ाए था, उस पल उसका मन तार तार हो उठता है किसी खास की नामौजूदगी से| टटोलकर बेड पर अपना हाथ टिका कर उठने का प्रयास करते उसके मुंह से एक आह सी निकल जाती है, जिससे सभी का एक साथ ध्यान उसकी ओर दौड़ जाता है|

अभ्युदय दौड़ कर उसे सँभालने आगे आता है| वर्षा उसकी पीठ पर अपना हाथ सटाकर उसे सहारा देती है|

“अरे कुछ नही हुआ – बस आराम से – वर्षा पीछे तकिया लगा दो|”

वर्षा झट से ऋतु की पीठ की ओर तकिया लगा कर वही बेड के एक कोने पर बैठ कर ऋतु को निहारने लगती है|

ऋतु टटोलकर अपने सर पर बंधी पट्टी देखती है फिर पैर फ़ैलाने की जरा सी कोशिश करती है जिससे  उसकी एक चीख निकल जाती है|

अभ्युदय उसके पैर की जाँच करता है – “लगता है पैर में भी मोंच आई है – कोई बात नहीं मैं बैंडेज बांध देता हूँ – |’ फिर ऋतु के फीके पड़ते चेहरे को देखते हुए कहता है – “डोंट वरी आप बहुत जल्दी ठीक हो जाएंगी – बस माथे के किनारे घाव है वो भी एक दो दिन में भरने लगेगा|’ कहते हुए वह ऋतु के पैरो की ओर बैठता उसके पैर पर बैंडेज बाँधने लगता है|

दर्द से ऋतु की निकलती आह को अपना सहारा देती बुआ जी आगे आकर उसका कन्धा हाथों में समेटे उसे हौले हौले थपकी देने लगती है|

ऋतु थोड़ी राहत पाकर अब टेक लगा कर बैठी चुपचाप सब देख रही थी| गुरूजी का ढाढस  बंधाना, अभ्युदय का आश्वासन देना कि रोज आकर वह उसके माथे की पट्टी बदल देगा, सब उसमें और भी उदासी भर रहा था| अब बुआ जी और वर्षा उन्हें बाहर तक छोड़ने गए तब उस खाली पड़े कमरे के कोने में उसे गोटा लगे मिठाई के डिब्बे दिखते है जो उस पल उसमें किसी आशंका का भय उत्पन्न कर देते है| वह खरगोश की तरह डर कर अपनी ऑंखें बंद कर लेती है|

***

ऋतु के गिरने की खबर समर में जैसे बिन जल की मछली सी तड़पन पैदा कर देती है अब उसके लिए एक पल भी ऋतु से मिले बिना रहना मुहाल हो रहा था, यूँ तो सभी का मन ऋतु से मिलने का हो रहा था| लेकिन रात में वे कैसे जाए इसपर जय मानसी को जल्दी से बुलाता है, ऋतु की हालत सुन मानसी भी नहीं रुक पाती|

मानसी के साथ साथ वे चारों भी अब उसी कमरे में ऋतु के सामने बैठे थे| ऋतु और समर की ऑंखें चोरी चोरी आपस में मिल जाती थी वही उन आँखों की चौकसी करती बुआ जी उस ओर अपनी सांसे रोके ताक रही थी|

मानसी ऋतु का हाथ सहलाती हुई कहती है – “अरे वर्षा से काम ही कराना था तो इतना बड़ा बहाना मारने की क्या जरुरत थी – वर्षा यूँही काम कर देती – क्यों..!!”

“क्या दीदी मैं कोई काम नही करती क्या..!!”

वर्षा के रूठने की आवाज़ पर ऋतु को भी हौले से हँसी आ जाती है|

“हाँ हाँ पता है – कितना काम करती हो – एक मेरे घर में मानव महाराज है – कुर्सी से हिलेंगे नही बस  बैठे बैठे ही सब चाहिए|’

मानसी की बात पर सबके हलके ठहाके वहाँ फ़ैल गए, इससे माहौल थोड़ा हलका होते मानसी झट से बुआ जी के पास जाकर बैठ गई|

“अरे बुआ जी कुछ न हुआ इसे – देखिएगा दो दिन में ही दौड़ती नज़र आएगी  – ये बैठी भी रही है कभी|”

“हाँ हाँ बिटिया|” बुआ जी को आखिर मुस्कराना पड़ा – “अबकि बड़े दिन बाद आई बिटिया तुम – |”

“अरे क्या करूँ बुआ जी काम ही ऐसा बिज़ी होने वाला है लेकिन बहुत याद आती थी आपकी अदरक वाली चाय की|”

“ऐसा भी क्या अभी लो|” बुआ जी के चेहरे पर भरपूर मुस्कान छा जाती है|

“नहीं नहीं आप बेवज़ह तकलीफ करेंगी|”

“तकलीफ काहे की|” बुआ जी चाय बनाने को आतुर होती झट से कमरे से निकलने लगती है|

“अच्छा चलिए मैं भी आपकी मदद करती हूँ|” आगे आगे बुआ जी पीछे पीछे चलती मानसी एक बार पलट कर पीछे जय को देख धीरे से अपनी एक आंख दबा कर मुस्कराती हुई कहती रहती है – “आज तो आपसे ये अदरक वाली चाय सीख कर ही जाउंगी – क्या लाजवाब चाय होती है|”

उनके जाते जय वर्षा की ओर देखता हुआ कहता है – “और कैसी चल रही है तुम्हारी पढ़ाई?”

“ठीक है भईया|” वर्षा की दबी आवाज़ पर जय तेज़ी से कहता है –

“बस ठीक – तुम्हारा इस बार बोर्ड है मजाक नहीं – अभी इस मोहित को अपनी कुछ पढ़ाई याद होती तो ऐसे सवाल पूछता न कि तुम्हारी पढ़ाई की सारी पोल खुल जाती|”

वर्षा का जैसे मुँह बन जाता है|

“अच्छा क्यों नहीं याद मुझे – लो अभी चलो – किताब लाओ मैं अभी पूछता हूँ|”  मोहित एक दम से बोल पड़ता है|

“अभी नहीं|” वर्षा की जान सूखने लगती है|

“अभी इसी वक़्त – जय के बच्चे तू भी चल के देख ले कि मुझे कितना याद है?”

न चाहते हुए भी वर्षा को वहाँ से उठकर जाना पड़ा, पीछे पीछे मोहित और जय भी चल देते है अब कमरे में मौजूद समर और ऋतु नज़र उठाकर एक दूसरे की ओर देखते है तो इरशाद एक दम से जोर से हवा में आवाज़ लगाता है – “हाँ आता हूँ..|” कहता हुआ वह भी कमरे से बाहर चला जाता है|

अब उस कमरे में उनका अपना एकांतवास होता है, ऋतु अब सर झुकाए कनखियों से समर की ओर देख रही थी, इसपर समर उठकर उसके पास की कुर्सी पर आकर बैठकर उसका हाथ थाम लेता है जिससे ऋतु के तन में झुरझुरी सी दौड़ जाती है|

“गलती तो मेरी थी सजा तुम्हें क्यों मिली|”

ऋतु उन दर्दीली आँखों को एकटक निहारती रहती है|

“सच कहूँ तो आज मेरे रोम रोम में दर्द हो रहा है – तुम्हारा दर्द मुझे महसूस हो रहा है – मैं..|”

ऋतु एक दम से अपना दूसरा हाथ उसके होंठो पर रख देती है|

“नहीं तुम्हारी सारी बलाएँ मेरे हिस्से ही आए|”

“ऋतु….|” वह दर्द में कांपता उसकी दोनों हथेलियाँ अपनी गर्म हथेलियों के बीच समेट लेता है, एक आग सी उनके बीच सुलग उठती है, जिसके धुएँ से उनकी ऑंखें उस पल पनीली हो जाती है|

***

सुबह की चाय की प्याली लिए भावना और पवन अपने घर की बालकनी में बैठे वृक्षों की ऊँचाई पर अपनी नज़र टिकाए जैसे कोई बात पर मंथन कर रहे थे|

“आपको क्या लगता है हमे शैफाली से इस बारे में बात करनी चाहिए..?” भावना ने आखिर देर की ख़ामोशी तोड़ी|

“हाँ क्यों नहीं..आखिर न करने से तो कोई रास्ता नहीं निकलेगा – अब उसे यहाँ रहते दो महीने होने जा रहे है वह अभी भी अपनी मनमर्जी करती जा रही है – पूरा दिन सिगरेट से शराब के बीच झूलती रहती है|”

पवन अब अपना कप बालकनी की मुंडेर पर रखते हुए अपनी कुर्सी भावना की ओर खीचते हुए बोले – “कुछ कहोगी नही तो फायदा क्या होगा – तुम बार बार उसे टोको शायद कभी बात बन जाए वरना ये समय यूँही निकल जाएगा|”

भावना के पास जैसे कुछ भी कहने को नहीं था वह फिर खामोशी से उन वृक्षों पर अपनी घूमती नज़र टिका देती है|

“भावना..|”

अचानक पवन के स्पर्श से उसका ध्यान अब अपने सामने बैठे पवन की ओर जाता है|

“मैं कई दिन से देख रहा हूँ कि तुम बहुत परेशान परेशान सी रह रही हो – तुम्हें इतना उदास मैंने पहले कभी नही देखा – तुम सच को स्वीकार भी तो करो – उसकी परवरिश एक दम से तो नही बदल जाएगी – मैं देखता हूँ कि रोज़ ही तुम उससे उलझ जाती हो – नही होता तो छोड़ दो उसे |” वह कहता कहता उसका हाथ अपनी हथेलियों के बीच दबाता हुआ कहता रहा – “बल्कि मैं तो कहता हूँ कुछ दिन के लिए हम बाहर चलते है – मुझे अभी ऑफिस के काम से गोवा जाना है तुम भी साथ चलो – फिर लौट कर कुछ सोचते है शैफाली के बारे में – तुम घर बैठे बैठे और उदास होती जा रही हो – मुझे बड़ी ग्लानि होती है जब तुम्हें देखता हूँ – रोज ऑफिस से देर से आने के कारण मैं बिल्कुल तुम्हे समय नहीं दे पाता|”

अति संवेदना से भावना का मन भर आया, वह सर झुकाए अपनी भीगी पलकें पवन से छुपा ले जाती है|

***

वर्षा मंदिर में बुआ को पूजा की थाली देकर झट से दरवाज़े की आहट पर दरवाज़ा खोलती है सामने समर था| वह निसंकोच अन्दर आ जाता है|

“कैसी है तुम्हारी दीदी..?”

“वो तो लगता है जैसे बिल्कुल ही ठीक हो गई|” वर्षा चहक चहक कर कहे जा रही थी और समर मुस्कराता हुआ सुन रहा था|

“पता नहीं आपकी दी दवाई में कौन सा जादू था – दीदी को देखकर लगता है जैसे पूरी तरह से ठीक हो गई हो – पता है कल तो क्या गहरी नींद सोई दी – मैंने रात में उठकर एक दो बार उन्हें देखा भी….|”

“अच्छा – तो ठीक है वो दवाई आज भी रिपीट कर दूंगा|” कहते हुए समर के चेहरे पर हलकी मुस्कान तैर जाती है|

फिर आगे बढ़ते बढ़ते वह एक पल ठिठकते हुए वर्षा की ओर देखता है – “उठ तो गई न दी तुम्हारी..!”

“हाँ सुबह से ही – अभी बस मैं चाय ही चढ़ाने जा रही थी|”

“अच्छा पहले जल्दी से ड्रेसिंग के लिए थोड़ा गर्म पानी ले आओ|”

वर्षा के विपरीत दिशा में जाते समर ऋतु के कमरे की ओर अपनी तेज़ होती धडकनों के साथ बढ़ जाता है|

ऋतु कमरे में अधलेटी दरवाज़े की ओर पीठ करे बाहर खिड़की की ओर देख रही थी| समर दरवाज़े पर खड़ा खड़ा ही ऋतु को देखता रहता है, जैसे क्लांत पथिक को सरोवर का दृश मिल जाता है उस पल वैसा सुकून उसके चेहरे पर दिखाई पड़ता है| वह इस तन्द्रा को बिल्कुल भी भंग नहीं करना चाहता था फिर भी वह धीरे से दरवाज़े पर हलकी दस्तक देता हुआ वही ठहरा रहता है|

ऋतु उस आहट पर झट से मुडती है और समर को सामने देख उसके चेहरे पर ऐसी ख़ुशी उमड़ आती है मानों कोई मुँहमांगी मुराद उसे मिल गई हो|

“कैसी हो….?” वह अन्दर आते बेड के पास रखी कुर्सी पर बैठते हुए उसकी कलाई थाम कर अपनी धडकनों से मिलाने लगता है|

“बुआ जी ..!!”

“जब तक तुम ठीक नहीं हो जाती मैं आता रहूँगा – और ऐसा करने से मुझे कोई नही रोक पाएगा |”

वे मुस्काने जैसे मिलकर खिल उठी|

समर उसकी कलाई धीरे से नीचे रखकर उसके माथे की पट्टी की ओर अपना हाथ बढ़ाता हुआ पूछता है – “दर्द हो रहा है..?”

“अब नहीं |’ समर की छुअन उसके दिल तक उतर गई थी|

तभी वर्षा वहाँ आती हुई कहती है – “लो भईया इतना गर्म पानी ठीक है..!!” वह समर की हाँ में हिलती गर्दन देखकर आगे कहती है – “अब मैं चाय बना कर लाती हूँ|”

वर्षा चली जाती है|

समर ऋतु के माथे की पट्टी खोलने अब उठकर उसकी ओर झुक जाता है| वह धीरे धीरे उसके माथे पर अपनी ठंडी फूंक मारता पट्टी खोलने लगता है| ऋतु के चेहरे पर हलका दर्द उमड़ आता है वह झट से समर के कंधे अपनी दोनों हथेलियों से थाम लेती है| समर और अहिस्ते से उस पट्टी को हटाता है ऐसा करते उसके चेहरे पर भी जैसे अपार दर्द उमड़ आता है| वह वही बेड के सिरहाने बैठ जाता है| पट्टी हट चुकी थी एक हलकी चीख जैसे उनके अन्दर गूंज उठी| वह समर को और कसकर थाम लेती है| समर के चेहरे का दर्द दोगुना हो उठता है| यही वो वक़्त था जब इस दृश्य पर दरवाज़े पर ही किसी के कदम ठहर गए थे|

अभ्युदय की ऑंखें जो देख रही थी उससे कहीं ज्यादा महसूस कर रही थी| उसे किसी के जिस्म की चोट का दर्द दूसरे के चेहरे पर आवंटित होता दिखा तो वह अन्दर आने का साहस न कर सका| वह अपनी मौजूदगी से बिल्कुल भी उसमें दखल नही देना चाहता था|

“अरे बेटा तुम दरवाजे पर क्यों खड़े हो|” बुआ जी अपनी बात कहती कहती खुद ही रुक जाती है| अब उनकी नज़र कमरे के अन्दर के परिदृशय पर जाती है जहाँ दोनों हर आहट से बेखबर थे|

“जी बस ऋतु को देखने आया था – मुझे लगता है कल से वह काफी ठीक है|” वह अन्दर की ओर दृष्टि डाल वही खड़ा रहता है – “आपको चिंता करने की क्या जरुरत – आपके तो बगल में ही डॉक्टर रहता है|” वह अपने चेहरे पर जबरन मुस्कान लाता है|

पर बुआ जी का मन कहाँ मानने वाला था वे झट से उसे अन्दर आने का अनुरोध करती है – “अरे बेटा ऐसे मत जाना तुम |”

“जी आया हूँ तो मिल कर ही जाऊंगा ऋतु से |”

बुआ जी संकुचाती एक पल  उन दोनों की ओर देखती है तो दूसरे पल दरवाज़े पर ही खड़े अभ्युदय की ओर – “अच्छा रुको मैं आती हूँ और तुम चाय पिए बगैर मत जाना|” बड़े बेमनी से वह वहाँ से हट जाती है|

दोनों अभी भी जैसे सारी दुनिया से बेखबर थे| समर अब उसकी पट्टी कर चुका था|

“अब ठीक लग रहा है – मैं पैर का बैंडेज देखता हूँ|” समर के एक तरफ हटते ऋतु की नज़र दरवाज़े पर अभी भी खड़े अभ्युदय पर जाती है इससे वह उस पल अचकचा जाती है|

“आप – कब आए..?”

समर का ध्यान भी अपने पीछे की ओर जाता है|

“जस्ट नाओ|” अन्दर की ओर आते हुए वह कहता है – “बस आपको देखने आया था – वैसे कल से आप बेहतर लग रही है|”

अब समर और अभ्युदय की नज़रे आपस में मिलती है| दोनों आगे बढ़कर हाथ मिलाते है|

“डॉक्टर समर |”

“जी जी उस दिन प्रोग्राम के बाहर भी हम मिले थे – ऍम आई राइट !!”

समर स्वीकृति में अपने चेहरे पर अदनी सी मुस्कान लाता हुआ फिर ऋतु की ओर मुड़ता हुआ अब उसके पैर का बैंडेज खोलने लगता है|

अभ्युदय अभी भी वही खड़ा था| समर ऋतु के पैरो की ओर पूरी तरह से झुका हुआ बैंडेज दुबारा ठीक से बांध रहा था तो ऋतु अपने पैरो की ओर नज़रे झुकाए थी|

उस एक पल की ठहरी खामोशी जैसे तीनो दिलो पर कई मन पत्थरों का भार जैसी बीत रही थी|

“ऋतु जी अगले हफ्ते मैं वापस जा रहा हूँ|” वह अपना हर वाक्य कहकर ऋतु के चेहरे के भाव पढ़ने का प्रयास करता है – “मैं जाने से पहले बस एक बार मिलने आऊंगा – अभी चलता हूँ|”

समर औपचरिकता में फिर अपना हाथ आगे कर उसे विदा करता है| वह अपना आखिरी शब्द वही छोड़कर  वापस चला जाता है|

ऋतु देखती है कि समर अब टेबल पर पड़ी बेकार दवाई हटाकर अपनी पॉकेट से कोई दवाई  निकालकर उसकी तरफ दिखाते हुए कहता है – “बस ये सुबह शाम लेना और कोई दवाई लेने की जरुरत नहीं है – मैं चलता हूँ|”

“चलता हूँ नहीं – कहो आता हूँ..|”

समर उसकी आँखों की ओर एक बार फिर देखता है जहाँ प्रेम की पवित्र अग्नि लहक कर ज्वलित थी|

“हाँ आता हूँ..|” वह दवाई टेबल पर रख आगे बढ़कर उसकी हथेली पकड़ कर कहता है|

क्रमशः………..

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