Kahanikacarvan

हमनवां – 19

मानसी अखबार का वह हिस्सा पढ़कर जैसे अपनी सीट से उछल ही पड़ती है| शैली ने उसके नाम का भी कोई आर्टिकल क्राइम रिपोर्टिंग पेज में प्रकाशित कराया था| उसे सब किसी रोमांचक कहानी की तरह लग रहा था| वह ऑफिस में इरशाद की नज़र से बचा कर उसे कई बार पढ़ चुकी थी|

रोमांच से भरी हुई वह घर के लिए निकल ही रही थी कि किसी फोन कॉल से उसका मूड एक पल ही बदल गया| वह दनदनाती हुई घर में घुसते ही सीधे मानव के कमरे में आती है| मानव उस समय अपनी टेबल पर बैठा पढ़ रहा होता|

“मानव …!!”

उसकी आवाज़ पर सामने बैठा मानव एकदम से चौंक जाता है| बिन कुछ कहे वह बस मानसी की तरफ देखता रहता है|

“तुम इस समय घर पर क्यों हो – ये समय  तुम्हारे कोचिंग जाने का है न – बोलो..?”

“आज नही गया|” धीरे से कहकर फिर अपना सर किताबों की ओर झुका लेता है|

“आज या कई दिनों से…!!”

मानसी के शब्द होंठो पर आकर और सख्त हो गए जिसे देखते मानव का चेहरा पीला पड़ गया|

“तुम क्या समझते हो कि तुम जो भी करोगे मुझे पता नही चलेगा – तुम आज क्या बल्कि कई दिनों से अपनी कोचिंग नहीं गए हो|”

“आपको किसने कहा..?” ढिठाई उसकी चेहरे पर उतर आई|

ये सुन मानसी का चेहरा गुस्से से और तन जाता है|

“अच्छा अब हाल ये है कि तुम अपनी गलती मानोगे भी नहीं तो सुनो तुम्हारी कोचिंग से फोन आया था अब और भी कोई सबूत चाहिए तुम्हें…..!”

मानव के चेहरे का रंग बदल जाता है|

“अब मुझे बताओ कि तुम कोचिंग क्यों नही गए..|”

मानसी दो पल तक उसके जवाब के लिए रूकती है लेकिन देर तक की मानव की चुप्पी उसमें और उतेजना भर देती है| वह थोड़ा और तेजी से चीखती है –

“बताओ मुझे कि क्यों नही गए तुम….?”

“नहीं जाना मुझे कोचिंग..|” वह एक दम से खड़ा हो गया – “बस आपको तो चिल्लाना आता है कभी नहीं समझती मेरी बात -|”

मानसी हतप्रभ मानव को जाता हुआ देखती और उसके आखिरी कहे शब्द से और उलझती गई|

“आप सुन लो अच्छे से अब मुझे कोई कोचिंग वोचिंग नही जाना..|”

***

नज़मा आपा सामने बैठी सबीहा खाला की बात सुनकर थोड़ा सुकून महसूस करती है कि इरशाद को लेकर वाकई उनके मन में कोई तल्खी नही है, इस सुकून के अहसास से वह अपनी बात आगे बढ़ाती हुई इशारों इशारों में अपनी मंशा उनके सामने रखती है|

“देखो नज़मा तुम तो अच्छे से जानती हो कि तुमसे हमेशा ही मेरा दिल का रिश्ता रहा है – तुम्हारी किसी बात से भी मुझे कोई खलिश नही लेकिन अब वो जमाना न रहा कि बच्चों को जो उनके वालिद कह देंगे बच्चें सर झुका का मान लेंगे अब नाज़िया ने भी देखो अपनी पसंद के लड़के से शादी की लड़का खानदानी था सो हमने भी मंजूरी दे दी इसलिए इरशाद की नामंजूरी का भी हमे कोई बुरा नही लगा आखिर अहमद और हमारे बीच बात हुई थी फिर काहे का बुरा लगना और रही बात नूर की तो उस पर भी हम कोई जोर अजमाइश नही करते – बाहर पढ़ने को बोला तो भेज दिया अब क्या कहे..|” एक साँस में भी वह कहती गई और उनकी बात सुन नजमा आपा को भी कुछ कहते न बना|

“देखो नजमा हम तो खुद को खुशनसीब ही समझेंगे अगर हमारे खानदान रिश्तों में जुड़ जाए आखिर  नूर और नाज़िया में उम्र का कोई खास फर्क भी कहाँ है पर नूर के स्वभाव को देखते मुझे नहीं लगता कि हम उससे कोई इसरार भी कर पाएँगे|”

“वो तो एकदम सही कहा आपने अब आजकल बच्चों की अपनी ख्वाहिशें और अपनी जिद्दे है|”

दोनों के चेहरे पर कुछ मायूसी सी तारी हो जाती है|

फिर कुछ सोच नजमा आपा कहती है – “नूर है कहाँ – क्या घर में है? क्या मैं मिल सकती हूँ उससे..?”

“क्या कहती हो नज़मा रिश्ते जुड़े न जुड़े पर रिश्तों में हक़ तो सदा रहेगा – नूर तो हमेशा ही तुम्हारी बहुत इज्ज़त करती है|”

मायूस चेहरे थोड़े खिल उठे तो नजमा उठकर नूर के कमरे की तरफ चल दी|

***

कमरे के एक कोने में रजनीगंधा के फूलों से गुलज़ार फूलदान भी जैसे उससे महक उठा था, वहीँ खुली खिड़की से बहारों की हौले हौले आती हवा से खिड़की के गुलाबी सफ़ेद झीनी पर्दों की कतार जैसे मदहोशी में झूम रहे थे, इन्ही के बीच पलंग के बीचों बीच औंधे लेती नूर लैपटॉप पर झुकी हौले हौले मुस्करा रही थी, कभी कभी कुछ ज्यादा ही मुस्कराती तो वह एक करवट लोट जाती और उसकी खुली झुल्फें लैपटॉप की स्क्रीन पर काली घटाओं सी घिर जाती|

एक दस्तख से उसका ध्यान अब दरवाजे की ओर जाता है और अगले ही पल दरवाज़े की देहरी के पार से नजमा उसके कमरे में प्रवेश करती दिखती है|

“अरे आइए आइए अप्पी |’ कहकर जल्दी से लैपटॉप का स्क्रीन बंद करती वह उठकर बैठ जाती है|

“लगता है तुम अपने काम में व्यस्त थी मैंने परेशान कर दिया क्या..?” वे दरवाज़े पर ही रुकी रहती है|

“कैसी बात कहती है आप बल्कि अभी कुछ देर पहले अचानक मुझे आपका ही ख्याल आया था और देखिए आप आ गई – आइए न आप|”

उसका इसरार उन्हें अन्दर आने और नूर के पास बैठने को मजबूर कर देता है|

“जब से लौट के आई तुमसे हाल लेने की फुर्सत ही नहीं निकाल पाई – उस दिन घर भी आई तो मेहमानों में ही व्यस्त रह गई मैं  – आज सोचा कि आराम से मिलकर तुमसे थोड़ी गुफ्तगू की जाए|”

“हाँ अच्छा किया आपने – मुझे भी बड़ा मज़ा आता है आपसे बात करके|” बढ़कर उनका हाथ थामती नूर के चेहरे पर अपार ख़ुशी छा जाती है|

“अरे आप आराम से बैठिए न – |”

नूर की बातों से नज़मा को सच में बड़ा हौसला हुआ था|

“उसदिन अप्पी आपकी ओढ़नी क्या कमाल की थी|”

“कौन सी..? अपनी बात की रौ में खोई नज़मा एक पल को नूर की बात बिल्कुल भी नहीं समझ पाई|

“अरे वही तो नाज़िया अप्पी को आपने अपनी ओर से ओढ़ाई थी – कसम से ऐसी ओढ़नी देख मेरा मन भी मचल उठा|” नूर के चेहरा सच में बच्चों सा खिल उठा|

“अच्छा वो ओढ़नी – वो तो दुबई से अहमद जी लाए थे पिछले साल तब ये सोच रख दी कि ऐसी ओढ़नी अब मुझमे क्या जंचेगी – तुम्हें सच में बहुत अच्छी लगी थी..?”

ये सुन नूर के चेहरे का नूर दुगुना हो गया|

“मौका तो दो इरशाद के नाम की ऐसी ओढ़नी मंगाउंगी कि सब देखते रह जाएँगे|” नज़मा को अपनी बात कहने का यही सुअवसर लगा|

वह देखती है कि अचानक से नूर के चेहरे पर की हँसी गायब हो जाती है|

अब वह इधर उधर देखने लगती है| ये देख नज़मा उसके और नजदीक सरकती हुई धीरे से कहना शुरू करती है – “आज ये सिर्फ मेरी मंशा नही बल्कि इरशाद की भी है|”

नूर एक दम से उनके चेहरे की ओर देखने लगती है|

“मुझे नहीं पता कि तुम लोगों में क्या बात हुई लेकिन उसके दिल में तुमको लेकर कुछ नर्म ख्यालात है ये जानकार ही मैं तो जैसे जन्नत पा ली फिर भी तुम फ़िक्र न करो इस बात को लेकर मैं तुमसे कोई भी इसरार न करुँगी – तुम्हारी मंजूरी मेरे लिए सबसे अहम् है|”

नूर अब सर नीचा किए अपने नाख़ून से चादर की किनारी कुरेदने लगती है|

“नूर मुझे अहसास है कि जमाना बहुत बदल गया है और इसीलिए मैं तुम्हारी मंजूरी को सबसे जयादा तबज्जो दे रही हूँ – देखो शादी तो होनी ही है और मनमाफ़िक कोई मिल जाए तो लम्बी जिंदगी अच्छे से कट जाती है – अब अगर तुम्हारी शादी किसी ऐसे से हो जाए जो तुम्हारी तरह तुम्हारी भावनाओं का भी उतना ही ख्याल करे तो सोचो क्या उम्दा हो जाएगी ये जिंदगी – इरशाद भी नए ज़माने की सोच रखता है मैं बस ये चाहती हूँ कि एक बार तुम लोग मुलाकात कर लो अगर सच में दिल मिल जाते है तो इंशाअल्लाह|” अपने आखिरी वाक्य पर वे जोर देती हुई नूर की तरफ देखती रही|

***

जय आराम से बिस्तर पर लेटा अपने पैर बेड के पैताने पर टिकाए फोन पर मानसी से बात कर रहा था|

“आज क्या हुआ मेरी जानेमन को मैं इंतजार ही करता रहा आई ही नही |”

मानसी फोन कान से लगाए बेड पर औंधे लेती तकिया पर गर्दन टिकाए रही पर कुछ बोली नहीं|

“क्या हुआ – कुछ बोलो तो किसने मेरी जान को तंग किया बताओ आज ही उससे पटकनी लगवाता हूँ|’

ये सुन एकदम से मानसी रूठी हुई धीरे से कहती है – “चुप रहो मुझे बस बात नही करनी अभी |”

“अरे हुआ क्या…|” बात गंभीर लगने पर जय उठकर बैठ जाता है – “बोलो न यार हुआ क्या है??”

“ये मानव भी है न मुझसे ऐसे बात करता है जैसे मैं कुछ समझती ही नहीं – वही एक बड़ा समझदार हो गया है|”

“धत तेरी की मुझे लगा जाने क्या हो गया – अपने छोटे भाई से भी कोई लड़ता है क्या – वो तो बच्चा है अभी|”

“बच्चा !! पता भी है तुम्हें – अपनी मर्जी से उसमे कोचिंग छोड़ दी और मैंने कारण पूछा तो उल्टा मुझपर ही बरस पड़ा कि मैं ही कुछ नहीं समझती|” मानसी का हर लफ़्ज शिकायत से लबरेज़ था|

“ओहो बढ़ता हुआ बच्चा है – अब क्या बताए तुम्हें हर बात – चला जाएगा कुछ दिन बाद|”

“नहीं – यही तो रोना है कि कह रहा है कि अब कभी उस कोचिंग में नहीं जाऊंगा|” मानसी जय की बात बीच में ही काटती हुई जल्दी से बोली|

“अच्छा ऐसा है क्या तो फिर मैं देखूँ जाकर क्या उसकी कोचिंग में – कही वही तो कोई उसे परेशान नहीं कर रहा?” जय की भौं तन गई थी|

“क्या पता – मुझसे तो कुछ बोला भी नहीं जैसे मैं कुछ समझ ही नहीं पाऊँगी|”

“यार बड़ा हो रहा है हो सकता है तुमसे न कहने वाली बात हो – तुम बोलो तो मैं करूँ उससे बात?’

“नहीं – नहीं |” मानसी एक दम से चिहुँक पड़ी – “तुम मत करो बात वैसे भी मुझे उसके कोचिंग जाने से ज्यादा उसकी पढ़ाई की ज्यादा चिंता है – अगर ये कोचिंग छोड़ दी तो इस समय सेशन के बीच में कौनसी कोचिंग उसे लेगी|”

“हम्म|’’

“चलो छोड़ो जय ..|”

“अरे रुको –|” जय लगभग उछलते हुए कहता है – “यार ये मोहित भी उसे पढ़ा सकता है – अपने कॉलेज से तीन बजे तो आ ही जाता है फिर तो वह फ्री ही होता है|”

“अरे हाँ – |” मानसी भी ये सुन खुश हो जाती है – “मोहित पहले कोचिंग में पढ़ाता था न|”

“और क्या |”

“वाह मेरा तो हेडऐक ही कम हो गया|”

“अपनी जानेमन के लिए हम कुछ भी कर सकते है – हुक्म तो करो..|” जय सीने पर हाथ मलता फिर बिस्तर पर पसर जाता है|

दूसरी तरफ से मानसी की हँसी की आवाज़ खिलखिला पड़ती है|

***

सुबह हॉस्पिटल निकलने से पहले अब समर के कदम खुद ब खुद ऋतु के घर की तरफ मुड़ जाते थे| अब ऋतु के माथे  पर बस अदने से निशान के अलावा कुछ नहीं था आज तो वह पकड़ पकड कर अपने काम के लिए खुद उठी भी थी लेकिन उसकी निगाहों को तो बस किसी की आमद का इंतजार था और अपने ठीक हो जाने से कुछ खलिश थी कि अब समर से मिलना उतना आसान नही रह जाएगा|

समर को फिर से घर पर देख बुआ जी का मन जैसे जल उठा पर ऋतु की ओर देख कुछ कह न सकी बस मन मसोजे वर्षा को वही बैठने को कहकर चली गई| वर्षा ऋतु का हाथ पकड़े उसे चलने में सहायता कर रही थी| चलते चलते ऋतु समर को आता देख जैसे अपने क़दमों की तेजी पर नियंत्रण नहीं रख पाती और अगले ही पल वह लडखडा जाती है जिसपर समर बढ़कर उसको थाम लेता है| वही से गुजरती बुआ जी ये देख एकदम से तमतमा जाती है|

“थोड़ा देखकर चल ऋतु ऐसी भी क्या हड़बड़ी है|” वर्षा जल्दी से आगे आती है इसपर समर ऋतु पर से अपनी पकड़ थोड़ी ढीली कर देता है|

बुआ जी के लिए अब वहां रुकना भारी हो गया तो वे जल्दी से पूजा की थाली लेकर मंदिर की तरफ बढ़ गई| वर्षा ऋतु को सहारा देकर उसे बैठाती हुई कहती है – “वाह दीदी अब तो लगता है दो दिन में आप भागने लगोगी|” अपनी ही बात पर वह खिलखिला पड़ती है|

ऋतु नज़र बचा कर समर के चेहरे की मुस्कान को निहारती रहती है पर मन में कहीं बुआ जी की बातों की उदासी भी उसके मन को हुलका रही थी|

क्रमशः………..

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