Kahanikacarvan

हमनवां – 20

“हाँ हाँ आज ही जो खरीदारी करनी है कर लो..|’ बात करते करते कार से उतरते पवन की नज़र स्टैंड पर स्कूटी खड़ी करती मानसी पर जाते वह इशारों में उसे अपनी तरफ बुलाता है|

“हाँ लो मानसी से खुद ही बात कर लो|” पास आने पर पवन अपना मोबाईल मानसी की तरफ बढ़ाते हुए कहता है|

“हाय..|” मानसी चहक उठी|

“ओह्हो गोवा…जा न और यहाँ की ज्यादा फ़िक्र मत कर – तुमसे पहले वो लन्दन में जब अकेली रहती थी तो यहाँ की क्या फ़िक्र करना – यहाँ मैं हूँ न – रोज की उसकी खबर लेकर तुम तक पहुँचाती रहूंगी – हाँ हाँ ओके|”

“ये ठीक किया – नहीं तो यहाँ बैठे बैठे फालतू ही सोचती रहती है|” मोबाईल वापस करती हुई मानसी कहती है|

“हाँ – लेकिन जब तक गोवा न पहुँच जाऊं मुझे भावना पर विश्वास नही – बहुत उदास होती जा रही है घर बैठे बैठे|”

“ऐसे कैसे पकड़कर लेजाना – और हाँ कल ही तो जाना है फिर आज यहाँ क्या कर रहे हो तैयारी नही करनी!!”

“वही तो आज कार की सर्वसिंग भी करानी थी|” पवन होंठ सिकोड़ता हुआ कहता है|

“तो जाओ न – मैं यहाँ का सब देख लूँगी |”

“सच्ची जाऊं फिर..!!” पवन हलके से मुस्कराते हुए पूछता है|

“हाँ हाँ जाओ|”

मानसी की बात सुन पवन को जैसे मनमाफिक मुराद मिल गई और तुरंत ही वहाँ से निकल गया|

***

केबिन में आते मानसी की नज़र इरशाद पर जम सी जाती है, कंप्यूटर के सामने अपने ही ख्यालों में गुम हुआ वह बैठा था| उसकी हालत देख मानसी का मन हुआ कि अचानक से जाकर उसके एक धौल जमा दे| ये सोच वह इरशाद के पीछे आई थी कि एक आवाज़ सुनाई पड़ी –

“मज़ाक जिन्दा इंसानों से करते है मुर्दा जिस्मों में ख़ाक रवानगी हुआ करती है|”

मानसी जल्दी से इरशाद के चेहरे की तरफ झांकती हुई देखती है|

“मुझे मत देखो दुनियावालोँ – मेरा आखिरी सलाम लेलो|”

मानसी देखती है कि इरशाद किसी मूर्ति की तरह बैठा उदास कहे जा रहा था, वह घबरा कर उसे हिलाती हुई पुकारती है – “इरशाद…….!!”

“हाँ……!!” अब वह मानसी को ऐसे देखता है मानों बरसों बाद देखा हो फिर जल्दी से उसका हाथ पकड़कर बच्चों की तरह बिलख पड़ा – “बचा लो मानसी – क़यामत का दिन आ गया|”

“हुआ क्या है – ये तो बताओ|” उस पल मानसी भी परेशान हो उठी|

इरशाद अपना हाथ हवा में फैलाता हुआ जैसे अपने लिए आखिरी दुआ मांग रहा हो|

“अब तुमने जल्दी नही बोला तो मैं तुम्हारी जान ले लूँगी..??” मानसी का पारा चढ़ने लगा था|

इरशाद एकदम से उसकी तरफ मुड़ता हुआ फिर उसका हाथ पकड़ लेता है – “अगर मेरी जान निकल जाए तो दोस्त मेरा जनाजा धूम से निकलना चाहिए..|”

एक दम से अपना हाथ छुड़ा कर टेबल का पेपर वेट उठाकर उसकी तरफ निशाना बनाती हुई मानसी चीखी – “तुम्हारी मुराद अभी पूरी कर देती हूँ….|”

“अ अरे  अरे..|”बचता हुआ इरशाद सर के ऊपर अपना हाथ रख लेता है – “बताता हूँ बताता हूँ..|”

अब मानसी उसको घूरकर देखती हुई उसके ठीक सामने बैठ जाती है|

“नूर मुझसे मिलना चाहती है|”

“क्या??”

“और नाज़ भी ..|” कहकर इरशाद अपना सर दोनों हाथों से थाम लेता है|

पर इसके विपरीत मानसी ख़ुशी में लगभग उछल पड़ती है –

“वाह ये तो ख़ुशी की बात है और तब से फालतू में उल्लू बना रहा है|”

“उल्लू तो मैं बन जाऊंगा – मैं दोनों से कैसे मिलूँगा..??” इरशाद बेबसी में उसकी तरफ देखता है|

“तो दोनों एक ही समय मिलेंगी क्या तुमसे..??”

“दिन एक ही मुकर्रर हुआ है इसी सन्डे..|” इरशाद का मुँह फिर उदासी से लटक गया|

“हम्म्म ..!!!!”

“क्या……. कुछ सोचो न यार – मुझे इश्क विश्क का कोई अनुभव नही है इसमें तो तुम मेरी सीनियर हो न – कुछ तो बताओ|” इरशाद खुशामत करने में उतर आता है|

“तो तुमसे दो दो जगह दिल लगाने को किसने कहा – बोलो |”

“मैंने क्या किया – मैंने तो किसी को ऐसा कुछ बोला भी नहीं – नाज़ से बस मिल कर सूरत दिखाने को कहा और नूर से मुलाकात अप्पी ने तय की – मैं क्या करूँ..?” इरशाद किसी भोले बच्चे सा अपना मुँह बना लेता है|

“ज्यादा भोले बनने की जरुरत नहीं है – एक ही दिन क्यों मिलना चाहती है तुमने दोनों…!!!”

“असल में कई दिन से नाज़ से मैं इस सन्डे मिलने को कह रहा था और कल रात में ही उसकी मंजूरी आई और नूर के लिए अप्पी का सुबह फोन आया – मैं क्या करूँ मानसी – कुछ तो बताओ..देखो कसम है दोस्ती की तुम्हें – मेरा उधार बनता है तुमपर – जय से मैंने ही तुम्हारी मुलाकात कराई थी|”

“जी हाँ क्यों नहीं याद होगी – गद्दार दोस्त हो – रहते मेरे संग हो और साथ जय का देते हो|”

“अरे बस साथ रहते है तो -|”

“हाँ इसीलिए मेरा पर्स चुरा कर उसके सुपूर्त कर दिया ताकि वीरो के वीर जय त्रिपाठी एक बेचारी का खोया पर्स ढूंढ कर लाए और चट से फ्री फंड में हीरो बन जाए|” कहती हुई इरशाद के सर पर टीप मारती है|

“कुछ भी हो पर मेरी वज़ह से मिली न तुम जय से तो हुआ न उधार तुमपर मेरा..|”

‘हाँ हाँ तुम्हारा कभी न खत्म होने वाला उधार ही तो चुका रही हूँ तबसे – मोबाईल देकर कभी, कभी पैट्रॉल देकर अब और क्या करूँ आपके लिए महाशय..??”

“अरे बस ये मुलाकात फिट करा दो – मैं जीवन भर का तुम्हारा गुलाम बन जाऊंगा..|”

इस एक पल इरशाद के चेहरे की बेचारगी पर मानसी की हँसी फूट पड़ी|

***

किस बात का असर था ये तो जुड़ते दिलों को ही पता था पर ऋतु अब पूरी तरह से ठीक हो गई थी| आज छत पर खुद चढ़कर वह आई थी और वहां से ऊपर के खुले आसमान को ताकता उसका मन मयूर सा नाच उठा था| जाती हुई सुबह और दोपहर के बीच का आसमान आज कुछ ज्यादा ही नीला लगा  उसे, निश्चल और असीम…इतने समय बाद दिखा खुला आकाश उसके मन को अति उत्साह से भर रहा था, वह छत के उस कोने में खड़ी हो जाती है जहाँ से नीचे की सड़क पूरी तरह से साफ़ दिखाई दे रही थी…आज लोगों के आते जाते कदम उसे बड़े भले लग रहे थे कि किसी कार का रुकना भी उसकी नज़र से बच न सका| वह कार को देखकर ही पहचान गई, शायद अभ्युदय आए है..??

मन खुद से प्रश्न उत्तर कर खामोश हो गया कि वर्षा की आवाज़ उसे सुनाई पड़ी| अपने लिए पुकार सुनकर वह उस कोने से हट कर विपरीत दिशा की तरफ खड़ी हो जाती है| मन का विस्तार संकोच में बदल गया, मन का हुलास अन्तर्द्वन्द में तब्दील हो गया| वह साँस रोके फिर खुले आकाश की ओर अपनी आस भरी दृष्टि से देखने लगी कि कोई हाथ उसे अपने कंधे पर महसूस हुआ, वह चौंक गई…

“अरे दी मैं हूँ – कब से आपको आवाज़ दे रही थी – चलिए बुआ जी नीचे बुला रही है|”

ऋतु के चेहरे की उदासी ये सुन और गहरा गई आखिर थक हार कर किसी मुज़रिम की तरह सर झुकाए भारी क़दमों से नीचे जाती हुई सीढियों की ओर चल दी|

“क्या हुआ दी कही दर्द हो रहा है..|” उदासी भांपती हुई वर्षा बोली पर ऋतु न में सर हिला कर चुपचाप नीचे उतरती गई|

***

अन्दर के कमरे तक आते हुए भी ऋतु कोई आवाज़ की आहट नहीं मिली, वह धीरे धीरे चलती अन्दर तक आती है, जहाँ बैठक में बुआ जी सर पर हाथ धरे मूढ़े पर बैठी थी|

अन्दर आती वर्षा इधर उधर देखती ऋतु से तेज़ चलकर आगे आती हुई बुआ जी के पास आकर पूछती है – “क्या चले गए…??” वह हैरत से अभी भी इधर उधर देख रही थी|

ऋतु सपाट भाव से बुआ जी से कुछ दूर बैठ जाती है|

कमरे की ख़ामोशी वर्षा को अतिरेक कर देती है जिससे परेशान हो कर वह बुआ जी को पुकार बैठती है – “बुआ जी..|”

बुआ जी उसकी पुकार पर अब सर उठाकर एक पल वर्षा की ओर फिर ऋतु की तरफ देखती हुई कहती है – “अभ्युदय कल जा रहा है वापस – आज मिलने आया था|”

ऋतु उनकी नज़रों से विपरीत दिशा की तरफ देखती रहती है|

“तुझे कितना आवाज़ दिया पर मोड़ी तू सुनी ही नहीं – वह चला गया और ये चिट्ठी दे गया|”

अब ऋतु हैरान सी बुआ जी ओर देखती है और मन ही मन खुद से प्रश्न कर उठती है कि मुझे किस बात की चिट्ठी…न हमारे बीच कोई अधिकार…न बात…बस एक अदद पहचान ही तो थी..!!

“ले पकड़ ले – पढ़ तो ले..|” बुआ जी ऋतु की ओर से कोई प्रतिक्रिया न देख खुद ही उठकर चिट्ठी उसके  सामने रखकर कमरे से बाहर निकलती हुई वर्षा को भी अपने साथ ले जाती है|

कमरे का नितांत एकांत का स्वर और धौकनी सी चलती धड़कने ऋतु के मन में उस पल बेचैनी सी भर देती है| उसे अपने सामने पड़ी चिट्ठी किसी मगरमच्छ के खुले मुँह के समान लग रही थी मानों हाथ बढ़ाते उसका हाथ किसी काल के जबड़े में कस लिया जाएगा और दर्द से वह चीत्कार उठेगी लेकिन फिर भी उसे उस चिट्ठी को उठाना ही था, उस पल का ये प्रश्न भी उसके मन को मथे जा रहा था कि आखिर अभ्युदय उससे ऐसा क्या कहना चाहते थे जो सामने न कहकर उन्हें शब्दों का सहारा लेना पड़ा, वह उदास मन से आखिर चिट्ठी उठा लेती है और खोलकर तेज़ होती धडकनों से पढ़ने लगती है|

‘आपको पुकारने का कोई संबोधन तक नहीं मेरे पास बस ऋतु ही कह पा रहा हूँ,

ऋतु, मुझे पता है आप बड़ी पशोपेश में होंगी कि आखिर मैं चिट्ठी से कहना क्या चाहता हूँ, वाकई जो मैं आज आपसे कह रहा हूँ वो मैं कभी आपके सामने नहीं कह पाता, पिता जी की मुझे अपने पास रोकने की कोशिश में कब आपसे मेरा रिश्ता उन्होंने सोच लिया ये मैं खुद आपसे मिलने के बाद ही जान पाया, सच कहूँ तो आप सा कोई जिसके भी जीवन में आ जाए उसकी इससे बड़ी खुशनसीबी और क्या  होगी…..|’

पढ़ते पढ़ते अचानक ऋतु चिट्ठी किनारे फेक कर अपना चेहरा ढांप लेती है, मानों कबूतर बिल्ली को देख ऑंखें बंद कर खुद को सुरक्षित महसूस कर ले रहा हो….लेकिन किनारे पड़ी चिट्ठी उसे चैन से बैठने नहीं देती वह हार कर फिर चिट्ठी उठा लेती है और अपनी छोड़ी हुई पंक्ति से फिर पढ़ने लगती है…

‘…और अफ़सोस वह खुशनसीब मैं तो बिल्कुल भी नही…कोई दो प्रेम करने वाले मिल जाए ये इस जहाँ में कितनी बार सम्भव होता है….कम से कम मैं तो उनके बीच का रोड़ा नही बनना चाहता…लेकिन कुछ ऐसा था जो मैं आपसे कहना चाहता था कि आपसे हुई इन दो चार मुलाकातों में मैंने अनजाने ही आपसे बहुत कुछ सीखा, इस भागती दौड़ती दुनिया में सरीक होते सच में मेरे लिए खुशियों की परिभाषा ही बदल गई थी पर मैंने आपसे छोटी छोटी खुशियों को जीना सीखा, प्रेम करना सीखा….प्रेम इन्सान में बहुत कुछ बदल देता है…उसका वजूद होने का अर्थ दे देता है…इसी आनंद और ख़ुशी को समेटे मैं वापस जा रहा हूँ…..खाली हाथ नहीं बल्कि अपने दिल में आप जैसा कोई पाने की चाह लिए…..एक अजनबी सा याद रखना…अभ्युदय..|’

ऋतु के हाथ कांप गए, चिट्ठी जमीन पर गिर पड़ी…वह निशब्द अपनी धड़कनों को सुनती रही…|

क्रमशः……….

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